हममें से अधिकांश लोग उस परिवेश से आते हैं जहां स्साला भर बोल देने से सामनेवाला कॉलर पकड़ लेता है,कई बार पटककर मारने पर उतारु हो जाता है। मां-बहन की गाली देने पर खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। मैंने खुद कई ऐसे मामले देखे हैं जिसमें एक शख्स ने दूसरे शख्स को मारकर सिर फाड़ दिया है,बुरी तरह लहूलुहान कर दिया है लेकिन भीड़ उस शख्स के प्रति हमदर्दी जताने के बजाय मारनेवाले का पक्ष लेती हैं क्योंकि उसने मां-बहन की गाली दी है। इस तरह हमारे संस्कार को देखने-परखने का एक तरीका ये भी है कि हम गाली देते हैं,नहीं देते हैं। गाली देने की स्थिति में हमारी सारी समझदारी एक तरफ,पढ़ा-लिखा आभिजात्यपन एक तरफ और गाली दूसरी तरफ। ऐसा मान लिया गया है कि जो सभ्य होगा,पढ़ा-लिखा होगा वो गाली नहीं देगा। पढ़-लिखकर कोई गाली देने जैसा गलीच काम नहीं कर सकता।
दूसरी तरफ दिल्ली में हमारा पाला समाज के जिस तबके से पड़ता है,दिन-रात हम जिनसे मिलते-जुलते और बात करते हैं वो पढ़ा-लिखा समाज है। आइएस-आइपीएस,एकेडमीशियन,रिसर्चर,पत्रकार और इसी तरह के पेशे के लोगों से हमारी बातचीत होती है। बाकी पब्लिक डोमेन में जिसमें की डीटीसी के बस कन्डक्टर से लेकर मदर डेयरी पर बैठे लोग तक शामिल हैं,उन्हें शायद ही कभी इस बात का एहसास होता हो कि वो एक वाक्य में कारक चिन्हों को छोड़कर बाकी के जो शब्द उच्चारते हैं वो गाली हैं। दीप्ति दुबे जो कि लोकसभा चैनल की संजीदा पत्रकार और मशहूर ब्लॉगर भी है ने इस पर बहुत ही बेहतरीन लिखा है। उन गालियों को कविता की शक्ल में देनेवाले लोगों की मानसिकता और प्रयोग को कुछ इस तरह लिखा है कि वो छंदबद्ध रचना लगती है। लेकिन पब्लिक डोमेन के इन लोगों के अलावे,पढ़ा-लिखा आभिजात्य समाज भी उन्हीं गालियों का इस्तेमाल धडल्ले से करता है। कोई स्त्री-विमर्श का पैरोकार बहन लगाकर गाली दे दे तो कोई अजूबा नहीं लगता। शिमला सेमिनार के दौरान फुर्सत में जब एक शख्स ने यही काम किया तो शीबा असलफ फहमी ने उस समय टोका था,वो महाशय भूल गए थे कि शीबा की बातों का समर्थन में कितनी जोरदार गाली दे दी थी। अब सवाल ये है कि क्या समाज के इस पढ़े-लिखे क्रीमी समाज को इस बात का एहसास होता है कि जो वो बक रहे हैं,वो गाली है? और अगर हां तो फिर गाली देना बदस्तूर क्यों जारी है?
मेरी परवरिश जिस तरह से हुई है वो एक औसत दर्जे के झारखंडी-बिहारी परिवार से अलग नहीं है। हम पर भी वो तमाम बंदिशें जिसे की मूल्य,संस्कार और परंपरा का हवाला देकर थोपे गए। वहीं हमें बताया गया कि स्साला कितनी गंदी गाली होती है। गाली देनेवाले लौंडों से हमें दूर रखा गया। बाद में हमारी तारीफ में घर के लोग कहा करते कि-मजाल है कि इसके मुंह से स्साला शब्द भी निकले। घर के लोग बहुत खुश होते लेकिन घर के बाहर के कुछ लोगों का कहना था कि आपने शरीफ बनाने के नाम पर इसे छौडी( लड़की) बना दिया है। दू-चार गाली देगा नहीं तो जिएगा कैसे? उस समय तो मेरा काम चल गया,बिना किसी तरह की गाली दिए मैट्रिक तक अच्छे नंबरों से पास हो गया। हां यहां ये फिर से दोहराना जरुरी है कि गांड़ शब्द को लेकर हमें कभी एहसास नहीं हुआ कि ये गाली है इसलिए मैंने अनुराग कश्यप की पोस्ट पर इसे लेकर कमेंट भी किया।
