तो भई, अपने मैथिली गुप्तजी इस बात के पुरजोर समर्थन में लगे हैं कि आनेवाला समय वेबपत्रकारिता का है। बाकी की सारी पत्रकारिता पतझड़ के पत्ते की तरह झड़ते चले जाएंगे। अभी जो बी लोग प्रिंट माध्यम से खबरों को जान रहे हैं, वो या तो तकनीक के मामले में असमर्थ हैं या फिर उनकी अभी भी पुरानी आदत गई नहीं है। मैथिलीजी अब मैं भी कई लोगों को लैपटॉप पर कुछ न कुछ लेटकर पढते हुए देख रहा हूं। थोड़ा वजनी तो होता है लेकिन पन्ने बदलने की झंझट से मुक्ति मिल जाती है। खैर,
एक सवाल औऱ कि जो भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। इस पूरे बातचीत में मेनस्ट्रीम की तरफ से मुझसे ये भी सवाल किया गया कि- जो लोग भी नेट पर लिख रहे हैं, चाहे वो ब्लॉग के जरिए हो या फिर वेब पर, उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। वेब से जुड़े लोग, जिनका कि अपना डोमेन है, उन्हें तो फिर भी आसानी से पकड़ा जा सकता है। लेकिन जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनको लेकर दिक्कत है। अब कोई कठपिंगलजी को ही लीजिए न। या फिर सुशील कुमार सिंह को ही, मान्यता प्राप्त होने के बाद भी वो अपने नाम से नहीं लिख रहे। ऐसे में उनकी बातों को कितना ऑथेंटिंक मान सकते हैं।
दूसरी बात सुशीलजी तो वेब के जरिए पत्रकारिता कर भी नहीं रहे हैं, वो तो गप्प कर रहे हैं। न्यूज रुम का गप्प। फिल्म सिटी के कमजोर गुमटियों पर बड़ी-बड़ी बातों को लेकर किया जा रहा औपचारिर गप्प। इसे कोई कैसे पत्रकारिता कह सकता है। यानि इसी तरह निजी अनुभवों को टांकने और वेब पर लिखने को हम जर्नलिज्म कगैसे कह सकते हैं। इसमें बहुत गुंजाइश है कि कोई अपनी पर्सनल खुन्नस निकालने के लिए किसी चैनल या मीडिया समूह को टांगने में लग जाए. क्या इसे सिर्फ इसलिए जर्नलिज्म कहा जाए कि ये सार्वजनिक कर दिया जाता है।अगर कंटेट को लेकर ही विभाजन करनी है तो ब्लॉग के एक बड़े हिस्से को फिक्शन के खाते में डाला जा सकता है, कुछ को संस्मरण, कुछ को रिपोर्ताज और कुछ को रिपोर्टिंग. हालांकि इस तरह का विभाजन उचित नहीं है और मेरे सहित कई और लोगों को भी इस बात को लेकर परेशानी हो सकती है। तो भी इसमें जर्नलिज्म के एलीमेंट को अलग करने के लिए एक घड़ी को ऐसा किया जा सकता है। आप देखेंगे कि ब्लॉग का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसे आप जर्नलिज्म कह सकते हैं। उसमें मेनस्ट्रीम की तरह की प्रस्तुति है, वो सूचनात्मक हैं, कोई पर्सनल और भावुक किस्म की बातें नहीं. कई बार तो मेनस्ट्रीम की मीडिया उसे ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर लेती है।
जिन लोगों को ब्लॉग में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने के साथ-साथ मेनस्ट्रीम की मीडिया में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने की इच्छा है वो इस बात पर दावा कर सकते हैं कि- चैनल जो दिखा रहे हैं, चाहे वो धर्म के नाम पर हो, पब्लिक व्आइस के नाम पर हो, उसकी कितनी ऑथेंटिसिटी है। इस आधार पर साफ कहा जा सकता है, पहले अपने गिरेबां में झांककर देखें, ब्लॉगिंग में जर्नलिज्म के एलीमेंट कितने हैं, ये बात में बाद में पता कर लिया जाएगा। अब जो लोग ब्लगिंग में मेनस्ट्रीम की मीडिया के मुकाबले ज्यादा सच्चाई और ऑथेंटिसिटी का दावा कर रहे हैं, जाहिर है उनका आधार फिक्शन आधारित ब्लॉग नहीं है। ये वो ब्लॉग हैं जो सीधे-सीधे सामयिकता और देश-दुनिया की घटनाओं से जुड़े हैं। इसलिए ब्लॉग के भीतर की ऑथेंटिसिटी घोषित करने का मसला नहीं है, बल्कि महसूस करने और छानबीन करने का मसला है. मुझे नहीं लगता कि कोई अपने ब्लॉग पर अदिकारों के हनन की बात, शोषण और अन्याय की बात लिख रहा है तो वो गप्प कर रहा है या फिर फिक्शन लिख रहा है। औऱ अगर किसी को फर्जी कथा लिखने में रचनात्मकता दिखाई देती है तो कानूनी डंडे न भी पड़े तो भी सामाजिक दबाब जरुर पड़ेंगे और किसी भी समझदार इंसान को इसकी चिंता जरुरू होती है. इसलिए ऐसा गप्प जिसका कि वास्तविकता से सीधा संबंध हो, ऐसा करनेवाला ब्लॉगर जरुर सोचेगा और सोचना भी चाहिए.
