समय मिले तो कभी आकाशवाणी के चक्कर लगा लेना, शायद कुछ काम की चीजें निकल आए। मेरे मेंटर ने मुझे जब ऐसा कहा तो मुझे भी लगा कि रिसर्च के नाम पर आकाशवाणी तो जाना ही चाहिए। इसके पहले मैं सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की लाइब्रेरी कई बार जा चुका था। मैं यह सोचकर वहां गया था कि रेडियो को लेकर जितने भी सरकारी फैसले लिए गए होगें और जो भी प्रसार हुए हैं, उन सबके संबंध में जानकारी मिल जाएगी। कुछ-बहुत तो सामग्री मिली लेकिन रिसर्च के लिहाज से कुछ खास नहीं।
दिल्ली के आकाशवाणी भवन में मैं पहली बार गया था। रांची के आकाशवाणी केन्द्र की रजिस्टर में इतनी बार अपना नाम लिख आया था कि दिल्ली आकर इसे रिपीट नहीं करना चाहता था। युवावार्ता के लिए कई बार नाम दिए, वहां के लोगों से पूछता कि कब बुलाएंगे। बड़े प्यार से वहां के इन्चार्ज जबाब देते, अरे बुला लेंगे, आपके जैसे लोग बिना किसी के रेफरेंस के आते कहां हैं। यहां तो सब चाचा-ताउ का नाम लेकर आते हैं। हमें तो आप जैसे लोगों की ही जरुरत है।॥ लेकिन आकाशवाणी रांची ने कभी नहीं बुलाया। मेरे से लल्लू लोग अकड़ के वहां जाते और आंय-बांय बोलकर कुछ राशि की पर्ची लेकर कॉलेज में चौड़े होकर घूमते। उनमें से कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हें बुलाया जाता था, वे हमारी तरह अपनी मर्ज से नहीं चले जाते। मेरे मन में बार-बार बस एक ही सवाल उठता कि-क्या देखकर इन लोगों को बुलाया जाता है। बाद में व्यावहारिक वजह जान लेने पर मन उचट गया और फिर कभी भी रजिस्टर में नाम लिखवाने नहीं गया। दिल्ली आकर इसलिए मैंने कभी कोशिश नहीं की।
लम्बे समय तक आकाशवाणी में साहित्यकारों, शास्त्रीय संगीतकारों और शहर के रंगमंच से जुड़े लोगों का वर्चस्व रहा है। कहने को लगभग हरेक केन्द्र में अलग-अलग कार्यक्रमों के लिए रजिस्टर रखे मिलेंगे, जिसमें आप अपनी रुचि और क्षमता को के हिसाब से कार्यक्रम के लिए नाम लिख आएं। आकाशवाणी जरुरत के हिसाब से आपको बुलाएगा लेकिन अंदर इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि ये चीजें व्यवहार में नहीं आने पाती। आकाशवाणी के भीतर नए लोगों को सामने लाने की स्पिरिट ही नहीं है। विश्वविद्यालय से कम मठाधीशी नहीं है। दिल्ली के बारे में बहुत दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन बिहार और झारखंड के केन्द्रों में ये सारी चीजें देखकर आया हूं। खैर,
दिल्ली में आकाशवाणी भवन के भीतर मैं पहली बार गया था। गेट पर जब पास बनवा रहा था तो गार्ड ने पूछा-किससे मिलना है। मैंने कहा- मैं डीयू से आया हूं और रेडियो पर रिसर्च कर रहा हूं, मैं यहां के कुछ लोगों से मिलना चाहता हूं। गार्ड को मेरी बात समझ में आयी और उसने पास बनवाने में मेरी मदद की और इज्जत से अंदर जाने दिया। आकाशवाणी भवन की पास टिकट लेकर मैं इतना भावुक हो गया था कि मैंने सोचा- रिसर्च के लिए पहली बार मैं यहां आया हूं, मैं इसे फेंकूगा नहीं। जब कभी रेडियो के उपर किताब लिखूंगा तो इसे फ्लैप पर लगाउंगा और सचमुच वो मेरे पास मेरी फाइल में सुरक्षित है।
सबसे पहले मैं एफएम गोल्ड और रेनवो की तरफ गया। वहां बैठे एक सज्जन से बात की औऱ बताया कि मैं ऐसे-ऐसे काम कर रहा हूं। उन्हें लगा कि कोई सोसियो या फिर दूसरे विषय से होगा। बड़ी रुचि के साथ सारी बातें बताने लगे लेकिन इसी बीच उन्होंने पूछा- आप डीयू में किस डिपार्टमेंट से हैं। मैंने कहा- हिन्दी। उन्होंने कहा- अच्छा, हिन्दी। तब आप इस पर क्या रिसर्च कीजिएगा, कुछ शब्द-बब्द पकड़कर लिख मारिएगा सौ पेज, रेडियो की बात तो आ ही नहीं पाएगी। मैंने फिर कहा-ऐसा नहीं है सर, काम तो तरीके से ही करना है। मैं तो यहां आया था कि बेसिक चीजों की जानकारी मिल जाएगी। उनका अंदाज अब हमसे कट लेने का था। अगर बेसिक चीजों के लिए आए हैं तो फिर यहां की लाइब्रेरी चले जाइए, वहां आपको कुछ न कुछ जरुर मिल जाएगा। मैं भारी मन से उठा और लाइब्रेरी की तरफ चल दिया।
लाइब्रेरी पहुंचते ही मुझे धक्का लगा। तो ये है देश की राजधानी का आकाशवाणी भवन और ये है इसकी लाइब्रेरी। लाइब्रेरी बिल्कुल भी अपडेट नहीं। बेतरतीब ढंग से रखी किताबें। डेस्क पर एक मैडम पंजाब केसरी खोलकर बैठी थी। मैंने उन्हें सारी बातें बतायी। उन्होंने साफ कहा- जो है सो यही है, देख लो। मैं करीब घंटेभर तक में पूरी किताबों पर एक नजर मार लिया। रेडियो पर किताबें नहीं मिलेगी इसका अंदाजा तो मुझे शुरु के पांच मिनट में ही लग गया था लेकिन कुछ साहित्य की किताबें रखी देखकर उसमें उलझ गया। अंत में दिस इज ऑल इंडिया रेडियो, एच।सी। बरुआ की किताब को उलट-पलटकर बाहर आ गया।
मैडम को मैंने बताया कि- मैम, कितने लोग रेडियो सुनते हैं, कहां-कहां ये काम करता है औऱ भाषा के स्तर पर क्या कुछ चल रहा है, इन सारी बातों की जानकारी मुझे कहां से मिलेगी। उन्होंने कहा- आप ऑडियो रिसर्च सेक्शन चले जाओ। उधर पल्ली साइड, शायद पांचवे तले पर है। मैं वहां की तरफ बढ़ गया।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_1836.html?showComment=1219723080000#c4901119728174160448'> 26 अगस्त 2008 को 9:28 am बजे
भाई आप उधर आए थे तो अपने साथ एक कप चाय टकराने का मौक़ा तो दिया होता?
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_1836.html?showComment=1219726440000#c323997406786252376'> 26 अगस्त 2008 को 10:24 am बजे
संस्थानों का तो ये रवैय्या है रिसर्च को लेकर, विदेशों में सुना है, रिसर्चर की बड़ी इज्जत है।
हो सके तो पल्ला झाड़कर पल्ली साइड चले चलो।