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फिल्मी पंडित( फिल्म क्रिटिक) या तो बॉक्स ऑफिस के हिसाब से फिल्मों की समीक्षा करते हैं या फिर इस हिसाब से कि फलां फिल्म पर ऑडिएंस रिएक्शन क्या होगा। नतीजा ये होता है कि पहले जिस फिल्म को बेकार कहा, बॉक्स ऑफिस के हिसाब से पिट जाने वाला बताया, वो फिल्म जब चल गयी तो अपनी बात बदल दी। रब ने बना दी जोड़ी के बेकार कहा और जब फिल्म चल गयी तो ऑडिएंस की समझ पर ही सवाल उठा दिए। फिल्मी पंडित फिलम की समीक्षा नहीं करते। फिल्म रीलिज होने के पहले हमसे दुनिया भर के सवाल पूछते हैं। वो सारे सवाल फिल्मों को बिना देखे करते हैं, उनमें एक तरह के एजेम्पशन होते हैं, पहले से बनी-बनायी धारणा होती है और उसी को सवाल के तौर पर रख देते हैं।( बीबीसी एक मुलाकात में संजीव श्रीवास्तव के साथ अनुराग कश्यप की बातचीत, रेडियो वन, १५ फरवरी २००९, १२.४८ बजे)।
संजीव श्रीवास्तव के इस सवाल पर कि आप फिल्म क्रिटिक को किस रुप में लेते हैं, अनुराग कश्यप ने साफ कहा- ये अच्छी बात है कि फिल्म क्रिटिक होनी चाहिए। लेकिन फिल्म क्रिटिक के नाम पर जो हो रहा है, क्या उसे फिल्म क्रिटिक कहा जा सकता है। ये हमारे यहां ही होता है कि फिल्मों को बॉक्स ऑफिस या फिर ऑडिएंस की पसंद के साथ बांध देते हैं। बाहर ऐसा नहीं होता।
अनुराग कश्यप फिल्मी समीक्षा को जिस तरह बॉक्स ऑफिस के साथ बांधने पर( ये मानते हुए कि इस लिहाज से फिल्मों पर बात होनी चाहिए लेकिन सिर्फ यही न हो) आपत्ति जताते हैं, कमोवेश यही हाल मीडिया की आलोचलना के संदर्भ में भी है। हम मीडिया की आलोचना टीआरपी जैसे चालू शब्दों को लेकर करते हैं। हमें पता ही नहीं चल पाता कि हम टीआरीपी जैसे सिस्टम की आलोचना कर रहे हैं या फिर मीडिया की। फर्ज कीजिए अगर टीआरपी जैसा भोकाल मीडिया से चला जाए तो आलोचना का आधार क्या होगा, क्या ये संभव है कि हम टीआरपी के बाहर जाकर भी मीडिया आलोचना के कुछ तर्क विकसित करें। समीक्षा के नाम पर सिर्फ बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर की गयी समीक्षा पर्याप्त नहीं है। ऐसे में तो बात सिर्फ मेनस्ट्रीम, फार्मूला बेस्ड और चालू मुहावरे से जड़ी फिल्मों की ही हो पाएगी, बाकी की फिल्मों का तो कोई सेंस ही नहीं रह जाएगा।
दूसरी स्थिति है कि ऑडिएंस के लिहाज से इन फिल्मों की समीक्षा की जाए। ऑडिएंस किसी फिल्म को किस रुप में लेती है या ले रही है। इसमें इस बात की गुंजाइश बढ़ती है कि ऐसी फिल्मों पर भी विचार किया जा सकेगा और किया भी जाता है जो कि बॉक्स ऑफिस के खेल से बाहर है। बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छा नहीं करने पर भी माइल स्टोन के तौर पर जानी जा सकती है। कहीं और न जाकर हम अनुराग कश्यप की फिल्म को ले सकते हैं- सत्या, नो स्मोकिंग, ब्लैक फ्राइडे। