आउटलुक पत्रिका ने हिन्दी कवि-कथाकारों को लेकर एक सर्वे शुरु किया है। रंगनाथजी को इस सर्वे से इस बात को लेकर गहरी आपत्ति है क्योंकि वो साहित्य को बाजार के फार्मूले से देखने के खिलाफ हैं जबकि मेरी मान्यता है कि-
साहित्य को महान कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ नहीं लगेगी। आप भी पढ़ें औऱ अपनी राय दें-
‘हमारे प्रिय रचानाकार’, ‘हमारे प्रिय कवि’, ‘हमारे प्रिय कथाकार’ जैसे शीर्षक से निबंध लिख-लिख कर हिंदी पट्टी का जो समाज स्कूली परीक्षा पास करता आया है, आज उसी समाज से आये हुए रंगनाथजी आउटलुक के साहित्यकार सर्वे पर सवालिया निशान खड़े करने में जुटे हैं। उनका विरोध जितना स्वाभाविक है, उतना ही अनिवार्य भी। स्कूली जीवन में जब ये समझ और साहस पैदा न कर सके कि वो मास्टर या परीक्षा बोर्ड के आगे जवाब तलब कर सकें कि ऐसा क्यों लिखें हम? अगर प्रेमचंद हमें सबसे ज़्यादा पसंद हैं तो इस निबंध में ये लिखने की कहां गुंजाइश बची रह जाती है कि रेणु भी मुझे उतने ही पसंद हैं। मुक्तिबोध अगर मेरे सबसे प्रिय कवि हैं, तो फिर इससे ये कैसे साबित करें कि नागार्जुन हमें उतने ही पसंद हैं। जाहिर है, उस समय चाहे रंगनाथजी हों या फिर देश का कोई और स्कूली बच्चा, नंबर पाने के आगे न तो उसका विरोध करेगा और न ही इतनी समझ बना पाएगा कि इस तरह के शीर्षक पर निबंध लिखने से हम बाकी के रचनाकारों के साथ क्या कर रहे होतें हैं। उस समय तो एक ऐसे फार्मूले और शब्दों के फेर में होते हैं कि चाहे किसी पर भी निबंध आ जाए, प्रेमचंद को रिप्लेस करो और वहां जैनेंद्र को लगा दो, अज्ञेय को हटाओ और रघुवीर सहाय को फिट कर दो। करनेवाले तो इस फार्मूले से यूजीसी की परीक्षा तक पास कर जाते हैं, हम फिलहाल इस बात पर बहस नहीं करना चाह रहे और न ही रंगनाथजी से इस बात पर हील-हुज्जत करना चाहेंगे कि वो स्कूली शिक्षा से अलग सोच क्यों रखते हैं? हां, इतना तो ज़रूर जानना चाहेंगे और अपने स्तर पर अनुमान लगाना चाहेंगे कि सर्वे के विरोध में खड़ा होने का उन्हें ज्ञान कहां से मिला और उन्हें क्यों लगता है कि साहित्यकारों को लेकर इस तरह का सर्वे वाहियात काम है?
