मूलत: प्रकाशित- मोहल्लाlive
1984 के सिख दंगे के बारे में जिसे कि मैं दंगा नहीं नरसंहार मानता हूं, देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहीं कहा है कि हमें इसे भूल जाना चाहिए। मैं मानता हूं कि इतिहास भूलने की चीज़ नहीं होती। आज से पता नहीं कितने हज़ार साल पहले रावण ने ग़लती की और हम आज तक उसे जलाते हैं। बाबर ने कई सालों पहले जो किया, वो आज भी संदर्भ के तौर पर हम याद करते हैं। भारतीय कभी इतिहास को भूलते नहीं है। वो किसी न किसी रूप में दूसरे जेनरेशन और उसके बाद अगले से अगले जेनरेशन में जाता ही है। 1984 में सिक्खों के साथ जो कुछ भी हुआ, वो आगे के जेनरेशन में भी जाएगा और ये शायद ज़्यादा ख़तरनाक रूप में जाए। इसलिए इसे करेक्ट करने की ज़रूरत है। सिर्फ जस्टिस के जरिये ही इतिहास की इस भूल को करेक्ट किया जा सकता है। जरनैल सिंह ने ये बातें अपने किताब के लोकार्पण के मौके पर ज़ुबान की प्रकाशक और चर्चित लेखिका उर्वशी बुटालिया से पूछे गये सवालों का जबाब देते हुए कहीं।
पेंग्विन ने 84 के दंगे को लेकर जरनैल सिंह की लिखी किताब को कब कटेगी चौरासी : सिख क़त्लेआम का सच नाम से प्रकाशित किया है। मूलतः हिंदी में लिखी गयी इसी किताब को उसने अंग्रेजी अनुवाद I ACCUSE… The Anti-Sikh Violence Of 1984 से प्रकाशित किया गया है। 6 नवंबर को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में इस किताब का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के पहले जरनैल सिंह ने अपनी किताब, 84 के दंगे और पी चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले प्रकरण को लेकर वक्तव्य दिया। किताब का लोकार्पण हो जाने के बाद जरनैल सिंह और उर्वशी बुटालिया के बीच एक संवाद सत्र रखा गया, जिसमें उर्वशी बुटालिया की ओर से किताब और 84 के दंगे से जुड़े कई सवाल किये गये। बाद में ऑडिएंस के तौर पर मौजूद लोगों ने भी कई सवाल किये। इस तरह स्वतंत्र वक्तव्य और लोगों के सवाल-जबाब को मिला कर जरनैल सिंह ने किताब के लिखे जाने की वजह से लेकर न्याय, सरकार के रवैये, प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक ज़िम्मेदारी जैसे मसलों पर विस्तारपूर्वक अपना पक्ष रखा।
अपने शुरुआती वक्तव्य में जरनैल सिंह ने कहा कि इस किताब में उन लोगों की दिल दहला देनेवाली कहानियां हैं, जिन्हें कि 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। यह किताब उन सबों को पढ़ने के लिए है, जो कि इंसानियत के साथ खड़े होने में यक़ीन रखते हैं। हम अपने को दुनिया के सबसे सभ्य और संस्कृति वाले देश के लोग के तौर पर मानते हैं लेकिन ये कितनी बड़ी बिडंबना है, कितना बड़ा मजाक है कि इसी देश में 3000 लोगों को सरेआम कत्ल कर दिया गया लेकिन आज पच्चीस साल बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला है। कहीं न कहीं हमारे देश की आत्मा मर गयी है, जो दोषी लोगों को सज़ा देने के बजाय उन्हें संसद में भेज देती है। किताब की प्रस्तावना में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि जिन लोगों ने दंगाइयों की भीड़ का सक्रिय संचालन किया और गुरुद्वारों और सिख मोहल्लों पर हमला करवाया, उनकी करतूतों के लिए सज़ा देना तो दूर, उन्हें प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इनाम के तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल होने का अवसर मिला। (पेज नं-XIII)
