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मिहिर की तरफ से एक गाना सुनने की सलाह और शाहरुख खान की एक बाइट ने मुझे संस्मरणों में मां के बजाय पापा को याद करने पर मजबूर किया। ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस बाप ने मुझे पैदा करने से लेकर अपने नाप के जूते पहनने तक बड़ा किया उसकी याद इस शहर में रहकर नहीं आती है। सिनेमा हो या फिर मेरे अपने संस्मरण-मां की इतनी यादें इतनी हावी रहती है कि पापा को याद करने का मौका ही नहीं मिलता। उदास होने पर,खुश होने पर,कुछ हासिल होने पर,भावुक होने पर,दीवाली आने पर और यहां तक कि मदर्स डे पर सिर्फ और सिर्फ मां की याद आती है,पापा की नहीं। मैं सोच-सोचकर परेशान रहता हूं कि मां और पापा की याद साथ-साथ क्यों नहीं आती? साथ न आए तो न आए अकेले फादर्स डे पर तक वो याद क्यों नहीं आते? मेरा एक दोस्त है जिसके पापा को मैं अनुपम खेर कहता हूं जिन्होंने उसके प्यार के लिए हॉकी स्टिक से मार तक किया,वो कहता है- ये तुम्हारे वेहया होने की निशानी है। उसे मां के मुकाबले पापा की याद ज्यादा याद आती है। किताबें खरीदते वक्त,बुशर्ट खरीदते वक्त,लड़कियों पर बात करते वक्त,क्लासिकल सिनेमा पर बात करते वक्त। अबकी बार अगर मिले तो उसके आगे पैरोडी गाउंगा शायद- पापा-पापा क्यों करते हो,पापा पे क्यों मरते हो,इतना तो मुझे बतला दे तू,पापा को कैसे याद करते हो?

