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आप किस दुनिया में जीते हैं साहब, अब भला कोई रेडियो खरीदता है। गया वो जमाना, हम अब अपनी दुकान में रेडियो रखते ही नहीं। दो दुकानों में रेडियो है पूछने और जबाब में नहीं होने पर मेरी चिंता बढ़ गयी कि क्या वाकई आनेवाले समय में रेडियो मिलना बंद हो जाएगा।

कैम्प की यह इलेक्ट्रॉनिक की सबसे बड़ी दुकान है। कई एजेंसियां अपने विज्ञापनों में इस दुकान का नाम देती है. मैंने खुद यहां से बहुत सामान लिए हैं औऱ दोस्तों के लिए भी आया हूं। एफ.एम चैनल पर मुझे एक लेख लिखना था। मैंने सोचा क्यों न इस बार अपना एक रेडियो खरीद लूं। एम.फिल के दौरान पूरे सालभर तक रेडियो पर काम करता रहा और मांग-मांगकर काम चलाता रहा। अब पहले वाली बात नहीं रह गयी कि रेडियो, आयरन और हीटर जैसी छोटी-मोटी चीजें लोगों से मांगे और खासकर तब जबकि हॉस्टल में हर तीन लड़के पर एक लैपटॉप हो। मेरी इधर कई दिनों से इच्छा भी हो रही थी कि एक रेडियो लूं और लेख भी लिखना था सो रेडियो खरीदने यहां आ गया।
रेडियो खरीदने की शर्त थी कि मुझे सिर्फ रेडियो खरीदनी है। आप इसे आज के समय में टिपिकल कह सकते हैं। लेकिन यकीन मानिए सिर्फ रेडियो हो तो उसके सुनने का अलग ही मजा है। दुकानदार मुझे दुनियाभर के टू इन वन दिखा रहा है। फिलिप्स, सोनी, पैनासॉनिक औऱ पता नहीं किस-किसके। मैं साफ ही कह रहा था कि नहीं भाई मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए। पहले तो उसे लगा कि ऐसा मैं पैसे के कारण कह रहा हूं। उसने हजार-बारह सौ रुपये के भीतर के म्यूजिक सिस्टम दिखाना शुरु किया। मैं बेमन से नहीं लेनेवाली नजरों से देखता रहा और अंत में कहा- नहीं, मुझे सिर्फ रेडियो चाहिए, उसके साथ कुछ भी नहीं। तब उसने जबाब दिया- कहां है साहब, अब कोई सिर्फ रेडियो खरीदता है, ले जाइए इसे, दोनों मजा मिलेगा। मुझे सिर्फ एक मजा चाहिए था, मैंने मना कर दिया और पूछा कि- चलो इतना बता दो कि कहां मिलेगा। उसने कहा- इधर तो कहीं नहीं मिलेगा, चले जाइए चांदनी चौक।

मोबाइल, आइपॉड, गाडियों और टू इन वन में रेडियो के होने से नो डाउट रेडियो सुनने का प्रचलन पहले से कई गुना बढ़ा है लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि रेडियो बिकने पहले से बहुत कम हो गए हैं। अब बहुत कम ही लोग सिर्फ रेडियो लेते हैं। लेकिन मेरा अपना मानना है कि जो चीजें जिस काम के लिए बनायी गयीं हैं, उसे उसी रुप में इस्तेमाल किए जाएं। इसलिए टीवी खरीदते समय मेरे एक सीनियर ने टीवी ट्यूनर लगे अपने कम्प्यूटर पकड़ाने की कोशिश की तो मैंने साफ कहा- नहीं सर, अगर कम्प्यूटर खराब हो गया तो फिर टीवी से भी गए, अलग-अलग लेना ही ठीक होता है।

रेडियो को लेकर मैं शुरु से ही बहुत भावुक रहा हूं। इसलिए जब दुकानदार ने कहा कि अब कहां मिलते हैं रेडियो तो भावुकतावश पुराने दिनों में चला गया।

