आनंदी, जगदीसिया सहित दर्जनों टीवी के बाल कलाकार पिछले चार-पांच दिनों से हमसे हाथ जोड़कर माफी मांग रहे हैं। वो बार-बार कह रहे हैं कि बहुत जल्द ही हम आपको नए एपीसोड दिखाएंगे। नीचे स्क्रीन पर कैप्शन आ रहा होता है कि- क्यों आपके मनपसंदीदा कार्यक्रमों के नए एपिसोड नहीं दिखाए जा रहे हैं। दोनों चीजों को एक-दूसरे से जोड़कर देखें तो लगेगा कि इसके लिए जूनियर आर्टिस्ट ही पूरी तरह जिम्मेवार हैं जो कि अपनी मांगों को लेकर अडे हुए हैं। ये बाल कलाकार चैनल द्वारा लिखकर दी गयी स्क्रिप्ट का मतलब भी समझते होंगे। और अगर समझते भी हैं तो उनके पास इतनी समझ नहीं बन पायी है कि वो सही और गलत को अलगा सकें। रियलिटी शो, सोप ओपेरा सहित विज्ञापनों में आपको ऐसी कई बातें बच्चों के जुबान से सुनने को मिल जाएगी जिसे सुनकर आप एकदम से कहेंगे- जानते-समझते कुछ नहीं जो चैनलवालों ने बोलने के लिए कहा-बस बक दिया। ये बच्चे तो शुरु से ही एक बर्फ के गोले में ही बहक जाते हैं और अब जब उन्हें लाखों में रकम मिलने लगे हैं तो क्यों न बोले। पांच से छः साल का बच्चा हमारे आपके जैसे नौजवान लड़के-लड़कियों को अफेयर के टिप्स देते नजर आ जाएंगे। ये सिलेब्रेटी बच्चे हैं। ये पेज थ्री के बच्चे हैं। आज ही दि टाइम्स ऑफ इंडिया ने ऐसे बच्चों की आमदनी का ठीक-ठाक अनुमान लगाया है। हम उसके पर्सनल लाइफ के बारे में जानना चाहते हैं। सात साल की आयु में भी स्ट्रगल के किस्से सुनना चाहते है। ये बच्चे अभी से ही बाइट देने में सिद्धस्थ हो गए हैं, अभी से ही इनकी विपरीत लिंगों के प्रति कमेस्ट्री बनने लगी है।ये मीडिया के बच्चे हैं.
धूल में लोटते हुए, रुपये-दो रुपये का फोकना( बलून) के लिए तीन-चार थप्पड़ खाने के बाद देश में लाखों बच्चे चीखते हैं, चिल्लाते हैं और अपनी मां को धमकी देते हैं कि- और मारोगी तो घर छोड़कर भाग जाएंगे। संभव है ये बच्चे नहीं जानते कि घर छोड़कर भागना क्या होता है। हजारों लड़के बच्चे सम्पन्न और रईसजादों के बच्चों को चॉकोबार खाते हुए देखकर अपने फुन्नू( लिंग) को मरोड़ते हुए चुपचाप खड़े रहते हैं। लड़कियां दिऔटे पर से दो रुपये चुराती है और बैनाथ साहू के यहां से लाल रीबन लेकर आती है। अभी वो मनमुताबिक फूल बना ही रही होता है कि पीछे से धांय-धांय उसकी मां धौल जमाती है। लगातार चिल्लाती है कि-कलमुंही रक्ख कर गए थे कि बिरजूआ के लिए संकटमोचन लाएंगे, दो दिन से पेट धोइना हो गया है और इसको सिंगार-पटार सूझा है। हजारों लड़कियां मार खाकर बिना बाल बांधे जिसे की हम मधुमक्खी का छत्ता कहते हैं, लिए देश में घूम रही है। ये नेहरु के बच्चे हैं।जी हां, चाचा नेहरु के बच्चे।
बाल दिवस के मौके पर हम अपनी इसी मोटी समझ को लेकर स्टोरी बनाने में भिड़ जाते। मीडिया के भीतर जो हम जैसे लोग हैं, जो बात-बात में आम आदमी पर उतर आते हैं, जो समझते हैं कि घठ्ठे पड़े लोगों को स्क्रीन पर लाने से उनके दुख दूर हो जाएंगे, उन्हें ऐसे मौकों पर भजनपुरा, पुरानी दिल्ली, मुनिरका के पीछे की जुग्गी जैसे इलाकों में भेजा जाता। हमें वहां के बच्चों के बाल-दिवस को खोजना होता। हम उनके बीच ज्यादा से ज्यादा बदहाली देखने की कोशिश करते, उन्हें ज्यादा से ज्यादा विद्रुप दिखाने की कोशिश करते। इतना विद्रुप कि जिसे देखकर आज के समाज को संवेदना से ज्यादा घृणा का भाव पैदा हो। औऱ फिर सोफे पर बैठे अपने बच्चे को पुचकारने लग जाएं- उसके मुलायम गालों में खो जाएं। बदहाल बच्चे को खोजने की तिकड़म हम ऑफिस से निकलने के साथ ही शुरु कर