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हिन्दी साहित्य समाजियों को अगर किसी चीज से डर है तो वह है बाजार। बाजार ही उसके दुख, भय, अनिद्रा, क्रोध औऱ बाकी जितने भी अभाव के भाव हैं, सबके सब के कारण ही हैं। जानने-बताने के स्तर पर तो ये कबीर के वंशज हैं, ये समाज में प्रतिरोध के स्वर को मजबूत करना चाहते हैं। कबीर की तरह ही प्रेम से पूरी दुनिया को पाट देना चाहते हैं लेकिन बाजार के मामले में कबीर से भी कट्टर हैं। कबीर तो तब से कम बाजार को खड़ा होने लायक जगह मानते ही हैं। वो जगह जहां से विरोध शुरु करनी है-

कबीरा खड़ा बाजार में.....

जो घर जारे आपना चलै हमारे साथ।।

कबीर तो बाजार को कम से कम एक ऐसी जगह मानते हैं कि जहां आदमी खड़े होकर विरोध करे तो उसका असर ज्यादा होगा लेकिन अब हिन्दी साहित्य से जुड़ी इन्हीं की पीढ़ी बाकी बातों का समर्थन करते हुए भी कबीर के इस नजरिए के सीधे विरोध में हैं औऱ मानकर चल रहें हैं कि- बाजार तो खड़े होने की भी जगह नहीं है। वो सबकुछ आज के ढंग से जीते हुए भी अपने को बाजार के बीच नहीं देखना चाहते। वे अपने को बाजार से दूर रखने के प्रयास में हैं। उऩ्हें हमेशा डर लगा रहता है कि वो बाजार में न खड़े कर दिए जाएं।

ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले सात-आठ दिनों में मुझे उन सात-आठ लोगों से मिलने का मौका मिला जो इस साल डीयू के हिन्दी विभाग से किसी न किसी विषय पर पीएचडी करने जा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अभी रिसर्च-प्रपोजल विभाग में जमा किए हैं। इन सारे लोगों ने मुझे अपना यह काम दिखाया और कुछ सलाह भी मांगी। सारे लोगों के विषय एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। कोई अस्मिता को लेकर काम करना चाह रहा है तो कोई मल्टीकल्चरलिज्म को लेकर तो कोई कार्टून की भाषा पर। विषय के स्तर पर इनलोगों का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं था लेकिन लिखने के स्तर पर बहुत अधिक फर्क नहीं था।

सबों ने पहले ही पैरा में बाजार, भूमंडलीकरण, पूंजीवाद और इसी तरह के वैल्यू लोडेड शब्दों का प्रयोग किया हुआ था और दूसरे पैरा में उसका जमकर विरोध। ऐसा किए जाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। लिखने के स्तर पर, खासकर जब मामला अकादमिक स्तर का हो तो मेरा एजेंड़ा सिर्फ इतना भर होता है कि जिस विषय पर बात करनी हो, उसे लिखने के दौरान स्पष्ट कर दिया जाए। ये वो बात नहीं थी। यहां बाजार और भूमंडलीकरण का विरोध कुछ ऐसा लग रहा था कि जैसे पुराने साहित्य में और हिन्दी सिनेमा में अभी भी शुरुआत में पीतल की घंटी बजा दिया जाता है, मंगलाचरण टाइप से कुछ लिख दिया जाता जिसका कि बाद के पाठ से कोई संबंध नहीं होता। कुछ प्रगतिशील और आस्थावादियों की जीन्स से बने लोग इस संबंध में बड़ा ही खूबसूरत तर्क देते हैं कि- ऐसा इसलिए किया जाता है कि सबसे पहला रचानाकार ईश्वर है, उसके बाद कोई और है। इसलिए ये मामला आस्था और धर्म का नहीं है बल्कि पूर्वजों को दिया गया उचित सम्मान है।

अगर इस लिहाज से हिन्दी के लोगों की लिखी बात पर गौर करें तो आज की हिन्दी पीढ़ी भी जिसे कि बाजार से बहुत अधिक विरोध नहीं है, बल्कि उसे तो लगता है कि बाजार ने बहुत ऐसे अवसर दिए हैं जो कि इसके बिना संभव नहीं है। वह बाजार में अपने करियर की एक बड़ी संभावना देखता है वह भी एमए, एम।फिल् या फिर पीएचडी के स्तर पर कुछ भी लिखना शुरु करता है तो पहले ही पैरा में बाजार की आलोचना करता है, उसके विरोध में उंची-उंची हांक लगाता है तो क्या इसका मतलब ये है कि वह उन पूर्वजों को उचित सम्मान भऱ दे रहा होता है जिनकी किताबों को पढ़-पढ़कर उसने समझा है कि साहित्य में आम आदमी की बात कैसे की जा सकती है। उसके ऐसा करने से पूर्वजों के प्रतिनिधि जो अभी भी अस्तित्व में हैं, उन्हें भी सम्मान मिलेगा औऱ उनके आशीर्वचनों से कभी बड़ा साहित्यकार हो जाएगा।...हमें तो यही लगता है कि आज की हिन्दी पीढ़ी अगर बाजार के विरोध में लिख रही है तो वह ऐसा करके पूर्वजों का ऋण उतार रही है, बाजार के विरोध में लिखकर पूर्वजों के प्रतिनिधियों को परिस्थितिवश सम्मान दे रही है, नहीं तो पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं है, पढिए अगली पोस्ट में
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मजाक बना दिया है जनसत्ता को

Posted On 10:29 am by विनीत कुमार | 4 comments


क्या जनसत्ता के भीतर कुछ ऐसे लोग हैं जो इसकी छवि को लगातार खराब करने में लगे हुए हैं या फिर यहां का वर्किंग कल्चर ही बहुत ढीला-ढाला है। कोई पाठक अगर ध्यान से इसे पढ़ने लग जाए तो संभव है कि रोज कुछ न कुछ गड़बडी़ उसे समझ में आ जाए। ऐसा होने से इस अखबार के प्रति लोगों की विश्वसनीयता कितनी घटती है इसका अंदाजा शायद काम करने वालों को नहीं है। यह वही अखबार है जिसे कभी हम जैसे पाठकों को हिन्दी विभाग के टीचरों ने नियमित पढ़ने की सलाह दी थी और बताया था कि इसे आप पढ़े, आपकी हिन्दी दुरुस्त हो जाएगी. लेकिन यही क्या यही बात आज हम बीए कर रहे लोगों को उसी विश्वास के साथ कह सकते हैं. शायद नहीं। ऐसा कहना मजाक भर से ज्यादा कुछ भी नहीं होगा।
गड़बडि़यों की श्रृंखला में ही कल यानि २९ अगस्त की एक भारी गड़बड़ी पर गौर करें। मुख्य पृष्ठ पर गंगा प्रसाद की स्टोरी छपी है- कोशी की बाढ़ राष्ट्रीय आपदाः मनमोहन। इस स्टोरी के तीसरे पैरा पर आप गौर करें। नौंवे लाइन से फिर वही बात शुरु हो जाती है जो बात दूसरे पैरा के आठवें लाइन से शुरु होती है। पहली बार जब मैंने पढ़ा और दूसरे पैरा से तीसरे पैरा पर गया तो लगा कि इसी बात को दोबारा पढ़ रहा हूं। एक बार फिर से पढ़ना शुरु किया तो पाया कि स्टोरी में सात लाइन वही छापी गयी है जो कि दूसरे पैरा में भी है। यानि सात लाइन दो-दो बार छाप दी गयी है। दो बार छपे हुए अंश हैं-
... खुद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, जल संसाधन मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव और आपदा प्रबंधन मंत्री
नीतिश मिश्र कई बार यह दोहरा चुके हैं कि चार-पांच दिन में स्थिति और बिगड़ सकती है। सात-आठ
लाख क्यूसेक पानी जिला में जमा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में लोगों को बचाना दूभर हो जाएगा।

इस तरह की गड़बड़ियों को आप तकनीकी स्तर की गड़बड़ी मानकर नजरअंदाज कर सकते हैं औऱ कह सकते हैं कि पेज लगाने वाले की नजर नहीं गयी है। लेकिन इस तरह से किसी व्यक्ति या फिर विभाग को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराना संस्थान का काम है। पाठक इतनी बारीकी में नहीं जाता, उसे सीधे-सीधे इतना ही समझ में आता है कि ये अखबार की गड़बड़ी है। जनसत्ता के भीतर जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है इससे इसकी साख जरुर कमजोर होती है। साथ ही पाठकों के बीच एक असुरक्षा का भी भाव बढ़ता है कि अब किस अखबार की ओर जाएं। बचा-खुचा एक ही तो अखबार रहा जिस पर कि भरोसा किया जा सकता था, अब वो भी लापरवाह होता जा रहा है। मुख्य पृष्ठ पर १८५७ की बजाय १९५७ छाप रहा है, तस्वीर किसी और चीज की है और कैप्शन किसी और चीज की लगा रहा है. इन सारी बातों पर विचार किया जाना जरुरी है.
और इन सबके बीच दुखद स्थिति ये है कि जनसत्ता कभी भी अपनी इन गड़बड़ियों को अगले दिन सुधार के साथ पाठकों से क्षमा मांगते हुए प्रकाशित नहीं करता। ये काम दि हिन्दू करता है और संपादकीय के ठीक बगल वाले पेज पर स्पेस ही तय कर रखा है. पाठक गलतियां खोजकर उसे पोस्ट या मेल कर सकते हैं. जनसत्ता में अगर सबकुछ सही-सही छापने की क्षमता नहीं है तो कम से कम ये काम तो कर ही सकता है।
दुनियाभर के अखबारों के ऑफर को छोड़कर, बाकी के अखबारों से पच्चीस-पचास पैसे ज्यादा देकर महज १२ पेज के अखबार के लिए पाठक अगर ३ रुपये खर्च कर रहा है तो ऐसा नहीं है कि वो मूर्ख है। वो ये कीमत खबरों की प्रामाणिकता, भाषाई दक्षता और विश्लेषण की परिपक्वता के लिए दे रहा है और अगर अखबार से धीरे-धीरे यही सब गायब होने लग जाए, बेसिक चीजों को लेकर ही भारी गड़बड़ी हो तो फिर कोई आधार नहीं है कि पाठक इसे विशिष्ट मानकर खरीदे। पाठक जिस मूल्य के चलते सादे-सपट्टे इस जनसत्ता खारीदाराहे है, उसे इस मूल्य को बचाए रखना बहुत जरुरी है। नहीं तो बाजार की दौड़ में तो वो कब का पिट चुका है।
इसके पहले जनसत्ता की गड़बड़ियां-
गलत स्पैलिंग के आगे जनसत्ता फुस्स
'जनसत्ता' देखकर जोशीजी का मन रोता नहीं ?


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आकाशवाणी के ऑडियो रिसर्च यूनिट में पहुंचा तो देखा कि अधिकांश लोग टीए डीए बिल बनाने में व्यस्त हैं। दो दिन पहले रांची से किसी कार्यक्रम में शामिल होकर आए थे और इस बीच जो भी खर्चा हुआ था, उसका सब अपना-अपना हिसाब दे रहे थे। सिंहजी ने कुछ रुपये अपनी जेब से खर्च किए थे लेकिन उसका बिल लेना भूल गए। अब उऌकी समस्या थी कि वो कहां से बिल लाएं. बाकी के लोगों से इस समस्या का सामाधान मांग रहे थे। इसी बीच मैंने उनसे पूछा- सर यहां एम एन झा कहां मिलेंगे। एम एन झा ऑडियो रिसर्च यूनिट के डायरेक्टर थे और संभवतः अभी भी हों। उन्होंने कहा- सामने उनका चैम्बर है, वो अभी आए नहीं होंगे, मैं भी उनका ही इंतजार रहा हूं। वैसे काम क्या है?

