युवा होने के नाते ये देख-सुन कर आपको भी हैरानी हो रही होगी कि हिंदी साहित्य के अमिताभ बच्चन माने जानेवाले आलोचक नामवर सिंह की जिस बात पर युवाओं से खचाखच भरे ऐवाने ग़ालिब में हंगामा हो जाना चाहिए था कि साहब आप क्या बात कर रहे हैं, नामवरजी ये आप क्या कह रहे हैं, ऐसा कैसे कह सकते हैं नामवरजी, अफ़सोस कि इस जमात के अधिकांश युवाओं ने स्तुति करते हुए ताली पीटने का काम किया। जिस ऐवाने में युवाओं की ओर से नामवर सिंह के ख़िलाफ प्रतिरोध के स्वर फूटने चाहिए थे, उसमें गदगद हो जाने का एक विस्मय कर देनेवाला नज़ारा सामने था। किसी के बुरी तरह लताड़े और लतियाये जाने के बीच भी वो कौन-सी मनःस्थिति होती है कि इंसान इससे तृप्त होता है, आनंद लेता है और श्रद्धा भाव से लतियाये जानेवाले की स्तुति करने लग जाता है, तीन साल तक काव्यशास्त्र तक पढ़ने के बाद भी न तो हमें उस स्थिति से कभी पाला पड़ा और न ही कभी उस रस का हमने पहले कभी स्वाद चखा।
सभागार से बाहर निकलने के बाद अधिकांश लोगों की ज़ुबान पर बस एक ही बात – हिला दिया आज नामवरजी ने, गजब का भाषण दिया नामवर ने, आज तो नामवरजी ने अजय नावरिया को ऐसी पटकनी दी है कि जल्दी उठकर पानी नहीं पी पाएगा… आदि-आदि। सभागार से बाहर निकल कर लोगों की बात सुनते हुए तब आपको अंदाजा लग जाता है कि आखिर क्यों नामवर सिंह की बात पर अधिकांश युवाओं को परेशानी होने के बजाय मज़ा आ रहा था और वो किसी भी तरह का विरोध करने के बजाय उनकी बातों को ताली पीटते हुए और शह दे रहे थे।
लंबे समय से वाचिक परंपरा की ताकत पर हिंदी साहित्य में अपना आसन बचाये रखने वाले आलोचक नामवर सिंह इस कला में सिद्धहस्त तो हैं ही कि वो ऐसी बात कहें, जिसे सुन कर सभागार में बैठे श्रोता वही अर्थ लें जो अर्थ वो खुद प्रेषित करना चाहते हैं। कहने और समझने के बीच कोई फर्क न होने की वजह से ही लंबे समय से हम जैसे लोग उनके मुरीद रहे हैं। संभवतः इसलिए जब वो सावधान रहो इन लौंडों से, बहुत ख़तरनाक रास्ता अपना रहे हैं आप, बहुत न बढ़ाइए इन लोगों को, साहित्य में चालू किस्म का नारा न लगाओ जैसी नसीहत युवा जो देखन मैं चला शीर्षक से संपादकीय लिखनेवाले हंस के संपादक राजेंद्र यादव को दिया, तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
हिंदी समाज, जो अब तक अरुंधति राय की बात को अपने इलाके का गपशप नहीं जान कर कुम्हाने लग गया था, नामवर सिंह की इस बात पर अचानक से खिल उठा। ये हुई न बात, इसको कहते हैं वक्ता के अंदाज़ में पूरा सभागार अहो, अहो हो उठा। नामवर सिंह ने युवा जैसे व्यापक शब्द को अजय नावरिया के पर्याय रूप में इस्तेमाल करते हुए व्यक्तिगत बना दिया, सभागार में बैठे युवाओं ने भी उसका अर्थ उतने ही व्यक्तिगत तौर पर लिया। नामवर सिंह की संगत और लगातार संगोष्ठी में आने-जानेवाली युवा पीढ़ी शायद बेहतर तरीके से समझती है कि किस शब्द के अर्थ को कितना फैलाकर या सिकोड़ कर समझना है। इसलिए यहां तक आते-आते नामवर सिंह की बात पर अगर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई तो ये मान लिया गया कि युवा के नाम पर नामवर सिंह ने जो फुफकार मारी है, उसका ज़हर सिर्फ अजय नावरिया पर चढ़ेगा, बाकी के युवा ताली पीटने के लिए पहले की तरह ही सलामत रहेंगे। युवा रचनाशीलता