आजतक पर 'मोत का पिंजरा' स्टोरी देखकर मैं अपने को रोक नहीं पाया। मैंने तुरंत शम्स ताहिर खान को एसएमएस किया- ये जबरदस्त स्टोरी है सर,इसमें सरोकार है,मैं रिकार्ड कर रहा हूं। एसएमएस करने के मिनट भर बाद ही उनका फोन आया और उनकी पहली ही लाईन-सच कहूं,मन बहुत कचोटता है। टेलीविजन पर ऐसी स्टोरी की गुंजाईश बहुत ही कम रह गयी है। बहुत मुश्किल है यहां ये सब करना।
शम्स जब ऐसा बोल रहे थे तो मुझे लगा कि उनके भीतर से आशा किरण होम में हर दो दिन में मर रहे बच्चे का दर्द और टेलीविजन के भीतर इस तरह की मर रही खबरों का दर्द दोनों एक साथ निकल रहे हों। ऐसा लगा कि एक संवेदनशील इंसान और सरोकारी टेलीविजन पत्रकार की चिंता घुलकर एक एब्सर्ड स्थिति की तरफ इशारा कर रहे हों। फोन पर मैं भी भावुक-सा हो जाता हूं और कहता हूं- आप बिल्कुल सही कह रहे हैं सर। मन ही मन सोचता हूं कि इस स्टोरी का प्रोमो पिछले एक घंटे से देख रहा हूं और इस बीच दीपिका पादुकोणे की लालपरी बनने की कथा से लेकर जावेद अख्तर-आमिर खान विवाद,खान ही सुपर है..और भी दुनियाभर की स्टोरी इस चैनल पर देखता रहा। मैं आगे कहा- ऐसी स्टोरी पर लगातार नजर बनाए हुए हूं सर,मैं इनकी लगातार रिकार्डिंग कर रहा हूं। आगे चलकर इस पर कुछ करुंगा। कुछ गंभीर तरीके से लिखने की कोशिश करुंगा। उन्होंने कहा- आप जरुर लिखिए,लिखने के क्रम में कभी भी किसी तरह की जरुरत हो,आप बताइएगा..हमारी बात यही पर खत्म होती है।
उस समय तो मन यही किया कि तत्काल एक पोस्ट लिख डालूं। आखिर वेब दुनिया में सक्रिय लोगों को भी पता तो चले कि आशा किरण होम है क्या और वहां हो क्या रहा है? शम्स ताहिर ने जो स्टोरी दिखायी है,बच्चों को पनाह देनेवाला एक सरकारी संस्थान/आवास कैसे मुर्दाघर में तब्दील होता जा रहा है,कैसे दो महीने में करीब 24 बच्चों की मौत हो गयी है,कैसे वहां बच्चों की जिंदगी का सिर्फ एक ही मकसद रह गया है..बच्चों की मौत पर आंसू बहाना और फिर जब आंसू थम जाए तो दूसरे की मौत का इंतजार करना? 200 सीटों पर 700 बच्चों की जिंदगी का असल मतलब क्या होता है,ये उस समाज-सरकार को भी तो पता चले जो कि जीटीपी की ग्रोथ पर ताल ठोके जा रहा है।
मैं बुरी तरह परेशान हो जाता हूं,आशा किरण होम में लगभग लाबारिश हालत में जी रहे बच्चों के एक-एक विजुअल्स और उस पर शम्स ताहिर की व्याख्या हमें भीतर से बुरी तरह झंकझोरती है। कुल सात कमरे में सात सौ बच्चों की जिंदगी सिमटी हुई है। हड्डी गला देनेवाली ठंड में भी इनमें से किसी कमरे की खिड़कियों में कांच नहीं लगे है,टूटे और बिखरे पड़े हैं। तभी कैमरा एक ऐसे बच्चे की तरफ जूम इन होता है जो कि सामान रखे जानेवाले सेल्फ में सिकुड़ा हुआ है।
शम्स की लाइन है-इसमें बस एक जाली लगाने की जरुरत है-ये पूरा का पूरा एक पिंजरा है।..तो ऐसी है आशा किरण होम में रहनेवाले बच्चों की जिंदगी। खिड़कियों की ग्रिल से झांकते ये डिस्एबल बच्चे जब स्क्रीन पर हमसे नजर मिलाते हैं तो शरीर के एक-एक हिस्से के चिपचिपा जाने का आभास होता है। लगता है कहीं से कुछ रिस रहा है या फिर इन बच्चों ने थूक,कफ,मवाद में से किसी एक चीज को हमारी तरफ फेंका है। ये बच्चे मानसिक तौर पर असहाय हैं इसलिए ये क्या करते हैं,इन्हें खुद भी पता नहीं। साफ-सफाई के लिए जो कर्मचारी रखे गए हैं उन्हें इनसे घृणा होती है और वो इन्हें हाथ तक नहीं लगाते।..और यही से,इसी गंदगी के बीच इन बच्चों की मौत की भूमिका तैयार होती जाती है।