लेकिन दिल्ली की आवोहवा में पता नहीं ऐसा क्या है कि बिना गाली के काम नहीं चलता। हम चाहते न चाहते हुए भी दिनभर में दस बार गाली तो दे ही देते हैं। घर से बाहर निकलने पर ये संख्या औऱ बढ़ जाती है। हम स्त्री अधिकारों,उनकी अस्मिता और सम्मान को लेकर संवेदनशील होते हैं लेकिन कार्पेट एरिया के भीतर घर में,कमरे में ही निर्जीव चीजों को लेकर गालियां बकते हैं। भोसड़ी के ये मोबाईल चार्जर कहां चला गया, मादरचो..ये कूलर का पंप बार-बार आजकल बंद हो जा रहा है। दिल्ली में रहते हुए ये गालियां इतनी कॉमन लगती है,हम इसका इस्तेमाल इतनी सहजता से करते हैं कि कई बार बहुत ज्यादा गुस्सा आने पर,किसी से बहुत अधिक नफरत होने पर हमारे पास गालियों का टोटा पड़ जाता है। मां की,बहन की,उसे थोड़ा इधर-उधर करके गालियां तो दे देते हैं लेकिन भीतर से लगता है कि न इसका कुछ असर ही नहीं हुआ। कई बार तो मैंने लोगों के मुंह पर तथाकथित गंदी गालियां दी है लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं बने-बदले। उन्होंने कभी कॉलर नहीं पकड़ा,कभी खून-खराबा की नौबत नहीं आयी।..सारी की सारी गालियां बेअसर लगने लगती है। लेकिन वही जब हम रांची की ट्रेन पर बैठते हैं शिवाजी ब्रीज क्रॉस करते हैं तो लगता है कि हम कितनी गालियां बकते हैं,तमाम तरह के खुलेपन के वाबजूद,घर में पूरी तरह दोस्ताना महौल होने पर भी धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं मां या भाभी के सामने मुंह से गाली न निकल जाए। ये चौबीस घंटे की जर्नी का असर कहिए या फिर दिल्ली से दूरी कि सच में घर में कदम रखते ही,शू रैक से ठोकर भी लग जाए तो मां-बहन क्या मुंह से स्साला तक नहीं निकलता।
लड़्कियां भी देती हैं मादरचो..की गालियां,तू किसके साथ() करती है,नोएडा फिल्म सीटी में मीडिया की लड़कियां देती हैं धडल्ले से गालियां,हमारा साहित्य भी मादर,बहनचो..को लेकर अभ्यस्त हो चला है और चैनलों में गाली को लेकर एक खास किस्म की भाषा विकसित हो रही है।..ये सब पढ़िए अगली पोस्ट में..
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279006857720#c6982629146177902138'> 13 जुलाई 2010 को 1:10 pm बजे
क्या बात केवल दिल्ली की है? खैर, मैं दिल्ली तो नहीं गया हूँ कभी इसलिए कह नहीं सकता लेकिन सुना है कि वहाँ गालियों का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है. मेरा एक चचेरा भाई नोएडा में पढ़ता है. पिछले हफ्ते ही मिलने आया था. वह बता रहा था कि कैसे दिल्ली स्टेशन पर एक रेलवे क्लर्क ने उसे केवल इसलिए गाली दे दी क्योंकि उसके हाथ में रिजर्वेशन के दो फार्म थे. न ही गाली देने और न ही सुनने के आदी मेरे भाई ने वहाँ मारपीट कर ली. आपकी पोस्ट अच्छी लगी. अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा. शायद कुछ वजहों के बारे में पता चले.
हो सकता है आनेवाले समय में 'दिल्ली में गालियों का आम प्रचलन' जैसे विषय पर कोई पी एचडी कर डाले...:-)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279008495581#c7992040628592928090'> 13 जुलाई 2010 को 1:38 pm बजे
अब समस्या दूसरी है .....पहले सिर्फ लड़के इस्तेमाल थे ....अब लडकिया भी.एम् टी वि के रोडिएस में गलिया देकर फेशन स्टेटमेंट बना रही है .......फक ओर आस होल .तो अंग्रेजी में कोमन था ही.पर देसी गलिया..... ओर इस देश की नेश्गल गाली तो आपको हर प्रान्त में मिल जायेगी.....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279018571090#c351711106357785883'> 13 जुलाई 2010 को 4:26 pm बजे
गालिया अब स्टेटस सिम्बल बन गयी है.. जो जितनी देगा वो उतना ही बड़ा..
टीवी चैनलों की बात मैं भी करने वाला था पर आपने लिख ही दिया कि अगली पोस्ट में वही पढवायेंगे.. दीप्ती की जिस पोस्ट के बारे में आप कह रहे है शायद वो ये है.. उस समय कुछ लोगो ने तीखी प्रतिक्रियाये भी दी थी.. मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ वे लोग भी गालिया बोलते होंगे..