लेकिन फिर वही बात, कि अगर न सोचे तो. तो इस थेथरई और जब्बडपने का क्या इलाज है. इस इलाज को लेकर आप ऐसे ही सोचिए जैसे आप इंडिया टीवी के बारे में सोच रहे हैं। नहीं सोच रहे हैं तो आज न कल सोचना शुरु तो करेंगे ही। उसी खेप में आप उन ब्लॉगरों के बारे में भी सोच लीजिएगा कि कोई खबर के नाम पर गप्प कर रहा है, पर्सनल खुन्नस निकाल रहा है तो उसका क्या करें. इलाज निकल आएगा, खुशी की बात है, अपनी उम्मीद भी बंधी है कि यहां तो एक से एक सोशल साइंटिस्ट बैठे हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225529100000#c6502642484030315721'> 1 नवंबर 2008 को 2:15 pm बजे
मैथिली जी का पूर्वानुमान सही लगता है -आगामी १० वर्षों में प्रिंट मीडिया नेपथ्य में जाने वाली है ! और ब्लॉगर से ज्यादा उम्मीद नही की जानी चाहिए .बड़े घराने बड़े तरीकों से वेब पत्रकारिता में भी बस आने ही वाले हैं -फिर ब्लागिंग का क्या होगा या क्या स्वरुप होगा यह अनुमान का विषय है .जो भी हो वेब अनंत संभावनाए समेटे हुए है जिनमें कईयों की तो हमें अभी भी आहट नही मिली है .
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225537380000#c850112237530683442'> 1 नवंबर 2008 को 4:33 pm बजे
ब्लॉगरी बनाम पत्रकारिता एक विचित्र बाइनरी भर है। खासतौर पर अगर आप पैराडाइम शिफ्ट को नजरअंदाज कने पर उतारू हैं तथा हाइपर टैक्स्ट का मूल्यांकन टेक्सट कर कसौटियों पर करेंगे और फिर देखो इसमें कागज की छुअन कम हे को आधार बनाएंगे (लिटरल नहीं प्रतीक के अर्थ में :))
केवल संख्या बढ़ा दें..ट्रैक-बैक, लिंक बैक को ध्यान में रखें...जो आथेंटिक नहीं लिखेगा वो किसी विषय पर लिखी गई 35000 प्रविष्टियों 28743वें स्थान पर होगा रेंक जैसे तीन तलाऊ टाईम्स में होता है
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225557720000#c2796647086913811285'> 1 नवंबर 2008 को 10:12 pm बजे
"...अपनी उम्मीद भी बंधी है कि यहां तो एक से एक सोशल साइंटिस्ट बैठे हैं।..."
बिलकुल. और भविष्य में प्रिंट मीडिया से कई दर्जा बेहतर, ऑथेंटिक सामग्री ब्लॉगों से ही मिला करेगी. इंस्टैंट इन्फ़ॉर्मेशन के जमाने में अंग्रेज़ी में आगाज़ तो हो ही चुका है. हिन्दी पीछे पीछे अनुसरण कर रही है.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225560180000#c2732272833148313595'> 1 नवंबर 2008 को 10:53 pm बजे
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225560240000#c4263613938180204021'> 1 नवंबर 2008 को 10:54 pm बजे
Authenticity ब्लॉगर की या उसके द्वारा लिखे मसौदे की? सभी ब्लॉगर पत्रकार नहीं हैं, पर सभी पत्रकार ब्लॉगर बन सकते हैं। ब्लॉग को खबर या पत्रकारिता के साथ ही जोड़ कर क्यों देखना? ब्लॉग ने उन लोगों को मंच दिया है जो न लेखक थे न कहलाना चाहते थे। इंटरनेट पर लेखन, मसौदे, चित्रों, यानि कुछ भी रखा जाय असल मुद्दा है उन्हें खोज पाने का। किसी शोध करते छात्र या किसी डॉक्टर से पूछें कि इंटरनेट ने उसे क्या दिया। मेरा मानना है कि लेखन नहीं, खोज इंटरनेट युग की सबसे बड़ी क्रांति है। यह न हो तो, जैसा वायर्ड पत्रिका ने हाल में लिखा, आपका लिखा वैसे ही कहीं खो जायेगा जैसा किसी स्थानीय अखबार में छपने के दूसरे दिन खो जाता रहा है। और कुछ न लिखने जैसा ही है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225587660000#c8491826093324288234'> 2 नवंबर 2008 को 6:31 am बजे
अच्छा लिखा है। एक बात बात यह भी है कि ब्लागिंग अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। पत्रकारिता अभिव्यक्ति का एक आयाम है। तमाम दूसरे क्षेत्र जिनमें खबरों का हिसाब-किताब न होगा वहां ब्लागिंग की भूमिका निरंतर बेहतर होगी।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1225594260000#c261666936700503476'> 2 नवंबर 2008 को 8:21 am बजे
मसिजीवी की बात कुछ कुछ समझ में आयी, पर बहुत कुछ नहीं.. पर लग यही रहा है कि कथ्य के मूल्यांकन को तक्नीकी पक्ष प्रभावित करता है, बस यहीं पर अनूप जी से असहमत होने का मन बन रहा है !
@ अनूप जी, यदि हम इसे विधा का नाम दें, और यही नाम चलने दें, तो बेहतर !
माध्यम के रूप में तो यह ( देवाशीष, बुरा न मानें ) चमत्कृत करने वाले विकल्प देता है पर पोडकास्टिंग-वोडकास्टिंग क्या कभी लेखन का विकल्प बन सकते हैं ?
इसी प्रकार वेब-प्रत्रकारिता एक विधा बन कर उभर भले रही हो, पर वह विकल्प के रूप में तीसरी दुनिया के लिये दूर की कौड़ी है !
तक्नीकी पक्ष मज़बूत करके कोई भी हलचल मचा सकता है.. जैसे एक ख़ास मारकेटिंग रणनीति किसी भी पल्प को बेस्ट-सेलर बना सकती है !