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि ऑडिएस आधारित समीक्षा का मतलब है सिनेमा के साथ सोशल इफेक्ट को जोड़कर देखना। लेकिन सोशल इफेक्ट इतना लिनियर और सिंगुलर वर्ड है क्या। आप जैसे ही सोशल इफेक्ट पर आते हैं आपको बिना देखे-समझे दर्जनों फिल्मों के प्रति विरोध झेलने पड़ जाते हैं, संस्कृति, परंपरा, नैतिकता औऱ भी न जाने क्या-क्या। यह सब कुछ ऑडिएंस रिएक्शन के नाम पर, सोशल इफेक्ट के नाम पर।.......आखिर मामला क्या है। अनुराग कश्यप के शब्दों को ही लें तो इश्यू को लोग बहुत कन्जर्वेटिव तरीके से लेते हैं। एक ने कहा- यार तुमने देव डी बड़ील गर फिल्म बना दी है। मैंने कहा- उसमें तो कुछ दिखाया भी नहीं। उन्होंने कहा- तुम लड़की को रजाई लेकर खेत भेजते हो, यहां तक तो चलो फिर भी ठीक है लेकिन, ये क्यों कि तुम्हारे बाल बहुत हैं, सबकुछ ध्यान में आने लगता है। अनुराग का कहना है कि ये जो व्लगरिटी है वो किसमें है, कहां है। सप्रेस्ड सेक्सुअलिटी पर जब स्त्रियां बात करने लगे, सोचने लगे तो पुरुषों को भारी परेशानी होने लगती है औऱ खुद मस्ती जैसी फिल्में देखेंगे। दोहरे चरित्र के साथ जीनेवाले होते हैं ऐसे पुरुष।
मामला क्या, अलग-अलग मसलों को लेकर नमूने पेश न भी करें तो एक बात साफ है कि सोशल इश्यू और कल्चर के नाम पर जो बातें की जाती है, चाहे वो सिनेमा के स्तर पर हो या फिर इवेंट के स्तर पर, बात करते वक्त सबों के दामन इतने छोटे कर लिए गए हैं कि जरा-सा कहीं कुछ धुआ नहीं कि हो गया दामन मैला। इस क्रम में यह भी देखना जरुरी नहीं समझा जाता कि जिस ऑडिएंस इफेक्ट की बात कर रहे हैं, वो किस हद तक बदल चुकी है या फिर वो ऑडिएंस औऱ सिटिजन अलग-अलग रुपों में अपनी पसंद-नापसंद रखती है। सिनेमा समीक्षा का एक बड़ा है हिस्सा इसी खांचे में कैद है।
इसलिए फिल्म की नयी समीक्षा पद्धति में सोशल रिएक्शन और इम्पैक्ट से ज्यादा जेनरॉ पर बात किया जाना अनिवार्य समझा जाने लगा है। सिनेमा को इस लिहाज से देखने में टिमॉती सैरी(2002) की किताब जेनरेशन मल्टीप्लेक्सः दि इमेजेज ऑफ इन कॉन्टेम्पररी अमेरिकन सिनेमा नयी समझ देती है। कैसे हम जेनरॉ, सोशल इफेक्ट, सिनेमा और सोशल इश्यू के साथ घालमेल करते हैं और दूसरी तरफ बदलाव की सारी उम्मीद इसी सिनेमा से लगा बैठते हैं।
सफाई- अनुराग कश्यप के बोल गए शब्द कुछ इधर-उधर हो गए हैं, लेकिन भाव वहीं है।
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4 Response to 'फिल्मी पंडितों को समीक्षा के अंदाज बदलने होंगे'
  1. Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_15.html?showComment=1234696560000#c5726114630586796884'> 15 फ़रवरी 2009 को 4:46 pm बजे

