आंखों में लेकचरर होने का सपना लिए और रिसर्च के लिए चार-पांच हजार की मीडिया में नौकरी करते हुए हमने अपने सीनियर्स को देखा है। मैं खुद भी इस जमात में शामिल रहा। लेकिन अब सही पत्रकार होने, कहलाने और बनने के लिए जरुरी नहीं है कि हम किसी चैनल का पट्टा लगाकर दस-बारह घंटे की ड्यूटी बजाएं। हमें जो कुछ करना होगा, मीडिया के जरिए जो कुछ भी करना होगा, खुद कर लेंगे। अब हमारे साथ इस बात की कोई जबरदस्ती नहीं करेगा कि रिपोर्टर बोलकर नौकरी देगा और महीनों पैकेजिंग में डाल देगा। शोषण और श्रम कानून पर रिपोर्ट लिखवाएगा और खुद १२ से चौदह घंटे के पहले छोड़ेगा नहीं। डीयू में मीडिया पर शोध करने वाले रिसर्चर अब जोश में हैं और मीडिया का सही अर्थ खोजने में जुट गए हैं।
यूजीसी की स्कॉलरशिप की स्कीम के तहत अब एम।फिल् और पीएच।डी करने वाले प्रत्येक रिसर्चर को प्रतिमाह ३००० और पांच हजार रुपये मिलेंगे। किताबें औऱ बाकी चीजों के लिए एक साल में दस हजार रुपये। थोड़ी देर के लिए अगर चैनलों में मिलनेवाली पैकजों की बात छोड़ दे तो ये किसी भी रिसर्चर के लिए उसेक जीवन का सबसे सुखद क्षण है। ये बात सही है कि चैनलों के मुताबिक पांच हजार रुपये कुछ भी नहीं है, इससे कहीं ज्यादा रकम वहॉ के ऑफिसों के लिए काम करनेवाले सर्विस ब्ऑय की होगी। लेकिन इस पांच हजार रुपये में एक रिसर्चर अपने मन मुताबिक वो सबकुछ कर सकता है जो कि पचास हजार रुपये मंथली मिलने पर भी कोई पत्रकार शायद ही कर पाता है।
मीडिया पर रिसर्चर कर रहे मेरे कुछ दोस्तों से बात हुई। उनका कहना है कि अभी उन्हें पिछले छ महीने का पैसा एक साथ जोड़कर मिलेगा। स्कॉलरशिप की ये स्कीम मार्च २००७ से लागू है लेकिन पैसे मिलने अब शुरु हुए हैं। इसलिए ६-६ महीने का एक साथ मिल जाएगा और उसके बाद महीने के हिसाब से। मेरे कुछ साथियों को एक ही साथ ४०-४५ हजार मिल रहे हैं, मिलनेवाले हैं। उनका कहना है कि इतने पैसे से तो कामलायक, ठीकठाक हैंडीकैम आ जाएंगे और अगली खेप में लैपटॉप के लिए सोचा जाएगा। हमारे आसपास, हरियाणा में, राजस्थान में, बिहार में और यहां तक कि दिल्ली में कई ऐसी घटनाएं होतीं रहती है जिन पर कि कायदे से नोटिस नहीं ली जाती। मेनस्ट्रीम की मीडिया का एक बनाया ट्रेंड है जिसमें दो या तीन लोगों की बाइट सहित डेढ़ से दो मिनट की पैकेज में सारी बातें डाल देगी। सूचनाएं तो चारों तरफ फैल जाती है, मानवीय संवेदना का पक्ष बिल्कुल छूट जाता है। अब तक तो बहुत हुआ तो अखबार में चिट्ठी लिखकर अपनी असहमति और पक्ष दर्ज कराते रहे लेकिन इन पैसों से अब डॉक्यूमेंटरी बनायी जा सकती है। बाकी ट्यूशन पढ़ाकर शोध-कार्य करना जारी रहेगा।
इस हिसाब से अगर विचार करें तो एम्।फिल या पीएचडी के दौरान रिसर्चर एक भी डॉक्यूमेंटरी बनाता है तो साल में कम से कम ७५-८० डॉक्यूमेंटकी बन जाएंगे। ....और अगले सालभर तक शहर के अलग-अलग हिस्सों में स्क्रीनिंग करा सकेंगे। किसी एक मुद्दे को या फिर अपने रिसर्च टॉपिक को लेकर ही अगर ये फिल्म बनाते हैं तो आज जो हम मेनस्ट्रीम की मीडिया के मोहताज बने है, उसके सही या गलत हर खबर पर हम अपनी राय बना लेतें हैं, इस पर थोड़ी रोक जरुर लगेगी। चाहे तो कुछ लोग मिलकर सामूहिक स्तर पर पत्रिका निकाल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि विश्वविद्यालय में इस स्तर के काम कभी शुरु नहीं हुए लेकिन हर बार देखने में आया है कि पैसे के अभाव में उसे बीच में बंद करना पड़ गया। लेकिन अब इसकी पहल की जाती है तो लम्बा चलेगा।
दूसरी बात जो मैं समझता हूं कि मीडिया जैसे सेंशेटिव प्रोफेशन में एक बड़ी तादाद में खर-पतवार शामिल हैं, जिन्हें बेसिक चीजों की समझ नहीं है लेकिन देशभर के लोगों के लिए राय बनाने का काम कर रहें हैं। कहीं से भी सालभर की डिप्लोमा डिग्री लेकर समाज को रातोंरात बदलने का जज्बा लेकर आते हैं, वो समाज को कितना बदल पाते हैं, ये तो समाज ने बोलना शुरु कर दिया हैं लेकिन महीने दो-महीने के अंदर वो खुद कितना बदल जाते हैं इसका अंदाजा शायद उन्हें भी न होता होगा। अकादमिक स्तर पर भी मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के रवैये पर लगातार विरोध और गुत्थम-गुत्थी चलती रहती है। इस स्कॉलरशिप से उन्हें एक नया स्पेस मिला है, काफी कुछ वो अपने मुताबिक कवर कर सकते हैं, लिख सकते हैं। ये भी संभव है कि गुजरात जैसे दंगे जिसका कि सामाजिक स्तर पर बड़ा प्रभाव रहा और जिसे लेकर मीडिया से भी शिकायत रही कि उसने चीजों को तोड़-मरोड़कर दिखाया। ऐसे मसले पर यूनिवर्सिटी के कुछ रिसर्चर टीम बनाकर, अपनी यूनिट लेकर खुद ऐसी जगहों पर जा सकते हैं और अपने तरीके से टीआरपी के दबाव से मुक्त होकर तटस्थ रुप से सारी चीजें लोगों के सामने रख सकते हैं।
