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हिन्दी समाज में जो लोग शुद्ध साहित्य का दीया जलाए बैठे हैं उन्हें संजय कुंदन का ये प्रयोग जरुर परेशान कर सकता है। जो रचनात्मकता के नाम पर ब्लॉगिंग को छूहतर माध्यम मानते हैं उन्हें मुंह बिचकाने के लिए अच्छा मौका मिल जाएगा कि माना कि जिंदगी की उठापटक के बीच जब कोई इंसान परेशान होता है तो उसे लगता है कि उसके भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसे वो दुनिया के सामने रख दे। इससे ये भले ही साबित नहीं करना चाहता कि वो दुनिया का सबसे परेशान औऱ अलग किस्म का आदमी है तो भी अपनी बात करके मन हल्का जरुर करना चाहता है। लेकिन इसका मतलब थोडे है कि आदमी कुछ भी करने लग जाए। कुछ भी मतलब कुछ भी और किसी भी विधा में लिखने लग जाए और वो भी जब मामला साहित्य का हो। हिन्दी में इतनी सारी विधाएं हैं, उसे छोड़कर उपन्यास के पात्र को ब्लॉग में धकेलने की क्या जरुरत पड़ गयी।

टूटने के बाद संजय कुंदन का पहला उपन्यास है जो इसी महीने नया ज्ञानोदय में उपन्यास शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। उपन्यास में एक पात्र है अप्पू। अप्पू के बाबूजी रमेश के साथ-साथ उसका भाई अजय औऱ यहां तक की मां विमला भी जीवन में भौतिक चीजों और सुख-सुविधाओं को अनिवार्य मानती है। संभव है हममें से बहुतों के परिवारवाले ऐसा नहीं मानते हों लेकिन अप्पू और हम सबके लिए कॉमन बात है परिवेश। परिवेश चाहे अप्पू का हो या फिर हम जैसे मध्यवर्गीय समाज के लोगों का जो कि रोज भाग्य पर एफर्ट की लकीरें चिसते रहते हैं, सब एक ही है। सबका परिवेश मानता है कि जीवन में सफल कहलाने में भौतिक सम्पन्नता भी शामिल है, बल्कि यों कहें कि आज कोई भी इंसान इसके बिना सफल कहलाने की योग्यता नहीं रखता। इसलिए हम और आप चाहते और न चाहते हुए भी इसके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में हो-हल्ला मचाते नजर आते हैं। संजय कुंदन के उपन्यास में भी ये हरकत बदस्तूर जारी है। उपन्यास का हरेक पात्र और ज्यादा और ज्यादा की लत का शिकार और दूसरों को धकिआते हुए बढ़ने का अभ्यस्त नजर आता है। अप्पू यानि रमेश बाबू का छोटा लड़का इसका अपवाद है।

अप्पू को हमेशा लगता है कि जिंदगी में ये भोग-विलास और ऐश्वर्य की चीजें मायने नहीं रखती। वो रेपटाइल कल्चर से हटकर कुछ अलग सोचता है, अलग करना चाहता है। वो वह सबकुछ नहीं करना चाहता जो कि उसका बड़ा भाई अजय औऱ पिता रमेश बाबू करते हैं। एक लाइन में कहें तो वो सफल होने के बजाय सार्थक होना चाहता है। आज के इस पैटर्न सी ढल चुकी जिदगी में अगर कोई भी इंसान इस तरह से सोचता है, दिल्ली जैसे शहर में पढ़कर पटना लौटने की बात करता है तो उसे स्वाभाविक कहना मुश्किल होगा। इसलिए उसके एसएमएस भेजे जाने पर कि वो घर छोड़कर जा रहा है, विमला परेशान हो जाती है। उसे कुंडली की बात याद आती है कि बड़ा होकर अप्पू साधू होगा। वो भीतर से सिहर जाती है।

इधर अप्पू पूरे उपन्यास में इन्ही सब बातों को लेकर परेशान रहता है। उसे समझ नहीं आता कि वो क्या करे। लेकिन जब उपन्यास का सिर्फ ढाई पेज बचता है तो उसे एक उपाय सूझती है। पहले तो वो एक फाइल बनाता है औऱ उसके भीतर वो सारी बातें लिखता है जो उसके दिमाग में चक्कर काट रही होती है। लिखकर वो हल्का महसूस करता है लेकिन तभी सोचता है कि वो इसका क्या करे। उसकी खपत कहां हो। पुराने हिन्दी उपन्यासों के पात्रों की तरह वो प्रकाशकों और संपादकों के चक्कर काटने के बजाय ब्लॉग बनाता है। संजय कुंदन ने यहीं पर आकर उपन्यास में ब्लॉग का एक नया संदर्भ पैदा किया है, ब्लॉग की परिभाषा का एक रचनात्मक प्रयोग किया है।. और यहीं पर संभव है कि हिन्दी के प्रचलित विधाओं के प्रेमी खुन्नस खा जाएं।