मैं विज्ञापन को छोड़कर पूरे साढे सोलह मिनट की स्टोरी की वीडियो रिकार्डिंग करता हूं,उसे फाइनल करता हूं और लैपटॉप पर कुछ स्टिल फोटो रात में ही काटकर रख लेता हूं ताकि अभी न लिख पाने की स्थिति में सुबह पोस्ट करने में आसानी हो। इसके साथ ही ये भी ख्याल आता है कि क्यों न स्टोरी का पूरा ऑडियो वर्जन अपलोड कर दिया जाए ताकि लोग इसे भी सुन सके। एक तो पूरी स्थितियों को सही तरीके से समझने के लिए और दूसरा कि कैसे एक टेलीविजन पत्रकार कार्पोरेट मीडिया के बीच सरोकारों को जिंदा रखने की जद्दोजहद कर रहा है,इस क्रम में एक स्वाभाविक भाषा को भी बचाने की कोशिश में लगा है जो कि हाइपर होने के बजाय स्वाभाविक किस्म की संवेदना पैदा करने की ताकत रखती है,इन सबको जाना-समझा जा सकेगा। मैं तीन-चार बार कोशिश करता हूं लेकिन वो ऑडियो अपलोड़ नहीं हो पाता है। हारकर मैं छोड़ देता हूं। इस कोशिश और झल्लाहट में,टेलीविजन के भीतर मरती संभावनाओं के बीच मौत का पिंजरा जैसी स्टोरी के आने और इधर-उधर की बातों पर सोचते रात के ढ़ाई बजे जाते हैं।.
सुबह देर से मेरी आंखें खुलती है। उठने की कोशिश करता हूं कि अचानक से सिवरिंग,पूरे शरीर और सिर में ऐसा दर्द शायद ही कभी हुआ हो। अपने जानते नार्मल होने की कोशिश करता हूं लेकिन दो छींक आने के बाद सब नाकाम। दोपहर तक दुनियाभर की कोशिशें करता हूं कि सामान्य हालत हो जाए लेकिन नहीं तो नहीं। पोस्ट न लिखे जाने का दुख होता है। हारकर किसी तरह 'BUZZ' पर सिर्फ इतना लिख पाता हूं-आजतक पर मौत का पिंजरा स्टोरी देखकर मुझसे रहा नहीं गया। ...ये स्टोरी आशा किरण होम में लगातार मर रहे बच्चों पर है।
BUZZ पर मेरा लिखा देखकर ओमान में विज्ञापन और बिजनेस मीडिया पढ़ा रहे एसिस्टेंट प्रोफेसर संजय सिंह ने लंबा कमेंट किया। उसमें उन्होंने साफ तौर पर बताया कि आशा किरण होम में जो कुछ भी हो रहा है वो एक गहरी साजिश का नतीजा है। आज से पांच-छ साल पहले हुए अपने अनुभव को हमसे साझा करते हुए कहा कि कैसे जब उन्होंने इस दिशा में काम करने की कोशिश की तो उन्हें धमकियां मिलने लगी और तब आजतक और हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्टर ने उनकी मदद की। संजय सिंह ने जो अनुभव हमसे साझा किया है वो शम्स ताहिर की स्टोरी एंगिल को और भी मजबूत करता है कि यहां सुधार के नाम पर नेताओं की बयानबाजी होती है और लोग अपने-अपने मतलब की सेंकने में लगे होते हैं। सच्चाई यही है कि एक सरकारी आश्रय में जिंदा लाश में तब्दील होते जा रहे बच्चों की चिंता किसी को नहीं है।
संजय सिंह के अनुभव और आशा किरण होम पर विस्तार से रिपोर्ट अगली पोस्ट में-
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266666690023#c3362728117584678836'> 20 फ़रवरी 2010 को 5:21 pm बजे
