
जिस लाइन को सुनते ही बाजार,कार्पोरेट और अब यहां तक कि मीडिया के मुंह में भी पानी भर आते हैं,वहीं एनडीटीवी इंडिया के मशहूर पत्रकार पंकज पचौरी इस लाइन को सुनकर परेशान हो उठते हैं। उन्हें इस बात का अंदेशा है कि आनेवाला समय बहुत ही खतरनाक होगा। ये सेल्फफिशनेस का समय होगा, इसमें शामिल लोग माइसेल्फ कल्चर में जीना शुरु कर देंगे और इस देश को अपनी जागीर समझने लग जाएंगे। बाजार जिस लाइन से खुश है,उसकी तहों को और मोटी करने में लगा है,पंकज पचौरी उस लाइन को चिंतिंत होने की अवस्था में भी अपने ढंग से परिभाषत करने की कोशिश करते हैं। ये लाइन है- इस देश में युवाओं यानी 15 से 35 साल के उम्र के लोगों की संख्या 35 करोड़ है।
ये देश की वो जमात है जिसे कि अक्सर 'कल का भविष्य' रुपक के तहत परिभाषित किया जाता रहा। लेकिन इस रुपक के भीतर के अर्थ कितनी तेजी से बदलता जा रहे हैं,शायद ये हमारी पकड़ में ठीक तरीके से नहीं आने पा रहा। संभवतः पचौरी की चिंता इसी बात को लेकर है। उनके हिसाब से आज जो अर्थ पकड़ में आ रहा है वो ये कि ये बाजार और कार्पोरेट के लिए भविष्य तो जरुर हो सकते हैं लेकिन देश और समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है कि आज इस 25 करोड़ की आबादी के सपने बदल गए हैं। एक आजाद देश में जीनेवाले इस जमात के सपने अब वो नहीं रह गए जो कि इससे ठीक पहलेवाली पीढ़ी के युवाओं की रही है। इनके सपने पूरी तरह कन्ज्यूमर कल्चर के इर्द-गिर्द जाकर सिमट गयी है। ये सपने 24 साल में किसी कंपनी के सीइओ बनने की है,नई से नई मोबाइल और मोटरसाइकिल खरीदने की है। इनके सपनों में समाज और देश अगर कहीं शामिल है तो बस इतना भर कि टीशर्ट पर तिरंगे का स्टीगर लगाकर आइपीएल देखने चला जाए। इनके रोल मॉडल शाहरुख खान हैं जिनसे अच्छी डिप्लोमेसी सीखी जा सकती है। इनके ख्वाब जल्दी से जल्दी सबकुछ पा लेने की है और ये सबकुछ भी परिभाषित है। लेकिन जरुरी नहीं कि सभी के सभी इन 35 करोड़ युवाओं की आंखों में धीरुभाई अंबानी के ही सपने पलने लगे।..इस आगे भी बहुत कुछ है,इससे इतर भी बहुत कुछ है।
पंकज पचौरी ने 35 करोड़ की आबादी वाली इस जमात के बारे में जो कुछ भी कहा,ये उनके किसी टेलीविजन कार्यक्रम का हिस्सा नहीं है।..और न ही ये वो बातें हैं जो कि वो अक्सर चैनल पर पैनल के बाकी लोगों की बातों को मिलाकर निष्कर्ष के तौर पर अंतिम चंक में कहा करते हैं। उन्होंने ये सारी बातें पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम "जाग उठे ख़्बाव कई" में साहिर लुधियानवी को याद करते हुए कही। बल्कि हम ऐसा कहें कि उन्होंने ये सारी बातें साहिर लुधियानवी की प्रासंगिकता को रेखांकित करने के क्रम में कही तो ज्यादा बेहतर होगा। इसलिए मुझे लगता है कि पंकज पचौरी की बातों का स्वतंत्र विश्लेषण करने के बजाय इस कार्यक्रम से जोड़ते हुए बात करें तो ज्यादा बेहतर होगा।
पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन ने हाल ही में साहिर लुधियानवी की नज्मों और गीतों का संचयन "जाग उठे ख़्बाव कई" नाम से प्रकाशित किया है। संचयन-संपादन का काम मुरलीमनोहर प्रसाद,कांतिमोहन 'सोज' और रेखा अवस्थी का है। किताब को लेकर एक छोटी सी भूमिका गुलजार ने लिखी है। पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन की ओर से इस किताब के अलावे पांच और किताबों का हाल भी प्रकाशन किया गया जिसकी चर्चा आगे के संदर्भों से जोड़ते हुए हम करेंगे। यहां बस इतना कि इन कुल छह किताबों के चुनिंदा अंशों के पाठ और उनसे जुड़े लेखकों की राय को जानने-बताने के लिए प्रकाशन ने 'जाग उठे ख़्वाब कई'नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन इंडिया हैबिट सेंटर(दिल्ली) के गुलमोहर सभागार में किया। अब यहां पर हमें साफ कर देना होगा कि हमारे लिए जाग उठे ख़्वाब कई सिर्फ साहिर लुधियानवी की रचनाओं के एक संचयन का नाम न होकर एक ऐसा कार्यक्रम/मोका हो गया जिसके जरिए हम अपनी विरासत को फिर से याद कर सकें। उन शख्सियतों के बारे में गहराई से जान-समझ सकें जिन्होंने कला,संगीत,गायन और अभिनय की दुनिया में मुकाम हासिल किया। जिनके गीतों के बोल अब भी हमारी जुबानों पर जिंदा हो आते हैं,जिनके शब्दों की छुअन हमारे रोएं को सिहरा जाती है और जिनकी तहजीब का कुछ हिस्सा सब कुछ बर्बाद हो जाने के वाबजूद भी हमारी रगो में किसी न किसी द्रव्य और अणु की शक्ल में दौड़ा करते हैं। हम कल की शाम इन अणुओं में दुगुनी गति भरने गए थे। बिंदास होकर मैं अपनी भाषा में कहूं तो हम अपनी जिंदगी की एक शाम अपने ही ख़्बावों को जानने-समझने के लिए गंवाने गए थे। इस एक शाम को गंवाकर उससे कई गुना ज्यादा बटोर लेने के लोभ में गए थे। हम ख़्वाबों पर सुनने के लिए ख़्वाबों की पूरी गठरी लेकर गए थे। इसलिए हमने साहिर के साथ जिन दूसरी पांच किताबों की चर्चा की गई,पंकज पचौरी सहित और जिन पांच लोगों ने अपनी बातें कहीं उन सबमें ख़्वाब के मायने तलाशने लग गए। कहीं-कहीं पर ये ख़्वाब हिन्दी में सोचे जाने पर सपने होते चले गए हैं। ऐसे में मैं आगे जो कुछ भी लिखता हूं वो इनके पूरी होने की खुशी और अधूरी रह जाने की झल्लाहट है। इसलिए ये कोई निष्पक्ष किस्म की रपट होने से कहीं ज्यादा निजी क्षुद्रताओं और लोभ में पड़े एक ख्वाहिशमंद की चिक-चिक भर है। बहरहाल
पंकज पचौरी ने आते ही जब कहा कि उन्होंने साहिर लुधियानवी की रचनाओं की किताब आज से ठीक 25 साल पहले पढ़ी थी तो उनके प्रति हमारे मंसूबे पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गए। हम सेंट्रल सेक्रेटेरियट से गुजरनेवाले हर ऑटोवाले को कोस रहे थे कि ये सब जाने से मना कर रहा है-पंकज पचौरी का कहा पक्का छुड़वाएगा। यहां उनकी ये लाइन सुनकर गद्-गद् हो गया। लेकिन उसके बाद उन्होंने साहिर की नज्मों को पढ़ते हुए जो-जो बातें कहनी शुरु की उससे दिल धीरे-धीरे बैठने लग गया। एकाध मिनट तो हमें भी मामले को समझने में लगा। 35 करोड़ का ये आंकड़ा पूरा का पूरा मेटाफर है इसे जानने में थोड़ा तो वक्त चाहिए। आज के यूथ को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं उसके किसी-किसी हिस्से से हम भी इत्तफाक रखते हैं. लेकिन जब हम इतना समझ गए कि पाश की निगाह में यदि सबसे खतरनाक होता है-सपनों का मर जाना तो यहां कहने का लब्बोलुवाव है कि-सबसे खतरनाक होता है,खंडित सपनों का जिंदा रह जाना। ये खंडित सपने जो कि सिर्फ और सिर्फ भौतिक वस्तुओं तक आकर सेंट्रिक