खिलखिलाते मासूमों को सोने के अंडे देनेवाली मुर्गी में तब्दील कर दिए जाने की टेलीविजन चैनलों की इस कवायद को लेकर अब सरकार सीरियस नजर आ रही है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग(national comission for protection of child right)का मानना है कि रियलिटी शो में हिस्सा लेनेवाले बच्चों पर इतना अधिक दवाब होता है कि उनका बचपन खत्म हो जाता है। हमें इसे बचाने की जरुरत है। इस मामले में एनसीपीआर की सदस्य संध्या बजाज का मानना है कि- जब राष्ट्रीय बाल आयोग ने ये देखा कि सिंजनी केस हुआ और वैसे भी टीवी को मॉनिटर किया हमने,कंटेंट्स देखे तो हमने पाया कि वहां जजेज किसी भी तरह का कमेंट करते हैं और बच्चे जो हैं वो डिमॉरलाइज होते हैं। उन पर ऑलरेडी इतना एस्ट्रेस होता है और उसके साथ-साथ वो और डिप्रेस हो जाते हैं।
टेलीविजन इतिहास में 8 साल की कोलकाता की सिंजनी का मामला वो दिलचस्प मोड़ है जहां से सरकार सहित स्वयंसेवी संस्थाओं ने टेलीविजन में काम कर रहे बच्चों के बारे में सीरियसली सोचना शुरु किया। ये अलग बात है कि इस बीच बाल दिवस और दूसरे उत्सव के मौके पर इनसे जुड़ी ग्लैमरस खबरें आती रही। ये खबरें बाल कलाकारों के प्रति चिंता पैदा करने से कहीं ज्यादा इनके ग्लैमर,आकर्षण और उपलब्धियों पर ही फोकस होते रहे हैं। ऐसे मौके पर एक तरफ बाल मजदूरों की बात की जाती तो दूसरी तरफ बाल दिवस की शाम लिटिल चैम्पस, हंसी के हंसगुल्लों और बूगी-बूगी के बाल कलाकारों से सज जाते। इन कार्यक्रमों का ग्लैमर इतना अधिक हुआ करता कि दोपहर में बाल अधिकारों को लेकर दिखाई गयी स्टोरी फीकी पड़ जाती। दूसरी बात कि बाल अधिकार और श्रम पर दिनभर बनायी और दिखायी गयी स्टोरी में वो बच्चे शामिल होते जिनका कि इस ग्लैमर की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता। दोनों अपने-अपने स्तर पर बचपन को खो रहे होते हैं लेकिन टीवी शो के बच्चों के केस इस श्रम और अधिकार के तहत शामिल नहीं किए जाते। यहां आकर आप समझ सकते हैं कि आज सरकार के कानून बनाए जाने के बाद न्यूज चैनल,चाहे मनोरंजन चैनलों पर कितनी भी दहाड़ लगाए लेकिन उसने खुद कभी भी इस ग्लैमर के बीच के दर्द को हमारे सामने लाने की कोशिश नहीं की है। बहरहाल
सरकार ने टीवी शो और बाल कलाकारों को लेकर नियम बनाए हैं कि-
- 8 साल से कम उम्र के बच्चे अब रियलिटी शोज में हिस्सा नहीं ले सकते।
- बच्चे की जो भी कमाई हो उसे नकद की जगह फिक्स डिपोजिट और एजुकेशनल बांड में डाला जाएगा। ये रकम उसे तभी मिलेंगे जब वो 18 साल का होगा।
- नए कायदो के मुताबिक बच्चे एक दिन में 4 घंटे से ज्यादा शूटिंग नहीं कर सकते।
सरकार ने टेलीविजन के बाल कलाकारों के अधिकारों और उसके जीवन की सुरक्षा को लेकर जो नियम बनाए हैं वो अपनी जगह तो एक हद तक ठीक है लेकिन असल सवाल है कि उन नियमों का पालन किस हद तक हो पाता है? ये एक गंभीर सवाल इसलिए भी है कि इन नियमों को तोड़ने में जितने अधिक टीवी चैनल के लोग शामिल होंगे,उससे कहीं भी कम शो में शामिल बच्चों के मां-बाप नहीं होंगे। एक नियम के बन जाने भर से इनकी स्थिति में सुधार होगें इससे कहीं ज्यादा इस बात पर सोचने की जरुरत है कि प्रैक्टिस में जो चीजें हैं उसे किस तरह से दुरुस्त किए जाएं। इसलिए ये मसला जितना अधिक कानून का है उससे कहीं ज्यादा सोशल इंजीनियरिंग का।
