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संघर्ष के दो साल पर संपादकीय

Posted On 10:04 am by विनीत कुमार |




जामिया मीलिया इस्लामिया से मीडिया की पढ़ाई,जी न्यूज से इन्टर्नशिप,दूरदर्शन के लिए रिपोर्टिंग और TV9 के मुंबई ब्यूरों के लिए सर्वेसर्वा के तौर पर काम करनेवाले तेजतर्रार युवा मीडियाकर्मी पुष्कर पुष्प चाहते तो आज अपने दौर के बाकी मीडियाकर्मियों की तरह एक फार्मूला लाइफ जी सकते थे। उनकी गर्दन पर भी आज किसी चैनल के प्रोड्यूसर का पट्टा टंगा होता,एक गाड़ी होती जिसके लोन अब तक चुक गए होते और दिल्ली एनसीआर में एक फ्लैट होता। लेकिन पुष्कर पुष्प ने एक मीडियाकर्मी की उलब्धियों और विकासक्रम को इस रुप में देखने के बजाय कुछ अलग,मौलिक और रचनात्मक काम की ओर अपने को लगाया। सबकुछ छोड़कर नौकरी करते हुए जो भी थोड़े पैसे जोड़े उसे लेकर एक दिन सबकी खबर लेनेवाले मीडिया की ही खबर लेने के इरादे से मीडिया मंत्र नाम से पत्रिका शुरु कर दी। साधनों की सहजता और खबरों के इस बाढ़ में आज चाहे तो कोई भी ऐसा कर सकता है लेकिन आज से दो साल पहले की बात सोचिए जब ये बात कॉन्सेप्ट के तौर पर बाकी पत्रिकाओं से बिल्कुल जुदा रहा है कि मीडिया की खबरों को लेकर भी पत्रकारिता की जा सकती है? मीडिया मंत्र की निगाह में इडियट बॉक्स के ताजा अंक के साथ मीडिया मंत्र पत्रिका ने दो साल पूरे कर लिए। इस पत्रिका को जिंदा रखने के लिए पुष्कर पुष्प को किस-किस स्तर की परेशानियों को झेलना पड़ा है,इसके कुछ हिस्से को मैंने भी बहुत ही नजदीक से महसूस किया है। पत्रकारिता के तोड़-जोड़ का संड़ाध धंधा बन जाने के बीच विज्ञापन मिलने से कहीं ज्यादा मिले हुए विज्ञापनों पर की जानेवाली ओछी राजनीति का शिकार मीडिया मंत्र अचानक से कैसे लड़खड़ा जाता है,ये सबकुछ एक झटके में हमारे सामने घूम जाता है जिसकी विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने संघर्ष के दो साल नाम से संपादकीय में लिखा है। संपादकीय का एक हिस्सा भावुक अभिव्यक्तियों से भरा है,संभवतः इसलिए हम जैसे लोगों के मामूली सहयोग को उन्होंने अपनी नजर से बहुत बड़ा करके पेश कर दिया है। वाबजूद इसके इस संपादकीय को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि पत्रकारिता के जिस क्लासरुम में पत्रकार के तौर पर समाज प्रहरी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है,जोश में ही सही ये पत्रिका कैसे उसे व्यवहार के तौर पर अपनाने की कोशिश करती है,परेशान होती है,कई बार लगता है कि ये सब छायावादी नजरिए को ढोते हुए जीने औऱ पत्रकारिता करने की कोशिश भर है लेकिन फिर से अपने को रिवाइव करती है। सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों और समीक्षकों की निगाह में ये वावलापन है क्योंकि बिना बाजार की गोद में बैठकर,छोटे-मोटे समझौते करने की चिंता किए बगैर ये संभव नहीं है,कार्पोरेट मीडिया के आगे जबरदस्ती पीपीहीआ बाजा बजाने जैसा काम है। उनके ऐसा कहने से संपादक का मनोबल टूटता है,वो घबराता है लेकिन फिर सवाल करता है कि आपको तो विरासत में एक बेहतरीन पत्रकारिता पूर्वज मिल गए लेकिन आप आनेवाली पीढ़ी को क्या देने जा रहे है? संपादकीय में उठाया गया यही सवाल सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों की बौद्धिकता पर कई गुना भारी पड़ता है और यहीं पर आकर पुष्कर पुष्प तमाम तरह की मानिसक और साधनगत परेशानियों के वाबजूद मन का रेडियो बजने देने पर खुश नजर आते हैं। उन्हे मीडिया मंत्र को लेकर इस बात का गुमान है कि उन्होंने बाकी मंचों की तरह दबाब बनाकर विज्ञापन नहीं जुटाए,धमिकयां देने और फिर मांग न पूरे किए जाने पर निगेटिव खबरें का खेल नहीं किया. पांच हजार-दस हजार के विज्ञापन के लिए अपनी पहचान और आत्म सम्मान को गिरवी नहीं रख दिया। हम चाहेंगे कि इस संपादकीय पर एक नजर आप भी दें और विरासत में मिलनेवाली मीडिया की समीक्षा की नाप-तौल शुरु करें-
मीडिया मंत्र ने अपने दो साल पूरे कर लिए. पिछले अंक में ही इसके दो साल पूरे हो गए. लेकिन समय पर पत्रिका नहीं निकल पाने की वजह से पाठकों तक नहीं पहुँच पायी. इसलिए मीडिया मंत्र से जुड़े अपने अनुभवों और उससे जुडी कई बातों को हम पाठकों से नहीं बाँट सकें. इस कमी को इस अंक में पूरा करने की हम कोशिश कर रहे हैं. आगे हमारी कोशिश रहेगी कि तमाम मुश्किलों के बावजूद दुबारा ऐसा नहीं हो और समय पर पत्रिका पाठकों तक पहुंचे.यह अंक निकालने की स्थिति में हम नहीं थे. लेकिन ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल, न्यूज़ 24 के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम और दिल्ली विश्विद्यालय से मनोरंजन चैनलों की भाषिक संस्कृति पर पीएचडी कर रहे विनीत कुमार के नैतिक समर्थन, उत्साहवर्धन और सहयोग की वजह से पत्रिका को जारी रखने में सक्षम हो सके.