जरनैल सिंह ने स्वीकार किया कि मेरे विरोध करने का जो तरीक़ा था वो ग़लत था लेकिन जिस बात के विरोध में मैं खड़ा हूं, उस पर मुझे आज भी गर्व है। विरोध का तरीक़ा ग़लत होने क बावजूद विरोध का कारण महत्वपूर्ण है। आखिर क्या वजह है कि 11 साल बाद इस घटना का एफआईआर दर्ज हुआ? इस घटना के 25 साल हो गये, न्याय मिलने की बात तो दूर देश का कोई भी प्रधानमंत्री एक बार भी उस विडोज़ कॉलोनी में क्यों नहीं गया? दर्शन कौर जो इस किताब का लोकार्पण कर रही हैं, उन्हें बार-बार क्यों धमकाया गया? उनके सामने क्यों 25 लाख रुपये का ऑफर दिया गया और बयान बदलने की बात कही गयी? (दर्शन कौर, 1984 के दंगों से प्रभावित और जीवित बच पायीं एक पीड़िता हैं।)
ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस समय मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। उसे सही तरीके से कवर नहीं किया गया। इस घटना में पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से नहीं रखा गया। इस मामले में दूरदर्शन का रवैया संदिग्ध रहा है। दूरदर्शन के चरित्र की चर्चा जरनैल ने किताब में भी की है। उन्होंने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में अपनी भूमिका पूरी शिद्दत से निभा रहा था। लगातार इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को प्रसारित किया जा रहा था। नानवटी आयोग को दिये गये अपने हलफ़नामे में अवतार सिंह बीर ने इस बात का जिक्र किया है। दूरदर्शन बार-बार सिख सुरक्षाकर्मियों’ द्वारा हत्या की बात दोहरा रहा था, जबकि आमतौर पर दंगों में भी दो वर्गों की बात कही जाती है, किसी वर्ग का नाम नहीं लिया जाता। दूरदर्शन पर सिख क़त्लेआम की एक भी खबर नहीं दिखायी गयी। अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे।
जरनैल सिंह का मानना है कि ये दंगा न होकर सुनियोजित तरीके से सरकारी कत्लेआम था। खुलेआम सिखों की हत्या की जा रही थी। इसे रोकना क्या प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं थी? इस किताब ने कत्लेआम के दौरान खाकी वर्दी, प्रशासन, सरकार और राजनीति से जुड़े लोगों के रवैयों की विस्तार से चर्चा की गयी है। 31 अक्टूबर की रात बाकायदा कांग्रेस नेताओं की बैठक कांग्रेसी विधायक रामपाल सरोज के घर पर हुई, जहां ये निर्देश जारी हुए कि अब पूरी सिख कौम को सबक सिखाना है। सिखों और उनके घरों को जलाने के लिए रसायनिक कारखानों से सफेद पाउडर की बोरियां मंगवा पूरी दिल्ली में बंटवायी गयीं। (पेज नं 103)
अन्यायकर्ता और न्यायकर्ता नाम से एक शीर्षक है, जिसके भीतर सिरों की कीमत, भगत से बदला, कत्लेआम और सत्ता की सीढ़ी, सदियों के भाईचारे पर दाग़, दंगाई खाकी, देखती रही फौज, वर्दी ही कफन बन गयी, असहाय राष्ट्रपति, मौन गृहमंत्री और दंगे नहीं उपसंहार नाम से उपशीर्षक हैं। इन उपशीर्षकों के भीतर दिल दहला देनेवाली घटनाओं की चर्चा है। नानावटी आयोग की रिपोर्ट में पेज नंबर 87 पर सुल्तानपुरी के बयान दर्ज है, जिसमें कहा गया है, “सज्जन कुमार ने वहां एकत्रित भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि जिसने भी रोशन सिंह और भाग सिंह की हत्या की है, उन्हें 5000 रूपये इनाम दिया जाएगा। जो बाकी सिखों को मारेंगे, उन्हें प्रति व्यक्ति 1000 रुपये का इनाम दिया जाएगा” (पेज नं-61)।
दंगे के सामाजिक स्तर की सक्रियता के सवाल पर जरनैल सिंह ने स्पष्ट किया कि आमतौर पर भारतीय तेवर इस तरह की गतिविधियों में सक्रिय होने का पक्षधर नहीं है। लेकिन इस घटना के विरोध में लोग खुलकर सामने नहीं आये, उसे रोका नहीं। आखिर क्या कारण है कि इस घटना को अपनी आंखों से देखनेवाले कई गैर-सिखों में से एक भी गवाह के तौर पर सामने नहीं आया? यह पूरी तरह पॉलिटिकल कॉन्सपीरेसी रही है। उर्वशी के पूछे गये इस सवाल पर कि आप हिंदू-सिख को घुले-मिले रूप में देखते हैं। ऐसे में आप सोचते हैं कि एक संवाद की गुंजाइश है? जरनैल सिंह का सीधा जबाब रहा कि भाईचारे को सिर्फ और सिर्फ जस्टिस के जरिये ही कायम किया जा सकता है।
किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों की दास्तान को दर्ज करता है, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने पति और बच्चे खो दिये, जिनके परिवार उजड़ गये। जो किसी भी हालत में इस सदमे से उबर नहीं पाये हैं। जज जब दर्शन कौर से भगत को पहचानने की बात करता है, तब भगत का एक-एक लफ्ज उसे याद आ रहा था। भगत कह रहा था, “किसी सरदार को मत छोड़ो। ये गद्दार हैं। मिट्टी का तेल, हथियार सब कुछ है, पुलिस तुम्हारे साथ है। सरदारों को कुचल डालो।” (पेज नं-68)
अपने परिवार के लोगों को कत्लेआम में गंवाने वाले सुरजीत सिंह का कहना है कि जिलाधिकारी ब्रजेंद्र पूरी तरह से दंगाइयों के साथ मिले हुए थे। (पेज नं-94)
1984 में दिल्ली के मशहूर वेंकेटेश्वर कॉलेज में बीएससी (द्वितीय वर्ष) में पढ़ते हुए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली भोली-भाली निरप्रीत को नहीं मालूम था कि एक दिन वो इस तरह अपनी मां से तिहाड़ के अंदर मिलेगी। लेकिन 1984 के सिख कत्लेआम में पिता को दंगाइयों के हाथों तड़पते हुए मरता देख वह बागी हो चुकी थी। (पेज नं-51)
लोगों के सवालों का जवाब देते हुए जरनैल सिंह ने एक बार फिर कहा कि उनके विरोध करने का तरीक़ा ग़लत था लेकिन यह सच है कि उस प्रकरण के बाद ही ये मुद्दा फिर से हाइलाइट हुआ। जब सबने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, तो हमें भी करना पड़ा। आखिर इस घटना के बाद ही सरकार को ये क्यों याद आया? हमारा कोई राजनीतिक मक़सद नहीं है, मैं किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ नहीं हूं। हम गृहमंत्री के विरोध में नहीं हैं। मैं इसके जरिये ऐसा दबाव बनाना चाहता हूं कि लोगों की सोयी हुई आत्मा जागे। दोषियों को सज़ा मिले, जिससे कि आनेवाले समय में दोबारा ऐसी हिम्मत नहीं करे। इस मामले में वो ये भी मानते हैं कि अगर 1984 के दोषियों को सज़ा मिल गयी होती तो संभव है गुजरात में जो कुछ भी हुआ, वो करने की हिम्मत लोग नहीं जुटा पाते। हम इसके जरिये नागरिक अधिकारों को सामने लाने की बात कर रहे हैं। एक महिला श्रोता की ओर से उठाये गये इस सवाल पर कि इससे पंजाबियों को क्यों अलग-थलग रखा जाता है? जरनैल सिंह ने जबाब दिया कि ये मसला सिर्फ सिखों से जुड़ा हुआ नहीं है। ये देश के उन तमाम लोगों से जुड़ा है, जिनके साथ इस तरह की घटनाएं हुई हैं और होती है। उर्वशी बुटालिया ने जरनैल सिंह के इस काम को एक बड़ा कमिटमेंट करार दिया और इस दिशा में लगातार आगे बढ़ते रहने की शुभकामनाएं दी। इस प्रयास का असर बताते हुए सभागार में मौजूद एक पत्रकार ने सूचना दी कि आज हम जिस जगदीश टाइटलर के विरोध में बात कर रहे हैं, ये जानकर खुशी हो रही है कि यूके ने 84 के दंगे में शामिल होने के आरोप में उन्हें वीज़ा देने से इनक़ार कर दिया है।
सवालों के दौर ख़त्म होने के साथ ही लोगों ने इच्छा जतायी कि जरनैल सिंह ने किताब के जरिये जिस मुद्दे को उठाया है, वो एक सही दिशा में जाकर विस्तार पाये। ये किसी भी रूप में न तो महज विवाद का हिस्सा बन कर रह जाए और न ही एक कौम की प्रतिक्रिया के तौर पर लोगों के सामने आये। ये व्यवस्था के आगे दबाव बनाने के माध्यम के तौर पर काम करे जिससे कि न्याय की प्रक्रिया तेज़ और सही दिशा में हो सके। इस मौके पर यात्रा प्रकाशन की संपादक नीता गुप्ता ने कहा कि जरनैल सिंह ने जो काम किया है, उसके लिए उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। हमें उम्मीद है कि किताब के प्रकाशन से आपके प्रयासों को मज़बूती मिलेगी। पूरे कार्यक्रम के दौरान रंजना(सीनियर कमिशनिंग एडिटर,पेंग्विन) वैशाली माथुर (सीनियर कमिशनिंग एडिटर, पेंग्विन), एसएस निरुपम (हिंदी एडीटर,पेंग्विन)के सक्रिय रहने के लिए धन्यवाद दिया। सभागार में मौजूद श्रोताओं और विशेष रूप से उर्वशी बुटालिया का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि हम सबकी की ये नैतिक ज़िम्मेदारी है कि अपने-अपने स्तर से इस काम को आगे बढ़ाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जरनैल सिंह की ये किताब 1984 में सिख कत्लेआम के प्रति संवेदनशील होने और इसकी आड़ में होनेवाली राजनीति को समझने में एक नयी खिड़की का काम करेगी। कार्यक्रम के दौरान जितनी तेज़ी से इस किताब की बिक्री शुरू हुई, उससे ये साफ झलकता है कि लोग इस घटना के प्रति संवेदनशील हैं। बकौल जरनैल सिंह पंजाबी में छपी इसी किताब की अब तक 3000 प्रति निकल चुकी है।