ये ऐसे नियम हैं जिसकी सख्ती से लागू करने की बात पर विचार करें तो टीवी चैनलों के साथ-साथ बच्चों के मां-बाप को भी असुविधा हो सकती है। मसलन सबों के मां-बाप इस बात को कितनी आसानी से पचा पाएंगे कि उनके बच्चों को मिलनेवाले पैसे के लिए उन्हें 10-12 साल तक इंतजार करना पड़ेगा। एक औसत मध्यवर्गीय समाज के मां-बाप के लिए अपने बच्चों का टेलीविजन स्क्रीन पर आना स्टेटस सिंबल है। लेकिन इस स्टेटस सिंबल के बाद का दूसरा बड़ा लोभ है कि इसके जरिए उन्हें मोटे पैसे मिलते हैं। इसलिए बहुत हद तक संभव है कि कागजी तौर पर ये मां-बाप टीवी चैनलों से सरकारी नियमों के थोड़े हिस्से को मान लें लेकिन बाकी हिस्से को आपसी निगोशिएशन के तहत निबटा लेंगे। तय की गयी रकम वो नहीं होगी जो कि बच्चों के फीक्सड डिपोजिट और एजुकेशनल बांड में डाले जाएंगे। करार ये होगा कि इतने पैसे इस खाते में डाले जाएंगे और इतने पैसे नकदी आपके हाथ में। टेलीविजन इन्डस्ट्री के बीच की बाकी की घपलेबाजी के बीच एक नए किस्म की घपलेबाजी पनपेगी जिसमें हारकर बच्चों के साथ ही खिलवाड़ होना है।ये भी संभव है कि इस निगोसिएशन में किसी के मां-बाप चैनलों की ओर से ठगे भी जाएं। ऐसे में देखना होगा कि ये मां-बाप चैनलों के विरोध में आवाज उठा पाते हैं भी या नहीं। इसके साथ ही दिन-रात ग्लैमर के गलियारों में दौड़ लगा रहे न्यूज चैनलों से जुड़े लोग इस तरह की खबरों को सार्वजनिक कर पाते भी हैं या नहीं। ऐसे में जरुरी है कि सरकार की ओर से जब भी ऐसे नियम बनाए जाते हैं जो कि एक हद तक सब्जेक्टिव मामला उसके लिए फॉलो अप कमेटी का गठन किया जाए जो कि नियमों के साथ-साथ टेलीविजन की व्यावहारिक समझ रखते हुए काम करने लायक हों।
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265787350913#c2169781975844612473'> 10 फ़रवरी 2010 को 1:05 pm बजे
बहुत सामयिक और सटीक पोस्ट! हम देख रहे हैं बच्चे दिन पर दिन टेलीविजन पर आ रहे हैं और छा रहे हैं। उनका बचपना स्थगित है। लेकिन बात वही है कि यह घालमेल क्या सच में रुक सकेगा!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265789432719#c2164012619236594478'> 10 फ़रवरी 2010 को 1:40 pm बजे
इस मामले में सरकार से ज्यादा माता-पिता को सक्रिय होना होगा। उन्हें ये समझना होगा कि बच्चों की भावना की रक्षा करना ज्यादा जरूरी है। साथ ही व्यावहारिक स्तर पर भी सरकार की सक्रियता जरूरी है। हाल के दिनों में ग्लैमर की चकाचौंध में जो सूरत बिगड़ी है, उसके कारण काफी हद तक मां-बाप के विचारों में भटकाव हुआ है। और वे अपने बच्चों को जल्दी से जल्दी सफलता और प्रसिद्धि के शिखर पर बैठाना चाहते हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265794274377#c8252905006196194245'> 10 फ़रवरी 2010 को 3:01 pm बजे
नियम बनाते समय लगता है कोई होम वर्क नहीं किया गया है. सरकारी नौकरी में रहकर मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि ऐसा ही होता है. सुबह जब मैंने न्यूज सुना तो मेरी पहली प्रतिक्रिया कुछ इस तरह थी...
१-अब जब किसी सीरियल में बच्चे पैदा होंगे तो वे सीधे आठ साल के ही होंगे.
२-जजों की गलती की सजा प्रतिभा शाली बच्चों को दी जा रही है
३-बच्चों के प्रोग्राम आने बंद होंगे तो क्या वे एडल्ट सीरियल, सनसनी ,भविश्यबानी और टॉक-शो के झगडे देखेंगे ?