मैंने उन्हें फिर से वो सारी बातें बतायी जो कि एफ।एम. गोल्ड और रैनबो, लाइब्रेरी की मैम और गार्ड को बताया था।सिंहजी को दो बातों को लेकर बड़ी दिलचस्पी बनी- एक तो ये कि मैंने एम.ए. हिन्दू कॉलेज से किया है और दूसरा कि मैं भी उनकी ही तरफ का हूं. आज झारखंड भले ही अलग हो गया है लेकिन हमें कोई बिहारी मान ले और कह दे कि मिट्टी-पानी से तो बिहारी ही हैं तो बमकते नहीं हैं. उनकी बिटिया भी हिन्दू कॉलेज में ही पढ़ रही थी। ये बात ढंग से पुख्ता औऱ तब हुई जबकि मैं चार-पांच दिनों बाद हिन्दू गया तो जूनियर्स ने कहा- क्या सर, कहां-कहां लग्गी मारते हैं आप, सुना है खूब आकाशवाणी जाकर मौज कर रहे हैं, सिंहजी से गपिया रहे हैं। एगो लड़की पूछ रही थी आपके बारे में।

सिंहजी ने सम्मान से बिठाया। बाकी बातें पूछने के बाद गाइड जिन्हें कि मैं मेंटर कहता हूं , का नाम पूछा और नाम बताने पर औऱ ज्यादा इम्प्रैस हुए। एकदम जोर से बोले- तब फिर आपको क्या चिंता है, इधर एम।फिल जमा कीजिए, उधर नौकरी पक्की। मैं अपने काम पर आना चाह रहा था सो पूछा- सर होगा कुछ जो मेरे रिसर्च के काम आ सके। उन्होंने कहा- होगा क्यों नहीं, आपको वो चीज दे देते हैं जिसके बाद किसी भी चीज की जरुरत नहीं रहेगी। वो शायद नबम्बर का महीना था और कुछ ही दिनों पहले साल २००४ का आकाशवाणी वार्षिकांक आया था। उन्होंने उसकी एक प्रति हमें दी। वाकई ये बहुत ही मेहनत, स्पष्टता औऱ सुलझे तरीके से छापी गयी थी. जिस किसी को भी रेडियो के बारे में बेसिक जानकारी लेनी हो, उसके लिए ये अंक बेजोड़ है। सबकुछ अंग्रेजी में था। मैंने अपनी जरुरत के हिसाब से हिन्दी में अनुवाद करके इस्तेमाल कर लिया।

इसी बीच सिंहजी ने बताया कि झाजी आ गए हैं। चलिए उनसे आपको मिलवा लाते हैं। मैं उनके कमरे में गया। मैं कुछ बोलूं, इसके पहले सिंहजी ने मेरे बारे में जो कुछ मुझसे सुना था, उसे और अलंकारिक बनाकर झाजी को बताया. झाजी ने कहा- हमको तो ताज्जुब होता है कि अभी भी लोग इस तरह से भटक-भटककर रिसर्च कर रहे हैं. उन्होंने पूछा- ये सब जो खर्चा होता है, वो कहां से मिलता है. मैंने कहा- सर, मेरा तो जेआरएफ नहीं है, इसलिए सारे पैसे घर से ही लगाने पड़ते हैं। मतलब रहने-खाने का खर्चा अलग और रिसर्च का अलग, आपको तो बहुत मंहगा पड़ जाता होगा। मैंने कहा- जी सर। उसके बाद वो रांची के अपने विद्यार्थी जीवन की बात विस्तार से बताने लगे जिसमें सिविल सर्विसेज में उनकी सफलता से लेकर संघर्ष तक की कहानी जुड़ी हुई थी। बातचीत के बीच में ही उन्होंने पूछा- सिंहजी, आपने इनको कुछ खिलाया-पिलाया कि नहीं औऱ थोड़ी देर बाद ही मैं बिस्कुट भकोस रहा था।

झाजी ने बहुत ही मजबूती से कहा- आप एकदम परेशान मत होइए, मन लगाकर काम कीजिए, जहां परेशानी होगी, हमें बताइएगा। झाजी ने भी रांची से ही पढ़ाई की थी, रांची कॉलेज से और मैंने भी रांची से ही ग्रेजुएशन किया है, संत जेवियर्स कॉलेज से। इस लिहाज से भी वो हमें सम्मान दे रहे थे। झाजी ने कहा- आप मीडिया में रिसर्च कर रहे हैं तो प्रभाष जोशी और शिलर को पढ़ना मत भूलिएगा। शिलर की किताब तो मैंने खरीद भी ली लेकिन प्रभाष जोशी को पढ़ने का तुक यहां पर मैं समझ नहीं पाया।


इतना सबकुछ होते- हवाते तीन बज गए। मैं जल्दी से अपने कमरे में पहुंचना चाह रहा था। सबको दुआ सलाम करके बाहर निकला। उनलोगों को शायद बहुत दिनों के बाद ऐसा लड़का मिला जो उन्हें बहुत गौर से सुन रहा था। रास्ते में बस में बैठते हुए मैं दो बातें एक साथ सोच रहा था- एक तो ये कि कितनी आत्मीयता से बात की इनलोगों ने, लगा ही नहीं कि किसी अंजान जगह में आया हूं. औऱ दूसरी ये कि मीडिया के लिए काम करते हुए भी इनलोगों के पास कितना समय होता है कि हम जैसे लोगों को पांच-छह घंटे यूं ही दे देते हैं। रेड एफ एम गया था तो ४५ मिनट में करीब पांच लोगों से बात कर ली थी। थोडी़ देर बात करने के बाद सबने यही कहा था- सॉरी अब ज्यादा टाइम नहीं दे सकते। इनलोगों के रिस्पांस से मैं जितना भावुक हो गया था, आकाशवाणी की वर्किंग कल्चर से उतना ही चिंतित। कुछ भी नया नहीं, कुछ भी क्रिएटिव नहीं. टशन देने की छटपटाहट नहीं। सबके सब पंजाब केसरी लिए बैठे हैं. दस मिनट के काम में तीन घंटे लगा रहे हैं। क्या आकाशवाणी एक निश्चिंत माध्यम है, बार-बार झाजी की बात याद आ रही थी- विनीतजी आकाशवाणी को आप ही जैसे लोगों की जरुरत है. प्राइवेट चैनलों पर बात करते हुए तो उन्होंने इसकी जमकर आलोचना की थी लेकिन जैसे मैंने वर्किंग कल्चर पर बात शुरु की थी तो वो भी प्राइवेट चैनलों पर सहमत नजर आए।
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ये देश का आकाशवाणी भवन है

Posted On 8:02 am by विनीत कुमार | 2 comments


समय मिले तो कभी आकाशवाणी के चक्कर लगा लेना, शायद कुछ काम की चीजें निकल आए। मेरे मेंटर ने मुझे जब ऐसा कहा तो मुझे भी लगा कि रिसर्च के नाम पर आकाशवाणी तो जाना ही चाहिए। इसके पहले मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की लाइब्रेरी कई बार जा चुका था। मैं यह सोचकर वहां गया था कि रेडियो को लेकर जितने भी सरकारी फैसले लिए गए होगें और जो भी प्रसार हुए हैं, उन सबके संबंध में जानकारी मिल जाएगी। कुछ-बहुत तो सामग्री मिली लेकिन रिसर्च के लिहाज से कुछ खास नहीं।

दिल्ली के आकाशवाणी भवन में मैं पहली बार गया था। रांची के आकाशवाणी केन्द्र की रजिस्टर में इतनी बार अपना नाम लिख आया था कि दिल्ली आकर इसे रिपीट नहीं करना चाहता था। युवावार्ता के लिए कई बार नाम दिए, वहां के लोगों से पूछता कि कब बुलाएंगे। बड़े प्यार से वहां के इन्चार्ज जबाब देते, अरे बुला लेंगे, आपके जैसे लोग बिना किसी के रेफरेंस के आते कहां हैं। यहां तो सब चाचा-ताउ का नाम लेकर आते हैं। हमें तो आप जैसे लोगों की ही जरुरत है।॥ लेकिन आकाशवाणी रांची ने कभी नहीं बुलाया। मेरे से लल्लू लोग अकड़ के वहां जाते और आंय-बांय बोलकर कुछ राशि की पर्ची लेकर कॉलेज में चौड़े होकर घूमते। उनमें से कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हें बुलाया जाता था, वे हमारी तरह अपनी मर्ज से नहीं चले जाते। मेरे मन में बार-बार बस एक ही सवाल उठता कि-क्या देखकर इन लोगों को बुलाया जाता है। बाद में व्यावहारिक वजह जान लेने पर मन उचट गया और फिर कभी भी रजिस्टर में नाम लिखवाने नहीं गया। दिल्ली आकर इसलिए मैंने कभी कोशिश नहीं की।

लम्बे समय तक आकाशवाणी में साहित्यकारों, शास्त्रीय संगीतकारों और शहर के रंगमंच से जुड़े लोगों का वर्चस्व रहा है। कहने को लगभग हरेक केन्द्र में अलग-अलग कार्यक्रमों के लिए रजिस्टर रखे मिलेंगे, जिसमें आप अपनी रुचि और क्षमता को के हिसाब से कार्यक्रम के लिए नाम लिख आएं। आकाशवाणी जरुरत के हिसाब से आपको बुलाएगा लेकिन अंदर इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि ये चीजें व्यवहार में नहीं आने पाती। आकाशवाणी के भीतर नए लोगों को सामने लाने की स्पिरिट ही नहीं है। विश्वविद्यालय से कम मठाधीशी नहीं है। दिल्ली के बारे में बहुत दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन बिहार और झारखंड के केन्द्रों में ये सारी चीजें देखकर आया हूं। खैर,


दिल्ली में आकाशवाणी भवन के भीतर मैं पहली बार गया था। गेट पर जब पास बनवा रहा था तो गार्ड ने पूछा-किससे मिलना है। मैंने कहा- मैं डीयू से आया हूं और रेडियो पर रिसर्च कर रहा हूं, मैं यहां के कुछ लोगों से मिलना चाहता हूं। गार्ड को मेरी बात समझ में आयी और उसने पास बनवाने में मेरी मदद की और इज्जत से अंदर जाने दिया। आकाशवाणी भवन की पास टिकट लेकर मैं इतना भावुक हो गया था कि मैंने सोचा- रिसर्च के लिए पहली बार मैं यहां आया हूं, मैं इसे फेंकूगा नहीं। जब कभी रेडियो के उपर किताब लिखूंगा तो इसे फ्लैप पर लगाउंगा और सचमुच वो मेरे पास मेरी फाइल में सुरक्षित है।


सबसे पहले मैं एफएम गोल्ड और रेनवो की तरफ गया। वहां बैठे एक सज्जन से बात की औऱ बताया कि मैं ऐसे-ऐसे काम कर रहा हूं। उन्हें लगा कि कोई सोसियो या फिर दूसरे विषय से होगा। बड़ी रुचि के साथ सारी बातें बताने लगे लेकिन इसी बीच उन्होंने पूछा- आप डीयू में किस डिपार्टमेंट से हैं। मैंने कहा- हिन्दी। उन्होंने कहा- अच्छा, हिन्दी। तब आप इस पर क्या रिसर्च कीजिएगा, कुछ शब्द-बब्द पकड़कर लिख मारिएगा सौ पेज, रेडियो की बात तो आ ही नहीं पाएगी। मैंने फिर कहा-ऐसा नहीं है सर, काम तो तरीके से ही करना है। मैं तो यहां आया था कि बेसिक चीजों की जानकारी मिल जाएगी। उनका अंदाज अब हमसे कट लेने का था। अगर बेसिक चीजों के लिए आए हैं तो फिर यहां की लाइब्रेरी चले जाइए, वहां आपको कुछ न कुछ जरुर मिल जाएगा। मैं भारी मन से उठा और लाइब्रेरी की तरफ चल दिया।

लाइब्रेरी पहुंचते ही मुझे धक्का लगा। तो ये है देश की राजधानी का आकाशवाणी भवन और ये है इसकी लाइब्रेरी। लाइब्रेरी बिल्कुल भी अपडेट नहीं। बेतरतीब ढंग से रखी किताबें। डेस्क पर एक मैडम पंजाब केसरी खोलकर बैठी थी। मैंने उन्हें सारी बातें बतायी। उन्होंने साफ कहा- जो है सो यही है, देख लो। मैं करीब घंटेभर तक में पूरी किताबों पर एक नजर मार लिया। रेडियो पर किताबें नहीं मिलेगी इसका अंदाजा तो मुझे शुरु के पांच मिनट में ही लग गया था लेकिन कुछ साहित्य की किताबें रखी देखकर उसमें उलझ गया। अंत में दिस इज ऑल इंडिया रेडियो, एच।सी। बरुआ की किताब को उलट-पलटकर बाहर आ गया।

मैडम को मैंने बताया कि- मैम, कितने लोग रेडियो सुनते हैं, कहां-कहां ये काम करता है औऱ भाषा के स्तर पर क्या कुछ चल रहा है, इन सारी बातों की जानकारी मुझे कहां से मिलेगी। उन्होंने कहा- आप ऑडियो रिसर्च सेक्शन चले जाओ। उधर पल्ली साइड, शायद पांचवे तले पर है। मैं वहां की तरफ बढ़ गया।