अगर मैं सपाट शब्दों में कह दूं कि मुझे सचमुच पापा की याद नहीं आती तो झूठा करार दिया जाउंगा। जिस घर में हर मोर्चे पर पापा मौजूद रहे,उनकी याद भला कैसे नहीं आ सकती है? मुझे थोड़ा साहित्यिक मिजाज के हो जाने की छूट दीजिए तब मैं एक ही लाइन कहूंगा- पता नहीं क्यों पापा को जब भी याद करता हूं तो मुझे अपने जीवन का कृष्ण पक्ष याद आता है,शुक्ल पक्ष याद ही नहीं आता। खुशी के मौके पर भी वो याद आते हैं तो मामला कृष्ण पक्ष का ही याद हो आता है। मसलन दीवाली के दिन मुझे मोटरसाइकिल पर बिठाकर घुमाते पापा याद नहीं आते,हाथ से पटाखे छीनते पापा याद आते हैं। सिनेमा देखते वक्त साथ में ले जाकर अंजता सिनेमा(बिहारशरीफ)में गोद में बिठाकर पापड़ खिलाते पापा याद नहीं आते,बल्कि साईकिल के मडगार्ड में 'खुदा गवाह' की बरसाती लगाने पर अंधाधुन पीटते पापा याद आते हैं। कडकड़ाती ठंड में मां से छुपाकर अंडे खिलाते और बाद में कुल्ला कराते पापा याद नहीं आते बल्कि स्वेटर न पहनने पर-लाओ इसके सारे स्वेटर,मफलर चूल्हे में झोंक देते है,कहते पापा याद आते हैं। बालों में तेल लगाना ही छोड़ दिया क्योंकि तेल की खुशबू से ज्यादा जल्दी में शीशी का ढक्कन खुला छोड़ने पर पापा के थप्पड़ याद हो आते हैं। बाइक बहुत अच्छी चलानी आती है,दिल्ली में पटेल सर की बाइक को खूब पेरा है(बेरहमी से इस्तेमाल किया है) लेकिन कभी खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। क्लास टेन्थ तक तो खुले तौर पर साईकिल तक नहीं चलाने दी कि सीना कमजोर हो जाएगा और चलाता तो अक्सर पीछे से कहा करते- बाय में चलाओगे तो धक्का लग जाएगा। यकीन मानिए,थोड़ी दूर जाने पर मैं दीवार से टकरा जाता। मेरा दोस्त हता है- वयं रक्षामं तो मेरे पापा ने पढ़ने को दिया था मुझे। पटना से वो परसाई रचनावली लेकर आए थे। मैं बस इतना कहता कि पापा रेणु,प्रेमचंद,नागर के उपन्यासों को पढञते देख भड़क जाते। मुझे पढ़ने के मामले में कभी भी उनकी तरफ का हौसला याद आने के बजाय रांची जाने के लिए पैर छूने और उनके मुंह फेर लेने की घटना याद आती है।..तो इस तरह से क्या नहीं याद आता है पापा को लेकर।..और वो जूतेवाला मामला भी तो। पिछली बार जब मैं वूडलैंड के शोरुम से अपनी जिंदगी के सबसे मंहगे जूते औj वो भी अपनी कमाई से खरीदने के बाद बाहर निकलकर चहकर रहा था। मेरे साथ के दोस्त ने स्कूली जीवन के जूते की याद दिला दी। तब मुझे फिर पापा याद आए कि कैसे दो दिन पहन लेने के बाद पापा ने बाटा के जूते के तलबे को मिट्टी तेल से साफ कराकर वापस करा दिया था। दूकानदार जान-पहचान का था इसलिए वापस ले लिया लेकिन इतना जरुर कहा कि ऐसे वापस थोड़े ही होता है। मुझे भी क्या पता कि ये जूते किसी और बच्चे के पैर को नसीब होगें। बाटा के पहनने के पीछे एक ही तमन्ना थी कि जो दो-तीन कमीने मेरे दोस्त हैं उन्हें पीछे से टिकाकर पत्थर के ठोकर मारुंगा,सो कुछ प्रैक्टिस कर ली। बाद में रामदास को पापा के साथ जाकर नाप दिया और 11 दिनों के इंतजार के बाद( मां के शब्दों में 11 दिनों तक आंख चीरने पर)वो जूता बनकर आया। ये सब याद करते हुए वूडलैंड के जूते की सारी खुशी हवा हो जाती है। अब जब भी पापा पूछते हैं कि घड़ी कितने में ली,जूता बहुत अच्छा है,कितने में लिया- मैं औसत से ज्यादा उंची आवाज करके बताता हूं- इतने में लिया। मां चिढ़कर कहती है- सबको दुनिया के लोग से कम्पटीशन है,इसको सबसे ज्यादा अपने बाप से ही कम्पटीशन रहता है।..तो देखिए न,कहां-कहां पापा याद नहीं आते। लेकिन फिर वही बात हर बार वो कृष्ण पक्ष की तरह याद आते हैं और मैं हूं कि हमेशा संस्मरण की दुनिया में शुक्ल पक्ष की तरह भागा-भागा फिरता हूं। लेकिन दोबारा कहूं तो मिहिर के इस गाने को सुनने की सलाह और शाहरुख की उस बाइट ने मुझे पापा के संस्मरणों में शुक्ल पक्ष तलाशने के लिए बेचैन कर दिया।

इस्किया फिल्म का ये गाना जिसकी लाइनें कुछ इस तरह से है-

ऐसी उलझी नजर उनसे हटती नहीं
दांत से रेशमी डोर कटती नहीं
उम्र कबकी बरस के सुफेद हो गयी
कारी बदरी जवानी की छंटती नहीं
......................
डर लगता है तन्हा सोने में जी
दिल तो बच्चा है जी,दिल तो बच्चा है जी
थोड़ा कच्चा है जी,दिल तो बच्चा है जी।

......................
दिल सा कोई कमीना नहीं
डर लगता है इश्क करने में जी
दिल तो बच्चा है जी।..


