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एक पत्रकार की हैसियत से अपने लंबे मीडिया करियर के दौरान जरनैल सिंह ने क्या किया,किन-किन मसलों और मुद्दों को रिपोर्टिंग के दौरान लोगों के सामने लाने की कोशिश की,ये बताने की जरुरत शायद ही किसी न्यूज चैनल या अखबारों ने की हो। हमें सिर्फ इतना भर बताया गया कि जरनैल सिंह ने मौजूदा गृहमंत्री पर जूते फेंकने का काम किया और रातोंरात वो इसी काम को लेकर चर्चित कर दिए गए। इस हिसाब से पेंगुइन से प्रकाशित होनेवाली उनकी किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच जिसका कि कल लोकार्पण होना है,जरनैल सिंह की कोशिश से ये दोतरफी कारवायी है। सिंह इस किताब के जरिए अपनी उस छवि को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें कि उनके लंबे समय का लेखन और रिपोर्टिंग के अनुभव शामिल हैं,एक पत्रकार की हैसियत से राजनीतिक संदर्भों को विश्लेषित करने की कोशिश है और दूसरा अपनी उस छवि को ध्वस्त करना चाहते है जिसमें कि एक बेकाबू हो गए एक नागरिक/पत्रकार का सत्ता में बैठे लोगों के सामने गलत ही सही लेकिन अपने स्तर से विरोध दर्ज करना है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शुरु से उस फार्मूले पर काम करता आया है कि जो व्यक्ति जिस काम के लिए चर्चित हुआ है उसे उसी रुप में हायपरवॉलिक तरीके से ऑडिएंस/दर्शक के सामने पेश करे लेकिन ये फार्मूला कितना वाजिब है,इत्मिनान होकर सोचने की मांग करता है। बहरहाल,जरनैल सिंह की बनी नयी पहचान उन्हें किस हद तक परेशान करती है और अब तक के किए गए सारे काम,हालिया के एक काम के आगे कैसे फीका पड़ जाता है, ये सबकुछ शिद्दत से महसूस करने और उसे पाटने की कोशिश में ये किताब हमारे सामने है। ऐसे में अपनी रचनाधर्मिता और तार्किक समझ को इस जद्दोजहद के बीच बचाए रखना,जरनैल सिंह की उपलब्धि ही समझी जाएगी।
पेंग्विन से प्रकाशित,जरनैल सिंह की किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच मूलतः हिन्दी में लिखी गयी है। इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद वैशाली माथुर ने I Accuse : The anti sikh voilence 0f 1984 नाम से किया है. लेखक/प्रकाशक के हिसाब से यह किताब 1984 के सिख क़त्लेआम से जुड़ी सच्चाईयों और सरकार की संवेदनशून्यता का एक सशक्त दस्तावेज़ है। क्योंकि 1884 का हुआ दंगा सिर्फ सिखों पर हुआ हमला नहीं था,बल्कि यह लोकतंत्र और इंसानियत पर हुआ हमला था। इस किताब के बारे में लिखते हुए मशहर कॉलमिस्ट और ट्रेन टू पाकिस्तान के लेखक खुशवंत सिंह का मानना है कि-'कब कटेगी चौरासी ऐसे घावों को हरा करती है जो आज तक नहीं भरे हैं। यह किताब उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हो।
। जाहिर है किताब जिस सबूतों और संदर्भों को हमारे सामने पेश करती है और स्वयं लेखक जिस रुप में उसका विश्लेषण करता है उसके सामने इस दंगे में हताहत लोगों को दिया गया मुआवजा तुष्टिकरण की नीति का हिस्साभर है। ऐसा करके सरकार ने अपने विद्रूप चेहरे को ढंकने का भरसक प्रयास किया है। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि यह किताब महज विवाद का हिस्सा बनने के बजाय उन कारवाईयों पर फिर से विचार करने का स्पेस पैदा करेगी जो कि लोकतंत्र की बहाली के नाम पर अंदुरुनी तौर पर उसका गला रेतने का काम करती है। जूता प्रकरण के हो-हंगामे के बीच जरनैल के जो सवाल दब गए वो सवाल उस किताब में फिर से सरकार के लिए एक चुनौती पैदा करते हैं- अब तक दोषियों का सजा क्या नहीं मिली? क्या प्रशासन तंत्र न्याय होने देगा? कब मिलेगा पीड़ितों को न्याय और कब कटेगी चौरासी? सरकार को इन सवालों को गंभीरता से लेने होंगे और इस किताब के जरिए 84 पर नए सिरे से बात होने की गुंजाइश पैदा हो सकेगी। इसके साथ ही हम उम्मीद करते है कि आनेवाले समय में जरनैल सिंह की पहचान केवल और केवल पी.चिदमबरम पर जूता फेंकनेवाले पत्रकार के तौर पर न होकर एक संवेदनशील और रिस्क कवर करते हुए तल्खी से अपनी बात रखनेवाले लेखक के तौर पर चिन्हित किया जा सकेगा।
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