लेख छपने की बधाई मिलने के बाद अब उसके प्रति असहमति के भी संदेश आने शुरु हो गए हैं। कल ही यूनआई से फोन करके एक ने कहा कि सांप-संपेरे की कहानी से भरे और आम आदमी के मुद्दे से महरुम टीवी की आपने इतनी गंभीर आलोचना की है, आप बाजार के स्वर बोल रहे हैं, आपने टीवी का पक्ष लेने के लिए जो विचार की बत्ती जलाई है, माफ कीजिएगा पाठक हूं लेकिन आपसे बिल्कुल सहमत नहीं हूं। लेख प्रोवोकिंग लगा इसलिए फोन किया।
नया ज्ञानोदय पत्रिका ( अगस्त अंक) में मैंने टेलीविजन और मीडिया को लेकर हिन्दी मीडिया समीक्षा के इकहरेपन की चर्चा की है। लेख का शीर्षक है- टेलीविजन विरोधी समीक्षा और रियलिटी शो । लेख में मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की है कि हिन्दी में जो भी लोग मीडिया समीक्षा कर रहे हैं उनमें से अधिकांश साहित्य के चश्मे से मीडिया को देखना चाहते हैं या फिर शुरुआती दौर से चली आ रही उस मानसिकता के हिसाब से कि टेलीविजन बच्चों को बर्बाद करता है, यह पूंजीवाद को बढ़ावा देता है।
लेख में मैंने दो-तीन जगह स्पष्ट कर दिया है कि हालांकि टीवी और मीडिया उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवाद को बढावा दे रहे हैं लेकिन रियलिटी शो और इस तरह के अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी जो नयी छवि बनाने में जुटा है उससे हिन्दी मीडिया आलोचकों के औजार जरुर छिन लिए गए हैं, टीवी की जो शक्ल हमारे सामने हैं वहां इनके औजार भोथरे पड़ गए हैं। यही वजह है कि आज हिन्दी मीडिया के आलोचक जब इसकी समीक्षा करते हैं तो पाठकों के प्रति विश्वसनीयता जम नहीं पाती और इधर टीवी के लिए काम करनेवाले लोग भी इसे उल-जूलूल बताकर खारिज कर देते हैं।मैंने टीवी और मीडिया के बदलते स्वरुप के आधार पर समीक्षा करने की बात की है और पूंजीवादी माध्यम होने के बावजूद इसे संभाव्य माध्यम बताने की कोशिश की है.इन सबके बीच उनका कहना है कि आप मार्केट के आदमी हैं, आप समझ ही नहीं पा रहे हैं कि टीवी कुछ गिने-चुने लोगों के लिए फायदेमंद है, यह हमारी संस्कृति को किस रुप में भ्रष्ट कर रहा है, इसका आपको अंदाजा नहीं है।मीडिया की लगातार मैं भी आलोचना करता रहा हूं लेकिन सिरे से इसे खारिज करने के पक्ष में नहीं हूं, खासकर के तब जब देश की लगभग सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोग इससे प्रभावित होते हैं। औऱ न ही इस पक्ष में कि मीडिया आलोचना का मतलब सिर्फ इसका विरोध है। हां इतना जरुर जानता हूं कि हिन्दी में जिस तरीके से इसकी आलोचना की जा रही है वह न केवल अपर्याप्त है बल्कि कई स्तरों पर अप्रासंगिक भी।
लेख का लिंक - http://jnanpith.net/ny.pdf
लेख पढ़कर आप खुद भी राय दें, सहमति और असहमति व्यक्त करें।
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लेख पढ़कर आप खुद भी राय दें, सहमति और असहमति व्यक्त करें।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_07.html?showComment=1218117780000#c4032542773972644763'> 7 अगस्त 2008 को 7:33 pm बजे
लेख का लिंक खुला नहीं,.... पर पोस्ट पर लगी तस्वीर बहुत कुछ बयां कर रही है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_07.html?showComment=1218306360000#c6647468997317127335'> 9 अगस्त 2008 को 11:56 pm बजे
लेख का लिंक खुल गया। काफी विचारोत्तेजक लेख है। रियलिटी शो में पारिवारिक मूल्यों और जीवंत संर्दभों को पुर्नजीवित करने की जो कवायद है, वह जरुर आभासी सत्य है, पर है बहुत ही मोहक। बोले तो, रियलिटी शो चित्रकूट की सभा समान लग रही है। देखना है, इस भौतिक जगत में यह आध्यात्मिक परिघटना कब तक बरकरार रहती है।