जब मीडिया की नब्ज़ पकड कर लिखने वाला आप जैसा ब्लोग्गर किसी समाचार स्टोरी की कवरेज़ को इतनी संजीदगी से लगता है तो ..यकीन मानिए हमें भी लगता है कि हां कहीं तो मीडिया से जुडे हुए कुछ लोग हैं जिन्हें सिर्फ़ बाईट्स से , स्टोरी से , और टीआरपी से ही सरोकार नहीं है । उनमें भी एक इंसान ,इंसान से जुडी संवेदनाएं , समाज सब जीते मरते हैं .....और सबसे जरूरी बात आज आपकी पोस्ट को पढने के बाद लगा कि ....हां यही है ब्लोग्गिंग ...यदि नहीं है तो होनी चाहिए ...यदि मैं आज के बाद आपकी इस पोस्ट के बाद अपने पढने लिखने की दिशा बदल दूं .......और ब्लोग्गिंग ही करूं तो इसका सारा दोष आपके और आपकी इस पोस्ट को ही दिया जाए ...वीडियो/आडियो अपलोड न हो सका कोई बात नहीं , मगर बहुत कुछ देख सुन तो लिया ही है । आगे भी पढता रहूंगा आपको
अजय कुमार झा
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266667403858#c7990814816699889459'> 20 फ़रवरी 2010 को 5:33 pm बजे
संवेदनशीला रिपोर्ट! पढ़कर सच में मन कछोट रहा है!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266668561527#c790363035653584626'> 20 फ़रवरी 2010 को 5:52 pm बजे
आशा किरण होम में मौत दर मौत की यह दास्तां देख अहमद वसी की नज्म याद आती है कि -
धरती से मिटते जाते हैं चेहरे अब इस तरह
जैसे किसी ने इनको बनाया हो चाक से
इस संजीदा रिपोर्टिंग की जितनी तारीफ की जाय कम है। शम्स जी से कहिये कि बहुत दिनों बाद आज तक ने अपना जलवा दिखाया है।
शम्स जी, आपकी रिपोर्टिंग देख पत्रकारिता के बचे रहने का एहसास होता है। एक बार फिर आपके लिये अहमद वसी साहब के ही शेर से अपनी बात खत्म करता हूं कि -
ये कम नहीं है कि इस बेलिबास बस्ती में
मेरे बदन पे अभी तक लिबास बाकी है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266670184945#c2232458561640083484'> 20 फ़रवरी 2010 को 6:19 pm बजे
विनीत जी, इस दास्ताँ को आज तक पर नहीं देख सका. देखता तो शायद बहुत कोफ़्त होती क्यूंकि चाहकर भी बाकी बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पता. लेकिन यहाँ भी दर्द महसूस कर लिए. उम्मीद है कि ये खबर मुहिम बनेगी और अंजाम तक पहुंचेगी. रविश जी ने आपके फेसबुक पर लिखा है कि शम्स की कहीं से कोई आवाज़ खींच कर कहीं और ले जाना चाहती है।
चलिए, शम्स जी की आवाज के साथ चलें और बाकी बच्चों की जिंदगी बचा लें. ये घुटन इस ब्लॉग पर भी न रह जाये. हमें भी कचोतेगी और आप सबको भी.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266678471808#c7434781520552730989'> 20 फ़रवरी 2010 को 8:37 pm बजे
प्रिय विनीत जी
आपके ब्लॉग पर 'टी वी पर बच्चे' पढ़ा . मै एक और बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ. आप टी वी पर प्रसारित कार्टून चैनलों को बस एक दिन देखे. खास तौर पर हंगामा पर शिन चैन और निक पर निन्जा हतोरी, डोरेमोन, हगेमारू, असरी चैन आदि. इनकी भाषा, कंटेंट, कहानी अब कुछ इतना अश्लील और आपत्तिजनक है कि मुझे आश्चर्य होता है कि किसी भी टी वी टिप्पणीकार का ध्यान इधर नहीं पंहुचा. मेरी आपसे इल्तेज़ा है कि आप अपने ब्लॉग पर इस पर लिखें और एक बड़े समूह तक यह बात पहुचाएं. एक अजीब संयोग यह भी है कि ये सभी जापानी सीरियल हैं.
