स्त्री के उभारों को जूम इन करते और उसके स्तनों पर कर्सर के नुकीले तीर को धंसाते हुए मैंने कई पैकेज बनते देखे हैं। इन पैकेजों में कोशिश होती है कि इसे कुछ इस तरह से पेश किया जाए कि उसमें सिनेमाई असर पैदा हो और जिसे देखते ही ऑडिएंस उत्तेजित हो जाए। वैसे भी इस तरह के कारनामे के लिए न्यूज चैनल लगातार बदनाम होते रहे हैं। संभवतः इसी जार्गन को देखते हुए 'रण' फिल्म में चरित्र आनंद प्रकाश त्रिवेदी(राजपाल यादव)का संवाद है कि-फिल्म तो हम भी बनाते हैं लेकिन उसे हम न्यूज कहते हैं और आप जो बनाना चाहती है उसे फिल्म कहते हैं। बिना कोई गंभीर रिसर्च किए बगैर भी न्यूज चैनल को गरिआने के लिए इस फिल्म ने एक आम दर्शक को बहुत सारे प्वाइन्ट्स दे दिए हैं।
लेकिन ये कहानी और रण जैसी फिल्म सिर्फ चैनलों तक ठहरकर जाए तो बात नहीं बनती है। अखबारों और पत्रिकाओं के भीतर जो मार-काट मची है,उसे आम ऑडिएंस को बताने के लिए रण,पार्ट-2 जैसा कुछ बनाया जाना जरुरी है। ये या तो इस फिल्म के एक्सटेंशन के तौर पर बननी चाहिए या फिर स्वतंत्र रुप से। आशुतोष(मैनेजिंग एडीटर,ibn7)की उस बात पर कान दिए बगैर कि किसी एक अमिताभ बच्चन के आने या फिल्म बनाने से मीडिया को फर्क नहीं पड़नेवाला है। न्यूज चैनलों ने अगर गंध मचाया है तो मेरी अपनी समझ है कि अखबारों ने कम गंध नहीं मचा रखा है। अगर फिल्में आइना दिखाने और आम जनता को रु-ब-रु कराने के लिए ही बनायी जानी है तो फिर इस कड़ी में प्रिंट मीडिया को भी शामिल किया जाना चाहिए। न्यूज चैनलों के बीच की खामियों को दिखाए जाने से प्रिंट मीडिया के दूध के धुले होने की सर्टिफिकेट नहीं मिल जाती। वो भी गंध मचाने का काम करते हैं,उसके भीतर भी सफल होने के लिए आसान और चालू नुस्खे अपनाने की बेचैनी है। उसने भी घटियापन को अपना रखा है। रण ने सिर्फ राजनीतिक सिरे को पकड़ा है,अभी भी मीडिया कल्चर को गंभीरता से पकड़ने की जरुरत है।
नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर इस फार्मूले को किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है,हिट्स और रीडरशिप बढ़ाने के लिए किस तरह से सेक्स शब्दों को शामिल किया जाता है,तस्वीरें डाली जाती हैं,आप सब जानते हैं। वेबसाइट की आड में प्रिंट मीडिया हाउसेस क्या कर रहे हैं,क्या कंटेंट देकर पत्रकारिता कर रहे हैं इस पर बात किया जाना जरुरी है? बाजार-बाजार की मजबूरी बताकर हीडेन किस्म की पोर्नो जर्नलिज्म की भूमिका रच रहे हैं या फिर अपनी कुंठाओं को पाठकों तक लाकर पटक रहे हैं? फिलहाल दैनिक भास्कर की साइट की एक खबर और उसकी ट्रीटमेंट पर गौर करें-
दैनिक भास्कर(2 फरवरी) के मुताबिक खबर है कि- एक बर्थडे पार्टी में जाते समय एमी ने ऐसी ड्रेस पहनी कि बस देखने वाले फटी आंखों से देखते रह गए। अखबार की साइट ने इसके लिए शीर्षक दिया- फिर छलका एमी का 'यौवन'। यौवन का सिंग्ल इन्वर्टेड कॉमा में रखा गया जिसे कि तस्वरे देखकर आप समझ जाएंगे कि ऐसा क्यों हैं? अखबार के लिहाज से ये शब्द एमी की अवस्था को बताने के लिए नहीं बल्कि उसके उभार को बताने के लिए है। आगे खुद साइट ही इसकी पुष्टि करता है- सेक्सी सिंगर एमी ने अपनी वार्ड रोब से ऐसी ड्रेस निकाली जिसने एक कंधे को नग्न ही छोड़ दिया था। अब इस ड्रेस से एमी के स्तन कैसे बाहर न छलक पड़ते तस्वीर देखकर ये अंदाज तो लगाया ही जा सकता है।
