आकाशवाणी के ऑडियो रिसर्च यूनिट में पहुंचा तो देखा कि अधिकांश लोग टीए डीए बिल बनाने में व्यस्त हैं। दो दिन पहले रांची से किसी कार्यक्रम में शामिल होकर आए थे और इस बीच जो भी खर्चा हुआ था, उसका सब अपना-अपना हिसाब दे रहे थे। सिंहजी ने कुछ रुपये अपनी जेब से खर्च किए थे लेकिन उसका बिल लेना भूल गए। अब उऌकी समस्या थी कि वो कहां से बिल लाएं. बाकी के लोगों से इस समस्या का सामाधान मांग रहे थे। इसी बीच मैंने उनसे पूछा- सर यहां एम एन झा कहां मिलेंगे। एम एन झा ऑडियो रिसर्च यूनिट के डायरेक्टर थे और संभवतः अभी भी हों। उन्होंने कहा- सामने उनका चैम्बर है, वो अभी आए नहीं होंगे, मैं भी उनका ही इंतजार रहा हूं। वैसे काम क्या है?
मैंने उन्हें फिर से वो सारी बातें बतायी जो कि एफ।एम. गोल्ड और रैनबो, लाइब्रेरी की मैम और गार्ड को बताया था।सिंहजी को दो बातों को लेकर बड़ी दिलचस्पी बनी- एक तो ये कि मैंने एम.ए. हिन्दू कॉलेज से किया है और दूसरा कि मैं भी उनकी ही तरफ का हूं. आज झारखंड भले ही अलग हो गया है लेकिन हमें कोई बिहारी मान ले और कह दे कि मिट्टी-पानी से तो बिहारी ही हैं तो बमकते नहीं हैं. उनकी बिटिया भी हिन्दू कॉलेज में ही पढ़ रही थी। ये बात ढंग से पुख्ता औऱ तब हुई जबकि मैं चार-पांच दिनों बाद हिन्दू गया तो जूनियर्स ने कहा- क्या सर, कहां-कहां लग्गी मारते हैं आप, सुना है खूब आकाशवाणी जाकर मौज कर रहे हैं, सिंहजी से गपिया रहे हैं। एगो लड़की पूछ रही थी आपके बारे में।
सिंहजी ने सम्मान से बिठाया। बाकी बातें पूछने के बाद गाइड जिन्हें कि मैं मेंटर कहता हूं , का नाम पूछा और नाम बताने पर औऱ ज्यादा इम्प्रैस हुए। एकदम जोर से बोले- तब फिर आपको क्या चिंता है, इधर एम।फिल जमा कीजिए, उधर नौकरी पक्की। मैं अपने काम पर आना चाह रहा था सो पूछा- सर होगा कुछ जो मेरे रिसर्च के काम आ सके। उन्होंने कहा- होगा क्यों नहीं, आपको वो चीज दे देते हैं जिसके बाद किसी भी चीज की जरुरत नहीं रहेगी। वो शायद नबम्बर का महीना था और कुछ ही दिनों पहले साल २००४ का आकाशवाणी वार्षिकांक आया था। उन्होंने उसकी एक प्रति हमें दी। वाकई ये बहुत ही मेहनत, स्पष्टता औऱ सुलझे तरीके से छापी गयी थी. जिस किसी को भी रेडियो के बारे में बेसिक जानकारी लेनी हो, उसके लिए ये अंक बेजोड़ है। सबकुछ अंग्रेजी में था। मैंने अपनी जरुरत के हिसाब से हिन्दी में अनुवाद करके इस्तेमाल कर लिया।
इसी बीच सिंहजी ने बताया कि झाजी आ गए हैं। चलिए उनसे आपको मिलवा लाते हैं। मैं उनके कमरे में गया। मैं कुछ बोलूं, इसके पहले सिंहजी ने मेरे बारे में जो कुछ मुझसे सुना था, उसे और अलंकारिक बनाकर झाजी को बताया. झाजी ने कहा- हमको तो ताज्जुब होता है कि अभी भी लोग इस तरह से भटक-भटककर रिसर्च कर रहे हैं. उन्होंने पूछा- ये सब जो खर्चा होता है, वो कहां से मिलता है. मैंने कहा- सर, मेरा तो जेआरएफ नहीं है, इसलिए सारे पैसे घर से ही लगाने पड़ते हैं। मतलब रहने-खाने का खर्चा अलग और रिसर्च का अलग, आपको तो बहुत मंहगा पड़ जाता होगा। मैंने कहा- जी सर। उसके बाद वो रांची के अपने विद्यार्थी जीवन की बात विस्तार से बताने लगे जिसमें सिविल सर्विसेज में उनकी सफलता से लेकर संघर्ष तक की कहानी जुड़ी हुई थी। बातचीत के बीच में ही उन्होंने पूछा- सिंहजी, आपने इनको कुछ खिलाया-पिलाया कि नहीं औऱ थोड़ी देर बाद ही मैं बिस्कुट भकोस रहा था।