मर्फी की रेडियो से सुनना शुरु किया था। पापा को दहेज में नाना ने दिए थे वो रेडियो। उस जमाने मे रेडियो की हैसियत टीवी से कम नहीं हुआ करती थी, साइज भी कमोवेश उतनी ही हुआ करती। मुझे याद है वो रेडियो अंतिम बार मैंने अपनी जेबखर्च से अस्सी रुपये लगाकर बनवाए थे। उसके बाद उसकी कुछ ऐसी चीज खराब हो गयी कि घर के कोने में- नाना की याद में- का कैप्शन लगाकर रखने की हो गयी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया और रांची आने पर मां से एक-दो बार उसके बारे में पूछता रहा। मां ने बताया कि- उसका सब हाड-गोड छितरा गया है। यानि उसके सारे पुर्जे इधर-उधर हो गए हैं। बाद में मेरे चचरे भाई ने रेडियो मरम्मत सीखने के क्रम में उसे पूरी तरह शहीद कर दिया।

उसके बाद घर में संतोष का रेडियो आया। पापा उसे या तो बाजा कहते या फिर ट्रांजिस्टर, रेडियो कभी नहीं कहा। इसे तीन-चार महीनों तक हमें हाथ लगाने के लिए नहीं दिया गया। घर में अगर आपके साथ जरुरत से ज्यादा अनुशासन बरते जाते हों तो मामूली चीजें भी बहुत रहस्यमयी और कीमती हो जाती है। पापा और बड़े भाइयों ने शायद इसलिए ऐसा किया होगा कि हमें यह कीमती और रहस्यमयी लगे। दीदी से हाथ-पैर जोड़ता तो रेडियो बजाती, नहीं तो उस पर कॉपीराइट सिर्फ पापा का ही था। एकाध-साल बाद रेडियो में कुछ-कुछ खराबी आने लगी और पापा उसे आप ही ठीक कर लेते। कभी हैंडल टूटता, कभी स्विच टूटता औऱ बैटरी लगाने के बाद उपर का ढक्कन तो हमेशा ढीला हो जाता, सो उसे अलग ही रख देते। गांव और कस्बों में अधिकांश लोग जब रेडियो बजाते थे, खासकर संतोष तो बैटरी के उपर कवर नहीं होते और वो नंगी दिखायी देती। बीड़ी गोदाम और पेटीकोट जहां सिलते थे, वहां मैंने ऐसा खूब देखा है। जब रेडियो के पार्ट-पुर्जे ज्यादा टूट जाते और वो ऐसा लगने लग जाता कि दंगे से उठाकर लायी गयी हो, तब पापा उसे पिंकी मिस्त्रीवाले के यहां ले जाते। पापा तो सुबह दूकान चले जाते और एक ही बार रात को आते लेकिन घर में सबसे छोटा होने की वजह से हमें यह काम दे देते कि- जाकर पता करते रहना कि रेडियो मरम्मत का काम हो गया या नहीं। अब हम दिनभर में दो बार तो जरुर जाते और कभी अकड़ से कि- पापा ने कहा है कि जल्दी करे, काम हर्जा हो रहा है और कभी खुशामद से कि परसों तक दे दो, अबकि बार बिनाका गीतमाला छोड़ना नहीं चाहता। मिस्त्री अंत में उबकर बना देता। लेकिन इसमें भी मेरी फजीहत हो जाती।