यहां कुछ आगे कहने के पहले साफ कर दूं कि हिंदीवाला कहने का मतलब या हिंदी पढ़नेवाला से आशय सिर्फ उनलोगों से नहीं है, जो रचनाओं को पढ़ते हुए पचपन प्रतिशत लाने के मोहताज रहते हैं। जिनके लिए साहित्यिक रचनाओं और उनकी पंक्तियों से इतना भर का नाता है कि दसों साल से पूछे जा रहे सवालों के हिसाब से किस लाइन को निकाल कर किस सवाल के आगे भिड़ाना है, संदर्भ के लिए उपयोग में लाना है, उदाहरण देने हैं, कुल मिलाकर हलाल मीट या झटका मीट तैयार करने की विधि अपनानी है। यहां हिंदीवाला से आशय उन तमाम लोगों से है, जो इसमें दिलचस्पी रखते हैं, चाहे वो मांगकर, चाहे वो खरीदकर या फिर समीक्षा के नाम पर पुस्तकें लेकर पढ़ते हैं। ये सारे लोग हिंदीवालों में शामिल हैं।
अब बात आउटलुक की ओर से किये जा रहे साहित्यकार सर्वे और उस पर की जा रही असहमति पर करें।
रंगनाथजी का मानना है कि आउटलुक वालों को यह तो पता होना ही चाहिए कि टॉप तीन का फंडा सिर्फ उन्हीं चीज़ों पर लागू होता है, जो बाज़ारू हैं। यानी जो बेचने के लिए ही तैयार की जाती हैं। साहित्य की दुनिया तो ग़ालिब के उसूलों से चलती है-
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
नहीं मानी मेरे अशआर में नहीं न सही
रंगनाथजी की बात से अब आप समझ रहे होंगे कि वो इस सर्वे का विरोध क्यों कर रहे हैं। इसलिए कि इस तरह के सर्वे साहित्य जैसी विधा, मनुष्य की महान उपलब्धि को बाज़ार में घसीट लाने की प्रक्रिया है। बाज़ार में आते ही चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, उसकी तासीर ख़त्म हो जाती है। इसलिए ज़रूरी है कि साहित्य को बाज़ार से अलग रखा जाए। साहित्य लिखने-पढ़नेवालों की ये नैतिक जिम्मेदारी है कि वो साहित्य को बाज़ार में, उसकी शर्तों पर बिकने और अपनाने से रोका जाए और जो कोई ऐसा करता है, उसके प्रतिरोध में अपनी आवाज़ उठायी जाए। ऐसा बचाव हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसे एक ज़माने में घर की किसी भी स्त्री के घर से बाहर जाने पर भ्रष्ट हो जाने, परपुरुषों से बात कर लेने पर बदचलन हो जाने के डर से करते रहे। जिन लोगों को ऐसा डर अभी भी बना हुआ है, वो इस तरह के बचाव कार्य में जी-जान से जुटे हैं। हमें साहित्य को हर हाल में शुचिता की सीकचों के बीच सुरक्षित रखना है, किसी हाल में बाज़ार की छाया इस पर नहीं पड़नी चाहिए।
साहित्य को लेकर जो समझ रंगनाथजी की बनी है, वो कोई नयी समझ नहीं है। आप हिंदी से जुड़ी किसी भी रचना को उठा कर देख लीजिए, उसमें बाज़ार के खिलाफ खड़े होने की बात अनिवार्य तौर पर मिल जाएगी। इसलिए अगर ये कहा जाए कि रंगनाथजी साहित्य के सच्चे पाठक और रक्षक हैं, तो मुझे नहीं लगता कि उन्हें कोई आपत्ति होगी। साहित्य पढ़ने का मतलब ही है कि आप बाज़ार के विरोध में खड़े हों, उन तमाम हरक़तों और ताक़तों के विरोध में खड़े हों जो कि साहित्य को बाज़ार के बीच ला पटकने के लिए आमादा हैं। जिस साहित्य को लोकमंगल की भावना से लिखा-पढ़ा जाता रहा, अगर वो लालाओं की जेब को गर्म करने लग गया है, तो हमें उसका हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए। यहां तक हम रंगनाथजी के साथ हैं। लेकिन…
