दिलचस्प है कि अपनी जाति छुपाकर जीने की विवशता या फिर सार्वजनिक होने पर सहमे भाव से जीने की आदत को इसी आजाद भारतीय समाज में जीवन जीने का एक तरीका मान लिया गया, अपनी जाति खुलेआम बताने और उस पर गर्व करने का का जो साहस सामाजिक आंदोलनों, सांवैधानिक प्रावधानों या स्कूल कॉलेज की सालों-साल के क्लासरुम लेक्चर न पैदा कर सकें,वो काम पंजाब में कुछ गानों की सीडी,टीशर्ट और नयी बनी इमारतें कर रही हैं। जिस जातिसूचक शब्दों के प्रयोग किए जाने से इस जाति से जुड़े लोगों के बीच कुंठा, आत्मग्लानि और विवशता का बोध होता आया है,आज उन्हीं शब्दों के इस्तेमाल से उनके भीतर ताकत,गर्व और हिम्मत का बोध होता है। वो चमारा दे की बीट पर थिरक रहे हैं,सरेआम आठ लाख की गाड़ी में बजा रहे हैं। वो इस "चमार" शब्द में अपनी पहचान की सबसे बड़ी वजह स्थापित करने में लगे हैं। हमें इन सारी बातों की जानकारी एनडीटीवी इंडिया पर प्रसारित रवीश की रिपोर्ट हौसले,उम्मीद और कामयाबी की उड़ान से मिलती है।
रवीश ने अपनी रिपोर्ट में जिन माध्यमों के जरिए दलितों की नयी पहचान बनने की बात की है,उन माध्यमों के विश्लेषण से दलित विमर्श के भीतर एक नए किस्म की बहस और विश्लेषण की पूरी-पूरी गुंजाइश बनती है। जिन माध्यमों को कूड़ा और अपसंस्कृति फैलानेवाला करार दिया जाता रहा है,वही किसी जाति के स्वाभिमान की तलाश में कितने मददगार साबित हो सकते हैं,इस पर गंभीरता से काम किया जाना अभी बाकी है। इलीटिसिज्म के प्रभाव में मशीन औऱ मनोरंजन के बीच पैदा होनेवाली संस्कृति पर पॉपुलर संस्कृति का लेबल चस्पाकर उसे भ्रष्ट करार देने की जो कोशिशें विमर्श और अकादमिक दुनिया में चल रही हैं,उसके पीछ कहीं साजिश ये तो नहीं कि अगर इनके भीतर की ताकतों का प्रसार अधिक से अधिक हुआ तो वर्चस्वकारी संस्कृति रुपों की सत्ता कमजोर पड़ जाएगी। रिपोर्ट देखने के बाद हमने महसूस किया किया कि अस्मिता को लेकर जो भी विमर्श चल रहे हैं उनके भीतर अगर उन चिन्हों की तलाश की जाए जिसके भीतर पहचान की नई कोशिशें छिपी है तो सामाजिक आंदोलनों और सैद्धांतिक आधारों को फ्लो देने में आसानी होगी। ये नए माध्यम उस अस्मिता को उभारने में मददगार साबित होगें।
पॉपुलर संस्कृति पर दर्जनों किताबें लिखी गयी हैं। साठ के दशक में JOHN STREY से लेकर हाल-हाल तक JOHN A WEAVER ने इसके भीतर कई तरह की संभावनाओं की तलाश की है। इसी क्रम में MC ROBBIE ने फैशन और ड्रेसिंग सेंस के जरिए कैसे अस्मिता की तलाश की जा सकती है,इस पर गंभीरता से काम किया है। पोशाक भी हमारे भीतर प्रतिरोध की ताकत पैदा कर सकते हैं,इसका विश्लेषण उनके यहां मौजूद हैं। STEVEN JOHNSON ने EVERYTHING BAD IS GOOD FOR YOU में ये विस्तार से तार्किक ढंग से समझाने की कोशिश की है कि How today's popular culture is actually making us smarter. लेकिन अपने यहां संस्कृति के इस रुप से पहचान,अस्मिता और प्रतिरोध के स्वर भी पैदा हो सकते हैं,इस पर बात अभी शुरु नहीं हुई है। अभी भी यहां संस्कृति के विश्लेषण में उद्दात्त का आंतक पसरा हुआ है। अभी भी संस्कृति रुपों में इलिटिसिज्म का साम्राज्य