करीब चार साल बाद किसी को हाथ से चिट्ठी लिखी है और वो भी स्याही की कलम से। लिखते समय स्याही से गंदे हुए हाथ से लेकर सिस्टर लिंड़ा का चेहरा याद हो आया- ओ फूल व्ऑय, तुम इतना भी नहीं जानता कि किस हाथ से लिखना होता है। मैं दोनों हाथों से लिखता, अंत में सिस्टर ने हाथ पर निशान बना दिए थे जिससे कि मुझे लिखना था। यह चिट्ठी मैंने रणेन्द्र सर को लिखी. दो महीने पहले रणेन्द्र सर( चर्चित कहानीकार और इन्साइक्लोपीडिया ऑफं झारखंड के संपादक) ने मुझे अपने उपन्यास लालचन असुर औऱ ग्लोबल गांव का देवता की पांडुलिपि दी और कहा कि पढ़कर बताइएगा कि कैसा लगा आपको यह उपन्यास।आमतौर पर मैं साहित्य और खासकर उपन्यास नहीं के बराबर पढ़ता हूं। एमए के दौरान मैंने बहुत सारे उपन्यास पढ़े और वो भी व्याख्या में अच्छे नंबर आने के लोभ से। जिस उपन्यासकार की रचना कोर्स में लगे होते, उनके बाकी के भी उपन्यास पढ़ता या फिर जिस प्लॉट पर उपन्यास लिखा होता, उससे जुड़े बाकी के भी उपन्यास पढ़ता। सिलेबस के बाहर मैं बहुत कम ही पढ़ा करता। मुझे लगता कि विद्वान बनने के लिए जीवन पड़ा है जबकि नंबर लाने के लिए एक सीमित और खास समय होता है। इधर चार साल से लगातार मीडिया में काम करने से साहित्य लगभग छूटता चला जा रहा है। एक तो समय नहीं मिल पाता और दूसरा कि कई चीजें अव्यवहारिक और अविस्वसनीय लगने लगे हैं। रणेन्द्र सर ने इसी बीच अपनी पांडुलिपि दी।एक दिन सिर्फ इस उपन्यास के लिए तय कर लिया और एक ही सीटिंग में पूरा पढ़ गया। यह जानते हुए भी कि अगर आज खत्म पूरा नहीं किया तो फिर पता नहीं कब कर पाउंगा. लेकिन वजह सिर्फ इतनी नहीं थी. बिना इससे बंधे चाहकर भी खत्म कर पाना मुश्किल हो जाता। पढ़ने के क्रम में जब मैंने रणेन्द्र सर को बताया कि-बीच-बीच में भावुक हो रहा हूं सर, दो साल से रांची नहीं गया, याद आ रही है कई चीजें. उन्होंने फोन पर ही कहा- आप जो कुछ भी महसूस कर रहे हैं, आप हमें एक चिट्ठी लिख दें। मैंने कहा-कोशिश करुंगा और खत्म करने के बाद मैंने तय किया कि एक चिट्ठी लिख ही दूं।रणेन्द्र सर को मेरी ये चिट्ठी व्यक्तिगत तौर पर लिखी गयी चिट्ठी से कुछ आगे की चीज लगी. वो इसे समीक्षा के आस-पास की चीज बताने लगे और कई बार कहा कि आप इसे अपने ब्लॉग पर डाल दें, ताकि बाकी लोग भी शेयर कर सकें। मैं भावुक होकर लिखी गयी इस चिट्ठी को सार्वजनिक कर रहा हूं। उपन्यास में कई पेंच है और उनसे मेरी असहमति भी लेकिन नास्टॉल्जिक हो जाने की वजह से मैंने लिखा ही नहीं। आप उपन्यास पढ़ें और सहमति या असहमति में रणेन्द्र सर से बातचीत करें. नंबर है- फिलहाल मेरी चिट्ठी पढ़ें-