देते। और इंडिया गेट के पास कोई न कोई बच्चा कुछ बेचते हुए, रिरियाते हुए मिल ही जाता। हम वहीं से शुरु हो जाते। इनकी बदहाली को दूर करने में दुनियाभर के एनजीओ लगे हैं। इस दिन हमें उनकी भी पीठ ठोकनी होती। हम वहां भी जाते और बॉस के बताए एनजीओ और उनके लोगों को स्टोरी में शामिल कर लेते। हम बच्चों के कपड़े का एक ही रंग दिखाते-मटमैला और अगर लाल-पीले रंग दिखाने होते तो उसके पहले एनजीओ के बैनर जरुर दिखाते जो कि इनके जीवन में रंग भरने का काम करते. हमारी स्टोरी बनती, कभी चलती और कभी नहीं भी चलती। लेकिन हम नेहरु के बच्चों पर जरुर स्टोरी बनाते।
दूसरी तरफ आइ मीन यू नो कल्चर की लड़कियां और कुछ लड़के भी होते। जो टीवी और सिनेमा में काम कर रहे बच्चों पर स्टोरी बनाते। उन्हें अक्सर फील्ड में जाने की जरुरत नहीं पड़ती। नेट पर से दुनियाभर की चीजें खोज लेते। रियलिटी शो और फिल्मों के फुटेज लाइब्रेरी से मिल जाते। तारे जमीं पर और लिटिल चैम्पस इनमें खूब मददगार साबित होते। फिर देशभर के लिटिल चैम्पस( सारेगम के अलावे) को लाइन अप करने की कोशिश की जाती। अगर तीन-चार भी मिल गए तो इनका काम हो गया. पहले तो लाइनअप करने की बड़ी हाय-तौबा मचती थी, सारे चैनल लाइव ही लेना चाहते। लेकिन अब तो चैम्पस की संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि सबको कोई न कोई हाथ लग ही जाता है. इसके साथ ही चैनलों की म्यूचुअल अंडर्स्टैंडिंग भी पहले से बढ़ी है. काम बन जाता औऱ शाम होते-होते चैनल के स्क्रीन चमचमा उठते।उन चैम्पस से उनके टीवी सफर के बारे में पूछा जाता। अलग-अलग ब्यूरो में बैठे चैम्पस से एक-दूसरे के अफेयर के बारे में पूछा जाता। कोई चैम्पस ओवर स्मार्ट होता, दिनरात गाने में लगा रहता और बताता कि मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूं. किसी भी एंकर को इतनी हिम्मत या समझ नहीं होती कि वो उससे पूछे कि वो दिनभर में कितने घंटे की पढ़ाई करते हैं। उल्टे ऐसा कहने से उनकी तारीफों के पुल बांधने लग जाते। तब हमें नेहरु के बच्चों पर की गयी स्टोरी बहुत ही फीकी लगने लग जाती। ऑफिस के भीतर ऐसा महौल बनता कि उन बदरंग बच्चों की तरह हम और हमारी स्टोरी भी बदरंग हो जाती। हम आइएमसीसी से आए लोगों के साथ अफसोस जताते- इन बच्चों का कुछ नहीं सकता, ये बदरंग ही रहेंगे। पीछे से एक-दो लड़कियां चिल्लाती- अबे अपनी सोच, ऐसा ही स्टोरी करेगा तो तेरा भी कुछ नहीं होगा।..एक काम कर तू ऐसे चैनल खोज जहां नेहरु के बच्चों की सुध ली जाती है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_14.html?showComment=1226649180000#c1676716896952301135'> 14 नवंबर 2008 को 1:23 pm बजे
कह सकता हूं कि यह आज सबसे संवेदनशील और गंभीर लेख है। बधाई विनीतजी।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_14.html?showComment=1226656620000#c679330510228191373'> 14 नवंबर 2008 को 3:27 pm बजे
bahut accha laga yah lekh padhkar..
waise "u know" culture ke bacchon me wo bachpan rah bhi nahi gaya hai na, Vineet ji..
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_14.html?showComment=1226665500000#c8344622519097235463'> 14 नवंबर 2008 को 5:55 pm बजे
हमारा देश विरोधाभास का देश है. सामयिक चिंतन के लिए धन्यवाद!
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_14.html?showComment=1226717880000#c5256511240906158188'> 15 नवंबर 2008 को 8:28 am बजे
बेहतरीन आलेखों में से एक।