तो सास-बहू सीरियल को गरियाने के बाद मां एक बार फिर से टीवी देखने लग गयी है। रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा और जो भी धार्मिक सीरियल आने शुरु हुए हैं। मां ने अब से दस-बारह साल पहले जो कुछ देखा था, उसे याद करते हुए अब का अनुभव बताती है। उस समय मैं भी मां के साथ ही होता और साथ बैठकर देखता.
मां बताती है कि जो मजा पहले रामायण देखने में आता था, अब वो बात नहीं है। भले टीवी सादा था उ भी कम भोलटेज से हनुमानजी तक हिलने लगते थे. एक ही घंटा में दू से तीन बार लैन चल जाता लेकिन एक अलग ढंग का मजा आता। मोहल्ले में कई लोगों ने सिर्फ रामायण देखने के लिए टीवी खरीदी थी। पापा के हिसाब से टीवी खरीदने का मतलब पैसा फंसाना था, सो लाख कहने पर टीवी नहीं खरीदी गयी. तभी रुपा ( बनियान बनानेवाली कंपनी ) ने कुछ ऑफर दिया कि इतने डिब्बे माल खरीदो तो ब्लैक एन व्हाइट टीवी मिल जाएगी और पापा ने ऐसा ही किया। हमारे घर टीवी आ गयी।
मोहल्ले में कई रईस थे। उनके यहां भी लोग देखने जाते। एक तो उनके यहां टीवी रंगीन थी और दूसरा कि उनके यहां जेनरेटर की सुविधा थी। लेकिन वहां लोग हमारे घर में किसी तरह की मजबूरी हो जाने पर ही जाते। लोगों का कहना था कि वहां अपनापा जैसा नहीं लगता है. लगता है कि नौकर-चाकर हैं और आए हैं। घर का कोई भी आदमी जाने पर बात नहीं करता। शुरु-शुरु में एक-दो बार उस घर में लोगों को चाय मिली जिसे कि रागिनी दीदी की मां बकड़ी का मूत(बकरी का पेशाब) कहती। वहां लोगों को चिकने मोजाइक के फर्श पर बैठने को मिलता और हमारे घर में सीमेंट के पक्के पर। उपर से गर्मी इतनी लगती कि अब तो हमें चक्कर आने लगे लेकिन लोग मेरे यहां ही ज्यादा आते। कभी-कभी बैठने के लिए दरी कम पड़ जाती और मां धुले हुए बेडसीट निकालती तो मिथिलेश भैय्या की मां या फिर मीरा दीदी की मां हाथ पकड़ लेती। सीधा कहती- इ सब काहे करते हैं बहुरिया, हमलोग बाहर के थोड़े ही हैं औऱ जूट के बोरे पर बैठ जाती जो कभी-कभी गीला भी होता।
मां उस दिन ग्वाले से खुशामद करके दो किलो दूध ज्यादा मंगाती जिसके लिए बाद में वो तैयार नहीं होता लेकिन एक दिन जब मैंने भी रविवार को सुबह नौ बजे रामायण देखने के लिए बिठा दिया तो अगली बार से लोगों को ज्यादा दूध मांगने पर साफ कह देता कि- नहीं है दूध, आज रमैण देखनेवालों के लिए जाएगा। तब रामायण देखना एक धार्मिक कार्य होता और देखनेवाले लोग समाज की नजर में ऑडिएंस होने के बजाय राम या हनुमान भक्त होते।
इधर रामायण खत्म हुआ और उधर चाय छनने लग जाती. कोई स्टील के गिलास में, कोई टूटे कप में, कोई कटोरी में तो कोई मिट्टी के चुक्के में चाय का मजा लेने लग जाते। बाद मे मां ने जब एक ही साथ तीन दर्जन कप खरीदे तो कोई निकालने ही नहीं देता। सब कहते- इसको काहे निकाल रहे हैं, आनेजाने वालों के लिए रहने द, मत घोलटाओ. घोलटाने का मतलब झूठा करना। चाय-पीने के बाद सब बगीचे में लगे चापानल से अपना-अपना बर्तन धोकर मां को पकड़ा देते. बाद में तो महौल ऐसा जमा कि लोग अपने घर से कुछ-कुछ खाने का लाने लग गए। कोई मकुनी( सत्तू की पूडी) तो कोई चूडे की लिट्टी।.
