हंस के ताजा अंक में मुकेश कुमार ने अपने लेख मीडिया की भट्ठी में आतंकवाद में ब्लॉग को मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा माना है। मुकेश कुमार का ये कोई अपना मुहावरा नहीं है। इसे उन्होंने पहले ही संदर्भ देकर स्पष्ट कर दिया है। कमलेश्वर के संपादन में गंगा नाम से एक पत्रिका निकलती थी जिसमें गंगा स्नान बोलकर एक स्तंभ हुआ करता था। उस स्तंभ में मीडिया की पोल-पट्टी खोली जाती थी। मुकेश कुमार ने वही से ये मुहावरा थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ ब्लॉग के लिए इस्तेमाल किया है।
हालांकि मुकेश ने ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि ये मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है तो भी इन्हें भी अभिव्यक्ति मिले तो अच्छा है। ऐसा कहते हुए उन्हें इस बात की भी आशंका जताई है कि संभव है कि बहुत से लोगों को इस ब्लॉग की कुछ सामग्री व्यक्तिगत कुंठाओं का उगलदान लगे, क्योंकि कई बार भाषा का संयम नदारद हो जाता है। इस बात की चर्चा हम बहुत पहले ही कर चुके हैं। सुशील कुमार सिंह के मामले में इसे हमने कई टिप्पणीकारों की बातों को साथ जोड़ते हुए देखा है। इसे फिलहाल खींचने की जरुरत नहीं है।
यहां हम इस बात पर विचार करें कि क्या मुकेश कुमार के एक मुहावरे से कि ब्लॉग मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है से इस बात को स्टैब्लिश करने की कोशिश है कि ब्लॉग में मीडिया की गटर का ही एक बडा़ हिस्सा उडेला जा रहा है या फिर इसमें कुछ अलग किस्म की बातें भी है। ये गटर की सामग्री न होकर अलग किस्म की रचनात्मकता है। अविनास ने इस सवाल का जबाब कथादेश के अगस्त ०८ अंक में कुछ हद तक दिया है। जब मैंने इस सवाल को लगातार उठाया कि न्यूज चैनल के बड़े दिग्गज ब्लॉगिंग क्यों करते हैं। इसके पहले रवीश कुमार ने भी सामयिक मीमांसा में छपे लेख-हिन्दी ब्लॉगिंगः दूसरी अभिव्यक्ति की खोज में अपनी बात रखते हुए कहा-पूरी घटना को मिनट-दो मिनट में समेटना होता है। खबरों के लिए देशभर में घूमते रहना होता है। इस क्रम में कई चीजें होती हैं जिसका कि इस्तेमाल हम नहीं कर पाते। संभव है ये समय या फिर बाकी चीजों के दबाब के कारण होता हो। लेकिन इस बची हुई चीजों का इस्तेमाल ब्लॉग करते हुए हो जाता है। यानि ब्लॉग में वो हिस्सा भी सामने आता है जो कि मेनस्ट्रीम की मीडिया में आने से रह जाता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि चैनल या अखबार को जिस मुद्दे पर स्टोरी देनी होती है, उसे कवर करने के दौरान उसकी प्रकृति से बिल्कुल अलग किस्म की बात दिमाग में आती है, ब्लॉग में उसे शामिल कर लिया जाता है। इस बात से रवीश कुमार की बात को जोड़कर देखें तो मीडिया में काम करते हुए बी कई चीजों को सामने न ला पाने की छटपटाहट पत्रकार को ब्लॉग की ओर मुड़ने को विवश करती है। इसी क्रम में ऐसा भी होता है कि पत्रकार की व्यक्तिगत परेशानी भी यहां पर टांक ली जाती है।
इसलिए मीडिया के विरोध में गटर की गंगा सुनने में अच्छा लगने के बिना पर ब्लॉग को इसका हिस्सा मान लेना बहुत मुफीद नहीं है। मुझे नहीं लगता कि जिस लापरवाही के साथ गटर में चीजें फेंकी जाती है, उसी लापरवाही से कोई ब्लॉगर और वो अगर पत्रकार है तो उसे ब्लॉग पर फेंकता है। वो उसे सद्इच्छा से, स्ट्रैटजी से या फिर भीतर की बेचैनी के साथ पहले संजोता है, उसे ढोते चलता है और तब हमारे-आपके सामने रखता है. इसलिए गटर का मुहावरा सुनने में अच्छा लगते हुए भी संदर्भ और प्रयोग के लिहाज से फिट नहीं बैठता. लेकिन इसमें अच्छा बात है कि मुकेश कुमार ने ऐसा प्रयोग करते हुए भी इसकी होने औऱ विकसित करने की अनिवार्यता का पक्ष लिया है।
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226053320000#c9163628425225312705'> 7 नवंबर 2008 को 3:52 pm बजे
मुझे नहीं लगता कि जिस लापरवाही के साथ गटर में चीजें फेंकी जाती है, उसी लापरवाही से कोई ब्लॉगर और वो अगर पत्रकार है तो उसे ब्लॉग पर फेंकता है। वो उसे सद्इच्छा से, स्ट्रैटजी से या फिर भीतर की बेचैनी के साथ पहले संजोता है, उसे ढोते चलता है और तब हमारे-आपके सामने रखता है. इसलिए गटर का मुहावरा सुनने में अच्छा लगते हुए भी संदर्भ और प्रयोग के लिहाज से फिट नहीं बैठता.
