दिल्ली मेट्रो सिर्फ हिन्दुओं की बपौती है, मेरी इस पोस्ट पर दर्जनों ब्लॉगर और पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है। कुछ लोग तो पिल पड़ने के अंदाज में भला-बुरा कहा है। मेरे ये लिखने पर कि मैं इस बात का इंतजार ही करता रहा कि कोई चैनल दिल्ली मेट्रो की अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाने पर कुछ कहता,एक ने पूरी की पूरी पोस्ट ही लिख डाली है। हम सबकी जज्बातों का सम्मान करते हैं। लेकिन दिल्ली मेट्रो के इस रवैये से असहमति पहले की तरह बरकरार है बल्कि पिल पड़नेवाले अंदाज में लिखनेवाले लोगों को पढ़कर हमारी इस समझ को और मजबूती मिली है।
मेरी पूरी पोस्ट में नारियल फोड़ने और तिलक लगानेवाली बात को लेकर तो सबों ने रिस्पांड किया। उसे संस्कृति का हिस्सा बताया,उसे हिन्दु मान्यता के साथ नत्थी करने के बजाय देश की संस्कृति मानने की दलील दी,कुछ ने हमें समाज में दरार पैदा करनेवाला बताते हुए साझा संस्कृति की मिसाल दी। ये सारी बातें पढ़ने,सुनने और समाज के लोगों के बीच रखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन पावर डिस्कोर्स में ये सारी बातें एक गहरी साजिश का नतीजा है। फिलहाल हम उस बहस में बिल्कुल भी जाना नहीं चाहते। दरगाह में जाने या फिर मुसलमान होने पर भी अंडा नहीं छूने जैसी बातों का कितना तार्किक आधार है,ये एक अंतहीन बहस साबित होगी। यहां हम उस दूसरी बात को फिर से रखना चाह रहे हैं जिस पर कि किसी ने रिस्पांड नहीं किया। संभव हो इस बात की काट के लिए कोई मजबूत तर्क न जुटा पाए हों या फिर उसमें उलझने पर खुद ही फंसने का डर बन आया है।
ये सवाल फिर से यहां उठाना जरुरी है जो किसी रिचुअल्स या परंपरा का हिस्सा नहीं बल्कि उस नियम का हिस्सा है जिसे कि खुद दिल्ली मेट्रो ने बनाया है। ये नियम सब्जेक्टिविटी के सवाल से नहीं जुड़ते हैं बल्कि मामला बिल्कुल सीधा-सीधा है कि इसका हर हाल में पालन किया जाना चाहिए। दिल्ली मेट्रो के भीतर किसी भी तरह की चीज का खाना-पीना मना है। मैंने एक संवेदनशील नजारे को याद करते हुए बताने की कोशिश की-एक चार साल का बच्चा भी मेट्रो के अंदर जब खाने के लिए मचलता है तो उसकी मां उसे ऐसा करने से रोक देती है। वो हाथ में ट्रॉपिकाना का डिब्बा पकड़े-पकड़े राजीव चौक से विधान सभा तक आ जाता है। मुझे याद है 15 दिन पहले दो लड़कियां ऑफिस से छूटने पर रुमाल से ढंककर सैंडविच खा रही थी तो आसपास के लोगों ने कितने कंमेंट किए थे,फब्तियां कसी थी। लेकिन परसों की फुटेज देखकर मुझे हैरानी हुई कि मेट्रो के अधिकारी झकझक मेट्रो की ड्रेस पहने,तिलक लगाए बेशर्मी से टांग फैलाकर मेट्रो में खा रहे हैं। ये कुतुबमीनार से गुड़गांव के लिए शुरु हुई मेट्रो का पहला दिन और पहली ट्रिप थी।
अब एक तरफ तो आप हवन और तिलक इसलिए करते हो कि सबकुछ अच्छा-अच्छा हो,शुभ हो,मेट्रो का और अधिक विस्तार हो और दूसरी तरफ अपने ही बनाए नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हो। मुझे अब भी हैरानी हो रही है कि जिस मेट्रो के भीतर सिर्फ ट्रेन के अधिकारी और पत्रकारों को घुसने की इजाजत थी,एक भी पत्रकार,चैनल या अखबार ने इस नजारे पर गौर क्यों नहीं किया? ऐसा लिखकर मैं कोई तीर मारने का काम नहीं कर रहा। लेकिन उनका कवर नहीं किया जाना,उस पर बात नहीं करना,ये जरुर साबित करता है कि ये रोजमर्रा का हिस्सा है। हर मेट्रो की शुरुआत के पहले हवन होना है,प्रसाद बंटना है और उसे लेकर अधिकारियों का अंदर बैठना औऱ खाना है। इस तरह नियमों की धज्जियां उडाना भी जब एक अभ्यस्त आदत बन जाती है तो हमें इस बात का एहसास तक नहीं होता कि इसमें कुछ गलत है,कुछ गड़बड़ियां है। मेट्रो अधिकारियों का ये रवैया जिसे कि आप जबरदस्ती रिचुअल्स का हिस्सा बना दे रहे हैं,वो दरअसल अपने ही नियमों को ध्वस्त करने का मामला है,इस पर बात होनी चाहिए।