रणेन्द्र सरकुछ कहूं, इसके पहले बधाई स्वीकार करें. मैं यहां बिल्कुल ठीक हूं. अपनी भाषा में कहूं तो मस्त और बिंदास। खूब टीवी देखता हूं और, उस पर विचार करता हूं और विमर्श के नए संदर्भों के हिसाब से विश्लेषित करने की कोशिश करता हूं. इन सबके बीच आपका उपन्यास लालचन असुर और ग्लबल गांव का देवता भी पढ़ा। हालांकि सिर्फ पढ़ा शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त नहीं होगा। खैरइस उपन्यास के लिए अगर पहली लाइन कहूं तो सर, यह एक विश्वसनीय उपन्यास है. विश्वसनीय सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि जिस प्लॉट को आपने उठाया है वह एक वास्तविक घटना है बल्कि उससे भी ज्यादा कि आपने उसका जो ट्रीटमेंट किया है वो विश्वसनीय है। यह प्रयोग भाषा-व्यवहार, रोजमर्रा की जिंदगी, परिवेशगत यथार्थ के साथ-सात रचनाकार के अपने अनुभव और विचार के स्तर पर भी है. कहीं भी नहीं लगता कि आपने ऐसे प्रसंगों को तूल देने की कोशिश की है जिसमें आपके स्वयं के विचार को ज्यादा स्पेस मिले. आपने पाठकों की समझदारी पर पूरा भरोसा किया है। नहीं तो बड़े से बड़े रचनाकारों के साथ देखता आया हूं कि वो पाठकों की बौद्धिक दक्षता और संवेदना को कमतर करके देखते हैं. ऐसा होने से एक तो रचना अनावश्यक तौर पर परिचयात्मक होने लग जाती है और एक स्तर पर उचाट भी । चाहते तो आप ग्लोबल होने के तीव्र प्रभाव को सतही या फिर कमतर करके दिखा सकते थे और लोगों का भरोसा भी जमता, बल्कि कईयों को बेहतर भी लगता लेकिन आपने ऐसा नहीं किया है। आप जिस मसले पर बात कर रहे हैं, विधा के स्तर पर उसे भले ही उपन्यास का नाम दिया जाए लेकिन इसमें सजग और संजीदा पत्रकार के स्वर ज्यादा मुखर हैं औ समस्याओं के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद भी घटना के प्रति तटस्थता इसकी खुबसूरती.हम जैसे लोग जो उस अंचल से रहे हं और महानगरों में आकर बस गए, उसके लिए यह उपन्यास चुनौती है. हमें उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार लगा कि हम जितने भी साल उस अंचल में रहे, महानगरों में आने की हड़बड़ी में आधा-अधूरा जीकर आ गए. इस बीच कई चीजों पर नजर नहीं गयी और कई चीजों को नजरअंदाज कर गए। इसलिए, उस अंचल के होने का दावा बहुत मजबूत नहीं रह जाता.जो उस अंचल के नहीं हैं, उनके लिए इस उपन्यास को पढ़ पाना, थोड़ी-बहुत भाषिक परेशानियों के बावजूद भी एक विस्मयकारी अनुभव होगा कि- अरे, ग्लोबल इफेक्ट के साथ-साथ असुर संस्कृति, यह सब झारखंड और उड़ीसा जैसी जगहों पर अब भी बरकरार है। जो जीडीपी के बढ़ने पर कुलांचे भर रहे हैं और ग्लोबल होकर ही सम्पन्न होने का दावा ठोंक रहे हैं, जिनके लिए डेवलप्ड इंडिया का एकमात्र विकल्प आर्थिक उदारीकरण है, उन्हें यह उपन्यास अपने मॉडल को फिर से विश्लेषित करने के लिए उद्वेलित करता है।........ चिट्ठी का बाकी हिस्सा कल
नोट- रणेन्द्र का यह उपन्यास नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में सम्पूर्ण रुप में प्रकाशित हुआ है और इसे http://jnanpith.net/ny.pdf पर पढ़ा जा सकता है।
रणेन्द्र सरकुछ कहूं, इसके पहले बधाई स्वीकार करें. मैं यहां बिल्कुल ठीक हूं. अपनी भाषा में कहूं तो मस्त और बिंदास। खूब टीवी देखता हूं और, उस पर विचार करता हूं और विमर्श के नए संदर्भों के हिसाब से विश्लेषित करने की कोशिश करता हूं. इन सबके बीच आपका उपन्यास लालचन असुर और ग्लबल गांव का देवता भी पढ़ा। हालांकि सिर्फ पढ़ा शब्द का प्रयोग करना पर्याप्त नहीं होगा। खैरइस उपन्यास के लिए अगर पहली लाइन कहूं