इस दौर में टीवी पर रामायण और महाभारत देखना एक बहाना भर होता। हमें इस पूरे प्रसंग में दो ही चीजें अच्छी लगती। एक तो विज्ञान को धत्ता बताकर आशीर्वाद में मिले एक तीर का राम के छोड़ते ही हजारों तीर में बदल जाना और दूसरा कि आनेवाले लोगों से घर में मजमे का लग जाना। कुछ लोग तो दोपहर तक रह जाते और एक-दो खाकर भी जाते। रविवार की यह सुबह पड़ोसियों से जुड़ने का एक बढ़िया बहाना होता। इसके बाद से लेकर अब तक टीवी से सामूहिक रुप से लोग कभी नहीं जुड़ पाए। तब टीवी बरामदे या फिर दालान में रखी जाती। अब तो बेडरुम में ऱखी जाने लगी है। कई घरों में तो एक कॉमन टीवी और बाकी अपने-अपने कमरों के लिए थोड़ी छोटी और अपनी-अपनी। तब टीवी पर्सनल एसेट नहीं हुआ करती। कुछ लोग बड़े साइज की इसलिए भी लेते कि पड़ोस के लोगों को देखने में परेशानी न हो.
मां इन सब बातों को आज रामायण देखते हुए याद करती है और उसके साथ मैं भी। मैं मां को टीवी का एक बेहतर दर्शक मानता हूं इसलिए रिसर्च के साथ-साथ घर गृहस्थी के साथ-साथ कभी-कभी सिर्फ टीवी और रेडियो पर बात करने के लिए फोन करता हूं. आपको यकीन नहीं होगा, कल ही वोडाफोन का रिचार्ज कूपन १२० रुपये का भरवाया और अभ वैलेंस एक रुपये दस पैसे हैं। सारी बातें मां से टीवी पर होती रही।
मां का कहना है कि- अब रमैन देखे में उ मजा थोड़े है। अकेले के चीज है ही नहीं। जब तक दस-बीस आदमी साथ नय देखे तब रामायण की। आज घर में रंगीन टीवी है, चौबीस घंटे बिजली भी। बेक्र में पीने के लिए फ्रीज में ऱखा जूस भी। लेकिन मां को रामायण देखने पर भी उससे पहले जैसा मजा नहीं आ रहा।... मां बताती है कि उसके कहने पर भाभी साथ में बैठ जाती है लेकिन थोड़ी देर चटने के बाद यह कहते हुए कि- मांजी खुशी के लिए दूध बनाना है, हल्के से कट लेती है। मां समझती है कि उन्हें धार्मिक सीरियल पसंद नहीं है और अफसोस जताती है- कहां से होगा अकिल-बुद्दि, बड़ा- छोटा के इज्जत करके लूर। जे बढ़िया चीज टीवी पर आता है उ नय देखके तलाक देखती है। इतना सब कहने के बाद मां करती है- आज के रामायण और महाभारत की समीक्षा। पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
http://taanabaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_29.html?showComment=1217325420000#c8791152481971773712'> 29 जुलाई 2008 को 3:27 pm बजे
मेरा मानना है कि रामनंद सागर का रामायण आज के दौर में पहले वाली भीड़ नहीं जुटा सकती। खुद रामानंद सागर का श्रीकृष्ण पर अगला मेगासीरियल नही चल पाया था। ऐसा नहीं लगता कि अकेले पड़ जाने का आभास इस पूरे दौर की नियति बनती जा रही है ! आपने यहॉं सिमटते हुए समाज की सच्ची तस्वीर पेश की है। साथ ही सामूहिकता के विशुद्ध स्वाद को मजे से लिखा है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_29.html?showComment=1217325840000#c7547561043199779566'> 29 जुलाई 2008 को 3:34 pm बजे
बहुत सच लिखा है बहुत रोचक अंदाज में...हम लोग बहुत छोटे दायरे में सिमट गए हैं...जीवन में इसीलिए तनाव और दुःख बढ़ गया है...माता जी ठीक कहती हैं..बिल्कुल ठीक.
नीरज