तीन साल, चार साल जो भी समय लगता है एम् फिल पीएचडी में बाकी के लोगो की तरह गाजियाबाद में प्लॉट या फ्लैट न भी ले पाए तो भी इस दौरान मीडिया में काम करने का तरीका ढंग से मालूम हो जाएगा। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि क्या मीडिया को बनाए रखने के लिए बिना बाजार के गुलाम हुए सीधे-सीधे खबर देने से मामला बन जाएगा या फिर वाकई हर खबर एक खबर के बाद विज्ञापन के लिए ब्रेक लेना जरुरी है। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि बिना ताम-झाम के बिना लाग- लपेट पेज थ्री और फाइव सी में घुसी हमारी बातों और खबरों में लोगों की कितनी रुचि है। वाकई ऑडिएंस दिनभर जलवे देखना चाहती है या फिर चैनल उनके साथ जबरदस्ती करके अपनी बात थोपते आ रहे हैं।
यानि कुल बातों का लब्बोलुवाव इतना है कि रिसर्च के दौरान मिलनेवाले स्कॉलरशिप से रिसर्चर चाहे तो तरीके का वैकल्पिक मीडिया खड़ी कर सकता है। एक ऐसी मीडिया जो मानवीय संवेदना के ज्यादा करीब है। बिना फ्रशट्रेशन के अपने मन मुताबिक काम कर सकता है और चैनल में काम कर रहे साथी मीडिया के खोए हुए अर्थ को पाने की छटपटाहट में हैं, यूनिवर्सिटी में मीडिया पर शोध कर रहा रिसर्चर आसानी से वो अर्थ दे सकता है।....और सही तरीके से काम करता गया तो भविष्य में भी दुनियाभर की शर्तों पर किसी चैनल या अखबार में काम करने की नौबत नहीं आएगी।
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_19.html?showComment=1205911680000#c5546952379504890886'> 19 मार्च 2008 को 12:58 pm बजे
अच्छा है, बढिया खबर है। वैसे भी ग्लोबलाईज्ड मीडिया आजाद नहीं है। अब बात नहीं बोलती..विजुअल्स खासकर राखी सावंत के ( ... ) बोलते हैं। पत्रकारिता में मिशन भाव से आए लोगों के लिए बेहद बुरा वक्त है..आशंका है कि यह तो अभी कुछ भी नहीं। चावल, आटा और सब्जी के कारोबारियों के चैनल से ज्यादा उम्मीद करना बेमानी ही है। इस बारे में एक राष््रीय संगोष्ठी फरीदाबाद के डीएवी कॉलेज में हुई थी।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_19.html?showComment=1205913240000#c6791471500929127360'> 19 मार्च 2008 को 1:24 pm बजे
सही कहूं, सकारात्मक काम यही है न कि नाग नागिन से लेकर राखी सावंत को दिखाना
लगे रहें
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_19.html?showComment=1205924340000#c1333166678922531014'> 19 मार्च 2008 को 4:29 pm बजे
main aapki baat se bilkul sahmat hoon. pahle to mubarakbaad un sabhi ko jinhe ye scholarship mil rahi hai. doosri baat agar koi aisi team banakar karya karta hai to ismein khushi ki baat hogi kyunki log khabrein dekhna chahte hai masala nahi.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_19.html?showComment=1205949420000#c7077100761697182427'> 19 मार्च 2008 को 11:27 pm बजे
आपको न्यूज़ चैनलों के मायाजाल से निकालने की बधाई. अपने सही लिखा है नाग नागिन का पत्रकार होने से तो अच्छा है की दूसरे रास्ते तलाशे जाएँ. रिसर्च करते हुए कुछ अलग किया जा सकता है. हालाँकि ऐसे कई स्वतंत्र documentary फिल्म मेकर्स है जो बेहतरीन कम कर रहे है पर सक्रीनिंग के वक्त कुछ झोला छाप हिपोक्रेट्स के छोड़ दे तो आलम सुना ही रहता है. कुछ वेबसाइट्स भी है जो आल्टरनेट मीडिया की सोच को साकार करने मे लगीं है. पर सवाल है की रखी सावंत के ज़माने मे इन्हे दिखाया कैसे जाए. पता नही लोंग आँधिया गये है ये चैनल. आप ही कुछ प्रकाश डालें.