यह दो साल बेहद संघर्षपूर्ण रहे. हर महीने पत्रिका के लिए कंटेंट से लेकर उसके लिए पैसे जुटाने का काम बदस्तूर जारी रहा. पत्रिका के बंद होने की तलवार हमेशा लटकी रही. कई बार ऐसी नौबत भी आई कि लगा पत्रिका बंद हो जायेगी. लेकिन हर बार कोई-न-कोई रास्ता निकल आया. शायद यह मीडिया मंत्र के पाठकों और शुभचिंतकों की दुआओं का असर था. सच मानिये तो इतनी दूर निकल आयेंगे, ऐसा कभी सोंचा नहीं था. साल 2007 में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रिका का विमोचन प्रभाष जोशी, मार्क टली, अजित भट्टाचार्य, अशोक वाजपेयी और आनंद प्रधान जैसे अपने - अपने क्षेत्र के दिग्गजों के हाथों हुआ. प्रेस क्लब खचाखच भरा हुआ था. एक ऐसी पत्रिका का विमोचन हो रहा था, जिसके पीछे कोई कारपोरेट नहीं था. शुद्ध रूप से कुछ जोशीले नौजवान पत्रकारों द्वारा एक नया जोखिम भरा वैकल्पिक मीडिया का प्रयोग होने जा रहा था. एक ऐसा प्रयोग जिसके शुरुआत से ही इसके बंद होने के कयास लगाये जा रहे थे. ज्यादातर लोगों को उम्मीद नहीं थी कि पत्रिका लम्बे समय तक चल पाएगी, . दो साल की बात दूर दो महीने भी चल पाएगी कि नहीं, इसपर लोगों को शक था. यह सोंच गलत भी नहीं थी. सुना था कठिन काम है. बिना कारपोरेट के मदद के या बिना जुगाड़ फिट किये मामला आगे चल नहीं सकता. इन दोनों में से कुछ भी हमारे पास नहीं था. यदि कुछ था तो बस ढेर सारा उत्साह, थोडी सी जिद्द और थोडी सी हिम्मत. यही हमारी वास्तविक पूंजी थी.