लोगों के बीच किताबों की पहुंच के साथ अन्याय के खिलाफ, न्याय के पक्ष में लोगों के स्वर मज़बूत होंगे.
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1257575219886#c418687849807726898'> 7 नवंबर 2009 को 11:56 am बजे
आपकी पूरी पोस्ट पढी ..मुझे आजादी से पहले के वो पत्र पत्रिकाएं याद हो आईं जो अपनी लेखन सामग्री से उनके तेवर से जनमानस की दिशा बदल दिया करती थी । जरनैल सिंह की पुस्तक में .1984 दंगो के भुक्तभोगियों का दर्द और सरकार का उसके प्रति रवैया ..समानांतर रूप से परिलक्षित होती है । एच के एल भगत का मुकदमा हमारी कोर्ट में ही चला ..सबसे बडे आश्चर्य की बात ये थी कि ..मुकदमे को अपने अंत तक पहुंचाने वाले प्रयासों में जो उदासीनता बरती जा रही थी उसी ने जतला दिया था कि ..कौन कितना गंभीर है । अब यही सब राजेश पायलट को लेकर किया जा रहा है ।
भारतीय राजनीति, भारतीय कानून व्यवस्था, पुलिस और प्रशासन .और सबसे बढ कर भारत के आम लोगों में पश्चिमी देशों की तुलना में यही बुनियादी अंतर है । जनमानस को जगाने के लिये ऐसी पुस्तको और और ऐसे तेवर की जरूरत अब ज्यादा रहेगी । जरनैल के फ़ेंकने का उद्देश्य आज पूरा हुआ सा लगता है ..अन्यथा आज एक आम पत्रकार लिखता तो शायद ये उतना .....
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1257576600730#c3390818256591867505'> 7 नवंबर 2009 को 12:20 pm बजे
sikho ko nyay mile kintu hinduo ko bhi sikho ke sath jo hua galat tha parantu hinduo ke sath jo hua use kyo dabaya ja rha hai
kuch ek vivran padh lijiye
ध्यानपुर, जिला गुरदासपुर में कुछ व्यक्तियों द्वारा गोलियां चलाए जाने से प्रकाश, बलदेव और गोपाल नामक 3 व्यक्ति मारे गए और 7 अन्य व्यक्ति घायल हुए। मंडी रोडावाली, सदर फाजिलका में 12 या 13 दुकानों को आग लगा दी गई और गोली मार कर एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई और एक व्यक्ति को घायल कर दिया गया। भिंडरांवाला का यह बयान कि ये तो केवल 35 बनते हैं और 100 भी नहीं। 66 करोड़ को विभाजित करें तो प्रत्येक सिख के हिस्से में केवल 35 हिन्दू आते हैं, 36 भी नहीं, तो फिर आप कैसे कहते हैं कि आप कमजोर हैं। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि 84 के पीड़ित एक समुदाये के ही नहीं बल्कि पूरा पंजाब व देश पीड़ित है। न्याय सभी को मिलना चाहिए। यही समय की मांग है।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1257610536661#c4143943517512841841'> 7 नवंबर 2009 को 9:45 pm बजे
चाहे सिक्ख विरोधी दंगे हों , गोधरा के बाद गुजरात के दंगे हों, भोपाल का 1984 का यूनियन कार्बाइड कार्रवाई/रिसाव राहत हो या बडे-बडॆ घोटाले (घोटाले की तुलना दंगे से नहीं की जा सकती लेकिन यहां दॊषियों के खिलाफ़ कार्रैवाई के संदर्भ में कह रहा हूं), सब एक ही नियति को प्राप्त होते हैं । राजनैतिक दोषी किसी भी दल के हों , बच जाते हैं । मुकदमे इतने लंबे चलते हैं कि प्रकरण जनता द्वारा लगभग भुला दिए जाते हैं ।
यहां ओहदेदारों, नेताओं और अकूत काले धन वालों का बच जाना , उनके द्वारा आयोजित षडयन्त्रों में शामिल लोगों को सजा न हो पाना या न के बराबर होना क्या दर्शाता है ?
