तरक्की के दिनों में अपने गुरुदेव प्रभाष जोशी की छत्रछाया से बेदखल कर दिये गये पत्रकार आलोक तोमर के लिए कॉन्फेशन करने के लिहाज से इससे बेहतर मौका शायद ही कभी मिले। प्रभाष जोशी ने रविवार डॉट कॉम पर दिये गये इंटरव्यू में जाति और स्त्री को लेकर जिस तरह के मानव विरोधी और गैरलोकतांत्रिक बयान दिये, उसके प्रतिरोध में ब्लॉगरों और वेब पत्रकारों का लिखना ज़रूरी और स्वाभाविक कदम है। देश का कोई भी समझदार इंसान इस बयान पर या तो अफ़सोस जाहिर करेगा, हमारी तरह प्रतिरोध करेगा या फिर मानव अधिकारों की व्याख्या करते हुए सीधे प्रभाष जोशी से सवाल करेगा कि देश के नामचीन पत्रकार होने के साथ ही क्या आपको ये अधिकार मिल गया है कि तथ्यों को नज़रअंदाज़ करते हुए अपनी मर्जी से जो चाहें और जिस तरह से चाहें बयान दें, अवधारणा विकसित करने का काम करें और बाद में चुप्पी मार जाएं? लेकिन आलोक तोमर जैसे पत्रकार को इस बयान पर चिंता होने के बजाय अपने गुरुदेव के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करना ज़्यादा ज़रूरी लगा और ये श्रद्धा में भ्रष्ट हो चुके एक शिष्य का ही असर है कि उन्होंने तथ्यों और मुद्दे की बात को लात मारते हुए प्रभाष जोशी के मानव विरोधी बयान का प्रतिरोध करवेवाले वेब पत्रकारों और ब्लॉगरों को लफंगों की जमात तक कह डाला।
आलोक तोमर देश के ऐसे अकेले शिष्य नहीं हैं, जो अपने गुरु के प्रति श्रद्धा का नाटक करते हुए यथास्थितिवाद की जड़ों को मज़बूत करने का काम करते हैं! दरअसल जिस किसी भी शिष्य के ज्ञान का विस्तार अपने गुरु के प्रति अंध श्रद्धा के खांचे में रह कर हुआ है, वो अपने गुरु के लिए सक्षम होने पर जगह-जगह मूर्तियां स्थापित करवा सकता है, गुरु के नाम पर गली, मोहल्ले, चौक-चौराहे का नाम रख सकता है, ज़रूरत पड़ने पर प्रतिरोधियों के आगे भाले-गंडासे और बंदूक तान सकता है – लेकिन गुरु के विचारों और अवधारणाओं पर चिंतन करने का काम कभी नहीं कर सकता। वो अपने भीतर वो ताक़त कभी भी पैदा नहीं कर सकता, जिससे कि वो गुरु के ग़लत होने की स्थिति में असहमति जाहिर करते हुए बौद्धिकता का विकास कर सके या फिर उस चिंतन को बढ़ावा दे सके, जिससे गुज़रते हुए उसके गुरु उलझ गये। ऐसी स्थिति में अगर आलोक तोमर जैसा प्रभाष जोशी का शिष्य तथ्यों के आधार पर बात करने के बजाय गुरु की महिमा को बचाने की आड़ में भाषाई स्तर पर हिंसक हो जाता है, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। ये उनके हिंसक और असंयमित होने का ही उदाहरण है कि वो पहले जिन बातों को स्थापित करते हैं, बाद में आकर उसमें खुद ही फंस जाते हैं। जाहिर है, ये भाषा बौखलाहट की ही हो सकती है, विमर्श की तो कतई नहीं। आप खुद ही देखिए…
आलोक तोमर ने लिखा, “ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?” आगे उन्होंने लिखा, “ये वे लोग हैं, जो लगभग बेरोज़गार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध-साक्षरों की संख्या बहुत है।” आलोक तोमर की भाषा कितनी विरोधाभासी है, इसका नमूना आप देखिए कि जो प्रभाष जोशी के मानव विरोधी बयानों का प्रतिरोध कर रहा है, वो पढ़ा-लिखा होकर भी जिसे कि हिंदी टाइपिंग आती है, साइटें खोलना जानता है वो अनपढ़ है। लिखते हैं, “आपने पंद्रह-सोलह हज़ार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती है, आपने पांच-सात हज़ार रुपये खर्च कर के एक वेबसाइट भी बना ली।”