राहत फतेह अली खान के गाए इस गाने में पापा को लेकर कोई प्रसंग नहीं है। कोई एक शब्द और भाव नहीं। लेकिन पता नहीं क्यों इस गाने को सुनते हुए मैं महसूस करता हूं कि अगर देशभर के बाप को जमा करके बच्चे प्रार्थना-सभा में गाए जानेवाले गीत की जगह इस गाने को गाएंगे तो सारे बाप इमोशनल हो जाएंगे। प्यार,अफेयर,फ्लक्चुएशन,प्लेटॉनिक प्यार,इन सबमें चोट खाए एहसासों को झट से समझ जाएंगे। तुरंत अपना कंधा आगे कर देंगे। बहरहाल
इस गाने को सुनकर अब पापा के संस्मरण का शुक्ल पक्ष याद करता हूं। इंटरमीडिएट की परीक्षा हमने दे दी थी। कोई खास काम नहीं था। नानीघर से भी हो आए थे। तड़के उठने की आदत अभी भी बनी हुई थी लेकिन उठकर करें क्या,समझ नहीं आता। तब हमने बहुत ही धीमी आवाज में सेटमैक्स पर आनेवाली पुरानी फिल्में देख शुरु की। पापा दूसरे कमरे में होते लेकिन उन्हें आभास होने लगा था कि मैं सुबह तीन-चार बजे टीवी देखता हूं। सीडी डिस्क या फिर वीडियो का इंतजाम नहीं था इसलिए पापा निश्चिंत थे कि कुछ गंदा नहीं देखता होगा। एक बार आकर देखा तो गाइड फिल्म आ रही थी। वो भी बैठक देखने लगे। फिर अगले दिन तीसरी कसम...और फिर बाप-बेटे के फिल्म देखने का सिलसिला चल निकला। मां बहुत खुश होती उन दिनों कि चलों ठीक जम रहा है। पापा अपने जमाने के प्रसंग सुनाने लगे। सुरैया,नरगिस,मधुबाला का नाम लेने के बाद मैं पापा का चेहरा गौर से देखता..एक अजीब सी कसक। आज तो हम विपासा,कैटरीना,करीना का नाम लेकर कुछ भी फील नहीं करते। बहुत हुआ तो शी शी शी और बड़ी हॉट है बोलकर चुप मार जाते हैं। हीरोईनों को सम्मान के साथ उसका दीवाना हो जाने का भाव मैंने पापा के चेहरे पर अक्सर पढ़ा। तभी मैंने महसूस किया कि पापा के भीतर भी एक दूसरे किस्म की धारा बहती है जो उनके चट्टानी स्वभाव से अलग है। जीवन में पहली बार मुझे पापा से ज्यादा दोस्त लगे। ये अलग बात है कि तीन साल पहले से ही उनका बाटा सैंडक पहनता आ रहा था। दिल तो बच्चा है जी को सुनते हु्ए मुझे पापा के जमाने के गाने और फिल्में ज्यादा याद आते हैं। एफ एम के मुहावरे में कहूं तो आपके जमाने में बाप के जमाने के गाने याद आ जाएंगे,इसे आप सुनिए जरुर। मिहिर ने भी फेसबुक पर कमेंट देते हुए लिखा है कि-इस गाने को सुनकर तो राजकपूर के ज़माने याद हो आए!

शाहरुख खान ने अपनी बाइट में कहा कि अमिताभजी का मैं सम्मान करता हूं। अमिताभजी ने पिछले तीस साल में जो नहीं था वो फिल्म इन्डस्ट्री को दिया। उन्होंने हमें "पा" दिया,बाप दिया। शाहरुख खान की बाइट सुनकर मुझे अपहरण के उस प्रोफेसर बाप का ध्यान आता है जो ये जानते हुए भी मेरा बेटा अपहरण के धंधे में लग गया है। खुलेआम घो।णा करता है कि अब वो मेरा बेटा रहा कहां लेकिन सोए हुए उसी बेटे को चादर ओढ़ाता है। ऐसे बाप के कई प्रसंग हिन्दी सिनेमा में हैं। चादर ओढ़ाते हुए,अपने हिस्से की रोटी खिलाते हुए,बेटे को नहलाते हुए। मैं उन सारे सिनेमा के प्रसंगों को याद करना चाहता हूं। बाप-बेटे के सारे शॉट्स को खोजना चाहता हूं।..इस लोभ से नहीं कि कोई लेख लिखना है बल्कि उन एहसासों से गुजरने के लिए कि मां के साथ पापा का याद आना जरुरी है।..फिलहाल तो मन कर रहा है- इस्किया की सीडी या डीवीडी खरीदूं,लिफाफे में बंद करुं और उस पर लिखकर- पापा तुस्सी ग्रेट हो उनके पते पर स्पीड पोस्ट कर दूं।..
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19 Response to 'ISHQIYA का गाना- दिल तो बच्चा है जी और पापा का शुक्ल पक्ष'
  1. नीलिमा सुखीजा अरोड़ा
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262852406100#c1227366507121596690'> 7 जनवरी 2010 को 1:50 pm बजे