दो-ढाई साल तक टेलीविजन की नौकरी करने के बाद जो थोडी बहुत बचत हुई थी, उस पूरी बचत को पत्रिका को शुरू करने में इस अतिशय उम्मीद के साथ लगा दिया कि आगे बढ़ते हैं कोई-न-कोई रास्ता जरूर निकेलगा. पत्रिका तो निकल गयी लेकिन दो अंक बाद ही इसके बंद होने का संकट सामने आ गया. पत्रिका के साथ जुड़े कई दोस्त किसी-न-किसी कारणवश दूर होते चले गए. अब सवाल सामने था कि पत्रिका को आगे चलाया जाए या नहीं. यदि चलाया जाए तो कैसे ? संसाधनों के नाम पर बहुत सीमित चीजें थी. आखिरकार निश्चय किया कि अंतिम दम तक पत्रिका को चलाने की कोशिश की जाए. ताकि जिंदगी में कभी इस बात का मलाल न रहे कि हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश नहीं की और संघर्ष किये बिना ही मैदान छोड़कर चले गए.

फिर एक नए संघर्ष की शुरुआत हुई. पत्रिका को बचाने और उसे चलाने की जद्दोजहद. पत्रिका की कीमत को कम करने के लिए खुद ही सारे काम करना शुरू किया. संपादक, रिपोर्टर, टाइपिस्ट, कुरियर वाला, प्रूफ़ रीडर, आर्ट डिजाइनर, डिस्ट्रीब्यूटर सबकी भूमिका एक ही व्यक्ति निभा रहा था. चिलचिलाती धूप में फिल्म सिटी और न्यूज़ चैनलों के सामने स्टाल लगाकर पत्रिका को बेचना शुरू किया.वह अपने आप में एक बेहद अच्छा और सिखाने वाला अनुभव था. पत्रिका के संपादक को खुद स्टाल लगाकर अपनी पत्रिका को बेचते देखना कई पत्रकारों के लिए आश्चर्य की बात थी. स्टाल पर आकर कई पत्रकार मुझसे लगातार बात कर रहे थे. ऐसे प्रयास की दाद दे रहे थे. मुझे बिना किसी झिझक के ऐसा करते देखना उनके लिए आश्चर्य की बात थी. ऐसा आज भी भी कोई कर सकता है सहसा इसपर कई पत्रकार विश्वास नहीं कर पा रहे थे. रवींद्र, हरिश्चंद्र बर्णवाल, राजीव रंजन, निमिष कुमार, राजकमल चौधरी, राजेश राय, ओम प्रकाश, मुकेश चौरसिया, आशुतोष चौधरी जैसे कई ऐसे पत्रकार मित्र थे जो लगातार मेरे इस काम में मदद कर रहे थे. यह ऐसे मित्र हैं जिन्हें मेरी चिंता हैं और जो मीडिया मंत्र के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए हैं. यह ऐसे मित्र हैं जिनका शुक्रिया भी अदा नहीं किया जा सकता.

लेकिन यह सब करने के बावजूद पत्रिका को आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा था. यह ऐसा समाज है जहाँ हौसला बढ़ाने वाले से ज्यादा हौसला तोड़ने वाले लोग मौजूद हैं. आपके कदम जरा डगमगाए नहीं कि ऐसे लोग आपको लताड़ना शुरू कर देते हैं. बिना पल गवाएं ये आपको निकम्मा, नाकाबिल और असफल करार देते हैं. ऐसा ही कुछ उस वक़्त मेरे साथ हो रहा था. ऐसे मोड़ पर दो ऐसे लोग आये जिन्होंने पत्रिका को फिर से खडा करने में अहम भूमिका निभाई. इनमें से एक ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल और दूसरे टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता. दिलीप मंडल ने उस वक्त न मेरा केवल हौसला बढाया, बल्कि आर्थिक मदद करने की भी पेशकश की. उनका सम्मान करते हुए मैंने मीडिया मंत्र के लिए 500 रुपये की राशि स्वीकार कर ली. वे हर महीने मीडिया मंत्र के लिए कुछ आर्थिक मदद देना चाहते थे. लेकिन मैंने उसे अस्वीकार करते हुए कहा कि अनुदान के आधार पर मीडिया मंत्र को मैं नहीं चलाना चाहता. कोशिश करते हैं, असफल रहे तो आपसे मदद जरूर मांगेंगे. उस वक़्त वह 500 रुपये का नोट मेरे लिए बेहद अहम था. हालाँकि आर्थिक रूप से वह कोई बड़ी मदद नहीं थी और न ही उससे पत्रिका को फिर से पटरी पर लाया जा सकता था. लेकिन नैतिक तौर पर बड़ा संबल था. एक संघर्षरत पत्रकार अपने से वरिष्ठ पत्रकार से इससे ज्यादा और क्या चाहेगा.