ये आलोक तोमर की समझ है कि इंटरनेट पर प्रभाष जोशी की बातों का प्रतिरोध करनेवाले लोग लफंगों और बेरोज़गारों की जमात है। लफंगों की जांच तो आप करने से रहे लेकिन फिलहाल बेरोज़गारों की संख्या को लेकर संभव हो तो होमवर्क कर लें। अच्छा रहेगा। वैसे आलोक तोमर के हिसाब से जो लोग बेरोज़गार हैं, उन्हें मानव विरोधी बातों का प्रतिरोध करने का अधिकार नहीं है। ये बात अपने आप में कितनी मानवविरोधी है, आप समझ सकते हैं।
इस हिसाब से समझिए तो इंटरनेट की दुनिया में बिचरनेवाला सिर्फ वही शख्स पढ़ा-लिखा और समझदार है, जो आलोक तोमर की तरह प्रभाष जोशी को एक पत्रकार की तरह नहीं, कमी और कमज़ोरियों के साथ एक इंसान की तरह नहीं, देवता की तरह पूजने का काम करता है। इस भाव के लिए ही मैंने श्रद्धा में भ्रष्ट हो जाने का पदबंध इस्तेमाल किया।
ऐसे अनपढ़, लालची और लफंगे लोगों को लगभग धमकाने के अंदाज़ में आलोक तोमर ने लिखा, “आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाएं और इतनी पतित भाषा में उठाएं। क्योंकि अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी, तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाइयो, बात करो मगर औकात में रह कर बात करो।” ये है जनसत्ता जैसे अखबार में, शलाका पुरुष प्रभाष जोशी की छत्रछाया में पले-पढ़े पत्रकार की भाषा। इस संदर्भ में अगर जनसत्ता के एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार की टिप्पणी पर गौर करें, तो उनलोगों के जवाब देने की भाषा इसलिए ऐसी हो गयी है क्योंकि प्रतिरोध करनेवालों में से रंगनाथ सिंह ने उनके लिए लठैत शब्द का प्रयोग किया (देखें, जनतंत्र डॉट कॉम)। ये अलग बात है कि गंभीरता और समझदारी की पत्रकारिता करते आनेवाले अंबरीश कुमार ने भी लठैती करना मुहावरा को अपनी ओर से विशेषण के तौर पर इस्तेमाल किया और ये मान लिया कि रंगनाथ सिंह की ओर से प्रभाष जोशी के शिष्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रभाष जोशी के जिस बयान पर तार्किक ढंग से बहस होनी चाहिए थी, उस पर यहां तक आते-आते आदर और भावुकता की चादर चढ़ा दी गयी और नतीजा ये हुआ कि मौजूदा परिवेश में जहां कि हम अधिक से अधिक लोकतांत्रिक और मानवीय होने की कोशिशों की तरफ बढ़ रहे हैं, वहीं प्रभाष जोशी के इस विरोधी दिशा में बढ़ते आने के प्रतिरोधी शब्दों को कुचलने का काम कर जाते हैं, उनकी बातों पर व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें महान साबित करने के उदाहरणों से पूरी बहस को पाटने की कोशिश करते हैं। संभव है, इस श्रद्धा से पगे बचाव की कोशिशों और प्रतिरोध के स्वरों के बीच कुछ ऐसे संदर्भ बने हों जहां आकर संस्कारों की ट्रेनिंग पानेवाले प्रभाष जोशी के शिष्य विचलित हुए हों और लफंगा जैसे शब्दों का प्रयोग कर गये हों जिसे कि अंबरीश कुमार सहित बाकी के लोग जस्टीफाइ करने में लगे हों। लेकिन इसी बीच मेरी नज़र प्रभाष जोशी के शिष्यों के एक और प्रयास की तरफ जाती है।
वर्डप्रेस पर जनसत्ता नाम से प्रभाष जोशी के शिष्यों की ओर से ब्लॉग बनाया गया है, जिसमें कि जनसत्ता के लोगों की घोषणा की गयी है। इसमें सिर्फ पत्रकार अंबरीश कुमार और पत्रकार आलोक तोमर की साइट के लिंक हैं। इस घोषणा में पत्रकारों के नामों के पहले जो भूमिका है, उसकी पहली और आखिरी लाइन गौर करने लायक है। पहली लाइन है – ये ओम थानवी का नहीं प्रभाष जी के शिष्यों का ऑनलाइन जनसत्ता है और इसे आज के जनसत्ता के प्रिंट संस्करण से ज्यादा लोग पढ़ते हैं। आखिरी लाइन है, प्रभाष जी के किसी भी उत्तराधिकारी के लिए, उनके वंशजों के इस मंच पर तो क्या नेपथ्य में भी संभावना नहीं है। घर में किन्नर बिठाने की परंपरा से हम