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महीनेभर से ज्यादा हो गए। अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की वजह से मेरा मीडिया और टेलीविजन पर लिखना-पढ़ना लगभग बंद रहा। इस बीज कम्पोजिंग में दर्जनों आधी-अधूरी पोस्टें हैं जो पता नहीं कभी पूरे भी होंगे भी या नहीं। कुछ के तो अब पूरी करने का कोई मतलब नहीं है। इस बीच मैंने हिम्मत जुटाकर किसी तरह दैनिक अखबार जनसंदेश टाइम्स में "टीवी मेरी जान" नाम से कॉलम की शुरुआत की। ये कॉलम बुधवार को मीडिया पन्ने पर आता है। अब तक चार लिख चुका हूं। आज उसी में से एक यहां पोस्ट कर दे रहा हूं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है।

 ठकुराइन, हमहुं तो छोट जात के ही हैं,हम कौन बाभन-राजपूत हैं,लाइए न हमहीं कर देते हैं। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ की प्रधान चरित्र ललिया के इस संवाद से उसका जो परिचय हमारे सामने आता है,वह करीब दो साल तक चलनेवाले इस सीरियल पर बात करने के दौरान मेनस्ट्रीम मीडिया में कभी नहीं आया।
आरक्षण( एनडीटीवी इमैजिन) को छोड़ दें तो टीवी सीरियलों में जाति का सवाल सिर्फ उंची जाति का निचली जाति से विवाह करने या मेलजोल बढ़ाने पर विरोध के स्तर पर ही आया है जिसमें कि अंत में निचली जाति को पराजित,कुंठाग्रस्त और यथास्थितिवाद का शिकार करार दिया गया है लेकिन टेलीविजन की व्यावसायिक शर्तों के बीच कैसे लगातार दो साल तक एकमात्र दलित चरित्र ललिया ठाकुरों के हाथों स्त्री के खरीद-बिक्री का सामान बन जाने का प्रतिरोध करती रही और दलित ऑडिएंस के बीच आत्मविश्वास पैदा करती रही,इसकी कहानी किसी भी अखबार,चैनल और यहां तक कि स्वयं जीटीवी ने बताना जरुरी नहीं समझा।

वैसे तो एक चरित्र के तौर पर ललिया की चर्चा इतनी हुई और वह इतनी पॉपुलर हुई कि इस चरित्र को जीनेवाली रतन राजपूत जीटीवी को लांघकर एनडीटीवी इमैजिन पर स्वयंवर रचाने जा रही है लेकिन चरित्र के तौर पर ललिया एक मजबूर गरीब लड़की के बजाय आत्मसम्मान और हर हाल में जीने की ललक बनाए रखनेवाली एक दलित लड़की का उभार कैसे उभार होता है,यह कहानी कभी भी चर्चा का हिस्सा नहीं बनने पायी।

इस
 सीरियल की चर्चा पैसे की मजबूरी में गौना नहीं हो पाने और बेटी बेचने की त्रासदी के बीच के बीच ही चक्कर काटती रह गयी और देखते ही देखते जीटीवी पर इसकी जगह 15 फरवरी से छोटी बहू ने कब्जा जमा लिया। आज आप जीटीवी सहित जितनी भी साइटों को खंगाले तो तो बताया जाएगा कि इस सीरियल में एक गरीब लड़की ललिया जो कि गौना के सपने देखती है और अंत में अपने ही बाप ननकू द्वारा ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बेच देने की कहानी है। लेकिन सच्चाई है कि यह इससे कहीं ज्यादा एक दलित लड़की के ठाकुर के हाथों बिक जाने,हत्या की साजिशों के बीच फंस जाने,जानवरों से भी निचले दर्जे का व्यवहार किए जाने और इन सबसे प्रतिरोध करते हुए उसी गांव का सरपंच बन जाने की कहानी है जिस गांव में वह ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बिककर आयी है। टेलीविजन में सामाजिक समस्याओं को आधार बनाकर अब तक जितने भी सीरियलों की शुरुआत हुई है उसमें अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ अब तक एकमात्र सीरियल है जो कि बेटी बेचने की कहानी कहते हुए भी समाज की जातिगत संरचना से सीधे तौर पर टकराता है। इतना ही नहीं ललिया के बहाने पहला कोई ऐसा सीरियल प्रसारित हुआ जो कि बिना किसी सामाजिक सरोकारों और जातिगत बराबरी के एंजेंडे की घोषणा किए दलित चरित्र को सबसे मुखर,सतर्क और परिस्थितियों के आगे गुलाम हो जाने के बजाय परिस्थितियों के बीच जीने की संभावना पैदा करते हुए दिखाया गया है। गांव की अगड़ी जाति का मर्द अपनी अय्याशी के लिए लड़कियों की पांच हजार की बोली लगाकर अपनी सम्पत्ति का हिस्सा बनाता है। कुछ लड़कियां ऐसी जिंदगी जीने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुनती है। ऐसे में ललिया उसे धिक्कारती हुई समझाती है- तुमरे हिसाब से तो हमको कबे का मर जाना चाहिए था रे। घर से हमको माय-बाप इ कहर विदा किया कि गौना हो गया लेकिन बाद में हमको पता चला कि हमको बेच दिया गया। तुम सब सोचोगी कि विपत्ति पड़ेगा तो हमरा भाय,हमरा पति बचावे आएगा,तब तो कभी भी अपना जिंदगी नय जी पाएगी। विपत्त पड़ेगा तो का हम जीना छोड़ देंगे,अपना जिंदगी ऐसे कैसे खतम कर देंगे? हमकों खुद लड़ना पड़ेगा। ललिया की विदाई नाम से खास एपिसोड में उसने जो कुछ भी कहा,उसमें सालों से स्त्रीवादी चिंतन होते रहने के बावजूद दलित स्त्रियों का स्वतंत्र चिंतन होना चाहिए की मांग शामिल है। हताश करने की मंशा से उसके पराजय की कहानी तो लगातार लिखी जाती रही है लेकिन दर्जनों ठाकुर सत्ताधारी स्त्रियों के आगे साधनविहीन किन्तु विजयी दलित स्त्री की इबारतें का न लिखना एक गहरी साजिश का हिस्सा लगने लगता है। दूसरी तरफ दलित विमर्श के भीतर मर्दवाद पैदा न हो इसके लिए जरुरी है कि विमर्श के दायरे में ललिया जैसे टेलीविजन चरित्र औऱ सीरियल शामिल किए जाएं.