माफ कीजिएगा, हम चाहकर भी रंगनाथजी की मासूमियत पर फिदा होना नहीं चाहेंगे। गालिब का शेर ठोंक कर उन्होंने साहित्य का जो मान बढ़ाया है, हम उसके आगे कुछ बोलना नहीं चाहेंगे। बल्कि हम इससे अलग सिर्फ इतना भर जानना चाहेंगे कि वो किस साहित्य के लिए इस तरह के भारी-भरकम वैल्यू लोडेड शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उस साहित्य के लिए, जिसकी पांच सौ प्रति छाप कर (ये मुहावरा दिलीप मंडल का है), कुछ प्रति आलोचकों के हाथों मुफ्त बांटने और बाकी रैकेट के तहत लाइब्रेरियों में पहुंचाने के बाद चंद अख़बारों और पत्रिकाओं में हुआं-हुआं करके महान साबित करने का कर्मकांड पूरा किया जाता है। कहीं उस साहित्य के लिए तो नहीं, जिसे कि ठोस तौर पर पॉपुलर होने, एक ही झटके में बिकने और रातोंरात कुछ बटोर लेने की नीयत से लिखे जाते हैं? अगर ऐसा है, तो यक़ीन मानिए रंगनाथजी ने गालिब के शेर का अपमान किया है, उसका मान किसी भी हद तक बढ़ाने का काम नहीं किया है और इस साहित्य को बाज़ार क्या, सर्वे क्या, किसी भी शर्त पर परखने का काम किया जाए, मुझे कहीं से कोई आपत्ति नहीं होगी। ऐसे में कहीं कोई एक कहानी, कविता छपवा कर अकड़ जाता हो, अपने को गुलेरी की पांत में खड़ा करके नामवर और अशोक वाजपेयी को गरियाता है, तो ज़रूरी है कि उनलोगों की औकात बताने के लिए ऐसा सर्वे एक नहीं, एक पत्रिका की ओर से नहीं, कई और कई पत्रिकाओं और संस्थानों की ओर से किया जाने चाहिए।
रही बात साहित्यकारों को सूची में शामिल किये जाने की, तो अगर व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो किसी ने कुछ लिख कर क्रांति मचा देने का काम नहीं किया है। अपवादों में न जाएं, तो इन साहित्यकारों के लिखते रहने से हिंदी लेखन परंपरा भले ही मज़बूत हुई हो, लेकिन सामाजिक स्तर पर कहीं कोई रद्दोबदल का काम नहीं हुआ है और न ही उन्होंने उसके लिए आगे आने का काम किया है। इसलिए हमें साहित्य की परंपरा से इन साहित्यकारों को जोड़ने के पहले खास खयाल रखना होगा कि हम क्या करने जा रहे हैं। रंगनाथजी का मैं ज़ोरदार समर्थन करता हूं कि किसी के फूले हुए पेट को बॉडी, तो किसी की फूली हुई टांग को बॉडी और किसी के फूले हुए हाथ को बॉडी मानने का जो ग़ैरबराबरी का काम गीताश्री ने किया है, वो काम हमें नहीं करना चाहिए। लेकिन रंगनाथजी आपको भी इन सूचीबद्ध साहित्यकारों को हिंदी की पूरी परंपरा में शामिल करने के पहले ये सोचना होगा कि हम किस आधार पर उन्हें शामिल करने जा रहे हैं।
कोई माने या न माने, लेकिन ये सच है कि आज का साहित्यकार अपने रोज़मर्रा के जीवन में नून, तेल, मर्चा का सामान इसी बाज़ार में रहकर खरीद रहा है, खरीदने की ताक़त वो इसी बाज़ार में रहकर पैदा कर रहा है। एक बार नाम हो जाने पर (नाम होने का स्तर चाहे जो भी हो) इसी बाज़ार में बेमन से लिखे गये, कुछ भी लिखी, कही गयी चीज़ों को, एक ही चीज़ को कई लेबलों से छपवाने और बेचने का काम कर रहा है, जिसे कि नाम ले-लेकर दरियागंज में भटकनेवाले लोग बखूबी जानते हैं। ऐसे में उन पर बाज़ार की शर्तें लागू नहीं होनी चाहिए, उन्हें बाज़ार में खड़े होकर नहीं देखना चाहिए तो फिर क्या उस पर महान साहित्य होने का लेबल चस्पाना चाहिए। दरअसल साहित्य को बाज़ार की किसी भी चीज़ से अलग करके देखने की पूरी कवायद ही बेमानी है। अगर कोई लेखक अपनी बिकनेवाली प्रति के बारे में नहीं जानता, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो साधु प्रवृत्ति का है, बल्कि वो प्रकाशक के शोषण का शिकार हुआ है। वो दुनिया से लड़ते हुए भी प्रकाशक के विरोध में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। साहित्य और साहित्यकारों को महान होने और कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये साहित्य महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ कभी नहीं लगेगी। हां इतना जरुर होगा कि इसका असर कार या जूते से अलग होगा, जिसे कि वाल्टर बेंजामिन ने विस्तार से समझाया है।