दैनिक भास्कर की साइट ने इस खबर में एमी की कुल चार तस्वीरें लगायी है। इन चार तस्वीरों को लगाने का मकसद साफ है कि एमी के उभार को स्टैब्लिश किया जा सके। लेकिन अंतिम तस्वीर में एक उभार के ठीक नीचे लाल रंग का एक दिल बनाया गया है। साइट के एंगिल से सोचें तो ऐसा ब्लर करने के लिए किया गया है ताकि आगे का हिस्सा न दिखे। लेकिन तस्वीर का जो असर है वो कुछ और ही है। इसे देखते हुए हमें दैनिक भास्कर की पत्रकारिता के भीतर की कुंठा की झलक मिल जाती है। वो ऐसा करके क्या बता चाहते हैं इसे आप अपने स्तर से समझ सकते हैं।
न्यूज चैनलों में भी मीडिया एथिक्स के तहत चेहरे,शारीरिक अंगों को ब्लर कर देने का प्रावधान है। मैंने खुद भी कई स्टोरी के रॉ टेप देखकर स्क्रिप्ट लिखी है और ऑनएयर के लिए ब्लर करके पैकेज कटवाए हैं लेकिन मैंने कभी नहीं देखा कि इसे ब्लर किए जाने के बाद इससे और अश्लील स्थिति पैदा करने की कोशिश की जाती हो। दर्जनों न्यूज चैनलों में मैंने ब्लर तस्वीरें देखी लेकिन दैनिक भास्कर की इस साइट जैसा बेहूदापन नहीं दिखा। ऐसी तस्वीरें वाकई पाठकों की डिमांड है या फिर डेस्क पर बैठे पत्रकार के कुंठित मन की अभिव्यक्ति है,ये एक नए किस्म का सवाल है। अखबारों में ऐसी तस्वीरों पर पूरे मनोयोग से काम करते हुए पेजमेकर पत्रकार साथियों को देखता हूं तो उनकी सीरियसनेस को देखकर हैरान रह जाता हूं। फिल्क्रम या गूगल इमेज से तस्वीरें उठाकर फोटोशॉप पर वो जो एडिट करते हैं तो लगता है कि किसी खास तकनीक से उन्होंने सिने-तारिकाओं के उभार पर से कर्सर के दम पर कपड़े उघाड़ दिए हैं। ऑरिजनल से वो तस्वीरें बिल्कुल जुदा और उत्तेजक हो जाती है।
अखबारों में छपी बारिश में भीगती(भले ही वो मजबूरी में हो),परीक्षा और एडमीशन के फार्म भरती लड़कियों की तस्वीरों पर आप गौर करें,सबों की स्तनों के बीच की गहराइयों को पकड़नेवाली तस्वीरें। कैंपस में लड़कियों के झुकने के इंतजार में गर्दन उचकाए दर्जनों स्टिल फोटोग्राफर। ये किसकी कुंठा है- पाठक की या फिर मीडियाकर्मियों की। अगर पाठकों की है तो मीडियाकर्मी कुंठा के सप्लायर हुए तो फिर पत्रकार कहलाने के लिए क्यों मरे जा रहे हो भाई? और अगर उनकी है तो फिर दिमागी स्तर की सडांध फैलानेवाले इन गलीजों का क्या करें,सोचना होगा।. ..
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265177197119#c2095974812448865561'> 3 फ़रवरी 2010 को 11:36 am बजे
पूरी तरह सहमत हूँ आपसे आज पत्रकारिता चाहे इलेक्ट्रोनिक हो या प्रिंट काफी हद तक मलिन हो चुकी है, लोकतंत्र का चौथा खम्बा आज किस स्थिति में है ये किसी से छुपा नहीं है, यदि विश्वास ना हो तो "मिडडे" की कोई भी प्रति उठाकर देखिये पहले से तीसरे पन्ने तक विश्वास नहीं होता की ये समाचार पत्र है या कोई "अश्लील " पत्रिका ,जिसके पन्ने पलटने में आप को लज्जा आ जाए . निर्लज्ज पत्रकारिता का उदाहरण १ फरवरी का अंक ही काफी है .