सीरियल
 जिस थीम पर बना है उसमें अभाव में बाप का अपनी बेटी को बेच देना न कोई नई घटना है और न ही अगड़ी जाति के मर्द की अय्याशी के लिए निजी जाति की स्त्री का खरीद-बिक्री का हिस्सा बन जाना कोई नई बात है। लेकिन जैसे ही हम ललिया के संवाद में जिन जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपने उपर भरोसा पैदा करने की बात देखते हैं,उससे गुजरते हुए सीरियल के मायने एकदम से बदल जाते हैं। टीवी सीरियल भले ही व्यावसायिक दबाबों के बीच पॉपुलरिटी को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता,जज्बातों का बाजार तैयार करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है,ललिया के उत्कर्ष के साथ-साथ ठाकुरों के हृदय परिवर्तन कराकर अपनी जातिगत आग्रह से उबर नहीं पाता लेकिन इन सबके बावजूद सांस्कृतिक 
पाठ( कल्चरल टेक्सट) के तौर पर बहुत कुछ दे जाता है जिसकी व्याख्या विमर्श के दायरे में रखकर की जाए तो एक स्थिति साफ बनती है कि ऑडिएंस की मिजाज बदलने के क्रम में धोखे में ही सही वह कई बार न चाहते हुए भी प्रगतिशील हो उठता है। ललिया के मामले में जीटीवी ऐसा ही नजर आता है। टेलीविजन निर्धारित एजेंड़े के तहत जो अर्थ पैदा करने की कोशिश करता है, उससे प्रतिगामी और साकारात्मक अर्थ इसी तरह पैदा होते हैं।

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3 Response to 'ललियाः टेलीविजन से एक दलित चरित्र की विदाई'
  1. shikha varshney
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post.html?showComment=1298973114572#c2332102479437060731'> 1 मार्च 2011 को 3:21 pm बजे

    टीवी सिरिअल ज्यादा तो नहीं देखती पर हाँ स्त्री समस्या या जातिवाद के मामले पर अत्याचार और बेचारगी ही दिखाई जाती है इस बात से सहमत हूँ.
    आपने जो ललिया का किरदार बताया जाहिर है की इस लीग से हटकर लग रहा है.काश इसी तरह के किरदार जन मानस के समक्ष पेश किये जाये,कुछ तो सामाजिक परिवर्तन होने की उम्मीद रहेगी.
    अच्छी लगी आपकी विवेचना.

     

  2. Patali-The-Village
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post.html?showComment=1298990287981#c7327943868846269252'> 1 मार्च 2011 को 8:08 pm बजे

    अच्छी लगी आपकी विवेचना| धन्यवाद|

     

  3. Neeraj Rohilla
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post.html?showComment=1299002103079#c6630774037874667178'> 1 मार्च 2011 को 11:25 pm बजे

    वापसी पर बधाई, आशा है अब आप नियमित लिखते रहेंगे।
    भारतीय चैनल देखने को नहीं मिलते इसलिये इस विषय पर प्रतिक्रिया नहीं दे सकता लेकिन पढकर अच्छा लगा।

     

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