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रेडियो का जब भी पक्ष लिया जाता है तो एक बात बहुत ही मजबूती से की जाती है कि यह डिस्टर्विंग माध्यम नहीं है। यानि इसके साथ लोग रोटी बनाते हुए, आयरन करते हुए, खेतों में बीज बोते हुए, दर्जी कपडो़ की सिलाई करते हुए भी जुड़ सकते हैं। मीडिया की किताबों में वाकायदा इस तरह के उदाहरण दिए होते हैं। गूगल इमेज पर जाएंगें तो आपको कई ऐसी तस्वीरें मिलेंगी जिसमें लोग काम करते हुए रेडियो सुन रहे हैं। बाकी माध्यमों के साथ ऐसा नहीं है।एफ।एम। के प्रचलन से लोग ऑफिस जाते हुए बसों और अपनी निजी गाडियों में मजे से एफ.एम. सुनते हुए जाते हैं। अब तो लोग मोबाइल में भी रेडियो होने से देश-दुनिया से बेखबर एफ।एम. सुनते हुए निकल लेते हैं।स्टूडेंट हल्के से रेडियो बजाते हैं और रौ में काम करते चले जाते हैं। लेकिन रेडियो सुनने के मामले में मेरा अनुभव कुछ अलग किस्म का है।

पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है।

पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है।एम।फिल रिसर्च के लिए विषय तय हो जाने के बाद मेरे मेंटर प्रो.सुधीश पचौरी सर मुझसे बार-बार एक ही बात कहते, अरे भइया रेडियो सुनते हो कि नहीं, खूब सुना करो, उसी से बातें निकलकर आएगी. वो रेडियो को ऑडियो लिटरेचर और टीवी को विजुअल लिटरेचर कहा करते हैं जिससे कई साहित्यप्रेमियों को असहमति भी हो सकती है।रिसर्च के विषय में ये तय नहीं था कि मुझे किस वक्त के रेडियो कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करनी है और कब तक की करनी है. इसलिए अपनी सुविधा के अनुसार रिकार्डिंग करता। लेकिन एक बार मेंटर ने कहा कि- कभी तुमने २४ घंटे लगातार रेडियो सुना है, सुनकर देखो, अलग ढंग का अनुभव होगा। पहले तो मुझे लगा कि ये बहुत ही अटपटा किस्म का काम है लेकिन उत्साह भी बना कि देखें क्या होता है और कैसा लगता है।

हॉस्टल में एक कमरे में दो लोग रहते थे और अगर मैं रातभर रेडियो सुनता तो मेरे पार्टनर को परेशानी हो सकती थी, सो प्रेसीडेंट से सेटिंग करके कुछ दिनों के लिए यूनियन रुम की चाबी ले ली।.....और पन्द्रह अगस्त की सुबह ९ बजे रेडियो, रिकार्डर, पानी, जूस, कुछ टेबलेट्स, ब्लैंक ऑडियो टेप लेकर कमरे में बैठ गया और चार बजे शाम तक बिना पेशाब-पानी के रेडियो सुनता रहा औऱ रिकार्डर का टेप बदलता रहा। चार बजे के बाद हल्का हुआ और जूस पिया। फिर चार बजे से रात के एक बजे तक लगातार रेडियो सुनता रहा। एक बजे के बाद से सिर्फ गाने आने लगते हैं और बीत-बीच में चैनल का नाम कि ये है रेडियो सिटी फ ९१ fm .. . सुबह के छ बजे से फिर नई सुबह के साथ कार्यक्रम शुरु होते।

पहली बार मैं चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो सिटी सुनता रहा। उसके दस दिन बाद फिर वैसा ही किया और अबकि बार चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो मिर्ची सुनता रहा। इस बीच मैं खाने की कुछ भी चीजें नहीं लेता। एक तो नींद आने का खतरा और दूसरा कि बदहजमी होने का डर। लेकिन तीसरी बार जब मैं फिर चौबीस घंटे के लिए दोनों चैनलों के अलावे बाकी चैनलों को बदल-बदलकर सुनने का मन बनाया तो गड़बड़ी हो गयी।

मैं एक बजे के बाद नींद बर्दाश्त नहीं कर पाया औऱ आंख लग गयी। कमरा खुला था औऱ किसी ने रिकार्डर मार लिया। नींद खुलते ही देखा-रिकार्डर गायब। थोड़ी देर के लिए हो-हल्ला हुआ लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। मैं रिकार्डर चोरी होने से ज्यादा रिदम के टूट जाने को लेकर परेशान था और इस बात की चिंता थी कि फिर से जुगाड़ करना होगा। खैर,

चौबीस घंटे तक लगातार रेडियो सुनने का जो मेरा अनुभव रहा उसमें ध्यान और पूजा को लेकर जो पाखंड फैलाए जाते रहे हैं, उसकी बात में समझ में आ गयी और वो यह कि- आप एक मन से पूजा करें या फिर रेडियो सुने, आप संतुलित जरुर हो जाते हैं, आपको शांति का एहसास हो जाता है। रेडियो पर लगातार कुछ न कुछ बजते रहने के बाद भी अंदर से मैं बहुत शांत और भराभरा महसूस कर रहा था।...औऱ समझ गया था कि कोई पूजा न करके ध्यान से रेडियो सुने, कोई और काम करे, उसकी एकाग्रता बनेगी। इसलिए इसका कोई अर्थ नहीं होता कि आप किस मंत्र का जाप कर रहे और कौन से देवी-देवता का नाम ले रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि आप प्रोसेस में शामिल होते हैं। इसलिए चौबीस घंटे की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद कॉन्फीडेंस से कह पाता हूं कि- ये ध्यान, पूजा सब बकवास है, पाखंड है, कोई चाहे तो एक बार रेडियो के नाम पर जागरण करके देख ले।




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लाइफ में पहली बार मैंने डीयू के हिन्दी विभाग के सारे टीचरों को एक साथ मुस्कराते हुए देखा था। वो भी तब जब मैंने बोर्ड में बैठे सारे लोगों को सामने एम।फिल् का अपना विषय बताया था। उसके बाद से अब तक सारे लोगों को एक साथ मुस्कराते नहीं देखा। एक ने कहा-जरा जोर से बताओ भाई कि किस विषय पर काम करना चाहते हो। मैंने कहा कि- एफ.एम चैनलों में भाषा का बदलता स्वरुप। दूसरे ने कहा- इसमें हिन्दी कहां है. हिन्दी विभाग में हो तो विषय भी उसी के हिसाब से होनी चाहिए न. इसमें हिन्दी जोड़ना बहुत जरुरी है औऱ फिर मुस्कराने लगे. उनके साथ-साथ बाकी लोग भी मुस्कराने लगे और जो कुछ पहले से मुस्करा रहे थे वे उनके साथ कॉन्टीन्यू हो लिए।

मैं सारे लोगों के मुस्कराने पर थोड़ा सकपका गया था लेकिन किसी से कुछ बोल तो सकता नहीं था। विभाग के मैडमों के बारे में मेरी राय रही है कि वो पुरुष शिक्षकों के मुकाबले थोड़ी कोमल हैं. सो साइड से बड़ी धीमी आवाज में पूछा- गंदा टॉपिक है क्या मैम. मैम ने अंगरेजी में कहा- नो इट्स ओके। गंदा नहीं है, हां थोड़ा नया जरुर है। तभी एक पुरुष टीचर ने कहा- बेटा लेकिन इसमें कौन-कौन से चैनल रखोगे। मैंने कहा- सर रेडियो सिटी और रेडियो मिर्ची। एक बार फिर सबको मुस्कराने का मौका मिला। भई यही दोनों क्यों, बाकी क्यों नहीं। मैं बहस में पड़ना नहीं चाहता था, सो एकदम से बोल गया. सर आप जो-जो चैनल कहेंगे उस पर कर लूंगा। उन्होंने कहा- नहीं बेटे, मैं तो बस ऐसे ही कह रहा था। एक और टीचर की उत्सुकता बढ़ी- लेकिन तुम्हें तो इसका टेक्टस तैयार करने होंगे. हां सर- मैं कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करुंगा और फिर इसकी स्क्रिप्टिंग करके विश्लेषण करुंगा। सबने हां में हां मिलाया और थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ तय हो गया कि मैं एफ. एम चैनलों की भाषा पर काम कर सकता हूं। हां, भाषा की जगह हिन्दी रखना होगा।चलते-चलते एक बुजुर्ग टीचर ने पूछ ही लिया- रेडियो और रिकार्डर तो है न बेटा। मैंने कहा- हां सर दोनों है। मेरे कहने का अंदाज कुछ इस तरह से था कि रिसर्च के नाम पर ही दोनों चीजें अभी खरीद कर आ रहा हूं और अगर विषय नहीं मिला तो जाकर लौटा दूंगा।.... मुझे अपने विषय के हिसाब से काम करने का मौका मिल गया था और मैं खुश था।


काम के दौरान में मेरे अलग अनुभव रहे। इसी दौरान मैंने आकाशवाणी के खूब चक्कर लगाए। बाकी जगहों पर जाकर रेडियों से जुडे लोगों से बात करने की कोशिश की। धीरे-धीरे लोगों का पता चल गया था कि मैं एफ।एम चैनलों की हिन्दी पर रिसर्च कर रहा हूं. लोगों की मुझे लेकर अलग-अलग राय बनती. कुछ लोगों का कहना था कि- दिन काटने के लिए ले लिया है, दिनभर एफ.एम सुनो और रिसर्च के नाम पर चुतियापा करो, ये भी कोई रिसर्च है। साहित्य से बचना चाहता है। अपने को हिन्दी में रहकर भी डिफरेंट दिखाना चाहता है। कुछ लोग मुझे पोमो यानि पोस्टमॉर्डनिस्ट कहने लग गए थे। एम. ए. के दौरान जो लोग मुझे नजदीक से जानते थे और जिन्हें मालूम था कि मैंने लिटरेचर पढ़ने में भी अच्छा-खासा समय लगाया है, हरियाणा और दिल्ली के लोगों को मैला आंचल की भाषा समझने में मदद की है वे कहते- कितना जीनियस था विनीत, ये विषय लेकर अपना करियर डूबा लिया। कुछ रहम खाकर कहते-अरे दोस्त, बीच-बीच में लिटरेचर पढ़ लेना, यूजीसी में यही काम देगा, तुम्हारा एफ.एम काम नहीं देगा। जितने मुंह, उतनी बातें। शुक्र है, मैंने इस दौरान लेक्चरशिप के लिए कोई इंटरव्यू नहीं दिए- नहीं तो शायद लोग कहते- यहां बजाने की नहीं पढ़ाने की भर्ती होनी है। हिन्दी समाज के हिसाब से ये विषय नया था, उटपटांग था और इसमें बदचलन साबित करने की पूरी संभावना थी।

जेएनयू में रिसर्च कर रहा मेरे बचपन का दोस्त बार-बार कहता- यार, तुमने विषय तो हल्का ले लिया है लेकिन काम हल्के ढंग से नहीं करना, नहीं तो मजाक बन जाओगे, लोगों को तो तुम जानते ही हो। एक बार वहां के एक टीचर से मिलवाया और कहा- ये मेरा दोस्त है विनीत, डीयू से एम.फिल कर रहा है। उन्होंने मेरा विषय पूछा और कहा- ससुरे बाजे पर भी रिसर्च होने लगा है। मैं मुसकराकर रह गया।
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कैम्पवाले भायजी के कहने पर मैं चांदनी चौक चला गया रेडियो खरीदने। पहले तो रेडियो की एक दूकीन के आगे पांच मिनट खड़ा हुआ और जीभरकर रेडियो देखे। दुकानदार ने पूछा भी कि आपको कौन-सी रेडियो और कितने दाम तक के चाहिए। मैंने कहा-अभी रुको भाई, पहले कुछ देर देख तो लेने दो तसल्ली से। एक साथ बहुत सारे रेडियो देखकर मन बहुत खुश हो रहा था। एक ख्याल भी आया कि दो-तीन एक ही साथ खरीद लेता हूं, पता नहीं कब लुप्त हो जाए। म्यूजियम में बाल-बच्चों को ले जाकर दिखाना पड़े, इससे बेहतर है कि घर में ही मिल जाए।


दुकानदार एक-एक करके दीखाता जा रहा था और बार-बार उसके दाम भी बताता। मैं चुपचाप देख रहा था। मैंने दुकानदार का ज्यादा समय नहीं लिया और सीधे कहा- ये दे दो। उसने फिर कहा- पहले तो ये एक हजार पिचानवे में आते थे, अब दाम गिरा है, आठ सो पांच दे दीजिए। मैंने आगे कहा-देख लो भइया, कोई गुंजाइश हो तो। उसने कहा- वाकई आप रेडियो के कद्रदान लगते हैं, कहां कोई आठ सौ लगाकर सिर्फ रेडियो खरीदता है, सब तो हजार-बारह सौ में सीडी प्लेयर लेने के चक्कर में होते हैं। अब आपसे मोल-तोल करने में ठीक भी नहीं लग रहा, चलिए आप सात सौ पचास दे दीजिए, आपको इसे बिजली से चलाने के लिए एडॉप्टर तो नहीं चाहिए। मैं उसे बिना बिजली के बैटरी से ही चलाना चाहता था, सो उसने झट से बीपीएल की तीन बैटरी डाल दी.


