होली के नाम पर जितनी बतकुच्चन करनी थी वो तो हो गई,जिसको जिसके बारे में जो कुछ भी कहना, सुनना और करना था वो सब हो गया। अब रोजमर्रा की जिंदगी में फिर से लौट आने का समय है। थोड़ा सीरियस होने का है और सीरियसली सोचने का है कि-
अब ग्रेट इंडियन वालों ने हम पत्रकारों का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया है। कवि, सरदार, नेता, पति,लालूजी और सिद्धू तो मजाक और चुटकुले के जबरदस्त आइटम तो हुआ ही करते हैं, अबकी टेलीविजन के पत्रकार भी शामिल हो गए हैं। इनका भी अब जमकर मजाक उड़ाया जाता है। देखा नहीं आपने सोनी पर अपने राजू श्रीवास्तव ने कैसे रिपोर्टर, एंकर और यहां तक कि चैनलों का मजाक बनाया। जिसने सोनी नहीं देखा हो तो स्टार न्यूज पर तो स्लग के साथ आ रहा था। चाहे वो मामला चैनलों द्वारा दो साल पुराने फुटेज और स्टोरी आज की चलाने का मामला हो, सबसे तेज के चक्कर में आंय-बांय कुछ भी बोल देने का मामला हो या फिर खबरों की गंभीरता को समझे बिना रिपोर्टरों द्वारा घिसा-पिटा वाहियात सवाल पूछने का हो। राजू ने कहा कि एक बंदा पानी में डूब रहा है और रिपोर्टर ने पूछा, डूबते हुए आपको कैसा लग रहा है। हमने तो समझा कि अब रिपोर्टर सिलेब्रिटी के नशे में इतना धुत्त होते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि सवाल आम आदमी से करना है औऱ वो मर रहा है, उसकी म्यूजिक एलवम नहीं लांच हो रही है कि पूछा जाए कि आपको कैसा लग रहा है. राजू के इस मजाक को बस मजाक में लेने की जरुरत है, खुश होने की बात है कि चलो हमारे प्रोफेशन पर भी चुटकुले बनने लगे हैं या फिर वाकई गंभीरता से कुछ सोचने की जरुरत है।
हिन्दी फिल्मों में आप देखेंगे कि जब भी कभी कॉलेज की सीन हो, क्लास रुम का मामला हो या फिर टीचर की बात हो- हिन्दी के टीचर को जानबूझकर औरों से अल्टर, उपहास का आइटम या फिर मजाक के पात्र के रुप में दिखाया जाता है। तारे जमीं पर इसका ताजा उदाहरण है। इसके पहले मैं हूं न कि मैम इतनी झेल है कि बच्चे उसे देखकर रास्ता बदल लेते हैं। सिनेमा ने हिन्दी के मास्टर को इस रुप में प्रोजेक्ट किया है कि अब ये मिथक की तरह स्थापित हो गया है कि हिन्दी के मास्टर झेल,पकाउ,बोरिंग,डल और बैकवर्ड होते हैं। थोड़ी इसमें सच्चाई भी है लेकिन हिन्दी के लोगों ने साकारात्मक स्तर पर क्या किया है, दूसरे सब्जेक्ट के बच्चों के बीच भी कितना पॉपुलर है,कितना मल्टी टैलेंटेड है, सिनेमा इस पर बात नहीं करता। इसका नतीजा आपके सामने है। आपसे बिना तरीके से बात किए ही लोग कहने लगगें कि अच्छा हिन्दी में हो, मास्टर बनोगे और पीठे से ठहाके मारने लगेंगे। मैं ये नहीं कहता कि इसके लिए केवल और केवल सिनेमा जिम्मेवार है। लेकिन, सिनेमा चाहे तो इस छवि और धारणा को तोड़ सकता है लेकिन तोड़ता नहीं।
ठीक उसी तरह, न्यूज चैनलों में कई चीजें वकवास आती है, ये बात कौन नहीं जानता लेकिन इसके साथ इसके जरिए कई बेहतर काम भी होते हैं। कम से कम लोगों के बीच एक डर तो है कि गलत करेंगे तो मीडिया धर दबोचेगी। गलत करने पर जो डर प्रशासन, पुलिस और सरकार नहीं कर सकी वो काम मीडिया ने किया। लेकिन आज आप देख रहे हैं कि उसे कई बेबकूफाना अंदाज को लेकर लोग उसका भी उपहास उड़ा रहे हैं। होली के मौके पर हंसने के लिए तो बढञिया मसाला है। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो इस प्रोफेशन के वर्किंग कल्चर को लेकर मजाक उड़ाए जाते हैं तो स्थिति वाकई चिंताजनक है। इसमें गलती न तो राजू श्रीवास्तव की नहीं है। उन्होंने तो एक एक्टिव ऑडिएंस के तौर पर अपनी प्रतिक्रिया हमारे सामने रख दी। अब इसमुद्दे पर हमें सोचना है कि ये मजाक कहीं इस बात की ओर संकेत तो नहीं करती कि हमने वाकई मीडिया को मजाक बना दिया है। माइक हाथ में आते ही अपने अलावे बाकी बैठे सारे ऑडिएंस को अंगूठा छाप समझने लगते हैं। राजूजी को मंत मिला तो उन्होंने अपने स्तर से बात हमारे सामने रख दी। बाकी लोग भी अपने-अपने तरीके से इसे लेकर अपनी बात करते रहते हैं। लेकिन अगर इसका विरोध होता है तो उतनी चिंताजनक बात नहीं है जबकि मजाक उड़ाया जाना ज्यादा गंभीर मसला है।
नेताओं की तरह हम पत्रकारों को लेकर भी ये बात आम हो जाए कि ये तो ऐसे ही हैं जी, इसके पहले आपको नहीं लगता कि मीडिया के चरित्र पर और हमारे काम करने के तरीके पर विचार करना जरुरी है। क्योंकि मजाक बनने के साथ ही मीडिया अपना असर खोता चला जाएगा।
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_4780.html?showComment=1206231960000#c5354746061715318257'> 23 मार्च 2008 को 5:56 am बजे
raji shrivastava se bahut pehle mere ek dost ne yeh short film banayi thi
http://youtube.com/watch?v=fPsjQULTCds
yeh bhi kuch kehti hai
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_4780.html?showComment=1206261300000#c4138268894215084251'> 23 मार्च 2008 को 2:05 pm बजे
आपकी बात सही है, अगर अभी नही सोचा गया तो मीडिया और मनोरंजन चैनेलों के बीच कोई अंतर नही रह जाएगा. चिंता तो हम ज़ाहिर करते है पर किया क्या जाए? हिन्दी मीडिया वाले कहते है वही दिखा रहे हैं जो बिक रहा है. तो क्या इस देश सिर्फ़ अँग्रेज़ी का दर्शक ही सीरीयस न्यूज़ देखना चाहता है? आप तो शोध कर रहे है, इस मुद्दे पर एक पोस्ट लिखिए तो उत्तम होगा.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_4780.html?showComment=1206278820000#c5377217583300258624'> 23 मार्च 2008 को 6:57 pm बजे
हिन्दी का मामला तो कुछ गरीब की लुगाई जैसा है बकिया हमारे मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी अपनी भद्द पिटवाने में.....