    विनीत कभी कभी बहुत इमोसनल कर देते हो, दिल तो बच्चा है जी, और दिल के बच्चा बना रहने में ही हम सब इंसान बने रहते हैं। बेटी होने के नाते अपने पापा के सबसे करीब रही हूं इसलिए शायद ये भी जानती हूं कि हम ही हैं जो सबसे करीब होकर उन्हें सबसे ज्यादा दुख दे सकते हैं। खैर पढा कर काहे इमोशनल कर दिया

     

  2. अवनीश मिश्रा
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262855902319#c3522227478894136769'> 7 जनवरी 2010 को 2:48 pm बजे

    यादों का एक सिलसिला ही खुल गया है तुम्हारे लिखे को पढ़कर .चार साल से ज्यादा हो गए अब ना पापा हैं, ना पापा के जूते ना उनका साथ. उनका टेलीफोन नंबर .जो उनके जाने के बाद मैं सालों तक मिटाने की हिम्मत नहीं कर पाया..वो भी फ़ोन के साथ गुम हो गया है..यादें साथ हैं..बहुत सारे प्रसंग हैं, बहुत सारे किस्से ..,तुम्हारे अनुभवों से काफी अलग..हाँ उन अनुभवों के बीच पापा तुस्सी ग्रेट हो का भाव जरूर साथ है...अच्छी पोस्ट है. मैं तो मानता हु ,मीडिया लोगों को या तो संवेदनहीन बना रही है या जरूरत से ज्यादा ,लिजलिजेपन की हद को छूती हुई भावुकता भर रही है..दिन रात टी वी देख कर कोई संवेदनशील बना रह सकता है..ये तुमको पढ़ कर जान रहा हूँ...

     

  3. कृष्ण मुरारी प्रसाद
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262857264821#c5849514522844154039'> 7 जनवरी 2010 को 3:11 pm बजे

    Vinit,you are a wonderful combination of a childish and a matured mind at the same time.In modern world, it is a rare combination.Keep your BACHPAN alive. It will be a great asset for you. It will keep you sensitive. Your posts are really touching to everyone. Your MAMU-Krishna Murari.

     

  4. prabhat gopal
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262865991530#c5562667374109349191'> 7 जनवरी 2010 को 5:36 pm बजे

    एक बात कहें, पापा-मां दोनों जीवन के दो पहलू हैं। पिताजी की कड़ाई अनुशासन की डोर में बांधती है, तो मां की ममता और स्नेह कोमल भवनाओं की रक्षा करती है। अंत में लेख में पापा के दोस्त बन जाने की बात भी असर डालती है। बेहतरीन लेख। इससे लगता है कि विनीत अब बड़ा हो गय है। डॉक्टर विनीत अब परिपक्वता की सीमा पर पहुंच चुका है।

     

  5. अफ़लातून
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262877068223#c6505164965764510984'> 7 जनवरी 2010 को 8:41 pm बजे

    गाना यहाँ सुनिए

     

  6. Sheeba Aslam Fehmi
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262886249251#c631918803286227807'> 7 जनवरी 2010 को 11:14 pm बजे

    बॉस हर बार आपको पढ़ कर लिखने की लगभग क़सम खाते हैं , लेकिन जब तक लिखें आप अगला वार कर चुके होते हैं. अजीब चूहे - बिल्ली का खेल चल रहा है ! ख़ैर ज्यादह अच्छी बात यह है की आपकी लेखनी से ये साबित होता है की पढ़ने लायक़ सिर्फ सनसनी नहीं, सेक्स नहीं, विवाद नहीं, बल्कि ज़िन्दिगी और वोह भी 'आम ज़िन्दिगी' है जहाँ ज़रा - ज़रा सब कुछ है और हर एक के साथ है.

     

  7. अर्कजेश Arkjesh
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262888086313#c6560391377738093741'> 7 जनवरी 2010 को 11:44 pm बजे

    क्‍या कहने अंदाजें बयां के ......सायकल की मडगाड पर खुदा गवाह की बरसाती...क्‍या बात है ....
    आपकी लेखनी निरंतर साबित कर रही है कि हकीकत को , आम जिंदगी को .... किस हद तक पठनीय बनाकर लिखा जा सकता है ....