रेडियो में बड़ी लगनेवाली बैटरी मैं करीब सात-आठ साल के बाद देख रहा था। खरीदे हुए तो इससे भी ज्यादा समय हो गए होंगे। अपने पास जो भी चीजें है, उसमें डूरा सेल की पेंसिल बैटरी ही लगती है. मुझे याद है, तब एक बैटरी की कीमत पांच से छह रुपये रही होगी। लेकिन तीन बैटरी के दूकानदार ने ४५ रुपये लिए। अब बैटरी के उपर लोहे के पत्तर लगे होते हैं. छुटपन में जब था तो इसके उपर कागज लगे होते। जब बैटरी खत्म हो जाती तो कागज गल जाते। मां इस बैटरी को चूरकर सूप रंगा करती। एक तो इससे सूप की मजबूती बढ़ जाती और दूसरा कि बांस के रेशे जिसके चुभने का डर होता, वह भी खत्म हो जाता। कोयले के चूरे में डालती औऱ पानी के साथ मिलाकर गुल बनाती। मां का कहना था कि इससे चूल्हा ठीक से जलता है और ताव ज्यादा आते हैं। खैर,रेडियो लेकर सीधे राकेश सर के घर पहुंचा। चन्द्रा दीदी ने देखते ही कहा, मेरा भी बहुत दिन से मन हो रहा है कि एक रेडियो खरीदूं। मैंने उन्हें कई बार कहा-आप इसे रख लीजिए, मैं दूसरा खरीद लूंगा। मेरे बार-बार कहने पर भी राकेश सर ने ऐसा नहीं करने दिया। मैं चाहता था कि दीदी वो रेडियो रख ले, भले ही बदले में पैसे दे दे। इसलिए नहीं कि उनका मन हो रहा था, बल्कि भीतर कुछ ऐसा है कि लगता है, ज्यादा से ज्यादा लोग रेडियो खरीदें और सुनें।बार-बार लगता है कि रेडियो से देश का कुछ तो जरुर भला हो सकता है। यह एक संभाव्य माध्यम है।

हॉस्टल पहुंचते ही स्टडी टेबल पर रेडियो को रखा और लोहे के एरियल को पूरा खींच दिया, बहुत लम्बा एरियल। गांव के लोग सिग्नल अच्छी आने के साथ-साथ जान-बूझकर अकड़ में एरियल खींचे होते हैं। लेकिन आज रेडियो कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई अकड़ दिखाए। आज अगर कोई रेडियो को लेकर अकड़ता है तो या तो वो चंपक है या फिर एब्नार्मल। मैंने तीन दिनों तक पूरा एरियल खींचकर रेडियो बजाया। इस बीच कमरे में कई लोग आए और रेडियो के बारे में इतना पूछा जितना कि किसी के लैपटॉप या फिर मेरे टीवी खरीदने पर भी नहीं पूछा था। लैपटॉप, टीवी और आइपॉड खरीदना आज के लिए कॉमन है लेकिन रेडियो खरीदना आज के लिए कॉमन नहीं है। सालों बाद आकाशवाणी सुन रहा था, मीडियम बेब सुन रहा था.

करीब छ-साल का यह अंतराल ऐसा लग रहा था कि इस बीच बहुत कुछ बदला ही नहीं है। बीए पार्ट वन और उसके बाद सीधे पीएच।डी। इसके बीच का कुछ अता-पता ही नहीं। अतीत ऐसे भी पिघल जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चला। एफ.एम की क्लीयरिटी के बीच मीडियम बेब की घरघराहट और दो स्टेशनों के बीच की हीहहीहीही... की आवाज से अब खुन्नस नहीं देशीपन का एहसास हो रहा है, बचपन में लौट आने का एहसास हो रहा है, एफ.एम की लोकप्रियता की वजह से अब लोग रेडियो को एफ.एम कहने लगे है, अब सचमुच रेडियो का एहसास होने लगा है. मोबाइल के आने के बाद तो रेडियो शब्द भी गायब होने लग गए। लोग सीधे एफ.एम वाला मोबाइल कहने लगे हैं। एक ही साथ लग रहा था कि कई चीजें लौट आयीं है.

अच्छा, मजे की बात देखिए कि मेरे रेडियो खरीदते ही हॉस्टल के कई लोगों मे रेडियो को लेकर एक बार फिर से जोश चढ़ा है। मुन्ना ने बूफर लगाकर रेडियो बजाना शुरु कर दिया है। दिवाकर जिस टू इन वन को कबाड़ा समझकर फेंक दिया था, अब हमसे पूछ रहा है कि इसका टेप काम कर रहा है, रेडियो नहीं, कहां बनेगा। मैंने तिमारपुर के उस मिस्त्री का पता बताया जो हीटर से लेकर मेरे सोनी और नोकिया का इयरफोन कई बार बना चुका है और वो भी बीस से तीस रुपये में। नीरजजी जल्द ही घर जानेवाले हैं और गोरखपुर में पड़े रेडियो को लेकर आएंगे। उनका रुमी भास्करजी ने सीडी के साथ-साथ आकाशवाणी का इन्द्रप्रस्थ चैनल भी सुनना शुरु कर दिया है।

ये देखा-देखी करने का काम बचपन में खूब हुआ करता था। मां इसे देखाहिस्की में जुंगार छूटना कहती। अचानक कोई व्यापारी या लूडो या स्टोर में पड़ा कैरमबोर्ड उठा लाता और एक-दो दिन खेलने लग जाता तो फिर से मरा हुआ ट्रेंड जिंदा हो जाता। आनन-फानन में बिलटुआ के दूकान के सारे पेंडिंग माल निकल जाते। रेडियो को लेकर काश ऐसा हो तो मजा आ जाए।


कोई बंदा दुनियाभर की चीजों से मजे करने के बजाय रेडियो सुनने लगता है तो मुझे लगता है उसकी जिंदगी में कुछ बेहतर होने वाला है और मुझे इसके लिए उकसाने में उतना सुख मिलता है जितना किसी को किसी का धर्मांतरण करने पर भी शायद ही मिलता हो।

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आप किस दुनिया में जीते हैं साहब, अब भला कोई रेडियो खरीदता है। गया वो जमाना, हम अब अपनी दुकान में रेडियो रखते ही नहीं। दो दुकानों में रेडियो है पूछने और जबाब में नहीं होने पर मेरी चिंता बढ़ गयी कि क्या वाकई आनेवाले समय में रेडियो मिलना बंद हो जाएगा।

कैम्प की यह इलेक्ट्रॉनिक की सबसे बड़ी दुकान है। कई एजेंसियां अपने विज्ञापनों में इस दुकान का नाम देती है. मैंने खुद यहां से बहुत सामान लिए हैं औऱ दोस्तों के लिए भी आया हूं। एफ.एम चैनल पर मुझे एक लेख लिखना था। मैंने सोचा क्यों न इस बार अपना एक रेडियो खरीद लूं। एम.फिल के दौरान पूरे सालभर तक रेडियो पर काम करता रहा और मांग-मांगकर काम चलाता रहा। अब पहले वाली बात नहीं रह गयी कि रेडियो, आयरन और हीटर जैसी छोटी-मोटी चीजें लोगों से मांगे और खासकर तब जबकि हॉस्टल में हर तीन लड़के पर एक लैपटॉप हो। मेरी इधर कई दिनों से इच्छा भी हो रही थी कि एक रेडियो लूं और लेख भी लिखना था सो रेडियो खरीदने यहां आ गया।
रेडियो खरीदने की शर्त थी कि मुझे सिर्फ रेडियो खरीदनी है। आप इसे आज के समय में टिपिकल कह सकते हैं। लेकिन यकीन मानिए सिर्फ रेडियो हो तो उसके सुनने का अलग ही मजा है। दुकानदार मुझे दुनियाभर के टू इन वन दिखा रहा है। फिलिप्स, सोनी, पैनासॉनिक औऱ पता नहीं किस-किसके। मैं साफ ही कह रहा था कि नहीं भाई मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए। पहले तो उसे लगा कि ऐसा मैं पैसे के कारण कह रहा हूं। उसने हजार-बारह सौ रुपये के भीतर के म्यूजिक सिस्टम दिखाना शुरु किया। मैं बेमन से नहीं लेनेवाली नजरों से देखता रहा और अंत में कहा- नहीं, मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए, उसके साथ कुछ भी नहीं। तब उसने जबाब दिया- कहां है साहब, अब कोई सिर्फ रेडियो खरीदता है, ले जाइए इसे, दोनों मजा मिलेगा। मुझे सिर्फ एक मजा चाहिए था, मैंने मना कर दिया और पूछा कि- चलो इतना बता दो कि कहां मिलेगा। उसने कहा- इधर तो कहीं नहीं मिलेगा, चले जाइए चांदनी चौक।

मोबाइल, आइपॉड, गाडियों और टू इन वन में रेडियो के होने से नो डाउट रेडियो सुनने का प्रचलन पहले से कई गुना बढ़ा है लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि रेडियो बिकने पहले से बहुत कम हो गए हैं। अब बहुत कम ही लोग सिर्फ रेडियो लेते हैं। लेकिन मेरा अपना मानना है कि जो चीजें जिस काम के लिए बनायी गयीं हैं, उसे उसी रुप में इस्तेमाल किए जाएं। इसलिए टीवी खरीदते समय मेरे एक सीनियर ने टीवी ट्यूनर लगे अपने कम्प्यूटर पकड़ाने की कोशिश की तो मैंने साफ कहा- नहीं सर, अगर कम्प्यूटर खराब हो गया तो फिर टीवी से भी गए, अलग-अलग लेना ही ठीक होता है।

रेडियो को लेकर मैं शुरु से ही बहुत भावुक रहा हूं। इसलिए जब दुकानदार ने कहा कि अब कहां मिलते हैं रेडियो तो भावुकतावश पुराने दिनों में चला गया।

मर्फी की रेडियो से सुनना शुरु किया था। पापा को दहेज में नाना ने दिए थे वो रेडियो। उस जमाने मे रेडियो की हैसियत टीवी से कम नहीं हुआ करती थी, साइज भी कमोवेश उतनी ही हुआ करती। मुझे याद है वो रेडियो अंतिम बार मैंने अपनी जेबखर्च से अस्सी रुपये लगाकर बनवाए थे। उसके बाद उसकी कुछ ऐसी चीज खराब हो गयी कि घर के कोने में- नाना की याद में- का कैप्शन लगाकर रखने की हो गयी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया और रांची आने पर मां से एक-दो बार उसके बारे में पूछता रहा। मां ने बताया कि- उसका सब हाड-गोड छितरा गया है। यानि उसके सारे पुर्जे इधर-उधर हो गए हैं। बाद में मेरे चचरे भाई ने रेडियो मरम्मत सीखने के क्रम में उसे पूरी तरह शहीद कर दिया।

उसके बाद घर में संतोष का रेडियो आया। पापा उसे या तो बाजा कहते या फिर ट्रांजिस्टर, रेडियो कभी नहीं कहा। इसे तीन-चार महीनों तक हमें हाथ लगाने के लिए नहीं दिया गया। घर में अगर आपके साथ जरुरत से ज्यादा अनुशासन बरते जाते हों तो मामूली चीजें भी बहुत रहस्यमयी और कीमती हो जाती है। पापा और बड़े भाइयों ने शायद इसलिए ऐसा किया होगा कि हमें यह कीमती और रहस्यमयी लगे। दीदी से हाथ-पैर जोड़ता तो रेडियो बजाती, नहीं तो उस पर कॉपीराइट सिर्फ पापा का ही था। एकाध-साल बाद रेडियो में कुछ-कुछ खराबी आने लगी और पापा उसे आप ही ठीक कर लेते। कभी हैंडल टूटता, कभी स्विच टूटता औऱ बैटरी लगाने के बाद उपर का ढक्कन तो हमेशा ढीला हो जाता, सो उसे अलग ही रख देते। गांव और कस्बों में अधिकांश लोग जब रेडियो बजाते थे, खासकर संतोष तो बैटरी के उपर कवर नहीं होते और वो नंगी दिखायी देती। बीड़ी गोदाम और पेटीकोट जहां सिलते थे, वहां मैंने ऐसा खूब देखा है। जब रेडियो के पार्ट-पुर्जे ज्यादा टूट जाते और वो ऐसा लगने लग जाता कि दंगे से उठाकर लायी गयी हो, तब पापा उसे पिंकी मिस्त्रीवाले के यहां ले जाते। पापा तो सुबह दूकान चले जाते और एक ही बार रात को आते लेकिन घर में सबसे छोटा होने की वजह से हमें यह काम दे देते कि- जाकर पता करते रहना कि रेडियो मरम्मत का काम हो गया या नहीं। अब हम दिनभर में दो बार तो जरुर जाते और कभी अकड़ से कि- पापा ने कहा है कि जल्दी करे, काम हर्जा हो रहा है और कभी खुशामद से कि परसों तक दे दो, अबकि बार बिनाका गीतमाला छोड़ना नहीं चाहता। मिस्त्री अंत में उबकर बना देता। लेकिन इसमें भी मेरी फजीहत हो जाती।