और नैतिक मूल्य विषय पर इससे अधिक बड़ा क्या मज़ाक हो सकता है कि हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा आलोचक ये तय कर दे कि मौजूदा युवा पीढ़ी को किस शब्द का अर्थ किस हद तक जाकर लेना है, कौन-से शब्द का अर्थ किस मुहाने पर ले जाकर छोड़ देना हैं और किस शब्द के अर्थ को गुठली और गूदे के रूप में लेना और छोड़ देना है। हिंदी समाज में व्यक्तिवादी सोच की इससे और अधिक पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि अगर देश का एक युवा कहते ही राहुल गांधी को पर्याय के तौर पर इस्तेमाल करता है, तो सबसे बड़ा आलोचक भी विरोध करने के नाम पर अपने-अपने राहुल जैसे मुहावरे का प्रयोग करने से अपने को रोक नहीं पाता।
नामवर सिंह अक्सर रचनाकर्म के पहले भाषा की तमीज होने और लाने की बाद करते हैं। आज के अलावा भी दो-तीन जगहों पर कहानीकारों और उपन्यासों को ये तमीज सीखने और न सीखने में झड़प लगा चुके हैं। वो हमेशा से इस एप्रोच के ख़िलाफ़ रहे हैं कि साहित्य में चालू किस्म के नारे नहीं लगाने चाहिए। नामवर सिंह की तर्ज पर मीडिया आलोचना करनेवालों की एक छोटी किंतु कर्कश जमात पैदा हो चुकी है, जो समय-असमय उसे लताड़ती रहती है कि वो भाषा के नाम पर बाज़ारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, वो बाज़ारूपन के शिकार हैं। नामवर सिंह और उनसे प्रभावित होकर आलोचना करनेवाले लोगों की बातों को अगर कोई सचमुच में सीरियसली ले रहा है, तो उसे तब तक कुछ नहीं लिखना चाहिए जब तक कि नामवर सिंह उसके लिए भाषाई तमीज और तालीम अख्तियार कर लेने का सर्टिफिकेट न जारी कर देते हों। अब आप इस बहस में मत जाइए कि जिसकी सधी भाषा नहीं है लेकिन व्यक्त करने की छटपटाहट बहुत ज्यादा है, इतना ज्यादा कि अगर लिखे नहीं तो मर जाएगा… तो वो क्या करेगा? बजाय इसके अब वो किस भाषापीठ से सिद्धहस्त होकर आये – इस मामले की तहकीकात शुरू कर दे।
बहुत संभव है कि अजय नावरिया ने हंस के जिस युवा विशेषांक का संपादन किया है, वो अधकचरे साहित्य और मीडिया वेस्टेज की रिसाइकिल करके कोई नई चीज़ पेश करने की कोशिश भर हो। ये भी संभव है कि नयी नज़र का नया नज़रिया जो अनुप्रास अलंकार के तौर पर भाषाई प्रयोग किया गया है, उससे नामवर सिंह को तकलीफ हुई हो। वैसे अंक देख कर एकबारगी तो ज़रूर लगता है कि साहित्य के नाम पर चश्मा गोला साबुन के विज्ञापन लिखने वाली भाषा की ज़रुरत क्यों पड़ गयी। नामवर सिंह को इस बात से भी तकलीफ हुई होगी जब अजय नावरिया 35 से 40 मिनट तक मासूम वजह बताते हुए लिखा हुआ पेपर पढ़ते जाते हैं, जिसे कि फारिग होने के लिए सभागार से बाहर आये लोग विमर्श के लिए तैयार की गयी कुंजी कह रहे थे, सारे कोटेशन्स को अंबेडर की एक ही कितबिया से चेंपा हुआ आइटम बता रहे थे। नामवर सिंह की नाराज़गी भी इस बात से साफ तौर पर रही कि अजय नावरिया ने जाति की तरह युवाओं की कई कैटगरी गिना दी, विशेषज्ञ होने का ये रवैया जितना हास्यास्पद था उतना ही छिछला भी। इन सबके बावजूद नामवर सिंह जैसे आलोचक का युवा, रचनाशीलता, नैतिक मूल्य और संभावना जैसे बड़े शब्दों और संदर्भों को अजय नावरिया, हंस पत्रिका, राजेंद्र यादव और अपने-अपने राहुल तक सीमित कर देना क्या भाषा को लेकर खेला जानेवाला एक खतरनाक खेल नहीं है?