हो जाते हैं। उसके बाद मुझे नहीं लगता कि इन बातों को ही उन्हें पूरे वक्त तक खींचते चले जाना चाहिए था। इन्हीं युवाओं में से एक हिस्सा ऐसा है जो बाबूजी की पैबंद लगी लुंगी को परे हटाकर चांद मार्का लुंगी पहनाता है। माई की गिरवी/रेहन पर के जेवरों को गुड़गांव और नोएड़ा में ओवरटाइम करके छुड़ाता है। औने-पौने दाम पर बिकी खेत को खरीदने की जद्दोजहद करता है। इस 35 करोड़ का एक बड़ा हिस्सा है जो अपने से ठीक पहलीवाली पीढ़ी के कर्जे और दमित इच्छाओं को पाटने और पूरी करने में लगा है। चार दोस्त मिलकर अपने-अपने बटुए झाड़कर इस साहिर लुधियानवी की किताब को दिल्ली बुकफेयर में खरीदनेवाले इसी जमात के टुकड़े हैं। इसलिए पंकज पचौरी जब साहिर की पंक्तियों को पढ़ते जा रहे थे तो हमारे बीच ये उम्मीद बंध रही थी कि इसके साथ अब वो जो कुछ भी बोलेंगे उसमें पिछले 25 साल से लेकर अब तक के अन्तराल के बीच,बदलते हालातऔर शर्तों के बीच साहिर लुधियानवी की जो समझ है वो हमारे सामने निकलकर आएगा।..लेकिन मुझे अंत तक ये समझ नहीं आया कि अगर साहिर की व्याख्या,विश्लेषण और उनकी प्रासंगिकता को महज पिछले दस दिनों की घटनाओं और आनेवाले 15 दिनों( बजट) की घटनाओं तक जाकर बंध जाती है तो फिर इनके 25 साल पहले पढ़े गए साहिर के अनुभव और अंतराल की समझ को कहां से जानें। यकीन मानिए,हम तब बेचैन हो उठे कि वो हमें इस अंतराल की समझ को साझा करें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
इसकी क्या वजह हो सकती है,इसके विश्लेषण की गहराईयों में न भी जाएं तो एक-दो मोटी बातें जरुर समझ आ जाती है। यह भी कहिए कि समझ के साथ-साथ चिंता भी बढ़ती है। पहली बात तो ये कि क्या साहिर सहित दूसरे किसी भी रचनाकारों का विश्लेषण महज तात्कालिकता के दबाव में किया जाना उचित है? क्या उसमें अनुभवों का दौर शामिल किया जाना जरुरी नहीं है? जिस पॉपुलर संस्कृति का हम लगातार विरोध करते आए हैं,ये अलग बात है कि उसे बिना अपनाए हमारी जी भी नहीं भरता,आज हर बात को,हर कला और सांस्कृतिक रुपों को उसी के खांचे में विश्लेषित करने के लिए क्यों बेताब हुए जा रहे हैं? साहिर लुधियानवी को लेकर पंकज पचौरी ने जो कुछ भी बातें कही,संभव है कि वो प्रकाशक और किताब के पक्ष में जाती हो..उनके ये कहने से कि इस किताब को हर यूनिवर्सिटी बल्कि कोचिंग इन्स्टीट्यूट में होना चाहिए से प्रसार की एक नयी गुंजाईश बनती हो लेकिन विमर्श की दुनिया में इस तरह की स्टीरियोटाइप की चर्चा का क्या योगदान है,इस पर गंभीरता से विचार किया जाना जरुरी है। ये मामला जीन बौद्रिआं के कैपिटल C के तहत के विश्लेषण का हिस्सा न होते हुए भी स्टीरियोटाइप की समीक्षा और तुरत-फुरत की बयानबाजी के जरिए विमर्श की दुनिया को नॉनसीरियस बनाना जरुर है। इस पर आगे भी बात होनी चाहिए।
