आम ऑडिएंस के पास ऐसा कोई भी साधन नहीं है जिससे की वो खबरों को लेकर किए जानेवाले manipulation को समझ सके। चैनल किस तरह शब्दों को इधर-उधर करके, उस पर मोंटाज और क्रोमा लगाकर पूरे अर्थ को बदल देते हैं,उसे समझ पाना आसान नहीं है। ले-देकर ऑडिएंस, यहां तक कि मीडिया समीक्षकों की झोली में भी एक ही दो शब्द है जिसे कि किसी भी टीवी चैनल या प्रोग्राम का विश्लेषण करने के लि फिट कर देते हैं- एक तो सीधे-सीधे ये कहना कि- अजी कुछ नहीं, सब टीआरपी का खेल है और दूसरा कि सब लंपटई पर उतर आए हैं।
निजी हिन्दी चैनलों को प्रभाव में आए पन्द्रह-सोलह साल होने जा रहे है। इतने कम समय में लोगों पर इसका जितना जबरदस्त असर हुआ है, उसके मुकाबले विश्लेषण के स्तर पर न के बराबर ही काम हुए हैं। मीडिया विश्लेषण के नाम पर कोई पद्धति का विकास होने के बजाय स्टीरियोटाइप राइटिंग ही अधिक हुई है। यह भी एक बड़ी वजह है कि आज तेजी से गिरते चैनलों के स्तर पर बात करने पर कोई भी चैनल मीडिया विश्लेषकों की बात को तबज्जो नहीं देते। शुरुआती दौर से ही चैनलों को पूंजी का माध्यम, मानवीय संवेदना के अंत होने की घोषणा का असर और वैल्यू लोडेड शब्दों के प्रयोग और चैनल को लगातार साहित्य के साथ जोड़कर देखने की छटपटाहट ने कुछ लोगों को मीडिया विश्लेषक तो जरुर बना दिए। वो साहित्यिक हल्कों के बीच हिट तो हो गए, अपनी पैठ तो बना ली। वो इस बात के लिए जाने जाने लगे कि बंदा चैनल और मीडिया में भी जनपक्षधरता की बात को पकड़े हुए तो है लेकिन ये विश्लेषक भी इस बात को चैनल के सामने नहीं रख पाए कि पूंजी औऱ बाजार के खेल के बीच भी कैसे सामाजिक सरोकार के माध्यम विकसित किए जा सकते हैं, इस बारे में कोई समझ नहीं दे पाए। अपने व्यावहारिक जीवन में उन्हें भी पता है कि काम सिर्फ महान आख्यानों और संवेदना को थामे रहने से नहीं चलता लेकिन मीडिया विश्लेषण के लिए इसे पकड़े रहना, मीडियाकर्मियों और चैनल के लोगों के लिए अप्रासंगिक बना देता है।
अगर साफ- साफ कहें तो मीडिया विश्लेषकों की बाजार,अर्तव्यवस्था, पूंजी की उपलब्धता और इन सबकी अनिवार्यता के बीच चैनल या मीडिया के चलने की बात को न समझ पाना ही उनके द्वारा किए जा रहे विश्लेषण की नाकामी का नतीजा है। मेरी तरह और कोई भी जो कि मीडिया विश्लेषण को बतौर करियर बनाने पर विचार कर रहा है, उसके मन में एक सवाल सबसे पहले आता है औऱ आने भी चाहिए कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर जो कुछ भी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता क्या है। मीडिया पर लगातार उंगली रखकर, उसे हमेशा पटखनी देने की नीयत से जिस भाषा का हम इस्तेमाल कर रहे हैं, उसका असर कितना है।
संभव है मेरे लिखे और विश्लेषण की खपत कॉलेज के उन स्टूडेंट के बीच हो जाए जो हिन्दी विभाग में रहते हुए भी एक पेपर सेफसाइड के रुप में मीडिया ले लेते हैं कि कहीं कुछ नहीं होगा तो मीडिया लाइन में ही घुस लेंगे। उनके बीच अपनी पॉपुलरिटी बढ़ जाए और वो हमारे लेखों की फोटोकॉपी कराकर पढ़ने लगें। हमारे विश्लेषण का इससे ज्यादा कोई उपयोग है, फिलहाल मेरे जेहन में नहीं आता. इस आधार पर अगर ये मान लें कि हम तो आनेवाली पीढ़ी के लिए लिख रहे हैं, हम उनके बीच मीडिया की एक स्पष्ट समझ देना चाहते हैं। तो अब जरा अपने लिखे की उपयोगिता की जांच उनके हिसाब से कर लें.
कोर्स सहित मीडिया में काम करते हुए मैं करीब ढ़ाई साल तक मीडिया से सीधे-सीधे जुड़ा रहा। एमए में भी चार पेपर मीडिया की पढ़ाई की। इसलिए आप एक साल और जोड़ ले, यानि करीब तीन साल. इस दौरान मुझे कभी नहीं लगा कि हिन्दी मीडिया की किताबों में जानकारी के नाम पर जो चीजें उपलब्ध कराया है, वो किसी काम की है. जैसे हमारी लिखी बातें आनेवाली पीढ़ी के लिए किसी काम की नहीं हो सकती है, ठीक उसी तरह मुझे उपलब्ध किताबों को देखकर लगा। मसलन टीआपी के नाम पर विश्लेषक दुनियाभर की बातें झाड देंगे लेकिन किसी ने नहीं बताया कि ये कॉन्सेप्ट कैसे आया, किस तरह ये काम करता है और इसका असर मीडिया कंटेंट पर किस तरह से होता है। मीडिया की समझ के नाम पर वैचारिकी झोंकने से स्टडेंट का कितना भला होता है,, इसेक बारे में स्टूडेंट बेहतर बता सकता है। यकीन मानिए अगर ढंग से पांच मीडिया के स्टूडेंट मीडिया विश्लेषकों के सामने बैठ जाएं और अपनी जरुरत और कोर्स की उपयोगिता पर बात करने लग जाएं तो विश्लेषकों को अपने को गैरजरुरी होने का एहसास होते देर नहीं लगेगी।
अब विश्लेषकों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वो साफ-साफ घोषणा करें कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर सिर्फ मास्टरी नहीं कर रहे हैं. हम सिर्फ उनके लिए लेख और किताबें नहीं लिख रहे हैं जो साल दो-साल बाद बीस-पच्चीस हजार रुपये कमाने के चक्कर में लगे हैं। हम एक ऐसी पीढ़ी गढना चाहते हैं जो मीडिया की नकेल कस सके, चैनलों की थेथरई पर लगाम लगा सके. खबर के नाम पर जो चैनल अंड-बंड दिखा रहे हैं उनको भय हो कि आनेवाले समय में दिक्कत हो सकती है। लेकिन सवाल तो अभी भी रह जाता है कि मीडया की नकेल कसनेवाली पीढ़ी तैयार करने के लिए मीडिया संस्थानों, विभागों में और रिसर्च सेंटरों में जो कुछ, जैसा भी चल रहा है उसे उसी तरह चलने दिया जाए. किताब के नाम पर जो हुमचनेवाले विचार झोंके जा रहे हैं, उसे जारी रखा जाए या फिर इसके अलावे या इसे छोड़कर कुछ अलग से भी करने की जरुरत है ?
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