हमें सिर्फ इस बात की जानकारी हो जाए कि किस तरह की भाषा बोलने से तालियां पिटवायी जा सकती है और हम उसी भाषा का प्रयोग करने लग जाएं तो क्या तालियों की वो आवाज़ अर्थ की ताक़त को भी मज़बूत कर रही होती है। अगर ऐसा है तो हिंदी साहित्य पढ़नेवाले हममें से हर किसी को रूटीन के तहत लाफ्टर चैलेंज शो देखना चाहिए।
भाषा, उसके प्रयोग की राजनीति और उसके अर्थ को निगल जाने की राजनीति को इसी संगोष्ठी में अरुंधति राय व्यापक स्तर पर उठाती हैं। अरुंधति का साफ मानना रहा कि स्टेट मशीनरी किस तरह से किसी शब्द के अर्थ को रिड्यूस करने का काम करती है। वो हमारे शब्दों को हमारे बीच से लेती है, उसका अपने तरीके से अर्थ देती है और फिर हम उस शब्द का सिर्फ वही अर्थ लेते हैं जिसे कि स्टेट मशीनरी तय कर देती है। हम विकास, न्याय और समानता जैसे शब्दों को रिप्लेस करते हैं। ऐसा करना ठीक उसी तरह से होता है जिस तरह से कि किसी जेनुसाइड के पहले ऐसा महौल बनाया जाता है कि जिसमें बीस-पच्चीस औऱ पचास लोगों के मरने, क़त्ल किये जाने को आम घटना मान लिया जाए। भाषा और उसके अर्थ इसी तरीके़ से ख़त्म किये जा रहे हैं।
ये वो समय है जब हमें अपनी भाषा को फिर से पाना होगा… दिस इज द टाइम टू रिक्लेम दि लैंग्वेज। हमें भाषा और विचार के बीच के गैप को ख़त्म करना होगा क्योंकि ऐसा नहीं किये जाने पर हम कुछ भी करने की स्थिति नहीं होगें। इसलिए सवाल बांग्ला, अंग्रेजी, हिंदी या फिर किसी दूसरी भाषा के प्रयोग से नहीं है, सवाल उस एप्रोच से है जहां हम कंटेंट के ओछेपन को ढोते हुए भाषा को बहुत ही बौना बना देते हैं। अरुंधति राय की भाषा की इसी समझदारी के बीच से रचनाशीलता और नैतिकता के मूल्यों के सवाल का जवाब मिलता है।
अब सवाल है कि इस पूरे प्रसंग से क्या ये समझा जा सकता है कि हिंदी समाज, उसके भीतर जीनेवाले लोग, नियम तय करनेवाले आचार्य जो दिन-रात बाजारवाद के ख़िलाफ़, विज्ञापन और नारे की भाषा के विरोध में बात करते आए हैं, वो काफी हद तक जाने और कई बार अनजाने उसी भाषा की सवारी करने लग गये हैं। स्टेट मशीनरी की तरह संभवतः वो भी शब्दों के अर्थ को रिप्लेस करने में जुटे हैं। शायद यही वजह है कि नैतिक मूल्य के नाम पर बहुत ही बारीक और महीन शब्दों के प्रयोग करने के बावजूद हिंदी के आचार्य उन अर्थों तक जाने से रह जाते हैं, जिसे कि अरुंधति सिर्फ एक लाइन में कि – now morality has become luxury that can’t afford – बोल कर विश्लेषित कर जाती हैं। इतना होने के बावजूद भी अगर सभागार से बाहर निकल कर लोग अरुंधति की बात पर चर्चा करने के बजाय हिला दिये नामवर जैसे हेडलाइन रचते हैं तो ये मान लिया जाए कि स्टेट मशीनरी की तरह नामचीन आलोचकों ने शब्दों के अर्थ को व्यक्तिवादी होते हुए रिप्लेस करने का काम किया है और दुर्भाग्य से जिसे पहचानने तक की ताकत युवाओं की एक बड़े जमात के बीच नहीं पैदा हो पायी है। क्या हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा आलोचक जिसे पढ़कर हम खुद को लगातार बेहतर करने की कोशिश में लगे रहे,उसका जिगर इतना छोटा है जो जवानी को मूल्य बताते हुए भी उसे इतना पर्सनल और व्यक्तिगत तौर पर विश्लेषित करता है?
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_03.html?showComment=1249278720550#c5739796025413927179'> 3 अगस्त 2009 को 11:22 am बजे
बेहतर होता नामवर सिंह ने क्या कहा था उसे पहले बताते और उसके बाद अपनी बात कहते। अच्छे संप्रेषण केलिए यह अनिवार्य शर्त है। आप मानकर चल रहे हैं कि आपके पाठक सभागार में बैठे थे और वे सब बातें जानते हैं। मेरी समझ में नहीं आता आपकी आपत्ति िकस बात पर है, क्या भाषा की हिन्दी में जिस तरह बदतमीजी चल रही है,गैरजिम्मेदाराना प्रयोग हो रहे हैं,अवधारणाओं को नष्ट किया जा रहा है,क्या उसके बारे में आगाह करना गलत है, क्या यह मान लिया जाए कि युवा लेखन पर आलोचनात्मक नजरिए से बातें नहीं हों , जिस तरह आपने अरूंधती राय की राय को पेश किया है वैसे ही नामवर सिंह की राय को भी पेश करते तो बेहतर होता,रही बात वाह-वाह की तो हमारे सुधीजन श्रोता किसी भी बात पर वाह वाह करने लगते हैं। वाह-वाह आलोचना नहीं है, उसी तरह अंतर्वस्तु छिपाकर नामवर सिंह की आलोचना भी अच्छा संप्रेषण नहीं है।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_03.html?showComment=1249279305878#c8968237976503771665'> 3 अगस्त 2009 को 11:31 am बजे
भाई लेख से अधिक मुझे तो आप शानदार लगे, आपके प्रोफाइल में मैं तो खो सा गया, बधाई
http://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_03.html?showComment=1249285271139#c3142427024153629698'> 3 अगस्त 2009 को 1:11 pm बजे
मैं इस कार्यक्रम से चूक गया, इसकी विस्तृत रिपोर्ट या कोई रिकॉर्डिंग है? यदि उपलब्ध करा दें तो अच्छा होगा। असली में वहाँ क्या-क्या कहा गया, यह जानने की इच्छा है।
- आनंद