दूसरी बात कि टेलीविजन से जुड़े लोगों के लिए दुनिया का हर कोना आखिर न्यूज रुम ही क्यों है? कुछ दिनों पहले मैंने जैग़म की किताब 'दोजख़'पर बोलते हुए IBN7 के आशुतोष को सुना। एक से डेढ़ मिनट के बाद वो उसी तीन से चार चंक में मामले को निबटानेवाले अंदाज में आ गए। पंकज पचौरी के साथ भी यही मामला दिखा। हम टेलीविजन में ये कुछ ऐसे चेहरे हैं जिनकी जानकारी पर हमें फक्र होता है। जिनके लिए हम विरोधियों से लड़ पड़ते हैं। लेकिन इन्हें ये बात शिद्दत से महसूस करनी होगी कि विमर्श की एक अपनी रिवायत है और सुननेवाली ऑडिएंस जल्दीबाजी में निष्कर्ष निकालनेवाली नहीं होती। टेलीविजन से अलग उनकी बातों को गंभीरता से लेती है और गुनने का पूरा वक्त होता है। इसलिए उनकी कही गयी बातें बाइट की शक्ल में न आकर विचार की शक्ल में आए तो आगे शोध और अकादमिक जगत में भला हो सकेगा। विमर्श की दुनिया हड़बड़ी नहीं पेशेंस की मांग करती है। इन्हें वनलाइनर पॉपुलर फिलॉस्फर होने से बचना चाहिए। इसलिए हम ये कहें कि कल शाम पंकज पचौरी से हम युवाओं के सच को अगर जान पाए तो उससे भी बड़ा सच ये है कि हम उनके इस रवैये से आहत भी हुए।
दूसरी किताब "नौटंकी की मलिका गुलाब बाई" पर बात करने के लिए किताब की लेखिका दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा ने अच्छा प्रयोग किया। उन्होंने गुलाब बाई पर कोई पर्चा पढ़ने के बजाय स्लाइड के जरिए उन दुर्लभ चित्रों के जरिए उनसे जुड़ी बातों को बताती गयी जो कि हमें इतिहास से होकर गुजरने का एहसास करा गयी। चित्रों के साथ वो जो कुछ भी बोल रही थीं,साइज में वो अखबार के कैप्शन से ज्यादा भर तो न था लेकिन चित्रों की मुद्राओं के साथ वो बहुत ही फिट बैठ जा रहा था। इस पूरी किताब में क्या है,इसे आप पढ़कर ही समझें तो अच्छा है। लेकिन इसके जिन चुनिंदा अंशों का पाठ हेमा सिंह ने किया उससे हम युवाओं के वो ख्बाव एक बार फिर से परिभाषित होते जान पड़ते हैं। ये अंश हमें फिर से अपने ख़्बावों पर विचार करने के लिए विवश करते हैं-
गुलाब बाई के अंदर का कलाकार मन उदास रहता है।..बच्चे की किलकारी वो सुनती है लेकिन उसमें दर्शकों से मिली तालियों का संतोष न मिल पाता।..चंदर सेठ के यहां उसे किसी भी चीज की कमी न थी लेकिन गुलाब बाई ने मन की मन ठान लिया कि वो जिंदगी भर नौटंकी करेगी।(स्मृति पर आधारित लाइनें)
हममें से कितने लोग अपने-अपने क्षेत्र को अपने लिए,अपने जीवन का अंतिम सत्य के तौर पर परिभाषित कर पाते हैं? देश की कितनी लड़कियां शादी के बाद पति से अलग अपनी पहचान बनाने में अपने को लगा पाती है? सैकड़ों में एक भी मिल जाए तो अधिक है,अलबत्ता ये जरुर है कि निन्यानवें पति की पहचान के आगे अपनी पहचान डुबो देती है। हममें से कितने कलाकार के बीच शार्टकट से कहीं ज्यादा दर्शकों की तालियों की तड़प बरकरार है? इस अर्थ में ये किताब गुलाब बाई के प्रति दिलचस्पी रखने से कहीं ज्यादा हर उस शख्स के बीच जरुरत पैदा करता है जिसके बीच अपने काम के लिए एक कर्मचारी से अधिक एक कलाकार मन के जिंदा होने की मांग करता है। जो अपने काम को अंतिम परिणति के तौर पर परिभाषित कर सके।