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265180424218#c5233943510648251986'> 3 फ़रवरी 2010 को 12:30 pm बजे
अखबारों में ऐसी तस्वीरें हर रोज छपती हैं। केंद्र में केवल लड़कियां ही होती हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अगर अखबार लड़कियों की तस्वीरों को न छापे तो शायद उनका अखबार बिकेगा ही नहीं।
क्या नहीं लगता आपको कि इस सब बेहूदगी के खिलाफ तगड़े विरोध की पहल लड़कियों को ही करनी चाहिए। वे अखबारों को मजबूर कर दें कि वो इसके लिए उनसे माफी मांगे।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265189252712#c587484136373515416'> 3 फ़रवरी 2010 को 2:57 pm बजे
पढ़े लिखे युवाओं की बढ़ती संख्या ने न्यूज चैनलों, प्रिंट मीडिया, पत्र-पत्रिकाओं को आपस में होड़ मचाने का मौका बढ़ा दिया है.लेकिन ये स्वस्थ तरीका नहीं अपना रहे हैं. इन्हें भ्रम भी है कि इन घटिया तरीकों से युवाओं को खींच सकेंगे.आजकल नयी पीढ़ी ज्यादा समझदार और परिपक्व है.मुझे याद आता है जब "कांटा लगा" गाने पर एक्स्पोजर के लिए हाय तौबा मची थी अख़बारों में तो युवाओं की प्रतिक्रिया सहज थी.हाँ, ये पुरानी पीढ़ी को जरूर बाध्य करतें है कि वे बच्चों के सामने इसे पढ़ने या देखने से बचें.पुरानी पीढ़ी तो इंटरनेट पर जाने से रही ,ये अख़बारों से भी दूर होते जायेगें. अखबार या चैनल बाले अपना कब्र खुद खोद रहे हैं......
विनीत, वेवाकी से इनकी बखिया उधेड़ने के लिए बधाई....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265197710790#c5677764161579512211'> 3 फ़रवरी 2010 को 5:18 pm बजे
एकदम सही तस्वीर
मैंने अपने ब्लॉग के ड्राफ्ट में इसी विषय पर काम कर रहा था
"पीत पत्रकारिता" आजकल यह शब्द सुनाई नहीं देता
क्या सिमी का बलात्कार हो गया है
प्रेगनेंट है राजेश्वरी
स्विम सूट में सेक्सी श्वेता तिवारी
और सलमान ने कर दी चुंबन की बरसात
याद आया पिछले जन्म का दैनिक भास्कर !!
सदी का महानालायक "कस्बा कहने को मन करता है" http://naisadak.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265207226688#c5294052216954822809'> 3 फ़रवरी 2010 को 7:57 pm बजे
दिए हैं भाई.. भींगा कर दिए हैं..
हम दोस्तों में अक्सर बातें होती हैं की क्या बरसात में कोई लड़का नहीं भींगता है क्या? आज तक किसी समाचार पत्र में या न्यूज चैनल पर किसी लड़के को भींगते नहीं देखा है, पहली बारिश की फुहार में..
और हाँ, रात में आपको मेल करता हूँ.. :)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265209462810#c5691817913542693089'> 3 फ़रवरी 2010 को 8:34 pm बजे
देनिक भास्कर २ फरवरी में सर अपने शायद तस्वीर को तस्वरे देखकर लिखा है बाकि सब ठीक है सर JI
FROM
http://aatejate.blogspot.com/
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265210449027#c2895856528734777440'> 3 फ़रवरी 2010 को 8:50 pm बजे
@ PD
लड़कों को नहलाओ :) वो क्या कहते हैं लोग इनको वो बोलने लगेंगे
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265224584493#c5749961085179797802'> 4 फ़रवरी 2010 को 12:46 am बजे
बंधुवर, आपसे असहमत होने का कोई सवाल ही नहीं है, भास्कर डॉट कॉम के इस मुद्दे पर।
दरअसल, अभी तक इंटरनेट की टीआरपी को देखें तो नवभारत टाइम्स ही आगे रहा है लेकिन जैसे ही भास्कर डॉट काम के संपादक राजेंद्र जी (शायद यही नाम है), वे झारखंड हिंदुस्तान चले गए और उनकी जगह भास्कर डॉट काम के नए संपादक (जिनका नाम मुझे नहीं मालूम) आएं है वैसे ही इसमें भी नवभारत टाइम्स की तरह कंटेंट बढ़ने क्या, हद से ज्यादा बढ़ने लगा है, इसी का उदाहरण आपने अपनी पोस्ट में दिया है।
दर-असल भास्कर ग्रुप ने जिस तरह से हिंदी मार्केट पे एक खास लहर के जरिए कब्जा किया है उसी तरह से वह इंटरनेट के हिंदी समाचार वेबसाइट बाजार पेभी कब्जा करना चाहता है इसी चक्कर में दूसरा ऑनलाइन नाभाटा बनने की कोशिश में है और कुछ नहीं।
मैं इसी मुद्दे पे पिछले 15 दिन से अपने से वरिष्ठ और अति वरिष्ठ पत्रकारों से चर्चा कर ही रहा था कि आपने यह लिख ही डाला। सही किया।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265301751558#c845997938449032185'> 4 फ़रवरी 2010 को 10:12 pm बजे
सहमत!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265301775616#c2938226501443030516'> 4 फ़रवरी 2010 को 10:12 pm बजे
नंगेपन की होड़ है और कुछ नहीं!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post.html?showComment=1265351890863#c8274755281914944768'> 5 फ़रवरी 2010 को 12:08 pm बजे
बिना चित्र के पोस्ट कमजोर हो जाती ?