एक तो पापा की तरफ से ऑर्डर नहीं था कि मैं उसे घर लाउं, मेरा काम सिर्फ बनने की सूचना देनी थी। दूसरा कि पापा के जाते ही मिस्त्री शिकायत करता कि- आपका लड़का तो रेडियो के बारे में पूछ-पूछकर जीना हराम कर देता है। आपको इतनी ही जल्दी रहती है तो कहीं और बनवाया कीजिए। वो जानता था कि पापा ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि पापा को लगता था कि बाकी के मिस्त्री संतोष का ऑरिजिनल पार्ट निकालकर लोकल डाल देंगे। इसलिए पापा कहते- कोई नहीं, अभी जाकर पूछता हूं। पापा घर आते और एक ही बात कहते- तुम्हें पूछने कहता हूं कि मिस्त्री का खाना-पीना मुहाल करने। अच्छा, कई बार ऐसा होता कि हड़बड़ी में मिस्त्री कुछ काम छोड़ देता। तब भी पापा यही कहते, अकबकाकर मांगेगा तो इसमें मिस्त्री क्या करेगा। पापा समझने लग गए थे कि ये अपनी गरज से इतनी बार पूछता है।


बोर्ड तक आते-आते मुझमें इतनी हिम्मत हो गयी थी कि एकबार दो सौ रुपये जमाकर मैंने खुद से एक रेडियो खरीद लिया। मेरे स्कूल का एक दोस्त मरम्मती का काम करता था और कम दाम में मिल जाने की बात से मैंने उसके कहने पर खरीद लिया था। घर में लोगों ने पूछा कि तुमने अलग से रेडियो क्यों खरीद लिया ? मैंने कहा-खरीदा कहा है, फंसा है। पापा ने रात में क्लास ली थी कि- फंसा है, माने। मैंने डरते-डरते जबाब दिया था कि- हां लॉटरी में फंसा है। इतना सुनना था कि पापा शुरु हो गए।

पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस और रेडियो और जुआ। जो करम खानदान में कोई नहीं किया, वो काम ये करेगा। मैंने बाद में डरते-डरते बताया कि रोज स्कूल जाने पर जो पैसे मिलते हैं और नानी ने जो पैसे दिए थे उससे लिया हूं। मुझे लगा, तब कुछ राहत मिलेगी। लेकिन...मामला कुछ उल्टा ङी पड़ गया था।


घर से पहली बार पढ़ाई के लिए बाहर निकलने पर पापा ने यही रेडियो मरम्मत कराकर और चमकाकर दिए थे। अवचेतन मन में यही सारी बातें मुझे अलग से रेडियो खरीदने के लिए उकसा रही थी।

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परसों मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि साहित्यिक गोष्ठियों में जो विषय रखे जाते हैं, उसे कुछ लोग विषय के बजाय खूंटी समझ लेते हैं और उसमें कोट से लेकर लंगोट तक लटकाने लग जाते हैं। इस मजाकिया अंदाज में बोलकर पाण्डेयजी भले ही थोड़ी देर के लिए ऑडिएंस का ध्यान अपनी ओर खींचना चाह रहे हों लेकिन हिन्दी समाज की एक बड़ी सच्चाई तो जरुर सामने आ जाती है।

हिन्दी समाज में साहित्यिक या फिर दूसरे विषयों पर बोलने वालों में एक बड़ी बीमारी है जिसे आप कभी न बदलनेवाली लत भी कह सकते हैं कि वो दुनियाभर की बात करेंगे। संभव है वो इतिहास, समाजशास्त्र और साइंस पर लम्बा बोल जाएं लेकिन उस विषय पर कुछ भी नहीं बोलेंगे जिस पर बोलने के लिए उन्हें बुलाया गया है, जनता जिन्हें सुनने के लिए गिरते-पड़ते १२- १४ किलोमीटर तक बस में धक्के खाकर आती है। आत्म-मुग्धता के शिकार ये वक्तागण बार-बार ये साबित करने की फिराक में होते हैं कि वो हिन्दी में भले ही हैं लेकिन उन्हें बाकी विषयों की भी उतनी ही गहरी समझ है जितनी कि और लोगों को होती है। एक ही साथ कई विषयों पर सरमान अधिकार साबित करने के चक्कर में ऑय-बॉय कुछ भी बोल जाते हैं। कहीं एक-दो अंग्रेजी अखबार से रेफरेंस दे दिया, कोई रशियन या फिर फ्रेंच लेखक की एक-दो पंक्ति झोंक दी।...और विद्वान कहलाने की दावेदारी ठोकने लग गए।

दिन-रात हिन्दी में ही आंख गड़ाए रखनेवाले श्रोता आतंकित होते हैं, प्रभावित होते हैं और आंखे फाड लेते हैं। बीए और एमए के बच्चे तो एकदम से घबरा जाते हैं कि- यहां बारह-चौदह घंटे हिन्दी पढ़कर पचपन प्रतिशत नंबर बनाना मुश्किल होता है और येलोग हिन्दी में रहकर भी अंग्रेजी और फ्रैंच कैसे पढ़ लेते हैं। जो लोग लेखक और लेक्चरर बनने की प्रक्रिया में होते हैं औऱ संयोग से वक्ता उन्हीं की लॉबी का हो तो वे हो-हो करके एक स्वर में कहने लग जाते हैं- अरे यही तो इनकी खासियत है, अंग्रजी उतना जानते हैं जितना कि एडहॉक में अंगरेजी पढ़ानेवाले लोग भी नहीं जानते हैं। सभागार में भय और आतंक का महौल बनता है, वक्ता भीतर ही भीतर मुस्कराते हैं, चलो कुछ तैयारी नहीं भी करके आने पर जादू चल गया। अघोरी वाला काम किया है और अंदर ही अंदर मुदित हो रहा है कि तीर मार दिया है. कैसे इन लोगों को घिन नहीं आती है कि सालों से एक ही माल को फेंट-फाट कर चला रहा है, डिब्बा तक बदलने की जरुरत नहीं समझता।

कुछ रेगुलर और कुछ समझदार लोगों को सारी बातें तो समझ में आ जाती है कि वक्ता वही सब बोलेंगे जो वो तय करके आए हैं, आयोजक चाहे जो भी विषय रख दे। हां ये बात समझने में थोड़ी परेशानी जरुर हो रही है कि पाण्डेयजी ने कोट किसे कहा और लंगोट किसे कहा।
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अधिकांश मीडियाकर्मियों को ऐसा लगता है कि आज भी टेलीविजन के मुकाबले प्रिंट मीडिया लाख गुना अच्छा है। आज भी उसमें बाजार के तमाम दबाबों के बावजूद जर्नलिज्म जिंदा है। शायद यही वजह है कि वो जब टेलीविजन की चिल्लम-पो से उकता जाते हैं, सो कॉल्ड पत्रकारिता के नाम पर बकबास करते-करते झल्ला जाते हैं तो अखबारों को पकड़ लेते हैं। आठ साल-दस साल के बाद उन्हें फिर से सत्य का ज्ञान होता है कि- नहीं अभी तक जो कर रहे थे, वो सब छल था, अब वाकई पत्रकारिता करनी चाहिए। इस बीच फ्लैट के लिए लोन की किस्त भी पूरी हो जाती है, इसलिए माल कम भी मिले तो भी काम करने में परेशानी नहीं होती। हालांकि माल कम मिलता नहीं है। यह रघुवीर सहाय की हिन्दी नहीं है जो सिर्फ मुटाती जाती है, ये हिन्दी मीडिया है जो बाजार के माल से न केवल थुल-थुल हुई है बल्कि पहले से कहीं ज्यादा दुधारु हुई है, पैसा इसमें भी है। प्रिंट के पत्रकारों ने भले ही जमीनी स्तर पर तेजी से अपना हुलिया नहीं बदला हो लेकिन माल उन्हें भी टेलीविजन के लोगों से कम नहीं मिलते। खैर,

टीवी मीडिया में दूसरे तरह के वे मीडियाकर्मी हैं जो टीवी में ही बने रहना चाहते हैं। ये उनका समर्पण कहें, मोह कहें या फिर आदत। बोलने की भी आदत खराब होती है, ड्रग्स से भी खराब, इसका इलाज सिर्फ है, पहले से ज्यादा बोलना। ज्ञान देने के लोभ से वो टीवी छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन उनका मन करता है कि वे अपनी बातों को, अपने अनुभवों को, मीडिया के ज्ञान को अखबार के पाठकों तक पहुंचाएं। एक तो पहुंच पहले से ज्यादा बढ़ती है, अच्छा सोचने और लिखने का लेबल लगता है, लोगों के बीच ये मैसेज जाता है कि- देखो, बंदा टीवी में रहकर भी इसके भीतर के खोखलेपन को कितनी हिम्मत से लिख रहा है, सबमें ऐसा करने का करेजा नहीं होता। लोग ऐसे मीडियाकर्मियों की ईमानदारी पर रीझ मरते हैं। साथ ही ये जो आम धारणा बनती जा रही है कि टीवी में काम करनेवाले लोग बुद्धिजीवी हो ही नहीं सकते , वो इससे भी बरी हो जाते हैं और बुद्धिजीवी कहलाने का सुख भी मिल जाता है। ग्लैमर, स्टेटस का कॉम्बी पैक ।

आप टीवी पत्रकारिता कर रहे मीडियाकर्मियों की बातों पर गौर करें। आप एक बार में ही अंदाजा लगा लेंगे कि ये जो कुछ भी कह रहे हैं, वो तो हम सब भी कहते हैं, टेवीविजन की जिन बातों से हमें असहमति है, उससे वे भी असहमत होते हैं। मतलब आज टीवी चैनलों के विरोध में जितना हम बोलते-बतियाते हैं, उतना तो ये भी बोलते हैं। टीवी के अंदर का बंदा भी टीवी से उतना ही असहमत है जितना कि टीवी के बाहर का दर्शक या आम आदमी। इसे आप टीवी मीडियाकर्मियों की ईमानदारी कह सकते हैं, आप इसे उसकी छटपटाहट कह सकते हैं। और वो जो लगातार प्रिंट में लिख रहे हैं, उसे फर्स्ट हैंड एक्सपीरियेंस कह सकते हैं। लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी भर है।

टीवी में काम करते हुए जो भी लोग प्रिंट में लिख रहे हैं, वे नौसिखुए लोग नहीं है, नए मीडियाकर्मी नहीं है कि फ्रस्ट्रशेन में जो मन में आया लिख दिया। ये वो लोग हैं जिन्हें मीडिया का अच्छा-खासा अनुभव है, जिनकी चैनलों के भीतर अच्छी-खासी पैठ है। वो डिसिजन मेकिंग बॉडी में हैं, उनके हिसाब से काफी कुछ चीजें तय होती हैं। हम जैसे लोगों के जाने पर बताते हैं कि खबर क्या है औऱ क्या नहीं। हम जिसे खबर मानकर शूट कर लाते हैं, वो उनके लिए खर-पतवार है, एक सिनिकल स्टेज है और उनके मुताबिक हमें जल्द से जल्द इससे उबरना चाहिए। लेकिन प्रिंट में आकर फिर यही लोग उन सब बातों पर लिख जाते हैं, लगातार लिख रहे हैं जिसे कि पाठ्यक्रम पढ़कर और संस्थानों से पत्रकारिता करके नए-नए मीडियाकर्मी चैनल में पत्रकारिता करने आते हैं। चैनल में जो चीजें नए मीडियाकर्मियों के लिए सिनिकल, नास्टॉल्जिक और कोरी भावुकता है, प्रिंट में आते ही इन अनुभवी टेलीविजन मीडियाकर्मियों के लिए सीरियस जर्नलिज्म, सच्ची पत्रकारिता।