४-सामायिक एवं सामाजिक मुद्दों पर बच्चों के ऊपर बनी सीरियलों में अब बच्चों के रोल बूढ़े करेंगे,इससे कई पुराने कलाकारों का कल्याण हो जायेगा.
लब्बो-लुबाब यह कि सारे नियम कानून की धज्जियाँ उड़ जौएगी. कहावत है कि जहाँ न पहुचे रवि वहाँ पहुचे कवी...कला और बिजनेस का जब घाल-मेल होगा तो उसके क्रिएटिविटी में सारे नियम हवा-हवाई हो जायेंगे.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265799129821#c5304854684297875766'> 10 फ़रवरी 2010 को 4:22 pm बजे
वों कागज की कसती वों बारिस का पानी...इन लाइनों का कोई भी मतलब इन बचों के लिए नहीं है.जिन हाथों में कागज की कसती,गुड्डे-गुडिया होने चाहिए वे अब माइक से खेल रहे हैं.बचपन की हत्या है ये. लेकिन एक निचले दर्जे के माँ-बाप ये नहीं सोच सकते.उनके लिए तो ये नियम कायदे उनके सपनो की हत्या से काम नहीं हैं.इसके बारें में चैनल के लोगों को ही सोचनाहोगा..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265813981239#c8422667816494853026'> 10 फ़रवरी 2010 को 8:29 pm बजे
कृष्ण मुरारी जी ने बहुत रोचक प्रश्न उठाए हैं। शायद उस सरकारी कानून को विस्तार से देखने पर कुछ बात समझ में आये।
यहाँ एक मसला बच्चे के माँ-बाप और अभिभावक के अधिकारों और बच्चे की स्वतंत्रता का भी है। यदि कोई बाल कलाकार अपनी स्वतंत्र इच्छा से खुशी-खुशी इस ग्लैमर का चयन करता है और वो सारे तनाव झेलने का विकल्प चुनता है तो सरकार उसको रोकने के लिए क्या कदम उठा सकती है।
(कृपया इसे आत्महत्या के अधिकार से तुलना करके किसी कुतर्क को आगे न बढ़ाया जाय।)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265855270914#c583922699576019734'> 11 फ़रवरी 2010 को 7:57 am बजे
शानदार और सटीक पोस्ट.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265857178295#c9130611649941774021'> 11 फ़रवरी 2010 को 8:29 am बजे
मुझे नहीं लगता कि बच्चों के पारिश्रमिक का सारा किस रूप में दिया जाता है , दिखाया कितना जाता है और वास्तविकता क्या होती है ?? लोग तरीके भी निकाल ही लेते हैं ! ब्लागर मीत में आपको सुनना अच्छा लगा विनीत !
आपको http://satish-saxena.blogspot.com/2010/02/blog-post.html पोस्ट में उद्धृत किया है !
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265894480744#c8743879683376854099'> 11 फ़रवरी 2010 को 6:51 pm बजे
bada sach!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1265898783100#c2763414770190098438'> 11 फ़रवरी 2010 को 8:03 pm बजे
आपसे सहमत हूँ ..पिछले माह की अंतिम शनिवार को चिठ्ठा चर्चा में मैंने भी बाजारवाद के इन सह- उत्पादों पर कलम -घसीटी की है .
http://taanabaana.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html?showComment=1266678395892#c2988600660079054838'> 20 फ़रवरी 2010 को 8:36 pm बजे
प्रिय विनीत जी
आपके ब्लॉग पर 'टी वी पर बच्चे' पढ़ा . मै एक और बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ. आप टी वी पर प्रसारित कार्टून चैनलों को बस एक दिन देखे. खास तौर पर हंगामा पर शिन चैन और निक पर निन्जा हतोरी, डोरेमोन, हगेमारू, असरी चैन आदि. इनकी भाषा, कंटेंट, कहानी अब कुछ इतना अश्लील और आपत्तिजनक है कि मुझे आश्चर्य होता है कि किसी भी टी वी टिप्पणीकार का ध्यान इधर नहीं पंहुचा. मेरी आपसे इल्तेज़ा है कि आप अपने ब्लॉग पर इस पर लिखें और एक बड़े समूह तक यह बात पहुचाएं. एक अजीब संयोग यह भी है कि ये सभी जापानी सीरियल हैं.
धन्यवाद