ऐसे ही कठिन परिस्थितियों में टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता मदद करने के लिए सामने आये, जो शायद नहीं आते तो मीडिया मंत्र का सफर आगे नहीं बढ़ पाता. उस वक़्त उनसे कोई गहरी जान-पहचान नहीं थी. तीसरी ही मुलाकात थी. उस मुलाकात में जैसे ही वे परिस्थितियों से वाकिफ हुए तो उसी वक़्त उन्होंने एक चेक काटकर और साथ में टोटल टीवी का विज्ञापन देकर कहा कि यह एक बेहतर प्रयास है और इसे आगे जारी रखना जरूरी है. आप ईमानदारी से अपना काम करते रहिए और कभी ऐसा लगे कि अब कोई रास्ता नहीं बचा है तो मुझसे मदद मांगने में हिचकिचाना नहीं. आगे अपने इस वादे को उन्होंने निभाया भी.

मीडिया मंत्र का आगे का सफर शायद और भी कठिन था. सवाल अब अपनी साख और ईमानदारी को बचाए रखते हुए आगे बढ़ने का था. कई ऐसे प्रस्ताव मिले जिन्हें स्वीकार कर आसानी से तमाम आर्थिक समस्याओं से छूटकारा पाया जा सकता था. लेकिन इन प्रस्तावों को स्वीकार करने का मतलब था, अपनी साख और ईमानदारी को गवां देना. इस दौरान कई लोगों के दोहरे चेहरे देखने का मौका भी मिला. ये वो लोग थे जो हरेक दूसरे मंच पर सच्ची पत्रकारिता और उससे जुडी बड़ी - बड़ी बातें करते नहीं थकते. लेकिन शायद यही लोग सबसे ज्यादा पत्रकारिता का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. पत्रकारिता का एक तरह से गला घोंट रहे हैं. ऐसे लोगों की कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर है. ये लोग बेहद ताक़तवर हैं. लेकिन अपनी ताकत का इस्तेमाल अपनी स्वार्थसिद्धि में कर रहे हैं. इन्हें नए पत्रकारों से चरणवंदना की अपेक्षा है और जो यह नहीं करता उनकी नजर में वे पत्रकार बनने के लायक नहीं. यही लोग सबसे ज्यादा नयी पीढी के पत्रकारों को पानी पी-पी कर कोसते हैं. लेकिन यदि नयी पीढी के पत्रकार इस पीढी के पत्रकारों से सवाल पूछे कि आपने हमें क्या दिया है? आपको पत्रकारिता की एक शानदार विरासत मिली थी. लेकिन नयी पीढी के लिए आप कैसी विरासत छोड़कर जा रहे हैं.