वो इस बात पर झल्ला सकते हैं कि- ऐसे कैसे चलेगा। हिन्दी में जब पहले से ही कविता, उपन्यास, कहानी या फिर डायरी लिखने की महान परंपरा रही है तो फिर कोई ब्लॉग कैसे लिख सकता है। कहनेवाले शायद ये भी कहें कि इसे आप जबरदस्ती ठूंसा हुआ ही माने, सब प्रायोजित है। एक घड़ी के लिए वो कांप भी सकते हैं कि तो क्या आनेवाले समय में महान वृतांत के अंत की तरह कागजों पर भावुक होने का दौर भी खत्म हो जाएगा। उस पीढ़ी का अंत हो जाएगा जो फर्रे का फर्रा लिखकर कॉफी हाउस या फिर मंडी हाउस के आसपास हमारी चिरौरी करते रहे।.....शायद कोई कोशिश भी करें, नहीं ऐसा नहीं होने पाएं।

लेकिन इन्हीं सबके बीच जो लोग दिन-रात काम के बीच नेट से चिपके हैं, उन्हें ये बात बहुत ही स्वाभाविक लगेगी कि अप्पू ने ब्लॉग ही क्यों बनाया औऱ वो भी हम नाकामयाब के नाम से। इन्हें पता है कि शिल्पी, कौशल, विनीत सहित दुनियाभर के लोगों के कमेंट्स उसे कितना राहत देते हैं। जो लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं, उन्हें पता है कि ब्लॉगरों ने टिप्पणीकारों के बूते लिखना शुरु कर दिया है। अगर चार-पांच दिन न लिखो तो फोन करके पूछते हैं- आपकी तबीयत तो ठीक है न।

संजय कुंदन ने अप्पू के ब्लॉग हम नाकामयाब का आगे क्या हुआ नहीं बताया। जाहिर है ये उपन्यास के लिए अनिवार्य न रहा हो। लेकिन ब्लॉग के उत्साह में कोई कह सकता है कि जब दुनियाभर के लोग अप्पू के ब्लॉग पर टिप्पणी करने लगे होंगे तो आत्महत्या की वेबसाइट खंगालनेवाले अप्पू को ब्लॉग के बहाने जिंदगी के प्रति मोह पैदा हो गया होगा। हम तो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि आगे कोई कहानी या उपन्यास हो जिसके पात्र ब्लॉग के बहाने जीना शुरु कर दे, ब्लॉगिंग करते-करते जिंदगी जीत जाए।...

संजय कुंदन का पूरा उपन्यास टूटने के बाद के लिए क्लिक करें-
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5 Response to 'उपन्यास की बुनावट में ब्लॉग के रेशे'
  1. कहीं न कही इस स्वच्छंद लेखन की विधा ने पारंपरिक साहित्य लेखन की दिशा जरुर बदली है.
    इसकी और भी कडियाँ देखने को मिलेंगी.

     

  2. अगर साहि‍त्‍यि‍क वि‍धाओं में ब्‍लॉग एक वि‍कल्‍प बनने की प्रक्रि‍या में है तो पुराने लोगों को अटपटा तो जरूर लगेगा, लेकि‍न अक्‍सर होता आया है, पुरानी कई चीजों को हटाने के बाद ही कोई नई चीज या वि‍धा स्‍थापि‍त होती है, लेकि‍न ब्‍लॉग बि‍ना कि‍सी को दरकि‍नार कि‍ए अपनी अलग पहचान बनाने की दि‍शा में गति‍शील है।
    उपन्‍यास की संक्षि‍प्‍त आलोचना अच्‍छी रही। कम से कम अखबार में रि‍व्‍यू देखने से छुट्टी मि‍ली:)

     

  3. Unknown
    6 नवंबर 2008 को 11:21 am बजे

    अभी तो ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई है, हिन्दी ब्लॉग जगत का प्रभाव अभी बहुत कुछ बदलाव लायेगा, चाहे किसी को पसन्द आये या न आये…

     

  4. पहले तो गाहे-बगाहे की पहली वर्षगांठ की हार्दिक बधाईयां....पहली बार आया हूं आपकी ब्लौग पर और अभीभूत हो गया हूं.
    रोचक चर्चा.
    आज नहीं तो कल इस ब्लौग-विधा को स्विकार्य होना ही है हिंदी साहित्य के अंचल में डायरी,यात्रा-वृतांत की तरह

     

  5. रोचक चर्चा। अपने आप मे ब्लॉग धीरे-धीरे एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। अभी कहीं-कहीं ब्लॉग पर सुलझे हुए विचार भी देखने मे मिलते हैं औऱ रोचक चर्चाएं भी चलती रहती हैं, अब कहीं किसी को कॉफी हाउस या मंडी हाउस जा कर चर्चा करने के लिये नहीं जाना पडता।
    अच्छी पोस्ट।

     

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