लडकिया भी गाली बोलने लग गयी है जैसी बात मुझे खास इम्प्रेस नहीं करती.. दरअसल सारा समाज ही गालिया दे रहा है.. और उसमे लडकिया भी है.. लड़के भी है.. बच्चे भी है.. जवान भी है बूढ़े भी है.. अंग्रेजी गालिया तो स्लैंग्स बन गयी है.. जब मैं जयपुर के व्यस्तम चौराहे पर खडी कार को लगभग कट देते हुए गुज़रा.. तो कार के ड्राईवर ने खिड़की से मेरी तरफ अपनी फिंगर दिखा दी... हम दोनों ही मुस्कुरा दिए.. देखिये गालिया अब मुस्कुराहटो का कारण ही बन रही है..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279044880953#c4723302501063257161'> 13 जुलाई 2010 को 11:44 pm बजे
यकीन मानो विनीत, कल अगर मेरी जबान से गाली सुनो तो यही समझना कि मैं सोच समझ कर गाली दे रहा हूँ.. मैं अमूमन ना तो गाली देना पसंद करता हूँ और ना ही सुनना.. कई दफे सुन कर रिएक्ट नहीं करता हूँ तो उसकी अपनी मजबूरी होती है.. मैं अभी भी एक महानगर में उसी कसबे के भीतर जी रहा हूँ जिसके बारे में तुमने लिखा है "हममें से अधिकांश लोग उस परिवेश से आते हैं जहां स्साला भर बोल देने से सामनेवाला कॉलर पकड़ लेता है,कई बार पटककर मारने पर उतारु हो जाता है। मां-बहन की गाली देने पर खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है।"
एक मजेदार वाकया सुनाता हूँ, "एक दफे एक भाई साहब फेसबुक पर मुझे माँ कि गाली दे बैठे, बहस करना उनके बस कि बात नहीं थी.. सुनकर मैंने उनसे सिर्फ इतना ही पूछा कि क्या आप भी उसी घर से आते हैं जहाँ बाप अपने बेटे को भैन*** कि गाली देता है.. बस सुनकर आग बबूला हो उठे.. बाद में मैंने उन्हें कहा कि आप जो कुछ भी लिख कर डिलीट कर रहे हैं, वो उन सभी के इनबाक्स में मेल की रूप में जा रहा होगा और आपकी औकात सभी को बता रहा होगा.. सुनकर भाग लिए वहां से.." :) वो भाई साहब आपके भी फ्रेंड लिस्ट में हैं.. ;)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279047023210#c2839539225672115257'> 14 जुलाई 2010 को 12:20 am बजे
नपुंसक मानसिकता की उपज है यह सब . इसीलिये कहा जाता है दिल्ली में कल्चर नहीं वल्चर है . दुख तो इस बात का है की जो सभ्रांत परिवारों से यहाँ लोग पहुँचे वो भी इस धारा मैं बह गए.
अगर गलियों का शास्त्र ही लिखना है तो भोपाल और लखनऊ पर भी नजर डालिये
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279096247059#c699944954494001450'> 14 जुलाई 2010 को 2:00 pm बजे
धन्यवाद् एक और मजेदार चर्चा के लिए,
यहाँ एक बात मैं और जोड़ना चाहता हूँ कई बार इन गालियों में भी प्यार टपकता है, दिल्ली, यहाँ आपस में दोस्तों के बाच आम बोलचाल की भाषा में अबे गांडू साले से लेकर बहन के लौंडे प्यार टपकाती है. और तो और अब लड़कियां भी दोस्तों के बीच गाली-गलौच की भाषा में ही बात करती हैं.
कुछ भी हो जहाँ ये गालियाँ मार-पिटाई के लिए मशहूर हैं वहीं दूसरी ओर दोस्ती की गप्पबाजी में चार चाँद भी लगाती हैं.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279124587027#c4023289956592986378'> 14 जुलाई 2010 को 9:53 pm बजे
मेरे विचार में सभी बलॉगर बंधुओं को अपनी टिप्पणी में भी भद्दी गालिओं के प्रयोग के लोभ से बचना चाहिए ! सिर्फ़ सांकेतिक उपयोग ही उपयुक्त रहे गा .... गालियों का पूर्ण रूप लगभग सभी लोग जानते ही होंगे
http://taanabaana.blogspot.com/2010/07/blog-post_5634.html?showComment=1279249984029#c7095426260504969930'> 16 जुलाई 2010 को 8:43 am बजे
आगे की पोस्ट का इंतजार अभी से।
गालियां समाज की अभिव्यक्ति का हिस्सा हैं। शायद ऐसा हिस्सा जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।
मुझे इस बात का सदा से कौतूहल रहा है कि गालियां कैसे शुरू हुई होंगी अपने समाज में। कैसे अधिकतर गालियां स्त्रियों की मानहानि सी करते अंदाज में गढ़ीं गयीं। इस पर मैंने एक लेख भी लिखा था कभी- गालियों का सामाजिक महत्व।
सभ्य समाज में भदेस गालियां वर्जित सी मानी जाती हैं। साहित्य में राही मासूज रजा के पात्र तो धड़ल्ले से गालियां देते रहे। बाकी लोग इशारों से काम चलाते रहे। अब काफ़ी खुलापन आया है लिखा पढ़ी है।
रवीन्द्र कालिया के उपन्यास खुदा सही सलामत है की पात्र हजरी बी गालियों वाले शब्द उल्टे करके बोलती हैं- तुम्हारी नेतागिरी तुम्हारी ही डॉंग में घुसेड़ दूंगी।
अगले लेख का इंतजार है।