तो आपने देखा कि कैसे हिन्दी मीडिया अंग्रेजी न्यूज एजेंसियों, रॉयटर या एपीटीएन से खबरों को उठाकर, उसका अनुवाद करके अपना लेबल चस्पा देते हैं। मीडिया की नौकरी करते हुए ऐसा हमसे खूब करवाया जाता रहा। एक प्रोग्राम आया करता था हमारे चैनल पर अराउंड द वर्ल्ड। उसमें अजीबोगरीब खबरें चलाये जाते थे, जिसका कि यहां के लोगों से कोई लेना-देना नहीं होता था और न ही उससे किसी तरह का जीएस ही मजबूत होता था। जिसके संदर्भ अपने से बिल्कुल नहीं मिलते थे। ऑफिस जाते ही चार-पांच देशों की ऐसी खबरें पकड़ा दी जाती और कहा जाता कि पैकेज बनाओ। खून के आंसू रोते थे हमलोग और रोज मनाते कि कब ये प्रोग्राम बंद हो। लेकिन बेअक्ल प्रोड्यूसर समझ ही नहीं पाता था कि इसका कोई मजसब ही नहीं है। जिस दिन प्रोग्राम बंद हुआ था, हम तीन-चार साथियों ने मंदिर मार्ग पर जमकर पराठे खाए थे।
अभी भी कोई बंदा किसी हिन्दी चैनल या अखबार में नौकरी के लिए जाए तो उसे इंटरनेट से एक-दो पन्ने प्रिंट आउट निकालकर दे दिया जाता है और फिर कहा जाता है इसकी खबर या पैकेज बनाओ। मजेदार, ऐसा कि एक-दो लाइन ही देख-पढ़कर आगे के लिए बंदा मचल जाए। एक बार मैंने भी एक बड़े अखबार के लिए डॉगी डिनर पर ऐसी खबर बनायी थी। वो पसे बार-बार कहेंगे कि खबर ऐसी लगे कि टची लगे, मन को छू जाए। आप उसे ऐसे समझो कि, खबर को इस तरह से लिखना है कि लगे नहीं कि वो अंग्रेजी का अनुवाद है, वहां से टीपा गया है। एकदम से परकाया प्रवेश लगे।॥और अखबार या चैनल आपपर रौब जमा जाए कि- देखिए कहां-कहां से खबरें हम खोज-खोजकर लाते हैं। इंडिया टीवी जब शराबी बकरे की खबर दिखाता है तो आप उसे गाली देते हो लेकिन सच कहूं ये खबर इंडिया टीवी की अपनी नहीं नहीं थी, किसी बड़े अंग्रेजी न्यूज एजेंसी से ली गयी थी।...यानि हिन्दी चैनल जब अंग्रेजी से कुछ लेते हैं तो ये भी नहीं सोच पाते कि क्या बेहतर है या हो सकता है। वो इस मानसिकता से अब बी ग्रसित हैं कि अंग्रेजी में है तो कुछ भी , बढिया ही होगा। ....और तारीफ देखिए जनाब कि जब कभी वो ऐसी खबरें लेते हैं तो एक बार सोर्स का नाम देना तक जरुरी नहीं समझते। यानि की ऑडिएंस को मूर्ख समझने वाली हिन्दी मीडिया कभी-कभी अपने को भी मुर्ख मान लेती है और अंग्रेजी ने जैसे जो कुछ रख दिया उसे मान लेती है। मैने कभी नहीं देखा कि इन अंग्रेजी न्यूज एंजेंसियों की खबरों की क्रॉस चेकिंग होती हो। चाहे वो खबर उड़ीसा या फिर हिन्दुस्तान के किसी दूसरे हिस्से की ही क्यों न हो।। आप इसे अंग्रेजी पर अतिरिक्त निर्भरता नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। सेकेंडरी सोर्स के बूते कूदनेवाली हिन्दी मीडिया लोग के बीच जिस तरह से अकड़ कर खड़ी होती है और एक गांव का आदमी चैनल के रिपोर्टर को तोप समझ बैठता है, यह रिपोर्टर के लिए भले ही सुखद क्षण होते होगें लेकिन कम पढे-लिखे समाज को और अधिक जाहिल बनाने में चैनल भी जिम्मेवार हो जाता है।
आपने कभी किसी कस्बे या गांव के लोगों के बीच पॉलिटिक्स पर बहस और दावे करते हुए सुना है। जब वो बात करते हैं और सामने वाला बंदा बात नहीं मानता तो हवाला देता है कि क्या फलां चैनल झूठ बोलेगा। अगर आप उसी चैनल से हैं जिस चैनल का बंदे ने नाम लिया है तब तो आप फुलकर कुप्पा हो जाएंगे कि भई ये है खबर का असर।॥और उंचे ओहदे पर हैं तो आकर तुरंत चलाएंगे फ्लैश- खबर का असर। लेकिन कभी इस एंगिल से सोचिए कि कितना भरोसा करती है ऑडिएंस आप पर औ कितनी बड़ी भारी जिम्मेवारी आप पर लाद देती है, ढाई-तीन सौ रुपये की झिंग्गा ल॥ ला लगाकर। उस बंदे को क्या पता कि जिस खबर को वो देख रहा है उसे बनानेवाला न जाने कितनी बार डिक्शनरी पलटकर हिन्दी तर्जुमा किया है, न जाने किस अखबार की कतरन को न्यूज में ढाला है, न जाने किस बेबसाइट से चेपा है। इसलिए आप देखेंगे कि कभी-कभी चैनलों पर जो खबरें आती हैं उसकी हिन्दी भूली-भटकी हिन्दी होती है। जैसे किसी बाहर के आदमी को दिल्ली के मूलचंद फ्लाई ओवर की सारी सड़के एक सी लगती है और मरीज को लगता है कि सारे रास्ते एम्स को जाते हैं। ठीक उसी तरह हिन्दी मीडिया के कुछ शब्द हमेशा हवा में तैरते रहते हैं। आपको जब जरुरत पड़े उसे उठा लें।