कायम है जिसके तार कहीं न कहीं सामंतवाद से जुड़ते हैं। बाकी जो कुछ भी लिखा-पढ़ा,गाया-बजाया,बनाया और खाया जाता है उसे लोक संस्कृति का हिस्सा मान लिया जाता है। ये भी एक नए किस्म की साजिश है। लेकिन रिपोर्ट देखने के बाद ये साफ हो जाता है कि सीडी,टीशर्ट और नई ईमारतों के जरिए इस दलित समाज के बीच जो संस्कृति पनप रही है उसे आप किसी भी हालत में लोक संस्कृति का हिस्सा नहीं मान सकते। ये वही माध्यम हैं जिसके जरिए दबंग जाति और संस्कृति ने एक बड़ी पूंजी और वर्चस्व पैदा किए और अब दलित उससे पहचान पैदा करने की कोशिश में जुटे हैं। इसलिए अब ये बहुत जरुरी है कि जिस पॉपुलर संस्कृति को लो कल्चर मानकर रिसर्च किए जा रहे हैं,उऩके भीतर से अस्मिता के जो स्वर लगातार फूट रहे हैं,उस पर भी काम हों,उऩ्हें लोक संस्कृति के साथ घालमेल करना सही नहीं होगा।
अच्छा मजेदार बात ये है कि पहचान की जहां भी लड़ाईयां लड़ी जा रही हैं,अस्मिता को लेकर जहां भी संघर्ष जारी हैं,वहां इन पॉपुलर संस्क़ति रुपों को हाथों-हाथ लिया जाता है। पंक कल्चर,मोटरसाइकिल राइड,जॉज ये जितनी भी विधाएं और सांस्कृतिक रुप हैं,उन सबके पीछे अपनी जाति,समुदाय,क्षेत्र और स्वरों को पहचान देने की कोशिशें हैं। आज जिस बेनटॉन,लिवाइस,स्पाइकर या फिर दूसरे बड़े ब्रांड को फैशन का हिस्सा मान-अपनाकर अपने को एलीट खेमे में रखते हैं उसकी शुरुआत के पीछे कहीं न कहीं इसी पहचान की कहानी छिपी है। आज ये ब्रांड हो गए लेकिन कभी ये आंदोलन के चिन्ह हुआ करते थे। ठीक उसी तरह जैसे लुधियाना में इन दिनों रविदासियों ने टीशर्ट पर स्लोगन और लोगो छपाकर पहनना शुरु कर दिया है। भारी-भरकम गाड़ियों में रविदासी,रैदासी समुदाय के होने के स्टीगर छिपकाने शुरु कर दिए हैं। रिपोर्ट बताती है कि ऐसा किया जाना किसी सामाजिक आंदोलन से कम नहीं है और फिर इसके पनपने के पीछे भी सामाजिक कारण ही रहे हैं।
मई 2009 में वियना के दलित संत रामानंद की हत्या कर दी गयी। इसके लिए इस समुदाय के लोगों ने पंजाब में दस दिनों तक बंद रखा। इस आंदोलन को ध्वस्त करने की कोशिशें की गयी लेकिन मामला नाकाम रहा। उसके एक साल बाद से ही जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए बाजार में बीसों सीडी आ गयी। अकेले राज ददराल की जो सीडी है उसमें दस ऐसे गाने हैं जिनमें कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग है। ये गाने दरअसल अपनी जाति को पहचान दिलाने और दबंग जातियों के प्रतिकार की कहानी कहते हैं। अब तक होता ये आया था कि जिस गाने पर खुद दलित समाज नाचता,थिरकता वो जाटों की मर्दांनगी का गान होता। यानी सामाजिक तौर पर उनका प्रतिरोध करते हुए भी मनोरंजन के स्तर पर उसके साथ चले जाते। अब ऐसा नहीं है। एसएस आजाद की इस पहल पर अब अपने उत्सव हैं तो अपने गाने भी हैं, अपनी धुनें भी हैं और चमार का बच्चा भी किसी से कम नहीं है, इस भाव को विस्तार मिलता है। इन्हीं धुनों के बीच से न केवल मनोरंजन की भाषा बदलती है बल्कि इनकी देह की भाषा भी बदलती है जो अब ये गाता है – गबरु पुत्त चमारा दे और कहता है – चमार के लड़कों से टकराना आसान नहीं।.