तो सर, यह एक विश्वसनीय उपन्यास है. विश्वसनीय सिर्फ इस अर्थ में नहीं कि जिस प्लॉट को आपने उठाया है वह एक वास्तविक घटना है बल्कि उससे भी ज्यादा कि आपने उसका जो ट्रीटमेंट किया है वो विश्वसनीय है। यह प्रयोग भाषा-व्यवहार, रोजमर्रा की जिंदगी, परिवेशगत यथार्थ के साथ-सात रचनाकार के अपने अनुभव और विचार के स्तर पर भी है. कहीं भी नहीं लगता कि आपने ऐसे प्रसंगों को तूल देने की कोशिश की है जिसमें आपके स्वयं के विचार को ज्यादा स्पेस मिले. आपने पाठकों की समझदारी पर पूरा भरोसा किया है। नहीं तो बड़े से बड़े रचनाकारों के साथ देखता आया हूं कि वो पाठकों की बौद्धिक दक्षता और संवेदना को कमतर करके देखते हैं. ऐसा होने से एक तो रचना अनावश्यक तौर पर परिचयात्मक होने लग जाती है और एक स्तर पर उचाट भी । चाहते तो आप ग्लोबल होने के तीव्र प्रभाव को सतही या फिर कमतर करके दिखा सकते थे और लोगों का भरोसा भी जमता, बल्कि कईयों को बेहतर भी लगता लेकिन आपने ऐसा नहीं किया है। आप जिस मसले पर बात कर रहे हैं, विधा के स्तर पर उसे भले ही उपन्यास का नाम दिया जाए लेकिन इसमें सजग और संजीदा पत्रकार के स्वर ज्यादा मुखर हैं औ समस्याओं के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद भी घटना के प्रति तटस्थता इसकी खुबसूरती.हम जैसे लोग जो उस अंचल से रहे हं और महानगरों में आकर बस गए, उसके लिए यह उपन्यास चुनौती है. हमें उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार लगा कि हम जितने भी साल उस अंचल में रहे, महानगरों में आने की हड़बड़ी में आधा-अधूरा जीकर आ गए. इस बीच कई चीजों पर नजर नहीं गयी और कई चीजों को नजरअंदाज कर गए। इसलिए, उस अंचल के होने का दावा बहुत मजबूत नहीं रह जाता.जो उस अंचल के नहीं हैं, उनके लिए इस उपन्यास को पढ़ पाना, थोड़ी-बहुत भाषिक परेशानियों के बावजूद भी एक विस्मयकारी अनुभव होगा कि- अरे, ग्लोबल इफेक्ट के साथ-साथ असुर संस्कृति, यह सब झारखंड और उड़ीसा जैसी जगहों पर अब भी बरकरार है। जो जीडीपी के बढ़ने पर कुलांचे भर रहे हैं और ग्लोबल होकर ही सम्पन्न होने का दावा ठोंक रहे हैं, जिनके लिए डेवलप्ड इंडिया का एकमात्र विकल्प आर्थिक उदारीकरण है, उन्हें यह उपन्यास अपने मॉडल को फिर से विश्लेषित करने के लिए उद्वेलित करता है।........ चिट्ठी का बाकी हिस्सा कल
नोट- रणेन्द्र का यह उपन्यास नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में सम्पूर्ण रुप में प्रकाशित हुआ है और इसे http://jnanpith.net/ny.pdf पर पढ़ा जा सकता है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_12.html?showComment=1218558120000#c240353045925362496'> 12 अगस्त 2008 को 9:52 pm बजे
बाकी हिस्से का इन्तजार है.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_12.html?showComment=1219129560000#c2559659814269162052'> 19 अगस्त 2008 को 12:36 pm बजे
sab kuchh thik hai yaar lekin abhivyakti ki swatantrata ka yah mane nahi hona chahiye ki aise posteron ko aap paste kar pracharit karen jo matribhumi virodhi ho