इसे आप मेरी ओर से की गयी घोषणा का दबाव न समझें लेकिन ये सही है कि हमनें कुल छहों किताबों और वक्ताओं को ख़्वाबों को देखने और पुनःपरिभाषित करने के तौर पर समझा है। इस क्रम में "कुंदनःसहगल का जीवन और संगीत" के लेखक शरद दत्त का बयान मानीखेज है। शरद दत्त के इस किताब लिखने की प्रेरणा और अनुभवों को लेकर विस्तार में न भी जाएं तो भी फिलहाल किताबों और शोध प्रबंधों के लिखे जाने को लेकर जो गड़बड़ झाला चल रहा है उसका कच्चा-चिठ्ठा वो खोलकर रख देते हैं। शरद बताते हैं कि सहगल साहब के बारे में ये बात मशहूर रही है कि वो पीके गाया करते थे,लोग कहा करते कि वो दिन में ही पी लिया करते थे। लेकिन हमने पता लगाया तो एक बार उन्होंने बीयर पी थी और वो आउट हो गए,तब से नहीं पिया और दूसरी बात की वो डाइबिटीज के मरीज थे जिनके लिए शराब जानलेवा है।..यही बात उनकी मौत को लेकर अलग-अलग किस्म की बयानों से है। शरद की बातों का मतलब ये है कि उन्होंने कुल आठ साल इस किताब को लिखने में लगाया।...और हम? अब जरुरी नहीं कि हर बेहतर किताबें आठ साल पर ही लिखी जाए लेकिन सवाल है कि ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर हम कितने सीरियस तरीके से काम कर पाते हैं? तथ्यों को लेकर हम कितने सीरियस हैं? अभी एक अखबारी रिपोर्ट है कि हिन्दी के किसी महानुभाव ने एम.फिल् की पूरी थीसिस में यूजीसी नेट के लिए छपी प्रतियोगिता गाईड को बतौर रेफरेंसेज के तौर पर इस्तेमाल किया। इसलिए जाग उठे ख़्वाब कई ये कार्यक्रम,जान गए ख़्वाब कई के तौर पर भी समझ आने लगा।
साहिर लुधियानवी की किताब"जाग उठे ख्वाब कई" बात करते हुए किताब के संपादक-संचयक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि मुझे लगता है कि साहिर अकेले ऐसे रचानकार हैं जिसे अपने अतीत से नफरत है,वो अपने इतिहास को भूलना चाहता है। वो अपने परिवार को भूलना चाहता है क्योंकि उसने समाज के खिलाफ काम किया,शासकों की खुशामदी की। वो अपने पीछे के वंश को भुला देना चाहते हैं। इस मायने में वो बहुत ही ईमानदार रचनाकार रहे हैं. वंश को भुलाने की इस बात पर कार्यक्रम के संचालक एस.एस.निरुपम(संपादक,पेंग्विन हिन्दी) ने अनुराग कश्यप नाम को खूबसूरती से इस्तेमाल करते हुए कहा कि लेकिन साहिर ने पीछे के वंश को भुलाते हुए भी आगे के वंश बीज जरुर डाल दिए। शायद यही वजह है कि अनुराग कश्यप जैसे लोग लिखते हैं कि-साहिर के गानों ने मुझे दिशा दी है। अपनी आवाज मैंने उनके गीतों में पायी थी। असल सवाल यही है कि हममे से कितने लोग ऐसे परिवारों को भुला देने की बात तो दूर,कोशिशभर करते नजर आते हैं? सच बात तो ये है कि इस देश में अधिकांश प्रतिभाओं के फूल को अगर पल्लवित होना है तो उसके लिए वंश-बेल से ही खाद-पानी मुहैया कराए जाएंगे। नहीं तो प्रतिभाओं को झड़बेर की तरह झड़ते देर नहीं लगती।
शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..ये है हमारे ख़्वाबों का जमीनी स्तर का विश्लेषण जिसे कि उपर पंकज पचौरी कन्ज्यूमरिज्म और जीडीपी के आंकड़ों के जरिए हमें समझा रहे थे।
"नौशादः ज़र्रा जो आफताब बना",नौशाद पर ये किताब चौधरी जिया इमाम ने लिखी है। संचालक के निर्देश से घबराकर की दो-तीन वाक्यों में इमाम साहब ने अपनी बात रखें,इमाम साहब ने दो शेर पढ़े। जिस पर्चे पर वो शेर मैंने नोट किया वो मेट्रो की धक्का-मुक्की में हमारी पहुंच से बाहर चला गया,अफसोस हम लिख नहीं पा रहे। लेकिन किताब के परिचय में प्रेस रिलीज से मिली ये लाइनें चस्पा दे रहा हूं-