गंभीर विमर्श में धंसे-पड़े लोगों को ऐसा भले ही लगता रहे कि कहीं कोई सामाजिक आंदोलन नहीं हो रहा, बदलाव की कहीं कोई कोशिशें नहीं हो रही है लेकिन मनोरंजन, फैशन और जीवन-शैली को भी अगर बदलाव के चिन्ह मानकर चलें तो उन्हें न केवल हैरानी होगी, बल्कि बहुत कुछ लिखा-पढ़ा कूड़ा हो जाएगा और नये सिरे से मेहनत करनी पड़ जाएगी। एनडीटीवी की ये रिपोर्ट उन्हीं चिन्हों को तलाशती नजर आती है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277561906158#c6001523758387813587'> 26 जून 2010 को 7:48 pm बजे
अच्छी धारा निकल पड़ी है।
आपकी रिपोर्ट और विमर्श दोनो अच्छे हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277565162478#c1488516833478403964'> 26 जून 2010 को 8:42 pm बजे
एक नयी बात! इसकी सुगबुगाहट के बारे में अन्दाजा सा था लेकिन इतने साफ़ तरीके से पहली बार पढ़ा।
बेहतरीन लेखन।
वैसे कुछ शब्द (जैसे -इलिटिसिज्म )के बारे में अच्छी समझ ग्रहण करके दुबारा फ़िर इसको बांचने का विचार है फ़िलहाल।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277574067049#c1933974678831185332'> 26 जून 2010 को 11:11 pm बजे
pata nahi Bihari shabd ke saath ye baat kab shuru hogi is desh me?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277574159772#c1316234764363437015'> 26 जून 2010 को 11:12 pm बजे
Thanks for this post.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277576472006#c5742388166269242365'> 26 जून 2010 को 11:51 pm बजे
विनीत,
तुम्हारी रिपोर्ट पढकर एक नये हवा का झोंका सा महसूस होता है जो इस ब्लागजगत में बहुत जरूरी है।
शुभकामनायें
नीरज
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277605110202#c6948773906621826652'> 27 जून 2010 को 7:48 am बजे
अच्छी और उचित शुरुआत है ... जाति छुपाने से कुछ खत्म नहीं हो जाता ... वर्षों की कुंठा और ग्रंथिओं को काटने का उचित उपाय यही है
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277610824578#c6171587694136236239'> 27 जून 2010 को 9:23 am बजे
darnaa bhee nahi chaahiye
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277618907618#c5234637063048386435'> 27 जून 2010 को 11:38 am बजे
ये एक सकारात्मक पहल है, गर्व से अपनी अस्मिता की बात । सलाम!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277622060449#c827131055710929371'> 27 जून 2010 को 12:31 pm बजे
जय भीम
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277623144378#c6010047166652981774'> 27 जून 2010 को 12:49 pm बजे
क्या आप हमारीवाणी.कॉम के सदस्य हैं?
जल्द ही आ रही है ब्लॉग लेखकों के अपनी वाणी "हमारीवाणी":
http://hamarivani.com - हिंदी ब्लॉग लेखों का अपना एग्रिगेटर
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277644817833#c8333893076686802607'> 27 जून 2010 को 6:50 pm बजे
विनीत जी, आज की तारीख में जाति जितनी राजनीतिक हो चली है, उतनी सामाजिक नहीं रह गई है। जाति को लेकर कथित सर्वणों में जो खुले मैदान में दो दो हाथ करने का दंभ था, वह सिमटा है। और, जाति को ले कर फुसफुसाना भर जो कथित दलितों की आदत में था, वह भी सिमटा है। यह दोनों ओर आ रहे बदलाव हैं...
रवीश की रिपोर्ट आज की उस सचाई की बयान करती है जहां इस बात की परवाह ही नहीं की जाती कि साथ बैठ कर खा रहे कथित दलित की जाति जान कर कथित सवर्ण पर क्या बीतेगी। आपने एकदम सही कहा कि मनोरंजन, फैशन और जीवन-शैली को भी अगर बदलाव के चिन्ह मानकर चलें तो उन्हें न केवल हैरानी होगी, बल्कि बहुत कुछ लिखा-पढ़ा कूड़ा हो जाएगा और नये सिरे से मेहनत करनी पड़ जाएगी।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277655446449#c2317235853187313415'> 27 जून 2010 को 9:47 pm बजे
Since, I am working in Punjab I use to get these songs in mid way. these songs u can get on roads but not on respected FM's!!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277695494680#c4353159871223731463'> 28 जून 2010 को 8:54 am बजे
उम्दा पोस्ट.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html?showComment=1277785676052#c6306223222145824686'> 29 जून 2010 को 9:57 am बजे
jati jayda aham hai aadmi.koi ghayal sadak par pada hai aap uski jati puch kar madad karanga.aap jaisa logo na jati jati kar jatiwad ko badhava diya hai aap ka apna ambadakar ko education ka liya kaun la gaya tha.chandergupt ko raja kaun banaya ,Kabir ka guru kaun tha,Bina Engine Ka Gadi Nahi Chalti hai.PAHALA APNI BHASA DEVELOPE KARO AUR SHAAN SA KAHO YEH CHAMARO KI BHASA HAI HINDI BHASA HINDU KI ,URDU MUSALMANO KI,PUNJABI PUNJABIO KI,SARA KA SARA ELITE CHAMAR SAMAJ KIYA DALIT KA SAAT GAON MAIN EK SAATH BATH KAR EK THALI MAIN KHA SAKTA HAI-----