रंगनाथजी ने सरस सलिल और गुलशन नंदा को साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यकारों के बीच घुसा कर एक बहुत ही चमकीला उदाहरण पेश किया है। ये काम भी उनका कोई नया प्रयोग नहीं है। यूनिवर्सिटी में मनोहर श्याम जोशी की तारीफ करने के बाद शिक्षकों से लताड़ सुनने के दौरान ऐसी मानसिकता को पहले ही समझ चुका हूं। हिंदी में जो लोकप्रिय है, जो ज़्यादा बिकाऊ है, उसे हिंदी के लोग घटिया साबित करने में दम लगा देते हैं। हिंदी में महान होने की पहली शर्त है दुर्लभ होना, गूढ़ होना, किसी के रेफरंस से महान बताया जाना। शुक्र कीजिए कि प्रेमचंद इस मानसिकता से काफी हद तक बच गये। ऊपरी तौर पर रंगनाथजी का ये उदाहरण बहुत ही सटीक लगता है कि सही में अगर ज़्यादा ही बिकना आधार है तो फिर गुलशन नंदा महान क्यों नहीं, सरस सलिल सबसे बेहतर पत्रिका क्यों नहीं। ऐसा करके वो सर्वे करानेवाली पत्रिका की ओछी समझ की तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि पढ़े-लिखे लोग क्या, दरियगंज में संडे मार्केट में भी हरेक माल 20 रुपये के तहत किताब बेचनेवाला बहुत ही कम पढ़ा-लिखा बंदा जानता है कि किस किताब की क्या औकात है। इसलिए बीस रुपये की किताब के बगल में ही पड़ी दि पार्शियल वूमेन पर हाथ लगाएंगे तो उसे अस्सी रुपये बताएगा। कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि बाज़ार में आने के बाद ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि चीजें अपना महत्व खो देती है। जिस सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे की सीडी मोजरवियर 30 रुपये में दे देता है, उसी मोजरवियर से आनेवाली गुलज़ार की सीडी के लिए 190 रुपये क्यों देने पड़ते हैं, इसे अगर आप समझ रहे हैं तो आपको रंगनाथजी का ये उदाहरण बकवास लगेगा।
कहानी सिर्फ इतनी भर है कि सब कुछ बाज़ार के दबाव के तहत खरीदने, पढ़ने और उस पर सोचनेवाले हम जैसे लाखों लोग अब साहित्य और पत्रकारिता में महान, लोकमंगल, जनहित जैसे लबादों के भीतर रहकर जीने से ऊब गए हैं। हमें बेचैनी होती है कि हमसे सारी चीज़ें बाज़ार के तहत लिया-वसूला जा रहा है और ज़बरदस्ती लोकहित और महान होने का पाखंड किया जा रहा है। साहित्य को बाबा रामदेव का योग मत साबित कीजिए, जहां दाम लेकर सांस लेने और छोड़ने की विधि बतायी जाती हो। और अगर ऐसा करते हैं, तो हमें और हमारी पीढ़ी को इसकी जानकारी होनी चाहिए। हमें और हमारी आनेवाली पीढ़ी को पता होना चाहिए कि जिस साहित्य को पढ़ कर हम संवेदनशील होते हैं, भावुक होते हैं, इसे महसूस करने के लिए हमें पैसे देने पड़े हैं, हमें इसकी उपयोगिता पर सवाल करने का हक़ है। हां, अब इस पर बात कीजिए कि कौन कितनी ईमानदारी से हमें भावुक, संवेदनशील और रस का आस्वाद करनेवाला बना पाया है।
…अंत में इतना ज़रूर कहूंगा, बल्कि रंगनाथजी की ही बात को दोहराना चाहूंगा कि सर्वे का आधार ग़लत है, उसकी सूची गड़बड़ हो सकती है और है। रंगनाथजी तो इस सिस्टम को ही उखाड़ फेंकने के पक्ष में हैं जबकि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आगे जब भी इस तरह के सर्वे किये हों, तो उसे और दुरुस्त, परफेक्ट और तर्कसंगत तरीके से किया जाए। आधा बाज़ार और आधा समाज का कॉकटेल (भले ही वो संकोच या डर से हो) बनाने के बजाय उसी तरह की पद्धति अपनाएं, जिस तरह की पद्धति मार्केटिंग के लोग अपनाते हैं। यक़ीन मानिए, इससे साहित्यकारों के बीच अवसाद पैदा होने के बजाय प्रोफेशनलिज़्म आएगा, जो कि ज़बरदस्ती की मठाधीशी से कई गुना अच्छा है.
मोहल्लाlive पर प्रकाशित
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