पत्रकारीय विचार - विमर्श की दृष्टि से इस साल जून-जुलाई का महीना काफी गहमागहमी भरा रहा। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब एक ही समयावधि में कई जगहों पर पत्रकारिता से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर लगातार चर्चा हो रही हो. जून - जुलाई महीने में तीन महत्वपूर्ण संगोष्ठियाँ हुई. पहली संगोष्ठी टेलीविजन पत्रकार स्व.शैलेन्द्र सिंह की स्मृति में हुई. हालाँकि यह एक शोकसभा थी, लेकिन न्यूज रूम के टेंशन को लेकर भी ऐसी बातें उठी, जो बेहद गंभीर है. बकौल आईबीएन-7 के एडिटर (स्पेशल एसाइनमेंट) प्रभात शुंगलू - 'हमलोग जिस न्यूज रूम में काम करते हैं वह नर्क बन चुका है'. प्रभात शुंगलू का यह बयान अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. इस मुद्दे पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में इतना खुलकर बोलने की हिम्मत जुटा लेना अपने आप में बड़ी बात थी. दूसरे टेलीविजन पत्रकार इतनी खुलकर बोलने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाए, लेकिन इशारा जरूर कर गए. दूसरी संगोष्ठी स्व.एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर हुई. इसमें भी एस.पी.सिंह की पत्रकारिता और अब हो रही पत्रकारिता के संदर्भ में बात हुई. लेकिन 11 जुलाई को हुई तीसरी संगोष्ठी सर्वाधिक चर्चा और विवादों में रही. यह संगोष्ठी स्व.उदयन शर्मा के स्मृति में हुई. हरेक साल उदयन शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट उनके जन्मदिन वाले दिन यानि 11 जुलाई को एक स्मृति सभा का आयोजन करती है. इस मौके पर रफी मार्ग स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों और पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था. संगोष्ठी में 'लोकसभा चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर परिचर्चा हुई और इस दौरान काफी गरमा - गर्मी भी हुई. अपनी - अपनी बारी आने पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी बात रखी. ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने वर्तमान में हो रही पत्रकारिता पर चिंता व्यक्त की और वर्तमान पत्रकारिता को जी भर कर के कोसा. हम जैसे युवा पत्रकारों के लिए बड़े आर्श्चय की बात थी कि आखिर इस सभागार में पत्रकारिता के नाम पर जो आलाप किया जा रहा है, उसके लिए दोषी कौन है. पिछले 10-15 साल से यही लोग भारतीय पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे हैं. फिर दोष किसे दिया जा रहा है. चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने इसी सभा में एक बड़ी मार्के की बात कही - 'आज के कई संपादक एडिट पेज पर लिखकर नैतिकता की दुहाई देते हैं. लेकिन क्या अपने संस्थान में फैले अनैतिकता के खिलाफ आवाज उठाते हैं. हमको खुद को गालियाँ देनी चाहिए. अपने अंदर झाँकने की जरूरत है.' यह बात जितनी शिद्दत से कही गयी, काश उसको व्यवहार में भी लाया जा सकता तो पत्रकारिता के नाम पर आलाप करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. उसी संगोष्ठी में एक दोहरा मापदंड भी देखने को मिला. संगोष्ठी के दौरान दो ऐसे बयान आये जिसपर वहां मौजूद कई पत्रकारों को कड़ी आपत्ति थी. एक बयान आईबीएन-7 के मैंनेजिंग एडिटर आशुतोष और दूसरा बयान केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल की तरफ से आया. आशुतोष ने आज के हालात में हो रही पत्रकारिता को कुछ जस्टिफाय करने की कोशिश करते हुए कहा कि क्या 1977 में ऐसा नहीं होता था. क्या उस समय प्रायोजित खबरें नहीं छपते थे. क्या उस समय ऐसे भ्रष्ट पत्रकार नहीं थे. यह बात वहां बैठे कुछ पत्रकारों को इतनी नागवार गुजरी और इतना शोर मचाया गया कि आशुतोष को अपनी बात अधूरी ही छोड़कर मंच से उतरना पड़ा. दूसरा बयान कपिल सिब्बल की तरफ से आया. कपिल सिब्बल पत्रकारों को ठेंगा दिखाते हुए कहते हैं कि आप क्या लिखते हैं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. इसपर भी वहां बैठे पत्रकारों को आपत्ति होती है. लेकिन विरोध कपिल सिब्बल के सभागार से चले जाने के बाद दर्ज कराया जाता है. यह वही पत्रकार थे जो आशुतोष की आवाज को शोर में दबा चुके थे. ऐसा नहीं है कि आशुतोष की बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ. लेकिन यहाँ सवाल दोहरे मापदंड का है. ऐसे सभागार में जहाँ पत्रकारिता और नैतिकता की बड़ी - बड़ी बातें की जा रही थी वहीँ पर एक सी परिस्थिति में दो तरह के मापदंड अपनाएं जा रहे थे. ऐसे में पत्रकारिता में सुधार की गुंजाईश की आप परिकल्पना भी आप कैसे कर सकते हैं. वैसे मेरा अपना मानना है कि बाहर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे आप पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत मान सकते है. अच्छे और सच्चे पत्रकारों की कमी नहीं है. यदि जरूरत है तो सिर्फ इनको बढ़ावा देने की. पत्रकारिता की दुनिया अपने आप ही बदल जायेगी।
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9 Response to 'संघर्ष के दो साल पर संपादकीय'
  1. L.Goswami
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257330951615#c7591866867712204177'> 4 नवंबर 2009 को 4:05 pm बजे