धन्यवाद
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266678474871#c5738834971788269701'> 20 फ़रवरी 2010 को 8:37 pm बजे
प्रिय विनीत जी
आपके ब्लॉग पर 'टी वी पर बच्चे' पढ़ा . मै एक और बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ. आप टी वी पर प्रसारित कार्टून चैनलों को बस एक दिन देखे. खास तौर पर हंगामा पर शिन चैन और निक पर निन्जा हतोरी, डोरेमोन, हगेमारू, असरी चैन आदि. इनकी भाषा, कंटेंट, कहानी अब कुछ इतना अश्लील और आपत्तिजनक है कि मुझे आश्चर्य होता है कि किसी भी टी वी टिप्पणीकार का ध्यान इधर नहीं पंहुचा. मेरी आपसे इल्तेज़ा है कि आप अपने ब्लॉग पर इस पर लिखें और एक बड़े समूह तक यह बात पहुचाएं. एक अजीब संयोग यह भी है कि ये सभी जापानी सीरियल हैं.
धन्यवाद
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266680039446#c9013388721502833837'> 20 फ़रवरी 2010 को 9:03 pm बजे
पढ़ चुकी..सिर्फ यह बताने के लिए टिप्पणी कर रही हूँ.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266686896373#c1115071642145943777'> 20 फ़रवरी 2010 को 10:58 pm बजे
मीडिया पर आपकी किताब का इंतजार तो हमें भी है। आप में जटिल विषय को सहज बना देने की खूबी है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266727413361#c4715503121507439920'> 21 फ़रवरी 2010 को 10:13 am बजे
रंगनाथ सिंह जी सहमत!
मेरी टिप्पणी टाइपिंग में गड़बड़ा गयी। इसे इस तरह पढ़ा जाये:
संवेदनशील रिपोर्ट! पढ़कर सच में मन कचोट रहा है!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266733649069#c7244751810894773128'> 21 फ़रवरी 2010 को 11:57 am बजे
सरकारी उपलब्धियों पर कालिख की तरह है इस आश किरण होम में बच्चों की हालत । मन कचोटता तो है ही साथ ही एक असहाय जैसा भी अनुभव करता है /
ब्लॉगिंग का इससे बेहतर उपयोग और क्या हो सकता है ।
इस तरह के मुद्दों को बेबाकी से प्रकाश में लाने के लिए आप हर बार धन्यवाद के पात्र हैं ।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266779658437#c2936509948426725602'> 22 फ़रवरी 2010 को 12:44 am बजे
विनीत आपके ब्लॉग से ही पता चला इस बारे में,हॉस्टल में टीवी नहीं रखा है, आपकी सजगता को शुक्रिया.
जब दिल्ली के इदारों का ये हाल है तो बाक़ी देश की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
सरकारी निकम्मेपन और हम-सब की उपेक्षा का इलाज क्या है?
शम्स, विनीत, रवीश, कमाल खान बने रहें - लगे रहें .... !
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_20.html?showComment=1266934670184#c3667263262962581882'> 23 फ़रवरी 2010 को 7:47 pm बजे
सरकारी नौकरी में रहते हुये लोग कितने संवेदनहीन होते जाते हैं मुझे बहुत नजदीक से पता है.सच कहूँ तो मैंने कई बार बॉस लोगों के सामने अपने वर्करों से सम्बंधित कई संवेदनशील मुद्दे उठाये हैं, लेकिन ज्यादातर मौकों पर सामने से निष्ठुर रेस्पॉन्स ही मिलता है. अधिकारी होने के कारण हमलोगों से संवेदनशीलता की उम्मीद नहीं की जाती है. बरहहाल, संजीदा रिपोर्ट.... दिल को छूने बाला....इश्वर को धन्यवाद..कि अभी मानवीयता जिन्दा है..और संवेदनायें भी....भगवान ऐसे लोगों को लंबी उम्र दें...