करीब चार साल की एक बच्ची है इच्छा। उस बच्ची का समाज से सीधा सवाल है कि लोग उसे क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने उससे बनते हैं जिसे लोग छोड़ देते हैं। यह वही बच्ची है जिसने कभी तीन वक्त का खाना नहीं खाया, जिसके जीवन में झक-झक सफेद रंग कभी नहीं आया, कभी बाल वाली गुडिया नहीं मिली और न ही कभी उसने रंग-बिरंगे फ्रांक पहने। उसके जिवन में बस एक ही रंग है मटमैला। दुनिया में होते होंगे दुनियाभर के रंग और सॉफ्टवेयर से जुड़े लोग आए दिन कम्प्यूटर की मदद से बना रहे होंगे कई नए रंग लेकिन इच्छा के पास सभी चीजें आकर एक ही रंग का हो जाता है मटमैला। एक ऐसा रंग जिसे मेरी मां मैलपच्चू रंग कहती है। वो रंग जिसमें दुनियाभर की गंदगी को पचा लेने की ताकत होती है। आप उस रंग के कपड़े को चाहे कितना भी गंदा क्यों न करो उसके रंग में कोई फर्क नहीं आता। कुछ ऐसे ही रंग हैं जो कि इच्छा की जिंदगी के चारो ओर फैले हैं।
इच्छा की जिंदगी की जिंदगी बदलती है। उसे अब बालवाली गुड़िया मिलती है। वो भी बहुत बड़ी। इतनी बड़ी कि एक बार में उसे संभाल नहीं पाती और एक नहीं दो-दो। एक फ्राक भी बिल्कुल हरा। मां के शब्दों में एकदम से कचूर हरा। अगर आप ताजे पत्ते को मसल दें तो वैसा ही रंग होगा. एक जोड़ी सफेद जोड़ी जूते भी। इच्छा के वो सारे सपने पूरे होते हैं जिसे देखने में उसने अपनी उम्र का अच्छा-खासा समय लगा दिया। अब वो खुश है।
लेकिन इससे पहले कि इन सारी चीजों को लेकर वो अपने दोस्तों के बीच धौस जमाती कि उसके पूरे हुए सपने पर बस्ती के बच्चे सेंध लगा जाते हैं। जूते दिखाती कि आगे से उन जूतों के बीच से उंगली निकाल देता है। हरे फ्रांक का पिछला हिस्सा, फैशन है या फिर रिजेक्टेड और दोनों बालवाली गुड़िया। ये वो गुड़िया है जो इच्छा के सपने में अक्सर आया करती रही या फिर किसी मनचले बच्चे की हिकारत की शिकार गुडिया जिसके बाल के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन पता नहीं पेट ही फाड़ डाले या फिर उसे अंदरुनी चोट पहुंचाने की कोशिशक की है। इच्छा के पूरे होते सपने दोस्तों के बीच तहस-नहस हो जाते हैं। इच्छा फिर सवाल दोहराती है, लोग क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने लोगों के छोड़ दी गयी चीजों से पूरे होते हैं।
यह कलर्स चैनल पर जल्द ही शुरु होनेवाले सीरियल उतरन का प्रोमो है। सीरियल ने समाज की जूठन समझी जानेवाली जमात में इच्छा जैसे चरित्र को गढ़ा है, बचपन, अभाव, सपने, समझदारी और जीवन सच्चाई को एक-दूसरे से नत्थी करके दिखाने की कोशिश में है।
इस समझदारी के साथ कि आनेवाले समय में टेलीविजन कोई भी क्रांति करने नहीं जा रहा या फिर करोड़ो रुपये लगाकर समाज के हाशिए पर के लोगों को नायक बनाने नहीं जा रहा, इतनाभर मानने में कोई परेशानी नहीं है कि टेलीविजन सीरियलों का चरित्र इधर एक साल में तेजी से बदल रहा है। अब तक हाइप्रोफाइल के लोगों को आधार बनाकर सीरियल प्रोड्यूस करने की बाढ़ सी रही। अगर कोई इन सीरियलों को लेकर कोई मजाक करना चाहे तो कह सकता है कि एक सीरियल को बनाने के लिए क्या-क्या चाहिए, दो तीन बड़े फार्म हाउस, दो-तीन फैशन डिजाइनर और गहनों-कपड़ों में लदी-फदी डेढ़ से दो दर्जन बिसूरनेवाली महिलाएं। अब जबकि सीरियल का ट्रेंड तेजी से बदल रहा है। इस मामले में मैलोड्रामा ही सही, टेलीविजन ने फिर से आम आदमी के लिहाज से पटकथा का दामन पकड़ा है. उतरन उसी की एक कड़ी है.आगे भी जारी ........
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html?showComment=1227682200000#c9132560379897695068'> 26 नवंबर 2008 को 12:20 pm बजे
सच कहते हैं आप, तेजी से ट्रेंड बदल रहा है।
जब से "उतरन" का इच्छा वाला प्रोमो देखा और उस अबोध बच्ची का यह प्रश्न सुना, जब उनके सपने पुराने हो जाते हैं तब वे अपने हो जाते हैं... दिल को छू गया। जवाब तो क्या देते।
इंतजार है इस धारावाहिक का।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_26.html?showComment=1227695520000#c4578984737992751060'> 26 नवंबर 2008 को 4:02 pm बजे
उतरन के बारे में जानकर एक अजीब सा एहसास हुआ। वैसे जूठन के एक दूसरे से लडते भिडते तो मैंने भी अपने यहॉं शादियों में देखा है। पर कभी उनकी गहराई में जाने का मौका नहीं मिला। इस परिचय के लिए शुक्रिया।