....तो क्या हम ये मान लें कि प्रिंट माध्यमों में वो ताकत है जो कि अनुभवी से अनुभवी टीवी मीडियाकर्मियों को टीआरपी से हटकर घोर सामाजिक स्तर पर सोचने और लिखने को मजबूर कर देता है, उनकी कलम( अब कीबोर्ड) समाज से शुरु होती है और समाज पर जाकर खत्म होती है। उन्हें एहसास कराती है कि मीडियाकर्मी होने के पहले तुम एक संवेदनशील इंसान हो। या फिर इससे भी अलग कि इन टीवी मीडियाकर्मियों के लिए प्रिंट मीडिया एक कॉन्फेशन सेंटर है। जहां आकर वे थर्ड पर्सन में लिखकर सबकुछ बयान कर दें कि- मीडिया के नाम पर न्यूज रुम में क्या-क्या होता है। खबरों के नाम पर लोगों के सामने कूडे का अंबार लगाया जा रहा है। ये हमें जानकारी देने से ज्यादा अपना मन हल्का करने के लिए लिख रहे हैं। कॉलेज के दिनों में ये काम हमने चर्च के फादर के सामने खूब किया है।

साहित्य में ये काम विद्यापति और घनानंद जैसे मूर्धन्य कवियों ने खूब किया है। जीवनभर नायिका-भेद और श्रृंगार परक रचनाओं के लिखने बाद अंत में उन्हें लगा कि- अब तक हमनें जो कुछ भी किया, वो ठीक नहीं था, हमें ये सब नहीं करना चाहिए था । अंतिम दौर में उन्होंने जो पद लिखे हैं, उसे पढ़कर आपको अंदाजा लग जाएगा कि वे अबतक के अपने किए गए कर्म को पाप समझ रहे हैं और ईश्वर पर लिखकर प्रायश्चित करना चाहते हैं।... तो टीवी के अनुभवी मीडियाकर्मी, प्रिंट में लिखकर कुछ ऐसा ही कर रहे हैं या फिर अपनी अनुभूति की प्रामाणिकता हमारे सामने पेश कर रहे हैं।




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रणेन्द्र सर को लिखी चिट्ठी का बाकी हिस्सा
यह उपन्यास इस अर्थ में भी बेजोड़ है कि इसने पूरी तरह सामाजिक विकास होने के पहले ही धर्म की सत्ता स्थापित होने और उसके सांस्थानिक प्रक्रिया में बदल जाने की पूरी घटना को स्वाभाविक तरीके से चित्रित करता है। धर्म का यह स्वरुप पहले के धर्म की सत्ता से भिन्न इस अर्थ में है कि इसके दरवाजे आगे जाकर पूंजीवाद और राजनीति में खुलते हैं. शोषण के स्तर को बनाए रखने के लिए जिन रुपों में गठजोड़ संभव है, धर्म उन सबके साथ है। इसलिए यह फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि कोशिशें धर्म के जरिए शोषण कायम करने की हो रही है या फिर शोषण के जरिए धर्म ( सत्ता) को बनाए रखने की कवायदें चल रही है।
जिस धर्म को विकृत भौतिकतावाद और शोषण के विरोध में होना चाहिए था उस पर भी भौतिक साधनों के जरिए ग्लोबल होने का भूत सवार है। इसलिए अलग दिखने वाले( व्यवस्था से) इस धर्म में ग्लोबल तत्व, राजनीतिक चरित्र, मानसिक विकृति और शोषण के चिन्ह मिलते हैं तो उपन्यास में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. मानसिक विकृति, व्यावसायिक रुझान और सत्ता के वर्चस्व के रुप में जिस तरह से धर्म समाज में स्थापित हो रहा है और होता आया है उसकी सही अभिव्यक्ति यहां मौजूद है।