यह सब पूर्व कथनीय जैसा लगता है । इन मामलों में ये लोग एक अलिखित समझौते की तरह एक दूसरी के मामलों को ज्यादा तूल नहीं देते ।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1257613227915#c5227290038015923918'> 7 नवंबर 2009 को 10:30 pm बजे
क्यों ज़ख़्म कुरेद रहे हैं?
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1257792935871#c17603405971090634'> 10 नवंबर 2009 को 12:25 am बजे
भिंडरांवाला हो या एच. के. एल. भगत सब इसी राजनीति के अवैध सन्तान हैं जैसे इस समय महाराष्ट्र में राज ठाकरे हैं। स्वयं शस्त्र उठा लेने के कारण भिंडरावाला आतंकवादी हो गये जबकि दूसरों को खूनखराबा के लिये उकसाने वाले माननीय सांसद या विधायक। ५०% से कम लोग प्रशासकों को चुनेगे तो ऐसे ही परिणाम आयेंगे। बुद्धिजीवी सेमिनारों और ड्राइंग रूमों में बहस करके अपनी विद्वता से संतुष्ट होकर बैठ जायेंगे फिर किसी गोधरा या ८४ की प्रतीक्षा में।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1258137924729#c4516203085078612803'> 14 नवंबर 2009 को 12:15 am बजे
Nirdosh, masoom logon ko kisi ne bhi mara ho, chahe delhi ho ya punjab koi fark nahi hai. Agar aap theek se kitaab padhenge to maine us samay ki punjab ki ghatnaon ka bhi jikar karte huai yah baat bahot spasht dhang se kitaab mein kahi hai.
Sadhuvad
Jarnail Singh
http://taanabaana.blogspot.com/2009/11/blog-post_07.html?showComment=1259180946652#c1240788352301182539'> 26 नवंबर 2009 को 1:59 am बजे
विनीत कुमार जी,
मुझे खेद है कि मै आपकी इस पोस्ट को पहले नहीं देख पाया..दरअसल मुझे भी टीवी के लिए काम करने कि बीमारी है जो पीछा ही नहीं छोड़ रही, जबकि और बहुत कुछ छूट गया...तानाबाना में प्रकाशित रिपोर्ट की जानकारी देने, इस तरफ ध्यान दिलाने और पंजाब स्क्रीन के लिए वक्त निकलने के लिए आपका शुक्रगुजार हूँ...वक्त ने चाहा तो ज़रूर मिलेंगे और खुलकर बात करेंगे...फिलहाल इतना ज़रूर कहना चाहता हूँ कि समस्या पंजाब की भी दुनिया के सामने पूरी तरह नहीं आ पाई...गहरी साजिशों ने ही इस पांच दरिआयों कि धरती पर पहले खून का छठा दरिया चलाया था और अब नशे का दरिया चला रखा है....पंजाब पर हमले सदिओं से होते रहे हैं, यह कोई नयी बात नहीं..बस अब इसकी शक्ल और अंदाज़ में तब्दीली आ गयी है....देश की बाकी जनता नहीं समझेगी तो यह तजुर्बा वहां भी दोहराया जा सकता है......हमें इन साजिशों के खिलाफ एकजुट तो होना ही होगा... जितनी देर होगी उतना ही अंधेर होता जायेगा....और हाँ पाबला जी से एक बात..कुछ ज़ख़्म भूलने वाले होते ही नहीं...और अगर कोई भूल जाये तो कुरेदने का बुरा नमानें