एक तो पापा की तरफ से ऑर्डर नहीं था कि मैं उसे घर लाउं, मेरा काम सिर्फ बनने की सूचना देनी थी। दूसरा कि पापा के जाते ही मिस्त्री शिकायत करता कि- आपका लड़का तो रेडियो के बारे में पूछ-पूछकर जीना हराम कर देता है। आपको इतनी ही जल्दी रहती है तो कहीं और बनवाया कीजिए। वो जानता था कि पापा ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि पापा को लगता था कि बाकी के मिस्त्री संतोष का ऑरिजिनल पार्ट निकालकर लोकल डाल देंगे। इसलिए पापा कहते- कोई नहीं, अभी जाकर पूछता हूं। पापा घर आते और एक ही बात कहते- तुम्हें पूछने कहता हूं कि मिस्त्री का खाना-पीना मुहाल करने। अच्छा, कई बार ऐसा होता कि हड़बड़ी में मिस्त्री कुछ काम छोड़ देता। तब भी पापा यही कहते, अकबकाकर मांगेगा तो इसमें मिस्त्री क्या करेगा। पापा समझने लग गए थे कि ये अपनी गरज से इतनी बार पूछता है।


बोर्ड तक आते-आते मुझमें इतनी हिम्मत हो गयी थी कि एकबार दो सौ रुपये जमाकर मैंने खुद से एक रेडियो खरीद लिया। मेरे स्कूल का एक दोस्त मरम्मती का काम करता था और कम दाम में मिल जाने की बात से मैंने उसके कहने पर खरीद लिया था। घर में लोगों ने पूछा कि तुमने अलग से रेडियो क्यों खरीद लिया ? मैंने कहा-खरीदा कहा है, फंसा है। पापा ने रात में क्लास ली थी कि- फंसा है, माने। मैंने डरते-डरते जबाब दिया था कि- हां लॉटरी में फंसा है। इतना सुनना था कि पापा शुरु हो गए।

पढ़ना-लिखना साढ़े बाइस और रेडियो और जुआ। जो करम खानदान में कोई नहीं किया, वो काम ये करेगा। मैंने बाद में डरते-डरते बताया कि रोज स्कूल जाने पर जो पैसे मिलते हैं और नानी ने जो पैसे दिए थे उससे लिया हूं। मुझे लगा, तब कुछ राहत मिलेगी। लेकिन...मामला कुछ उल्टा ङी पड़ गया था।


घर से पहली बार पढ़ाई के लिए बाहर निकलने पर पापा ने यही रेडियो मरम्मत कराकर और चमकाकर दिए थे। अवचेतन मन में यही सारी बातें मुझे अलग से रेडियो खरीदने के लिए उकसा रही थी।

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5 Response to 'कहां हैं आप, अब कहां बिकते हैं रेडियो'
  1. Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html?showComment=1219392900000#c1630259105704228009'> 22 अगस्त 2008 को 1:45 pm बजे

    yadon me kho gya boss......lekin Radio abhi karib hai

     

  2. admin
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html?showComment=1219396380000#c5937776343092235625'> 22 अगस्त 2008 को 2:43 pm बजे

    सही कहा आपने।
    अब तो बस एफ एम ही कहीं कहीं सुनने को मिल पाता है।

     

  3. जितेन्द़ भगत
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html?showComment=1219413060000#c6708718568368074732'> 22 अगस्त 2008 को 7:21 pm बजे

    ज्‍यादा चि‍न्‍ता मत करना ,सि‍र्फ रेडि‍यो ही चाहि‍ए तो मैं भी ढ़ूढ़ने में मदद करुंगा।

     

  4. Yunus Khan
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html?showComment=1219424700000#c778813817391029626'> 22 अगस्त 2008 को 10:35 pm बजे

    विनीत भाई ।
    ये आलेख हम रेडियोनामा पर भी संजोना चाहते हैं ।
    आशा है इजाज़त देंगे ।
    और हां रेडियोनामा पर भी लिखिए ।
    वहां भी जुडि़ए ।
    आप कहें तो आमंत्रण भेज दिया जाए ।

     

  5. विनीत कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html?showComment=1219479420000#c3336144742367088874'> 23 अगस्त 2008 को 1:47 pm बजे

    yunus sir
    aap jaha chahe wahi publish kare aur radionama ke liyae aamantran bhej de

     

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