यह कहानी है लखनऊ के उस जर्रे की,जिसने बता दिया कि जर्रे आफताब कैसे बना करते हैं। हमने सिर्फ कहानियों में पढ़ा और सुना है ध्रुव के बारे में,जो एक दिन सितारा बन गया और आज भी आकाश में अटल-अडिग टिमटिमाता है। शायद उसी से प्रेरणा लेकर नौशाद साहब ने भी दिखा दिया कि कैसे होते हैं वे जर्रे,जो आफ़ताब बनने की ताकत रखते हैं और अपनी रौशनी से पूरी दुनिया को मुनव्वर कर देते हैं।
इन छहों किताबों को लेकर लेखकों और जानकारों ने जो परिचय दिए हैं और जो बातें कही है उससे एक दावा तो जरुर बनता है कि इसके जरिए न केवल इन शख्सियतों से एक मुक्कमल पहचान बन सकेगी बल्कि अपने जमाने के ख़्वाबों जो कि एक हद तक उपभोगक्तावाद के गडढों में जाकर सिकुड़ गयी है,उससे निकलकर दूसरी तरफ का विस्तार भी मिल सकेगा। ये सारी किताबें युवाओं के ख्वाबों को विश्लेषित करने के लिहाज से अनिवार्य हैं। लेकिन बहस का ये सिरा अब भी बचा रह जाता है कि इन लीजेंड और क्लासिक रचनाकारों/कलाकारों को स्टीरियोटाइप की चर्चाओं में समेट लिया जाना कितना असहनीय है? इनलोगों पर नए सिरे से चर्चा की शुरुआत होने के वाबजूद भी कहीं ने कहीं से एक टीस जरुर उठती है कि क्या ये इसी काबिल शख्स हैं? पेंग्विन और यात्रा प्रकाशन की इस पहल की सराहना करते हुए भी हम उम्मीद करते हैं कि वो बहस की इस गंभीरता को समझेंगे। आनेवाले समय में इसे गंभीर विमर्श तक ले जाएंगे और इस दिशा में इससे प्रेरित होकर हिन्दी के दूसरे प्रकाशक भी बेहतर पहल करेंगे। ऐसी शख्सियतों पर बहुत सारी बातें,लेखन,विमर्श और शोध की जरुरत बनी हुई है।
नोट- गुलाब बाई का प्रसिद्ध और दुर्लभ रिकार्ड गीत 'नदी नारे न जाओ सईयां'का तकनीकी झंझटों की वजह से प्रकाशक के वायदे के वाबजूद हम बेहतर तरीके से आनंद न उठा सके,इसलिए इसकी चर्चा अलग से फिर कभी। मशहूर सूफी गायक मदन गोपाल सिंह समय की किल्लत और गले की तकलीफ की वजह से पूरे फार्म में नहीं आ पाए लेकिन आपको जब भी मौका मिले,उन्हें लाइव कन्सर्ट में जरुर सुनें। अलग किस्म का अनुभव होगा। इस जाग उठे ख़्वाब कई में हमने( मैं और मिहिर सहित बाकी कई लोगों ने) पेस्ट्री और स्नैक्स को देखकर जो ख़्वाब जगे थे उसका दमन किया। सिर्फ चाय/ब्लैक टी से काम चलाया।..मजबूरी में ही सही, थोड़ी देर के लिए भौतिकतावाद से उपर उठ गए।
17 फ़रवरी 2010 को 4:20 pm बजे
सुंदर रिपोर्ट। सारगर्भित और रिपोर्टर के पीओवी के साथ।
18 फ़रवरी 2010 को 1:41 pm बजे
Vineet Babu, Bahut achha likhte ho yar.
19 फ़रवरी 2010 को 12:26 am बजे
सारगर्भित और पठनीय.
19 फ़रवरी 2010 को 1:10 am बजे
बेहतरीन विमर्श। दो दिन से इसे पढ़ने के लिये रखे था। अब पढ़ पाया। यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि तुम्हारी निगाह वहां तक जाती है जहां तक कि हड़बड़िया विमर्श की नजर नहीं जाती। दूर-दराज के गांव,घर,परिवार के संघर्षों की याद करते हुये उनकी भागेदारी की बात करना और कसकर करना यह तुम्हारा कोर-स्वभाव है। बहुत अच्छा है। बधाई!
19 फ़रवरी 2010 को 10:46 pm बजे
आपने यात्रा के कार्यक्रम की बढ़िया रपट लगायी है। मुझे यात्रा की फिनिशिंग बहुत पसंद आती है। उम्मीद है वो हिन्दी में अच्छी किताबों के साथ आगे बढ़ेंगे।
23 फ़रवरी 2010 को 7:23 pm बजे
बहुत ही बढ़िया लेख...
17 दिसंबर 2021 को 4:30 pm बजे
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