ऐसे में अगर आप चैनल की खबरों पर गौर करें तो आप देखेंगे कि सारी चीजें चैनल के पास तैयार होतीं हैं- रिपोर्टर, ओबी, एंकर, बाइट, पैकेज, शब्द, सिर्फ घटनाएं होनी बाकी होती है। इधर हत्या हुई नहीं कि खबर तैयार। ऑडिएंस को चैनल के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ जाता है कि वाह, क्या तेजी है, क्या चुस्ती है। उसे क्या पता कि दिल्ली की अभ्यस्त दुनिया में सारी चीजें पहले से कटी होती हैं बस छौंक लगानी होती है, मामला चाहे शाही पनीर का हो या फिर चाउमिन का। खबरें भी ऐसे ही तैयार होती है। विश्वास न हो तो आप किसी पैकेज को गौर से देखें और नोट करें कि इसके किपने फुटेज बासी यानि साल, दो साल या छ महीने पहले के हैं। अब रोज-रोज कहीं कोई शूट करने नहीं जाता, नहीं हुआ तो बेबसाइट से कुछ ताजा माल ले लो।
इन सबके बावजूद भी हिन्दी मीडिया ताल ठोकने के लिए तैयार है। क्योंकि मीडिया है ही ऐसी चीज कि इसमें चाहे लाख गड़बड़ी हो, सामाजिक जागरुकता के कुछ हिस्से निकल ही आते हैं और हिन्दी मीडिया को दावे करने के लिए इतना पर्याप्त है।
आगे पढिए साहित्य की दुनिया में चेपा-चेपी और हिन्दी-अंग्रेजी
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206520920000#c544600380503203219'> 26 मार्च 2008 को 2:12 pm बजे
lajvab yar...
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206524760000#c855859764059619149'> 26 मार्च 2008 को 3:16 pm बजे
bahut badhiya ! Bakhiya udher dee aap ne TV News Channel ki ! Thanks ~
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206525540000#c4075056284034628660'> 26 मार्च 2008 को 3:29 pm बजे
बात तो बहुत सही कह रहे हो । हिन्दी मीडिया अन्धाधुन्ध नासमझ तरीके से चल रहा है ....
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206545700000#c2121786099667672255'> 26 मार्च 2008 को 9:05 pm बजे
ये तो मैंने भी अनुभव किया है....कल महान प्रात:स्मरणीय प्रभु चावलाजी के चैनल पर मुख्य खबर में यह खबर भी थी कि जर्मनी में कहीं खरगोशों की रेस हुई है जबकि यहां टाटा की लैंड रोवर और जगुआर को खरीदने वाली खबर का अता-पता नहीं है.
इनको को ये भी नहीं मालूम कि खबर किसे कहते हैं.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206545760000#c5670519094863592339'> 26 मार्च 2008 को 9:06 pm बजे
गुरू ये पोस्ट आपके होमपेज पे नहीं दिख रही...गूगल रीडर से पता चला.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206550200000#c7383673099187184179'> 26 मार्च 2008 को 10:20 pm बजे
बिल्कुल सही॒!!
http://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_26.html?showComment=1206559200000#c867247821227419217'> 27 मार्च 2008 को 12:50 am बजे
विनीत जी, आप ने एक बार फिर से सटीक आकलन किया है. आपने जिन न्यूज़ एजेंसियों का ज़िक्र अपने लेख मे किया है उनमे से एक में मैं कार्यरत हूँ. ना जाने कितनी ख़बरे रोज़ आती है, जब भी मैं इन हिन्दी चैनेलों को देखता हू तो ये सिर्फ़ वो ख़बरे उठाते है जिसे हम एजेन्सी की ज़बान में odd pars कहते हैं.
एक वाकया कल ही कार्यालय में हुआ, दक्षिण भारत के एक बड़े मीडिया संस्थान से कोर्स करके आए एक नये पत्रकार ने इंटेर्नशिप के लिए अप्लाइ किया था. बातों बातों मे उसने बताया की उन्हे कॉलेज मे ग़लत और आधारहीन रिपोर्टिंग के उदाहरण के लिए हिन्दी चैनल देखने को कहा जाता था. मैं सन्न रह गया.
इस बात से एक और बात पे मेरा ध्यान गया. मैने सुना है की चैनल एक साथ ६० से ७० इंटनर्स को रखते है और कुछ भी पैसे नही देते. क्या ये सही है? ये मीडिया मज़दूरी हो गयी यार. आपके लेखों के लिए धन्यवाद. मुझे भी अपनी नाखुशी ज़ाहिर करने का मौका मिल रहा है. कोई एंटी हिन्दी का लेबल चस्पा करे तो करे.