मैंने देश-विदेश की कई न्यूज एजेंसियों को खंगाला,लगभग सबों ने तिलक लगाकर,नारियल फोड़कर मेट्रो ट्रेन की शुरुआत को ओपनिंग शॉट के तौर पर इस्तेमाल किया है। देश के बाहर इस शॉट्स की क्या डीकोडिंग होती है,इसे समझने की जरुरत है। अधिकारियों के खाते हुए चैनल की फुटेज रॉ से फाइनल नहीं हो पायी है इसलिए माफी मांगते हुए इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता।.
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277284612611#c8314913168306751531'> 23 जून 2010 को 2:46 pm बजे
नियम यदि बनाया है तो बनाने वाला भी नहीं तोड़ सकता। तोड़ता है तो वह नियम चल नहीं सकता। या फिर नियम तोड़ने वालों को सजा होनी चाहिए।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277284742853#c1857093610066727048'> 23 जून 2010 को 2:49 pm बजे
आप ने बात को जिस तरीके से कहा उस से तिलक-प्रसाद ही हाईलाइट हुआ। यदि आप चाहते थे कि मेट्रो में खाने से नियम टूटने वाली बात हाईलाइट होती तो उस के लिए जो फॉर्म आपने चुनी वह गलत थी।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277285315382#c6117265934358015221'> 23 जून 2010 को 2:58 pm बजे
विनीत जी , आपकी दोनों पोस्ट्स पढ़ी। आपने एक संवेदनशील मुद्दे को हवा दे दी। शायद इसी लिए लोगों की भड़ास निकल कर टिप्पणियों में आ गई । मेरे विचार से पूरे प्रकरण में कोई गलत बात नज़र नहीं आ रही है । उद्घाटन विधिवत रूप से ही होना चाहिए । ज्यादातर सरकारी कार्यक्रम भी इसी तरह शुरू किये जाते हैं । क्या किसी कार्यक्रम में ज्योति प्रज्वलित नहीं की जाती ? किसी भी भवन की नीव रखने के लिए हवन नहीं किया जाता ? क्या प्रसाद धर्म देखकर दिया या लिया जाता है ?
गर्मी के मौसम में जगह जगह शरबत पिलाया जाता है । क्या उस समय पीने या पिलाने वाला धर्म के बारे में सोचता है ? नहीं मित्र । धर्म के नाम को ज़रुरत से ज्यादा इस्तेमाल करना सही नहीं । यदि ये अधिकारी इसके बाद कभी मेट्रो में खाते नज़र आयें तो निसंदेह भर्त्सनीय होगा ।
वैसे आपके साथ थोड़ी ज्यादती हो गई , टिप्पणियों का रुख देखकर यह लगता है । किसी को भी इतना तीखा नहीं होना चाहिए ।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277297583169#c1488392973503858038'> 23 जून 2010 को 6:23 pm बजे
विनीत जी, आपके पिछले पोस्ट का शीर्षक और सामग्री कह तो कुछ और रहा है, और लोगों यानि पाठकों से आशा कर रहे हैं कि जो मैंने नहीं लिखा, आप उसे समझो। अरे भाई "हिन्दूओं की बपौती" या "तिलक-नारियल" की रट्ट लगा रहे हैं, और यहां कह रहे हैं कि मेरा आशय दूसरा था !! भई धन्य हैं आप....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277311726368#c1596267774198510639'> 23 जून 2010 को 10:18 pm बजे
अरे तो आपको क्यों खुजली हो रही है कि मेट्रो वालों ने मेट्रो के अन्दर कुछ खा लिया। भई, उनका ऑफिस है, वे तो खायेंगे ही। क्या आप कभी अपने ऑफिस में कुछ नहीं खाते।
