रणेन्द्र सर को लिखी चिट्ठी का बाकी हिस्सा
यह उपन्यास इस अर्थ में भी बेजोड़ है कि इसने पूरी तरह सामाजिक विकास होने के पहले ही धर्म की सत्ता स्थापित होने और उसके सांस्थानिक प्रक्रिया में बदल जाने की पूरी घटना को स्वाभाविक तरीके से चित्रित करता है। धर्म का यह स्वरुप पहले के धर्म की सत्ता से भिन्न इस अर्थ में है कि इसके दरवाजे आगे जाकर पूंजीवाद और राजनीति में खुलते हैं. शोषण के स्तर को बनाए रखने के लिए जिन रुपों में गठजोड़ संभव है, धर्म उन सबके साथ है। इसलिए यह फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि कोशिशें धर्म के जरिए शोषण कायम करने की हो रही है या फिर शोषण के जरिए धर्म ( सत्ता) को बनाए रखने की कवायदें चल रही है।
जिस धर्म को विकृत भौतिकतावाद और शोषण के विरोध में होना चाहिए था उस पर भी भौतिक साधनों के जरिए ग्लोबल होने का भूत सवार है। इसलिए अलग दिखने वाले( व्यवस्था से) इस धर्म में ग्लोबल तत्व, राजनीतिक चरित्र, मानसिक विकृति और शोषण के चिन्ह मिलते हैं तो उपन्यास में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लगता. मानसिक विकृति, व्यावसायिक रुझान और सत्ता के वर्चस्व के रुप में जिस तरह से धर्म समाज में स्थापित हो रहा है और होता आया है उसकी सही अभिव्यक्ति यहां मौजूद है।
मानव सभ्यता के विकासक्रम में सत्ता के प्रति असहमति के स्वर को जितनी चतुराई से दबाया जाता रहा, एक मानव समुदाय को संस्कृति और जीवनशैली के स्तर पर सम्पन्न होने के बावजूद मनुष्य के वर्चस्ववादी वर्ग ने असुर करार दिया, हेय बताया है, उपन्यास में ये सारा दुश्चक्र कम कुशलता से रेखांकित नहीं किया गया है। इसे मैं सिर्फ समाज के प्रति न्याय करने के प्रयास के तौर पर नहीं देखता बल्कि इसमें दुनिया के हर वर्चस्ववादी सत्ता के प्रतिरोध में उठनेवाले स्वर के समर्थन के रुप में देखता हूं। इसलिए अंत तक आते-आते यह रचना भाषा व्यवहार और परिवेशगत यथार्थ के स्तर पर आंचलिक होते हुए भी शोषितों के पक्ष और समर्थन के स्तर पर ग्लोबल हो जाती है। यानि आर्थिक रुप से ग्लोबल मॉडल को लेकर सिर्फ निर्दोष जंगल ही ग्लोबल नहीं हो रहे, संघर्ष के स्तर पर, इस ग्लोबल मॉडल से लड़ने के स्तर पर विचारधारा भी ग्लोबल हो रही है। यही समाज की ताकत भी है और आपकी व्यवहारिक समझ भी।और
फिर जिस ज्ञान और वैश्विकता के दम पर आम आदमी के लिए शोषण के हथियार तेज किए जा रहे हों, आम आदमी के हाथ में वही ज्ञान और वैचारिकी आ जाएं तो इसमें बुरा क्या है। इसलिए आपके उपन्यास के पात्रों के मर-खप जाने के बाद भी संघर्ष की प्रक्रिया जारी रहती है तो उनका मरना भी निरर्थक नहीं लगता। उपन्यास का एक स्वर यह भी है।
मैंने अपनी क्षमता से जो कुछ भी समझा, लिख दिया। कथानक पर कोई चर्चा नहीं की, पात्र और घटनाओं को लेते हुए कहीं आगे लिखूंगा। फिलहाल इतना ही। मेरे लिखने से यह सत्यापित हो जाए कि मैंने आपके इस उपन्यास को मन से पढ़ा है तो मेरी उपलब्धि हासिल समझिये ।
आपका
विनीत
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html?showComment=1218694440000#c1330021983584127102'> 14 अगस्त 2008 को 11:44 am बजे
मित्र विनीतजी,
मैं आपकी पोस्ट जरूर पढ़ता हूं। हर बार की तरह आपकी यह पोस्ट (पत्र की शक्ल) में बेहद विचारोत्तेजक है। उपन्यास मैंने नहीं पढ़ा पर आपने अपनी समझ से जिस विषय पर बात की है वह ठीक है। बधाई।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_14.html?showComment=1218698460000#c2338651170117255795'> 14 अगस्त 2008 को 12:51 pm बजे
आपने जिस ढंग से उपन्यास की मीमांसा की है, वह इसे पढने की भूख जगाता है।
मौका मिलते ही मैं इसे पढने की कोशिश करूंगा।