     

  8. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262927000158#c8360931065576654587'> 8 जनवरी 2010 को 10:33 am बजे

    बेहतरीन लेख। ऐसे लेख बहुत पढ़े आजतक। सुन्दर। शानदार।

     

  9. Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262928791474#c5753805937347003876'> 8 जनवरी 2010 को 11:03 am बजे

    इमोशनल अत्याचार कर दिए आप। इस ठंड में बाबूजी की याद आ गई। ऑफिस में काम को थोड़ा विश्राम देकर आपको पढ़ा तो अंदर से गर्मी का अहसास हुआ। लेकिन फिर आपकी ही बात कि शुक्ल पक्ष के बदले कृष्ण पक्ष की याद आ रही है। एक अनुशासन (मैं इसे अनुशासन नहीं मानता)के नाम पर जो व्यवहार बाबूजी अपनापन को समेटे लुटाते थे वो ही केवल याद रहा जाता है बांकि सब पीछे छूट जाता है। याद रह जाती है तो केवल मां.....।

    गीत के बहाने संबंधों पर विमर्श करना फायदेमंद साबित होता है, ऐसा मेरा मानना है। क्योकि तभी हम कह पाते हैं- (खुलकर)डर लगता है तन्हा सोने में जी
    दिल तो बच्चा है जी,दिल तो बच्चा है जी..।

    मैं इस पोस्ट को भावुकता का चोकोबार कहना चाहूंगा, क्योंकि जब खाओ तो दांत ठंड से किटकिटाता रहता है और जब खत्म हो जाता है तो आइसक्रिम के डंटल को लिए उसकी याद में खो जाते हैं। बेहतरीन पोस्ट।

     

  10. अविनाश वाचस्पति
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262929042874#c2802456627270458907'> 8 जनवरी 2010 को 11:07 am बजे

    आपके बनने के पीछे आपके पिताजी ही हैं। सबके बनने के पीछे पिताजी ही होते हैं। यह सनातन सच्‍चाई है। सब जानते हैं पर कुछ मानते हैं और कुछ नहीं। पर मानना चाहिये।
    अच्‍छा लिखा है विनीत ने। इस पर और भी बहुत कुछ नहीं, अपितु सब कुछ लिखना चाहिये।

     

  11. वन्दना अवस्थी दुबे
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262939838273#c7001013817857414253'> 8 जनवरी 2010 को 2:07 pm बजे

    पापा पर लिखा है, तो उनकी याद आयेगी ही. मैं भी अपने पापा की दुलारी बेटी हूं, लेकिन उन्होंने कभी इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया. असल में मां और पिता के प्यार में एक यही सबसे बडा फ़र्क है, कि मां अपनी चिन्तायें, अपना प्यार बोल के व्यक्त कर देती है जबकि पिता अपने इन्हीं भावों को व्यक्त नहीं करते. मां के लाड-प्यार में बच्चे बिगड न जायें, इस चिन्ता के चलते ज़ाहिरा तौर पर कडाई भी बरतते ही हैं. वैसे मुझे लगता है, कि बेटियां अपने पिता से ज़्यादा खुली होती हैं. पिता उन्हें उस तरह डांटते भी नहीं जैसे,बेटों को डांटते हैं.
    खैर प्यार पिता भी उतना ही करते हैं जितना मां.

     

  12. Rangnath Singh
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1262976914969#c8458831610916435142'> 9 जनवरी 2010 को 12:25 am बजे

    पिता को लड़कियों के खाते में डाल दिया जाता है।

     

  13. मधुकर राजपूत
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1263018500810#c2798976069368465018'> 9 जनवरी 2010 को 11:58 am बजे

    विनीत, रवीश के ब्लॉग पर आपके कमेंट तो पढ़ता रहा हूं, लेकिन कभी आपके लिंक पर एक चटका नहीं मारा। आज गिरींद्र नाथ झा ने फेसबुक पर आपकी पोस्ट को भावुकता का चोकोबार कहा तो आपके लिंक पर क्लिक कर दिया। आपको पढ़कर मज़ा आया और पहले आपके अड्डे पर ना आने के लिए अफसोस भी हुआ। बहुत निजी अनुभव लिखे हैं आपने लेकिन फिर भी सर्वविदित हैं और सबकी ज़िंदगी के लिए जाने-पहचाने। आपके ब्लॉग का एड्रेस याद रहेगा और मैं चक्कर लगाता रहूंगा।

     

  14. Unknown
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1263055683506#c5950132851224744996'> 9 जनवरी 2010 को 10:18 pm बजे

    bahut khub..!!
    kaafi abehtarin lekh aapne likha....
    mera papa k sath jo rishta hai kaafi rochak n achha hai...yahan tak ki unse ab mai jyaada baaten karne lag gaya hun n wo v krishna paksha ki....haan itna jaroor mai mahsus karta hun ki mummy ka ab mai jyada care karne lag gaya hun....ab mai samay-2 par pa n ma k liye kuchh kharidte v rahta hun....
    ISHQIYA ka gana to mujhe kaafi pasand hai n mai ye film v jaroor dekhunga.....