    विनीत जी एक अनुरोध है इटैलिक्स में न लिखा करें ..चाहें तो बोल्ड कर दें आँखों पर जोर पड़ता है.

     

  2. प्रेम दयानंद
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257333098372#c3351384740932264725'> 4 नवंबर 2009 को 4:41 pm बजे

    ऐसे ही प्रयासों की जरूरत है । उम्मीद जगी रहती है ऐसी संघर्ष गाथओं को पढकर । इन कामों को सबके सामने लाना भी एक जरूरी काम है ।

     

  3. विनीत कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257345075478#c5210279002826781891'> 4 नवंबर 2009 को 8:01 pm बजे

    लवलीजी,आपकी बातों का मैं आगे से बिल्कुल ख्याल रखूंगा। अच्छा किया आपने बता दिया। शुक्रिया।

     

  4. चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257353305749#c3186160546384892952'> 4 नवंबर 2009 को 10:18 pm बजे

    मीडिया मंत्र की सफ़लता के लिए शुभकामनाएं॥

     

  5. Unknown
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257356858885#c2517837266332934931'> 4 नवंबर 2009 को 11:17 pm बजे

    पुष्कर जी का पत्रकारिता के गिरते स्तर के प्रति चिंता एवं मीडिया के कार्यो पे नज़र रखने के प्रयास स्वरुप मीडिया-मंत्र को सुचारू रूप से चलाना बहुत बड़ी बात है...... और उनका ये कदम बहुत हीं सराहनीय प्रयास है !!!! आर्थिक मुश्किलों के बीच में भी मीडिया मंत्र का पत्रकारिता के प्रति निष्पक्ष विचार रखना ही इसे बाकीयों से अलग करता है !!!!! कृपया इसे जारी रखें...हमलोगों की शुभ कामनाएं आपके साथ है आने वाले दिनों में मीडिया मंत्र की भूमिका मीडिया को सही दिशा प्रदान करेगा इसी अपेख्सा के साथ मै इतना हीं कहूँगा...की कसौटी पे सोना हीँ घिसा जाता है लोहा नहीं और आप सोना है !!!!!

    With wishes

    Om Prakash

     

  6. आभा
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257357268080#c3724436138523796004'> 4 नवंबर 2009 को 11:24 pm बजे

    हमेशा से गिने चुने लोग ही उम्मीद जगाते हैं और कुछ कर दिखाते हैं ....

     

  7. L.Goswami
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257358304091#c2521029882346474092'> 4 नवंबर 2009 को 11:41 pm बजे

    शुक्रिया विनीत जी.

     

  8. Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1257396291657#c6821798533484520982'> 5 नवंबर 2009 को 10:14 am बजे

    पुष्कर के बारे में बस यही कह सकते हैं- जज्बे को सलाम। अभी फेसबुक पर उनका खुद का लिखा स्टेट्स याद आता है- "मेरा लीची का बगान(मुजफ्फरपुर में ). इसके आस-पास अब भी काफी जमीन है जिसपर आधुनिक तरीके से खेती करने का ईरादा है. भविष्य में यहीं से खेती के साथ वेब पत्रकारिता करने का ईरादा है. पता नहीं कभी यह सपना पूरा भी हो पायेगा कि नहीं."

    दोस्तों समझ लें, ऐसा कहना आसान नहीं है लेकिन पुष्कर कह रहे हैं।

     

  9. Kranti
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post.html?showComment=1258019244964#c2570310442996578440'> 12 नवंबर 2009 को 3:17 pm बजे

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