विनम्रतापूर्वक इनकार करते हैं। किस तरह की मर्दवादी भाषा का प्रयोग इस ब्लॉग में किया गया है, ये आपके सामने है। किस शालीन भाषा के प्रभाष जोशी के ये शिष्य हिमायती हैं, आप खुद ही अंदाज़ा लगा लें। यहां किसने अपशब्दों का प्रयोग किया है, किसने इनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया, ये अंबरीश कुमार बता दें, तो बेहतर होगा। इस पूरी भाषा से हम या तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि शुरू से ही प्रभाष जोशी इस तरह से अपने बचाव और मठवाद को कायम रखने की भाषा की ट्रेनिंग अपने शिष्यों को देते आये हैं? अपने ही भीतर के लोगों के बीच गुटवाद को पनपने देने में खाद-पानी का काम करते हैं, क्योंकि ये साइट इस बात का दावा करती है कि ये प्रिंट में पढ़ी जानेवाली जनसत्ता से ज्यादा पढ़ी जाती है। इसे असली जनसत्ता कहा गया है। ये ओम थानवी का जनसत्ता नहीं है या फिर प्रभाष जोशी के शिष्य होने के नाम पर आलोक तोमर जैसा शख्स खुद प्रभाष जोशी के नाम और गरिमा के बीच मठ्ठा घोलने का काम कर रहा है।
दूसरी बात की भी संभावना इसलिए है कि आलोक तोमर की ओर से ये घोषणा की गयी है कि प्रभाषजी इंटरनेट पर नहीं जाते और नेट को समाज मानने से इनकार करते हैं। पहली बात में सच्चाई है कि वो इंटरनेट पर नहीं जाते, कुछ नेट के जरिये मंगाना होता है, तो वो दूसरों के मेल पर मंगाते हैं, लेकिन यहां प्रभाष जोशी की तकनीकी स्तर पर कमज़ोर होने की सूचना मिलती है, इसे ज़बरदस्ती अवधारणात्मक मसला न मानें, तो ही अच्छा है। लेकिन दूसरी बात में ज़रा भी सच्चाई नहीं है कि प्रभाष जोशी नेट पर लिखनेवाले लोगों को महत्वहीन करार देते हैं। आज प्रभाष जोशी अपने विरोध की आवाज़ के आगे भले चुप हों और उनके बचाव के लिए आलोक तोमर जैसा शिष्य नाहक हमसे भिड़ने आ गया हो, लेकिन ख़बरों के धंधे वाले मामले में जब अख़बारों ने चुप्पी साध ली थी, तो इन्हीं प्रभाष जोशी को बहुत बुरा लगा था। ऐसे में जब उन्हें मालूम हुआ कि ब्लॉग और इंटरनेट से जुड़े लोग इस मसले पर लगातार लिख रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि ये अच्छा काम कर रहे हैं। ब्लॉगरों की लिखी पोस्ट के प्रिंट आउट देखने की इच्छा जाहिर की और दोस्तों के माध्यम से शुभकामना संदेश भिजवाया। इसलिए आज प्रभाष जोशी के लिए ज़रूरी हो गया है कि वो हमारे प्रतिरोध का जवाब भले न दें, जैसे अब तक बेचैन होते हुए भी लेखन और जवाब के स्तर पर चुप्पी मारे हैं, लेकिन बार-बार अपने को प्रभाष जोशी का शिष्य बताकर उनके बचाव में जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसे प्रभाष जी देखें, पढ़ें और बचाव के लिए बंदूक लेकर कूद पड़े अपने शिष्यों को डपटने की तरह एक बार फिर दिशा-निर्देश देने का काम करें।
उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रभाष जोशी जीते जी अपने नाम पर होनेवाली लंपटई को बर्दाश्त नहीं करेंगे और कहेंगे – दूर हटो, तुम जैसे नालायक शिष्यो, मेरी कलम में अभी भी इतनी ताकत बची है कि मैं अपने पक्ष की लड़ाई खुद लड़ सकता हूं, तुम जैसों की हमें कोई ज़रूरत नहीं
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_29.html?showComment=1251553700416#c7949850610845921394'> 29 अगस्त 2009 को 7:18 pm बजे
नेट की दुनिया बहुत कुछ बोल रही है, और बेबाकी से बोल रही है। यह तकनीकी क्रांति का ही असर है कि आज चहुंओर से लोग खुलकर अपनी बात कह रहे हैं। नेट पर लिखा जाना लफंगई नहीं है। थेसिस, एंटी थेसिस और सेंथेसिस के दौरान मर्यादा बनी रहे तो अच्छी बात है।