     

  15. ghughutibasuti
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1263060898381#c8569768981154429081'> 9 जनवरी 2010 को 11:44 pm बजे

    आपने तो कुछ चौंका सा दिया। मुझे लगता है कि पिता के ही हिस्से सारा अनुशासन थोपने का रिवाज पिता के साथ अन्याय है। समाज के साथ साथ माताओं की भूमिका भी इस स्थिति को बनाने के लिए उत्तरदायी है। मेरे अनुसार तो माता पिता में से जिसके पास समय कम हो वह लाड़ ही अधिक करे, जिसके पास अधिक हो वह अनुशासित भी करे और ढेरों ढेर लाड़ भी करे।
    बहुत प्यारी सी पोस्ट है किन्तु उदास भी कर देती है। अपना व अपने बच्चों का बचपन याद आ गया।
    घुघूती बासूती

     

  16. Udan Tashtari
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1263063100957#c404913841916738020'> 10 जनवरी 2010 को 12:21 am बजे

    आपका लेखन प्रभावित करता है, हर बार पिछली बार से ज्यादा..शानदार!!

     

  17. anjule shyam
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1263989890790#c3776874294902911271'> 20 जनवरी 2010 को 5:48 pm बजे

    jahapnah tussi great ho............
    ise padke to mujhe apne bachpan ke hitlari niyam kanuno wale papa yaad aaye........kunki ab to wo bahut rahum dil insan ho chuke hain.....
    anjule shyam maurya.......

     

  18. कुश
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1276764644557#c2584427418491553045'> 17 जून 2010 को 2:20 pm बजे

    इमोशनल कर दिया आपने.. मम्मी के मोबाईल पर जब कॉल करता हूँ तो कभी कभार पापा उठा लेते है.. मैं सिर्फ इतना पूछता हूँ.. मम्मी कहाँ है ? और कभी मम्मी का फोन नहीं मिले तो पापा के मोबाईल पर कॉल कर देता हूँ.. पापा फोन उठाकर मम्मी को दे देते है.. हम लोगो में बाते क्यों नहीं होती..? ऐसा नहीं है कि मैं उनसे बात करना नहीं चाहता..पर सोचता हूँ क्या बात करूँगा... ?

     

  19. मयंक
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_07.html?showComment=1277236843901#c6035779303720093607'> 23 जून 2010 को 1:30 am बजे

    मैं इस पर कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहता था....कुछ अजब ही परिस्थितियों के चलते खुद पापा के लिए कुछ भी नहीं लिख पाया....उनको फोन कर के शुभाकामनाएं भी नहीं दीं...लगा कि साल भर दोनो में संवाद नहीं होता कभी ठीक से....एक दिन क्या बधाई....
    टिप्पणी इस लिए नहीं करना चाहता था कि पोस्ट निःशब्द कर देने वाली थी....पर लिखूंगा....मन की बात तो निकालनी है....
    हाल ही में नौकरी छोड़ दी...जब छोड़ी तो पापा बोले जो सही लग रहा है वही करो....अब परेशान हैं कि नई नौकरी कब मिलेगी....सीधे कुछ नहीं कहते....मीडिया के असली हालातों से बेख़बर....मैं जानता हूं कि नौकरी मिल जाएगी....जानते वो भी हैं...पर चिंतित हैं....बाप हैं आकिर....पर खुद कभी नहीं कहते....मम्मी से कहलवाते हैं....
    पर कब तक....पापा सीधे बात कब करेंगे....शायद उनके बाबूजी ने भी ऐसा ही किया होगा....तो फिर वो ऐसा क्यों कर रहे हैं...ये कुंठा होती है या रवायत.....क्या मैं भी ऐसा ही हो जाऊंगा.....
    सारा लाड़ सोने के बाद ही मिलेगा...बहनों की तरह सामने क्यों नहीं....ये लगभग हम सबकी ही कहानी है....शायद सारे बाप-बेटों की.....
    यकीन मानो विनीत लिखना बिल्कुल नहीं चाहता था.....पर दिल तो बच्चा है जी......
    एक बार फिर बधाई...शब्दातीत पोस्ट.....

     

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