    मेरे विचार से यह पोस्ट फिल्म क्रिटिकों के लिए अहम है। इसके पीछे मेरा तर्क यह है कि बॉक्स ऑफिस के हिसाब से फिल्म की समीक्षा सोच समझ कर करनी चाहि। जैसा कि विनीत ने रब ने बना दी जोड़ी का उदाहरण दिया है।

    दरअसल फिल्मी पंडित हमारी पंसद को ज्यादा अहमियत देते आए हैं। विनीत ने अपेन पोस्ट में जो कमाल की बात कही है वह फिल्म समीक्षा को मीडिया से जोड़ना है। उहोंने टीआरपी क भूत की ताजातरीन व्याख्या की है।

    अब बात अपनी - हिंदी में फिल्म समीक्षकों की स्थिती पर है। कभी कभी अखबारों और चैनलों में यह काम पीआर टाइप नजर आता है।
    खूब ध्यान दौडाउं तो जयप्रकाश चौकसे, ब्रजेश्वर मदान और विनोद भारद्वाज की कलमों पर नजर आ कर रूकती है।
    आजकल अपने आवारा हूं कहने वाले मीहिर भी मुझे पसंद है। खासकर दसविदानिया पर जो उसने की-बोर्ड चलाई व कमाल है। मैं उसे एंटिक पीस कहता हूं।
    बाकी आप पर। हम तो इस पोस्ट को यही समझते हैं।

    (विनीत के इस सुझाव पर भी ध्यान देना होगा-
    सिनेमा को इस लिहाज से देखने में टिमॉती सैरी(2002) की किताब जेनरेशन मल्टीप्लेक्सः दि इमेजेज ऑफ इन कॉन्टेम्पररी अमेरिकन सिनेमा नयी समझ देती है)

     

  2. अनुनाद सिंह
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_15.html?showComment=1234699440000#c3863913388722424446'> 15 फ़रवरी 2009 को 5:34 pm बजे

    आप 'फिल्मी' पंडितों की बात कर रहे हैं या 'फिल्म पंडितों' की?

     

  3. विनीत कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_15.html?showComment=1234702380000#c6730194917207710419'> 15 फ़रवरी 2009 को 6:23 pm बजे

    माफ कीजिएगा, अनुनादजी,गलती मेरी ही है कि मेरी पोस्ट से ये साफ नहीं हो पाया। मैं इस बहस में फिल्म समीक्षकों को बिल्कुल अलग रख रहा हूं, जैसा कि गिरीन्द्र ने उदाहरण से भी साफ किया है। फिल्म को कई लोग ऐसे हैं जो एक अलग डिसीप्लीन के तौर पर उसकी समीक्षा कर रहे हैं, उन्हें मैं कुछ नहीं कह रहा।

     

  4. भावना
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_15.html?showComment=1234936500000#c6444838640950042640'> 18 फ़रवरी 2009 को 11:25 am बजे

    फिल्मी समीक्षा कर्म में भी हाई - लो कल्चर कांसेप्ट दिखाई देता है...शाहरुख़ खान यानि फॅमिली मूवी का अभिनेता, इमरान हाश्मी यानि अन्तरंग अभिनयकर्ता...यही फिल्मों के साथ सेंसर में भी होता है...यशराज कैंप की फिल्में U/A pramanpatra लेती हैं...तो महेश भट्ट की फिल्मों को व्यावसायिक फिल्में कह कर गरियातें है...कलयुग (भट्ट बैनर) की मूवी पोर्नोग्राफी के अगेंस्ट थी...पर सब्जेक्ट को ओब्सीन मानकर हे उसे सेंसर बोर्ड ने अदुल्ट मूवी करार दे दिया..इसके उलट नील एन निक्की को साफ सुथरी फ़िल्म का तमगा दिया।

    दूसरा समीक्षा के मानकों में एक इमेज की जड़ता का प्रभाव भी है। समीक्षा क्या व्यावसायिक सफतला से हो,फ़िल्म के संदेश से हो या ,कई हफ्तों तक सिनेमा हलों में चलते रहने से हो..इसके मापदंड भी तय नही हैं...फिर समीक्षा किसी भी व्यक्ति की निजी राय है...कोई व्यक्ति समीक्षा पढ़ कर फ़िल्म देखता होगा ...इसमें भी संशय है...लोग प्रोमोस देखकर डिसाइड कर रहे है, गेस करते हैं....की उनके टेस्ट से मैच करती है या नही...इसीलिए फिल्मी समीक्षा को गंभीरता से नही लिया जा रहा है...समीक्षकों की अच्छी प्रतिक्रिया पाना...रास्ट्रीय पुरस्कार पाने जैसा हे कर्म है (स्टार,सोनी...कॉमर्शियल अवार्ड्स की बात करना विषयांतर है)...जिसके लिए कॉमर्शियल सक्सेस कोई बड़ा मुद्दा नही ।

     

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