मानव सभ्यता के विकासक्रम में सत्ता के प्रति असहमति के स्वर को जितनी चतुराई से दबाया जाता रहा, एक मानव समुदाय को संस्कृति और जीवनशैली के स्तर पर सम्पन्न होने के बावजूद मनुष्य के वर्चस्ववादी वर्ग ने असुर करार दिया, हेय बताया है, उपन्यास में ये सारा दुश्चक्र कम कुशलता से रेखांकित नहीं किया गया है। इसे मैं सिर्फ समाज के प्रति न्याय करने के प्रयास के तौर पर नहीं देखता बल्कि इसमें दुनिया के हर वर्चस्ववादी सत्ता के प्रतिरोध में उठनेवाले स्वर के समर्थन के रुप में देखता हूं। इसलिए अंत तक आते-आते यह रचना भाषा व्यवहार और परिवेशगत यथार्थ के स्तर पर आंचलिक होते हुए भी शोषितों के पक्ष और समर्थन के स्तर पर ग्लोबल हो जाती है। यानि आर्थिक रुप से ग्लोबल मॉडल को लेकर सिर्फ निर्दोष जंगल ही ग्लोबल नहीं हो रहे, संघर्ष के स्तर पर, इस ग्लोबल मॉडल से लड़ने के स्तर पर विचारधारा भी ग्लोबल हो रही है। यही समाज की ताकत भी है और आपकी व्यवहारिक समझ भी।और
फिर जिस ज्ञान और वैश्विकता के दम पर आम आदमी के लिए शोषण के हथियार तेज किए जा रहे हों, आम आदमी के हाथ में वही ज्ञान और वैचारिकी आ जाएं तो इसमें बुरा क्या है। इसलिए आपके उपन्यास के पात्रों के मर-खप जाने के बाद भी संघर्ष की प्रक्रिया जारी रहती है तो उनका मरना भी निरर्थक नहीं लगता। उपन्यास का एक स्वर यह भी है।
मैंने अपनी क्षमता से जो कुछ भी समझा, लिख दिया। कथानक पर कोई चर्चा नहीं की, पात्र और घटनाओं को लेते हुए कहीं आगे लिखूंगा। फिलहाल इतना ही। मेरे लिखने से यह सत्यापित हो जाए कि मैंने आपके इस उपन्यास को मन से पढ़ा है तो मेरी उपलब्धि हासिल समझिये ।
आपका
विनीत
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करीब चार साल बाद किसी को हाथ से चिट्ठी लिखी है और वो भी स्याही की कलम से। लिखते समय स्याही से गंदे हुए हाथ से लेकर सिस्टर लिंड़ा का चेहरा याद हो आया- ओ फूल व्ऑय, तुम इतना भी नहीं जानता कि किस हाथ से लिखना होता है। मैं दोनों हाथों से लिखता, अंत में सिस्टर ने हाथ पर निशान बना दिए थे जिससे कि मुझे लिखना था। यह चिट्ठी मैंने रणेन्द्र सर को लिखी. दो महीने पहले रणेन्द्र सर( चर्चित कहानीकार और इन्साइक्लोपीडिया ऑफं झारखंड के संपादक) ने मुझे अपने उपन्यास लालचन असुर औऱ ग्लोबल गांव का देवता की पांडुलिपि दी और कहा कि पढ़कर बताइएगा कि कैसा लगा आपको यह उपन्यास।आमतौर पर मैं साहित्य और खासकर उपन्यास नहीं के बराबर पढ़ता हूं। एमए के दौरान मैंने बहुत सारे उपन्यास पढ़े और वो भी व्याख्या में अच्छे नंबर आने के लोभ से। जिस उपन्यासकार की रचना कोर्स में लगे होते, उनके बाकी के भी उपन्यास पढ़ता या फिर जिस प्लॉट पर उपन्यास लिखा होता, उससे जुड़े बाकी के भी उपन्यास पढ़ता। सिलेबस के बाहर मैं बहुत कम ही पढ़ा करता। मुझे लगता कि विद्वान बनने के लिए जीवन पड़ा है जबकि नंबर लाने के लिए एक सीमित और खास समय होता है। इधर चार साल से लगातार मीडिया में काम करने से साहित्य लगभग छूटता चला जा रहा है। एक तो समय नहीं मिल पाता और दूसरा कि कई चीजें अव्यवहारिक और अविस्वसनीय लगने लगे हैं। रणेन्द्र सर ने इसी बीच अपनी पांडुलिपि दी।एक दिन सिर्फ इस उपन्यास के लिए तय कर लिया और एक ही सीटिंग में पूरा पढ़ गया। यह जानते हुए भी कि अगर आज खत्म पूरा नहीं किया तो फिर पता नहीं कब कर पाउंगा. लेकिन वजह सिर्फ इतनी नहीं थी. बिना इससे बंधे चाहकर भी खत्म कर पाना मुश्किल हो जाता। पढ़ने के क्रम में जब मैंने रणेन्द्र सर को बताया कि-बीच-बीच में भावुक हो रहा हूं सर, दो साल से रांची नहीं गया, याद आ रही है कई चीजें. उन्होंने फोन पर ही कहा- आप जो कुछ भी महसूस कर रहे हैं, आप हमें एक चिट्ठी लिख दें। मैंने कहा-कोशिश करुंगा और खत्म करने के बाद मैंने तय किया कि एक चिट्ठी लिख ही दूं।रणेन्द्र सर को मेरी ये चिट्ठी व्यक्तिगत तौर पर लिखी गयी चिट्ठी से कुछ आगे की चीज लगी. वो इसे समीक्षा के आस-पास की चीज बताने लगे और कई बार कहा कि आप इसे अपने ब्लॉग पर डाल दें, ताकि बाकी लोग भी शेयर कर सकें। मैं भावुक होकर लिखी गयी इस चिट्ठी को सार्वजनिक कर रहा हूं। उपन्यास में कई पेंच है और उनसे मेरी असहमति भी लेकिन नास्टॉल्जिक हो जाने की वजह से मैंने लिखा ही नहीं। आप उपन्यास पढ़ें और सहमति या असहमति में रणेन्द्र सर से बातचीत करें. नंबर है- फिलहाल मेरी चिट्ठी पढ़ें-
रणेन्द्र सरकुछ कहूं, इसके पहले बधाई स्वीकार करें. मैं यहां बिल्कुल ठीक हूं. अपनी भाषा में कहूं तो मस्त और बिंदास। खूब टीवी देखता हूं और, उस पर विचार करता हूं और विमर्श के नए संदर्भों के हिसाब से विश्लेषित करने की कोशिश करता हूं. इन सबके बीच आपका उपन्यास लालचन असुर और ग्लबल गांव का देवता भी पढ़ा। हालांकि सिर्फ पढ़ा शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त नहीं होगा। खैरइस उपन्यास के लिए अगर पहली लाइन कहूं तो सर, यह एक विश्वसनीय उपन्यास है. विश्वसनीय सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि जिस प्लॉट को आपने उठाया है वह एक वास्तविक घटना है बल्कि उससे भी ज्यादा कि आपने उसका जो ट्रीटमेंट किया है वो विश्वसनीय है। यह प्रयोग भाषा-व्यवहार, रोजमर्रा की जिंदगी, परिवेशगत यथार्थ के साथ-सात रचनाकार के अपने अनुभव और विचार के स्तर पर भी है. कहीं भी नहीं लगता कि आपने ऐसे प्रसंगों को तूल देने की कोशिश की है जिसमें आपके स्वयं के विचार को ज्यादा स्पेस मिले. आपने पाठकों की समझदारी पर पूरा भरोसा किया है। नहीं तो बड़े से बड़े रचनाकारों के साथ देखता आया हूं कि वो पाठकों की बौद्धिक दक्षता और संवेदना को कमतर करके देखते हैं. ऐसा होने से एक तो रचना अनावश्यक तौर पर परिचयात्मक होने लग जाती है और एक स्तर पर उचाट भी । चाहते तो आप ग्लोबल होने के तीव्र प्रभाव को सतही या फिर कमतर करके दिखा सकते थे और लोगों का भरोसा भी जमता, बल्कि कईयों को बेहतर भी लगता लेकिन आपने ऐसा नहीं किया है। आप जिस मसले पर बात कर रहे हैं, विधा के स्तर पर उसे भले ही उपन्यास का नाम दिया जाए लेकिन इसमें सजग और संजीदा पत्रकार के स्वर ज्यादा मुखर हैं औ समस्याओं के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद भी घटना के प्रति तटस्थता इसकी खुबसूरती.हम जैसे लोग जो उस अंचल से रहे हं और महानगरों में आकर बस गए, उसके लिए यह उपन्यास चुनौती है. हमें उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार लगा कि हम जितने भी साल उस अंचल में रहे, महानगरों में आने की हड़बड़ी में आधा-अधूरा जीकर आ गए. इस बीच कई चीजों पर नजर नहीं गयी और कई चीजों को नजरअंदाज कर गए। इसलिए, उस अंचल के होने का दावा बहुत मजबूत नहीं रह जाता.जो उस अंचल के नहीं हैं, उनके लिए इस उपन्यास को पढ़ पाना, थोड़ी-बहुत भाषिक परेशानियों के बावजूद भी एक विस्मयकारी अनुभव होगा कि- अरे, ग्लोबल इफेक्ट के साथ-साथ असुर संस्कृति, यह सब झारखंड और उड़ीसा जैसी जगहों पर अब भी बरकरार है। जो जीडीपी के बढ़ने पर कुलांचे भर रहे हैं और ग्लोबल होकर ही सम्पन्न होने का दावा ठोंक रहे हैं, जिनके लिए डेवलप्ड इंडिया का एकमात्र विकल्प आर्थिक उदारीकरण है, उन्हें यह उपन्यास अपने मॉडल को फिर से विश्लेषित करने के लिए उद्वेलित करता है।........ चिट्ठी का बाकी हिस्सा कल
नोट- रणेन्द्र का यह उपन्यास नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में सम्पूर्ण रुप में प्रकाशित हुआ है और इसे http://jnanpith.net/ny.pdf पर पढ़ा जा सकता है।
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वैसे तो मीडिया और टेलीविजन को लेकर स्टीरियो टाइप की समीक्षा लम्बे समय से होती आ रही है. लगभग सारे अखबारों ने इसके लिए वाकायदा कॉलम बना रखे हैं। लेकिन मीडिया समीक्षा को एक विधा के तौर पर विकसित करने की कोशिश में भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से निकलनेवाली पत्रिका संचार माध्यम का वाकई कोई जबाब नहीं. मीडिया को रिसर्च औऱ समीक्षा के जरिए देखने-समझने के लिए यह पत्रिका एक गंभीर मंच है.
पिछले शुक्रवार को आइआइएमसी जाना हुआ। आनंद प्रधान सर से कुछ बातचीत करनी थी. जाने पर पता चला कि अभी वो हिन्दी पत्रकारिता की क्लास ले रहे हैं। अब चालीस-पचास मिनट कहां बिताए जाएं, यही मैं सोचने लगा. तभी ध्यान आया कि आज से दो साल पहले मैंने संचार माध्यम की सदस्यता ली थी। तब पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया था. फिर भी यह सोचकर कि कभी तो प्रकाशन शुरु होगा, मैंने सदस्यता ले ली थी। इस बीच इस पत्रिका के लिए मैंने भी एक लेख लिखे और डाक द्वारा वो अंक भी मिल गया. यह कोई सात-आठ महीने पहले की बात है. उसके बाद मेरा वहां जाना ही नहीं हुआ। सोचा, चलो पता करते हैं, अगर इस बीच नए अंक आए होंगे तो ले लूंगा और पुराने अंक भी होगें तो उसे भी खरीद लूंगा..ऑफिस में जाने पर पता चला कि कल ही संसदीय पत्रकारिता पर विशेषांक आया है जिसमें कुलदीप नैय्यर सहित कई महत्वपूर्ण लोगों के लेख हैं. ऑपरेशन दुर्योधन से लेकर बाकी स्टिंग ऑपरेशन की चर्चा है। संसदीय रिपोर्टिंग को लेकर विशेष सामग्री है। मीडिया से जुड़े लोगों के लिए अनिवार्य अंक है, मैंने उसे खरीदा और पता किया कि और पुराने अंक कौन-कौन से आए हैं. ऑफिस की मैम ने सारे अंको की एक-एक प्रति निकाल दिए. कुल चार अंक थे. एक प्रति की कीमत २५ रुपये। सारे अंक लेकर मैं आनंद प्रधान सर के चैम्बर में पहुंचा और बताया कि मैंने सारे अंक खरीद लिए हैं. मीडिया पर सामग्री के लिहाज से २५ रुपये कुछ भी नहीं है।संचार माध्यम में छपे लेखों की जो सबसे बड़ी विशेषता मुझे लगी वो यह कि एक भी लेख स्टिरियो टाइप से नहीं लिखे गए थे। सारे नामचीन लोगों के लेख तो थे ही लेकिन उसके साथ यह भी था कि लेख को पढ़ते हुए किसी को भी अंदाजा लग जाएगा कि लेखक ने खासतौर से समय देकर पत्रिका के लिए लेख लिखा है. नहीं तो कई बार मैं देखता हूं कि मीडिया लेखन के नाम पर बड़े से बड़े लोग अपना एकतरफा मत देकर निकल लेते हैं। वो न तो रिसर्च करते हैं और न ही समीक्षा के लिए विश्लेषण पद्धति अपनाते हैं. उनके भीतर एक तरह का आत्मविश्वास होता है कि वो मीडिया समीक्षा के नाम पर जो कुछ भी लिख देगें, पाठकों के लिए ब्रह्म वाक्य हो जाएगा। इसलिए हिन्दी मीडिया समीक्षा में बहुत कुछ लिखे जाने के बाद भी व्यवस्थित मीडिया पद्धति का विकास नहीं हो पाया है, कार्यक्रमों की विविधता और माध्यमों की अलग-अलग प्रकृति के हिसाब से आलोचना पद्धति का विकास नहीं हो पाया है.संचार माध्यम पत्रिका के अधिकांश लेख को पढते हुए हमें यह सहज लगा कि लिखनेवाले ने विषय पर ठीक-ठाक रिसर्च किया है और इस बात की चर्चा जब हमनें आनंद प्रधान सर जो कि पत्रिका के सहायक संपादक भी है से की तो उन्होंने भी यही कहा कि- हम चाहते हैं कि संचार माध्यम मीडिया की रिसर्च मैगजीन बने। इसलिए लेखकों से अनुरोध भी करते हैं कि वे संदर्भ सहित अपनी बात रखें तो ज्यादा बेहतर होगा। लेख के जितने भी विषय हैं, वे मीडिया के बदलते चरित्र पर विस्तार से बात करते हैं। चाहे वो बच्चों की पत्रकाओं में सामाजिक टकराव का मामला हो या फिर समाचार चैनलों पर खबरों के अन्डरवर्ल्ड का मामला या फिर पूंजीवाद के आगे संपादको के मैनेजर बन जाने की घटना. सबों पर लोगों ने व्यवस्थित ढ़ंग से लिखा है।. .. और मजे की बात है कि इन सारे लेखों में आज की मीडिया की आलोचना वेलोग कर रहे हैं जो कि सीधे-सीधे मीडिया से जुड़े हैं। ऐसा होने से लेखों में अनुभव की परिपक्वता के साथ-साथ भविष्य में मीडिया को लेकर जताए जानेवाली आशंका भी विश्वसनीय लगती है और इससे भी बेहतर स्थिति है कि इसे बदलने की छटपटाहट भी मौजूद है.इन सारे अंकों को पाकर मैं इतना खुश था कि चलते-चलते मैंने आनंद सर से कहा- सर, मैंने तो आकर सारे अंक ले लिए लेकिन जिस तरह की सामग्री इसमें प्रकाशित की गयी है, मुझे लगता है कि यह डीयू के लोगों के बीच जरुर जानी चाहिए. मैं तो देखता हूं कि लोग मीडिया के नाम पर कुछ भी पढ़ ले रहे हैं, इस बात की चिंता किए बगैर कि इसमें कहां, क्या कितना सही है. इस पत्रिका का ज्यादा से ज्यादा प्रसार होना चाहिए। मेरा तो मन कर रहा है कि सबों की दस-दस प्रति खरीदकर डीयू के बुक स्टॉल में रख दूं. आनंद सर ने कहा- नहीं- नहीं मैं ही देखता हूं कुछ, नहीं होगा तो तुमको याद करुंगा।हिन्दी मीडिया पर एक अच्छी पत्रिका छपे और वो ठीक ढंग से लोगों के बीच न पहुंचे तो मीडिया से जुड़े किसी भी व्यक्ति को अफसोस तो होगा ही न....