झाजी ने बहुत ही मजबूती से कहा- आप एकदम परेशान मत होइए, मन लगाकर काम कीजिए, जहां परेशानी होगी, हमें बताइएगा। झाजी ने भी रांची से ही पढ़ाई की थी, रांची कॉलेज से और मैंने भी रांची से ही ग्रेजुएशन किया है, संत जेवियर्स कॉलेज से। इस लिहाज से भी वो हमें सम्मान दे रहे थे। झाजी ने कहा- आप मीडिया में रिसर्च कर रहे हैं तो प्रभाष जोशी और शिलर को पढ़ना मत भूलिएगा। शिलर की किताब तो मैंने खरीद भी ली लेकिन प्रभाष जोशी को पढ़ने का तुक यहां पर मैं समझ नहीं पाया।
इतना सबकुछ होते- हवाते तीन बज गए। मैं जल्दी से अपने कमरे में पहुंचना चाह रहा था। सबको दुआ सलाम करके बाहर निकला। उनलोगों को शायद बहुत दिनों के बाद ऐसा लड़का मिला जो उन्हें बहुत गौर से सुन रहा था। रास्ते में बस में बैठते हुए मैं दो बातें एक साथ सोच रहा था- एक तो ये कि कितनी आत्मीयता से बात की इनलोगों ने, लगा ही नहीं कि किसी अंजान जगह में आया हूं. औऱ दूसरी ये कि मीडिया के लिए काम करते हुए भी इनलोगों के पास कितना समय होता है कि हम जैसे लोगों को पांच-छह घंटे यूं ही दे देते हैं। रेड एफ एम गया था तो ४५ मिनट में करीब पांच लोगों से बात कर ली थी। थोडी़ देर बात करने के बाद सबने यही कहा था- सॉरी अब ज्यादा टाइम नहीं दे सकते। इनलोगों के रिस्पांस से मैं जितना भावुक हो गया था, आकाशवाणी की वर्किंग कल्चर से उतना ही चिंतित। कुछ भी नया नहीं, कुछ भी क्रिएटिव नहीं. टशन देने की छटपटाहट नहीं। सबके सब पंजाब केसरी लिए बैठे हैं. दस मिनट के काम में तीन घंटे लगा रहे हैं। क्या आकाशवाणी एक निश्चिंत माध्यम है, बार-बार झाजी की बात याद आ रही थी- विनीतजी आकाशवाणी को आप ही जैसे लोगों की जरुरत है. प्राइवेट चैनलों पर बात करते हुए तो उन्होंने इसकी जमकर आलोचना की थी लेकिन जैसे मैंने वर्किंग कल्चर पर बात शुरु की थी तो वो भी प्राइवेट चैनलों पर सहमत नजर आए।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_28.html?showComment=1219909380000#c4419789687799768480'> 28 अगस्त 2008 को 1:13 pm बजे
काफी रोचक लगा। खासकर-
-मीडिया के लिए काम करते हुए भी इनलोगों के पास कितना समय होता है
-आज झारखंड भले ही अलग हो गया है लेकिन हमें कोई बिहारी मान ले और कह दे कि मिट्टी-पानी से तो बिहारी ही हैं तो बमकते नहीं हैं.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_28.html?showComment=1219911120000#c35191662033086822'> 28 अगस्त 2008 को 1:42 pm बजे
achchi post
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_28.html?showComment=1219920360000#c7729687612496666548'> 28 अगस्त 2008 को 4:16 pm बजे
Bdhiya kam rahe hain aap. Badhai.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_28.html?showComment=1219993920000#c6353827122097808196'> 29 अगस्त 2008 को 12:42 pm बजे
आपकी इस संस्मरण यात्रा को बहुत देर से पढ़ रहा हूं....अक्सर आपके ब्लॉग पोस्ट इकट्ठे ही पढ़ता हूं हफ्ते-दस दिन में.
आजकल शायद इन्हीं कारणों से आकाशवाणी ने खुद को अप्रासंगिक बना लिया है...पता नहीं क्यों यहां भी लोग इसे सरकारी नौकरी की तरह ही करते हैं जबकि इसके लिए तो आप जैसे लोगों की तरह स्पिरिट चाहिए...चलिए गाहे-बगाहे आपसे काफी कुछ जानने को मिला