आज इस लाइन पर मेट्रो का पहला चक्कर था। इससे बडी खुशी की बात और क्या हो सकती है? खुशी के मौके पर खाना-पीना ना हो तो बात जमती नहीं है।
अरे, मेट्रो चले तो तुम्हे परेशानी, ना चले तो भी तुम्हे परेशानी। अरे आप चाहते क्या हो? अब तुम नारियल के मुद्दे पर औंधे मुंह गिर पडे हो, तो खाने की बात को उछाल रहे हो।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277316700551#c8548174389843742918'> 23 जून 2010 को 11:41 pm बजे
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277362280345#c2049146439108187737'> 24 जून 2010 को 12:21 pm बजे
@ PD (प्रशान्त) जी,
टिप्पणी की उपरोक्त पंक्ति के बिना भी आप अपनी बात को कह सकते थे...आपके द्वारा ऐसी असभ्य, अमर्यादित, दूसरों की भावनाओं, श्रद्धाओं का अपमान करने वाली ये पंक्ति बहुत व्यथाकारक है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_23.html?showComment=1277372486833#c2490298173805246773'> 24 जून 2010 को 3:11 pm बजे
विनीत, तुम अच्छे से जानते हो कि मैं कितना अधार्मिक टाइप का आदमी हूँ..
फिलहाल तुम्हारी कही ही एक बात को मैं कोट कर रहा हूँ फिर अपनी बात कहूँगा..
"ये सारी बातें पढ़ने,सुनने और समाज के लोगों के बीच रखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन पावर डिस्कोर्स में ये सारी बातें एक गहरी साजिश का नतीजा है"
मुझे नहीं पता कि असल में यह पावर डिस्कोर्स क्या होता है? हो सकता है कि मेरे पास तर्कों कि भी कमी हो क्योंकि मैंने कई जरूरी समाजवाद टाइप के विषय से सम्बंधित पुस्तकें नहीं पढ़ी हैं.. मगर जिस तरह से कई दफे कुछ ब्लॉग या साईट पर बहस होते देखता हूँ और जिस तरह से कई सामान्य बातों को साजिश बता दिया जाता है, मैं निर्विकार रूप से सोचता हूँ तो मुझे उन्ही तर्कों में कम्यूनिज्म कि साजिश की बू आने लगती है.. और वह बातें जो वे करते होते हैं वह बाते उन लोगों के लिए बेहद सामान्य होती है.. ठीक उतनी ही आम जितनी की धर्म और संस्कृति के नाम पर किये गए काम आम जनो के लिए होती है(यहाँ मैं किसी एक धर्म को कोट नहीं कर रहा हूँ, बल्कि सभी को घेरे में ले रहा हूँ).. ऐसे ही देखता हूँ तो हर वह बात बुरी लगने लगती है और उनमे भी साजिश ही दिखने लगती है जो बेहद सामान्य है.. माता-पिता के प्यार तक में से आप उन आधारों पर साजिश ढूंढ सकते हैं, उनके स्वार्थ भी निकाल सकते हैं.. मगर आप और हम जानते हैं की ऐसा बिलकुल नहीं है..
रही बात नियम मानने ना मानने की तो मैं आपसे इस बात पर पूरी तरह सहमत हूँ की जिन लोगों ने उन नियमों को बनाया है, पहले वे तो आदर्शों को स्थापित करें..
@ नीरज भाई - आपने लिखा, "खुशी के मौके पर खाना-पीना ना हो तो बात जमती नहीं है।" यहाँ बात जमाने के लिए नहीं है.. यह कोई दिल्ली मेट्रो वालों का घर नहीं और यह गृह प्रवेश की पार्टी नहीं जहाँ खाए-पिए बिना काम ही ना चले.. यह हम जैसे ही टैक्स पेयर के पैसे से बनाया गया मेट्रो है, एक सार्वजानिक संपत्ति.. मेरी समझ से इस मेट्रो के चलने से विनीत को कोई परेशानी तो नहीं ही हो रही होगी.. मुझे पता है की आप मेट्रो में काम करते हैं और उससे भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं इसलिए भावावेश में इस तरह के कमेन्ट लिख गए हैं..
मैंने अपने पहले वाले कमेन्ट में से एक लाइन हटा भर लिया है.. मित्रों को इससे ठेस लग रही थी..