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जनसत्ता को लेकर जोशीजी को भावुक हुए अभी १५ दिनों से ज्यादा नहीं हुए, त्रिवेणी सभागार में मीडिया जगत के नामचीन लोगों को इसे प्रेरणा बिन्दु स्वीकार करने का मामला अभी भर जी थमा भी नहीं है कि कल जनसत्ता ने फिर भारी गड़बड़ी कर दी। इस गड़बड़ी पर अगर आप गौर करेंगे तो आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि यहां किस तरह से खबरें तैयार की जाती है।दो-तीन बार जनसत्ता की कमजोरियों पर लिख देने के बाद कुछ लोगों को लगने लगा है कि मैं इस अखबार की गड़बडियों के बारे में लिखने का जिम्मा सिर्फ मेरा ही है। कल ही एक भाई साहब ने फोन पर भड़कते हुए बताया- लीजिए अब आपको एक और मसाला मिल गया, आज का अखबार पढ़िए और लिखिए कि क्या कर रहे हैं जनसत्ता के लोग. मैंने तय कर लिया था कि अब नहीं लिखना है, लिखने को तो लिख दे लेकिन बेवजह परेशानी झेलनी पड़ती है। दिनभर दूसरे कामों में व्यस्त रहा और इस बीच भाईजी कोचते रहे- लिख दिए, कब लिख रहे हैं, काहे चुप हैं अब, सेटिंग हो गयी है क्या। मैं समझ गया कि लिखे बिना भाईजी को चैन नहीं मिलेगा।मामला जनसत्ता ७ अगस्त २००८ के पेज नं- ७ पर छपी खबर को लेकर है। यह संपादकीय पेज का ठीक पड़ोसी पन्ना है। जो अखबार में संपादकीय पढ़ते हों, उनकी नजर अपने आप इस पन्ने पर भी चली जाएगी।दो तस्वीरें हैं- एक तस्वीर है जिसमें छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं औऱ दूसरी तस्वीर है विश्व शांति के लिए छात्र प्रार्थना कर रहे हैं। आप तस्वीर देखिए जिसमें छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके कैप्शन में लिखा है- विश्व शांति के लिए अमदाबाद में बुधवार को प्रार्थना करते छात्र । कोई भी आदमी तस्वीर देखकर पूछेगा कि- कहां प्रार्थना कर रहे हैं, ये तो नारे लगा रहे हैं। दूसरी तस्वीर में मोमबत्तियां जल रही है और वो इस रुप में रखीं हैं कि पीइएसीइ, पीस यानि शांति शब्द बन जा रहा है। चारो तरफ छात्र हाथ जोड़े हैं। इसका कैप्शन है- अखिल भारतीय छात्र संघ के कार्यकर्ता अपनी मांगों के समर्थन में बुधवार को पटना के हिमगिरी एक्सप्रेस के सामने प्रदर्शन करते हुए। इस तस्वीर को देखकर भी लोग यही कहेंगे कि कहां कोई प्रदर्शन कर रहा है।हुआ यह है कि दोनों तस्वीरों के नीचे जो कैप्शन लगा है, वह उल्टा है। वैसे उलट जाना कोई भारी बात नहीं है लेकिन पाठक के सामने जो संदेश जाता है वह यह कि क्या जनसत्ता में भी वही सब हो रहा है जो कि हिन्दी के बाकी अखबारों में हो रहा है। जो लोग उस दिन जोशीजी के पांच किताबों के लोकार्पण में गए और इस पेज को देखा होगा, वे दो ही बातें कहेंगे- एक तो यह कि जनसत्ता को अलग बने रहने के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी, नहीं तो दावे बड़े पाखंड लगेंगे। अभी छपाई की गड़बड़ी पर नजर जा रही है, कल को खबरों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे। लापरवाही जब आती है तब छांट-छांटकर तो आती नहीं। दूसरा वे यह भी कहें कि क्या जोशीजी का मन आज की जनसत्ता को देखकर कभी रोता नहीं।
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लेख छपने की बधाई मिलने के बाद अब उसके प्रति असहमति के भी संदेश आने शुरु हो गए हैं। कल ही यूनआई से फोन करके एक ने कहा कि सांप-संपेरे की कहानी से भरे और आम आदमी के मुद्दे से महरुम टीवी की आपने इतनी गंभीर आलोचना की है, आप बाजार के स्वर बोल रहे हैं, आपने टीवी का पक्ष लेने के लिए जो विचार की बत्ती जलाई है, माफ कीजिएगा पाठक हूं लेकिन आपसे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। लेख प्रोवोकिंग लगा इसलिए फोन किया।
नया ज्ञानोदय पत्रिका ( अगस्त अंक) में मैंने टेलीविजन और मीडिया को लेकर हिन्दी मीडिया समीक्षा के इकहरेपन की चर्चा की है। लेख का शीर्षक है- टेलीविजन विरोधी समीक्षा और रियलिटी शो । लेख में मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि हिन्दी में जो भी लोग मीडिया समीक्षा कर रहे हैं उनमें से अधिकांश साहित्य के चश्मे से मीडिया को देखना चाहते हैं या फिर शुरुआती दौर से चली आ रही उस मानसिकता के हिसाब से कि टेलीविजन बच्चों को बर्बाद करता है, यह पूंजीवाद को बढ़ावा देता है।
लेख में मैंने दो-तीन जगह स्पष्ट कर दिया है कि हालांकि टीवी और मीडिया उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवाद को बढावा दे रहे हैं लेकिन रियलिटी शो और इस तरह के अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी जो नयी छवि बनाने में जुटा है उससे हिन्दी मीडिया आलोचकों के औजार जरुर छिन लिए गए हैं, टीवी की जो शक्ल हमारे सामने हैं वहां इनके औजार भोथरे पड़ गए हैं। यही वजह है कि आज हिन्दी मीडिया के आलोचक जब इसकी समीक्षा करते हैं तो पाठकों के प्रति विश्वसनीयता जम नहीं पाती और इधर टीवी के लिए काम करनेवाले लोग भी इसे उल-जूलूल बताकर खारिज कर देते हैं।मैंने टीवी और मीडिया के बदलते स्वरुप के आधार पर समीक्षा करने की बात की है और पूंजीवादी माध्यम होने के बावजूद इसे संभाव्य माध्यम बताने की कोशिश की है.इन सबके बीच उनका कहना है कि आप मार्केट के आदमी हैं, आप समझ ही नहीं पा रहे हैं कि टीवी कुछ गिने-चुने लोगों के लिए फायदेमंद है, यह हमारी संस्कृति को किस रुप में भ्रष्ट कर रहा है, इसका आपको अंदाजा नहीं है।मीडिया की लगातार मैं भी आलोचना करता रहा हूं लेकिन सिरे से इसे खारिज करने के पक्ष में नहीं हूं, खासकर के तब जब देश की लगभग सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोग इससे प्रभावित होते हैं। औऱ न ही इस पक्ष में कि मीडिया आलोचना का मतलब सिर्फ इसका विरोध है। हां इतना जरुर जानता हूं कि हिन्दी में जिस तरीके से इसकी आलोचना की जा रही है वह न केवल अपर्याप्त है बल्कि कई स्तरों पर अप्रासंगिक भी।
लेख का लिंक - http://jnanpith.net/ny.pdf
लेख पढ़कर आप खुद भी राय दें, सहमति और असहमति व्यक्त करें।
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मैं लोगों के बीच इस बात के लिए बदनाम हूं कि दिनभर गांव की लड़कियों की तरह कमरे में दिन बिताता हूं, रुमघुसरा हूं. कमरे में रहकर इन्टल होना चाहता हूं और कमरे में रहकर ग्लोबल स्तर पर ख्याति पाना चाहता हूं। लेकिन इधर पिछले दस दिनों से मैं ठीक इसके उलट कर रहा हूं. दिनभर इधर-उधर मारा-मारा फिर रहा हूं। मैं फैकल्टी कभी नहीं जाता. गाइड से फोन पर बातचीत हो जाती है लेकिन इधर रोज जा रहा हूं। लाइब्रेरी के आगे बैठे लोगों को मन ही मन गाली देता रहता कि उन लोगों को कोई काम नहीं है जो दिनभर यहां बैठकर भसर करते है। लेकिन आजकल मैं खुद बिना कोई काम के दिनभर यहां बैठता हूं। हिन्दी की सभा-संगोष्ठियों में जाने में बड़ी बेचैनी होती है, सब अपनी-अपनी गोटी लाल करने में लगे रहते हैं और मै उन्हें देखकर खीजता रहता हूं. लेकिन आजकल यहां भी जाता हूं। कुछ लोग मिल जाते हैं और कहते हैं कि फोटो में तो बहुत उमरदराज लगते हैं।
आजकल मैं दिनभर क्या करता हूं, मुझे खुद भी पता नहीं चलता। रोज इस कोशिश में सोता हूं कि सुबह उठकर रेगुलर कोई काम करुंगा। लेकिन अगली सुबह तक सो ही नहीं पाता कि दिन में व्यवस्थित होकर काम कर सकूं। कुछ लोगों को वायदा कर चुका हूं कि इतने तारीख तक लेख दे दूंगा लेकिन दे नहीं पा रहा. फोन कर-करके सबसे माफी और मेल करके सॉरी बोल रहा हूं। शाम होते-होते मन भारी होने लगता है। एक ही चिंता खाए जाती है कि आज नींद कैसे आएगी और फिर किसी न किसी बहाने किसी के पास चला जाता हूं. एक बार भी किसी ने कह दिया कि रुक जाओ खाकर जाना तो रुक जाता हूं। किसी ने कह दिया-रात हो गयी है, सुबह चले जाना तो जान में जान आ जाती है और वही सो लेता हूं। उनसे भी बात करता हूं जिन्हें कल तक झेल कहता रहा। पता नहीं क्या-क्या बातें करने लगा हूं जिसे अब तक मैं कहता रहा कि बकवास बंद करो। आप कह सकते हैं कि मैं इन दिनों एब्नार्मल हो गया हूं। मैं वो होता जा रहा हूं जो कभी होना नहीं चाहता, मैं वो सब करने लगा हूं जो मैं करना नहीं चाहता. मुझे भावुक होना बहुत बुरा लगता है लेकिन मैं भावुक हो उठता हूं। मुझे लगता रहा है कि भौतिक चीजों से लगे रहने और काम में फंसे रहने से टेंशन दूर हो जाती है लेकिन इसका भी भ्रम टूटने लगा है। मैं काम को टालने लगा हूं, अपने सर को चैप्टर दिखाने में कोताही बरतने लगा हूं।
फोन पर मेरे गाइड से एक या दो मिनट से ज्यादा बात नहीं होती। इधर फोन करते ही कहता हूं- सर आपसे दो मिनट बात करनी है और १५ से २० मिनट तक उन्हें यही सब बातें सुनाने लग जाता हूं। वो सुनते हैं, साहस बंधाते हैं और अंत में मैं सॉरी बोलता हूं। फिर परेशान होता हूं। रेसीडेंट ट्यूटर को फन करता हूं- पूछता हूं सर मेरे बारे में क्या किया जा रहा है, मेरा कमरा कब बदल रहे हैं, मैं बिल्कुल पढ़ नहीं पा रहा सर, सो नहीं पा रहा सर। मैं बुरी तरह अपसेट हो गया हू सर। वो कहते- कीप पेसेंस विनीत, मैं एक रात में तो कुछ भी नहीं कर सकता न। आय एम वरीड अबाउट यू एन योर करियर. वार्डन को फोन लगाता हूं। शुरु में एक बार के बाद कभी नहीं उठाते और अगर बूथ से बात हो जाए तो फिर से सबों का नाम देने कहते हैं। प्रोवोस्ट ने तो एक बार पूरी बात सुन ली लेकिन अब छोटी-मोटी बातों के लिए परेशान करने में विश्वास नहीं रखते.
जिस कमरे को मैंने बहुत मेहनत से जमाया, पर्दे से लेकर क्रॉकरी के लिए अच्छे-खासे पैसे के साथ दिन-दिनभर का समय बिताया, अब ये सब मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। स्वीपर को घुसने नहीं देता, खुद भी पोछा नहीं मारता। लगता है जो जैसे हैं, उसे वैसे ही पड़ रहने दो। फ्रीज में पानी तक नहीं भरता. सारी चीजें खराब होतीं जा रही है और मैं फेंकता जा रहा हूं। याद नहीं कि कब मेस टेबल पर बैठता हूं, खाता हूं।
क्या इतनी-सी बात हमें इतना परेशान करेगी। मेरे कमरे में कोई एक दिन शराब पीकर हंगामा कर दे तो इसका मेरे उपर इस तरह का असर होगा. पढ़ते हुए भी ये सब आपको बचकाना लगेगा। मेरे साथी भी कहते हैं जो आदमी पूरी दुनिया को खुल्ला चैलेंज करता है वो ऐसे कैसे कर सकता है। जो लोग हसरत से मुझे फोन करते थे, मुझसे मिलने की बाट जोहते थे, जिनके पास चला जाउं तो कहां-उठाउं कहां बैठाउं करते थे- आज बताते हैं कि वो फलां काम में विजी हैं। जिस कुछ को यकीन हो गया था कि ये लड़का लिख-लिखकर हंगामा खड़ा कर सकता है, आज वो सब हम पर तरस खा रहे हैं. मेरा मन कहीं भाग जाने का करता है, मेरा मन हॉस्टल छोड़ देने का करता है, मेरा मन पापा के साथ साडी और धोती बेचने का करता है, मेरा मन रिसर्च छोड़ देने का करता है.
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लोगों के चारों तरफ से घेर लेने के बाद भी अंत-अंत तक अपनी बात कहने की कोशिश करता रहा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हमें यह लिखना ही था कि हमसे गलती हुई है और हम लिखित माफी मांगे। मैंने कहा- चलो बाहर निकलते हैं, कागज-कलम लेने। मैं बाहर भी गया तो लोग मुझे चारों तरफ से घेर हुए थे। मैं अपने दोस्त मुन्ना के पास गया और नीचे की ओर उतरने लगा। मुझे इस बात का बार-बार मलाल था कि जिस बंदे को मैंने एम.फिल् में बताया कि ऐसे काम करो, जिस बंदें को अपनी असुविधा को नजरअंदाज करते हुए रात-रातभर टीवी इस्तेमाल करने दिया, आज वही मुझसे तू-तड़ाक में बात कर रहा है और मेरा पार्टनर इतना गिरा हो सकता है कि वो सब कुछ तय होने के बाद इस तरह से लोगों को मेरे खिलाफ इकट्ठा हो जाएगा। मुझे गहरा सदमा लगा, मेरे पेट में अचानक तेज दर्द शुरु हुआ और मैं बेहोश हो गया। जब नींद खुली तो मैंने अपने को अपने कमरे में पाया. मैं तब रो रहा था, बहुत जोर से, इतने जोर से कि मैं कुछ कह नहीं पा रहा था, स्टोन का दर्द जानलेवा होता है. मैं किसी भी तरह से अपने को रोक नहीं पा रहा था। मुन्ना ने राकेश सर को फोन लगा दिया था और उनके बार-बार पूछने पर भी कि क्या हुआ, मैं बता नहीं पाया। अंत में दस मिनट के भीतर राकेश सर खुद मेरे पास आ गए. मुझे अपने साथ घर ले गए और रात भर उन्हीं के पास रहा। इस बीच पार्टनर का दो-तीन बार फोन आया और बार-बार यही कहता रहा कि विनीत से बोलिए कि वो लिखकर दे दे कि उसने कमरे में किसी को भी शराब पीते हुए नहीं देखा है, उसे गलतफहमी हुयी है। राकेश सर ने बताया-वो सो रहा है उसकी तबीयत ठीक नहीं है।वार्डन को जब इन सारी बातों की जानकारी हुई तो उन्होंने उन चौदहों-पन्द्रहों के खिलाफ शिकायत लिखने को कहा। मैंने कहा-सर मेरा सिर्फ कमरा बदल दीजिए, बाकी मैं पहले से ही परेशान हूं। इनके खिलाफ शिकायत करके मैं और परेशान हो जाउंगा। वार्डन अपनी बात पर अडे रहे। मुझे मुन्ना की हालत याद हो आयी। नबम्बर की ठंड में उसे दस-बारह लोगों ने घेरकर मारा था, रात के तीन बजे लाकर हॉस्टल के आगे छोड़ दिया था। कई दिनों तक वो इससे उबर नहीं पाया था। एक ही बात कहता-चार साल पहले की दुश्मनी निकाली है लोगों ने सर। किसी का अब यूनिवर्सिटी से कोई लेना-देना नहीं है।यह बात सच है कि हॉस्टल के भीतर ऑथिरिटी आपको सुरक्षा देगी लेकिन हॉस्टल के बाहर आपकी स्थिति आम आदमी की तरह है। मेरे पार्टनर के सात जो लोग थे, उनमें से कईयों के कोर्स खत्म हो चुके हैं और अब उन्हें यूनिवर्सिटी से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें इस बात का डर नहीं है कि उन्हें निकाल-बाहर किया जाएगा। मैं उलझना नहीं चाहता था.मेरी शिकायत के करीब सात दिन हो गए हैं। कारवाई के नाम पर सिर्फ इतना हुआ है कि पार्टनर को एक लेटर दिया गया है जिसमें उसने जो कुछ भी किया है उसके बारे में सवाल किए गए हैं और पूछा गया है कि उन पर कारवाई क्यों न हो। बाकी आज से फिर मेरे पार्टनर के गेस्ट का आना और रुम में खाना लाकर खाना, बातटीत करना जारी है.ऑथिरिटी का कहना है कि- विनीत हम एक मामले को नहीं बल्कि पूरी जड़ को खत्म करना चाहते हैं और इसके लिए जरुरी है कि तुम वहीं रहो।
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