" very well decsribed and I strongly appreciate and agree with your above words.."
Regards
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226062320000#c8288179911132854661'> 7 नवंबर 2008 को 6:22 pm बजे
हर आदमी अपने स्तर और सोच के मुताबिक लिखता है, उनका स्तर गटर तक ही सीमित है तो कोई क्या करे.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226063040000#c2496485147871256424'> 7 नवंबर 2008 को 6:34 pm बजे
"गटर" शब्द खटकने वाला है, क्योंकि ब्लॉग जगत में भी काफ़ी गम्भीर और रिसर्च करके लिखने वाले मौजूद हैं, गाली-गलौज या भड़ासी भाषा का इस्तेमाल करने वाले काफ़ी कम हैं… कहाँ तो ब्लॉग लेखक को "वेब पत्रकार" के रूप में मान्यता देने की बात की जा रही है और कहाँ उसकी तुलना सीधे गटर से कर दी गई है, इतना विरोधाभास भी नहीं है हिन्दी ब्लॉग में। वैसे अन्त में आपने उसे स्पष्ट कर दिया कि "फ़िट नहीं बैठता…" और यही मेरा मत है। हिन्दी ब्लॉग को "तुच्छ / नीच" की निगाह से देखने का नजरिया भी धीरे-धीरे बदलेगा, क्योंकि सवाल यही है कि क्या अंग्रेजी में लिखने वाले सभी भद्रजन ही हैं?
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226067300000#c1371148912310226368'> 7 नवंबर 2008 को 7:45 pm बजे
मैंने वो लेख पढ़ा है ..उन्होंने आख़िर में यही कहा है चलिए किसी बहाने से सही भड़ास तो निकालनी चाहिए .....बस मुझे जो बात अजीब लगती है की ब्लोगिंग में ये लोग कुछ ओर लिखते है जबकि इनका चैनल कुछ ओर दिखाता है ऐसा क्यों ?ये विरोधाभास क्यों ....
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226071620000#c3744061029211929433'> 7 नवंबर 2008 को 8:57 pm बजे
क्या फर्क पड़ता है? जैसे-जैसे हिंदी ब्लौगर बढ़ते जायेंगे वैसे-वैसे पत्रकारों का बहुमत हिंदी ब्लौग से कम होता जायेगा.. सो अगर गटर है भी तो लोगों को क्या फर्क पड़ने वाला है??
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226082300000#c6371499744142238538'> 7 नवंबर 2008 को 11:55 pm बजे
ऑंय...हँस...वो कौन सी।
भई यू आर एल दो
;)
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226121480000#c7649117693453979943'> 8 नवंबर 2008 को 10:48 am बजे
मसिजीवी जी आप हंस को नहीं जानते?
दिल्ली में एक हंसराज कालेज है, इसकी एक हंस नाम से पत्रिका निकला करती थी.
श्री राजेन्द्र यादव को हंस नाम से पत्रिका निकालनी थी, सो इन्होंने हंसराज कालेज का प्रतिनिधि बनकर हंस का रजिस्ट्रेशन रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर से अपने पक्ष में करा लिया.
इसका आप मुंशी प्रेमचन्द जी की हंस से जोड़ने का यत्न मत कीजिये. वैसे बहुत से लोगों का ये भ्रम है कि ये मुंशी जी की हंस पत्रिका है.
हंस का यूआरएल निम्न है लेकिन आज कर यह गायब है
http://hansmonthly.com/
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html?showComment=1226134980000#c8045485841800661059'> 8 नवंबर 2008 को 2:33 pm बजे
हा हा हा...
शुक्रिया नयनसुखजी। ;)