सैयद ज़ैग़म इमाम मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर उन-गिने चुने लोगों में से हैं जो न्यूज रुम के तनावों और हील-हुज्जतों के बीच भी अपनी रचनाधर्मिता को बचाए हुए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया के फार्मूलाबद्ध पैकजों से बाहर जाकर समाज,सरोकार और पक्षधरता के सवालों पर लगातार सोचने-जाननेवाले लोगों में से हैं। राजकमल से प्रकाशित उनका पहला उपन्यास दोज़ख़ उनकी इस रचनाधर्मिता और लेखन के बीच की संभावना को स्थापित करती है। वैसे तो दोज़ख़ की कहानी चंदौली जैसे छोटे से कस्बे के छोटे से अल्लन के पास घूमती है। लेकिन उसकी मासूम ख्वाहिशों और सपनों के बीच दोज़ख़ की जो शृंखला बनती है वो मासूम अल्लन की अकेली श्रृंखला न होकर उन तमाम लोगों की श्रृंखला बन जाती है जिनके लिए मजहबों और मान्यतों के बीच से गुजरकर अपने पक्ष में इंसानियत को चुनकर जीना आसान नहीं रह जाता। इंसानियत का दामन थामकर न तो अल्लन जैसे मासूम के लिए जीना संभव है और न ही इंसानियत का पक्ष लेते हुए आम लोगों के लिए।
यह उपन्यास मज़हब और इंसानियत के बीच चलने वाली एक अजीबो गरीब कशमकश की कहानी है। एक ऐसे लड़के कि दास्तान जिसके हिंदू या फिर मुसलमान होने का मतलब ठीक से नहीं पता। मालूम है तो सिर्फ इतना कि वो एक इंसान है जिसकी सोच और समझ किसी मजहबी गाइडलाइन की मोहताज नहीं है।
असल में इस उपन्यास की कहानी के बहाने भारतीय समाज के उस धार्मिक ताने बाने को उकेरने की कोशिश की गई है जो मजहब और नफरत की राजनीति से उभरने से पहले देश के शहरों और कस्बों की विरासत था, जहां मुसलमान अपने धर्म के प्रति सजग रहते हुए भी इस तरह के बचाव की मुद्रा में नहीं होते थे जैसे आज हैं।
उपन्यास का नायक अलीम अहमद उर्फ अल्लन उसी माहौल का रुपक रचता है और अपनी सहज और स्वत स्फूर्त धार्मिकता के साथ हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों की सीमाओं से परे चला जाता है। उपन्यास में कम उम्र में होने वाले प्रेम की तीव्रता, एक मुस्लिम परिवार की आर्थिक तंगी, पीढ़ियों के टकराव और एक बच्चे के मनोविज्ञान का भी बखूबी अंकन हुआ है।(फ्लैप से)
अल्लन के सपनों पर सामाजिक बंदिशों और रंजिशों की जो परतें चढ़ती है वो आगे चलकर दोज़ख़ में पड़े इंसान के संस्करण बनने की प्रक्रिया का उदाहरण पेश करती है। मिहिर कुमार जो कि आजतक में एसोसिएट प्रोड्यूसर हैं,उन्होंने भी इसी सवाल को उठाया है कि-
छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों और कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा और मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं....
कई सवालों के बीच आज इस उपन्यास का लोकार्पण है जिस पर कि आइबीएन7 के आशुतोष मुस्लिम मामलों से जुड़ी शोधकर्ता शीबा असलम फहमी और प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका विस्तार से चर्चा करेगी।
सैयद ज़ैग़म इमाम का औपचारिक परिचय-
2 जनवरी 1982 को बनारस में जन्म। शुरूआती पढ़ाई लिखाई बनारस के कस्बे चंदौली (अब जिला) में। 2002 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी इलाहाबाद से हिंदी साहित्य और प्राचीन इतिहास में स्नातक। 2004 में माखनलाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ जर्नलिज्म (भोपाल, नोएडा) से मास्टर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री। 2004 से पत्रकारिता में। अमर उजाला अखबार और न्यूज 24 चैनल के बाद फिलहाल टीवी टुडे नेटवर्क (नई दिल्ली) के साथ। सराय सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) की ओर से 2007 में इंडिपेंडेंट फेलोशिप। फिलहाल प्रेम पर आधारित अपने दूसरे को उपन्यास को पूरा करने में व्यस्त। उपन्यास के अलावा कविता, गजल, व्यंग्य और कहानियों में विशेष रुचि। कई व्यंग्य कवितएं और कहांनियां प्रकाशित।
संपर्कः zaighamimam@gmail.com
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/ibn7_30.html?showComment=1259575220947#c7200444147762235274'> 30 नवंबर 2009 को 3:30 pm बजे
पुस्तक की जानकारी देने का शुक्रिया।
हिन्दू और मुसलमान का प्रश्न जब भी उठता है तो बहुत से लोग संतुलन खो बैठते हैं। इस या उस खांचे में बैठकर ही सोच पाते हैं। वहीं कुछ लोग संतुलन दिखाने के चक्कर में झूठे गल्प का सहारा लेने लगते हैं। यह मामला इतना संवेदनशील हो गया है कि सच्चाई कहने से अधिकांश लोग डरने लगे हैं।
काश यह पुस्तक इस स्थिति को कुछ बदल पाती।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/ibn7_30.html?showComment=1259606164077#c5296629015800212610'> 1 दिसंबर 2009 को 12:06 am बजे
सैयद ज़ैगम ईमाम को इस पुस्तक के लिये बधाई ।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/ibn7_30.html?showComment=1259680808947#c819545148201688699'> 1 दिसंबर 2009 को 8:50 pm बजे
शुक्रिया