लंबी बीमारी से लौटने के बाद जब वो मुझसे मिली तो काशी का अस्सी गिफ्ट कर रही थी मुझे। शर्मायी हुई थी बहुत और वो मुझसे आंखें तक भी नहीं मिला रही थी।..मैंने तुम्हारे लिए खरीदी है। मैं वहीं आर्ट्स फैकल्टी की कॉरीडोर में पलटकर देखने लगा तो सिर्फ इतना कहा-घर जाकर नहीं देख सकते इसे। मैंने मन ही मन सोचा कि लगता है इस किसी लड़के को गिफ्ट देने की आदत नहीं है या फिर वो नहीं चाहती कि जमाने के लोग देखें कि उसने मुझे कुछ दिया है। इसके पहले हमदोनों के बीच किताबों का लेन-देन तो चलता ही रहा है लेकिन आज मैं सोचता तो हंसी और हैरानी दोनों होती है कि कुल छ घंटे की एक यूजीसी-परीक्षा ने हमारी जिंदगी को कैसे फिक्स कर दी कि हमने उसके जन्मदिन के मौके पर भी रामचंद्र शुक्ल,हजारीप्रसाद द्विवेदी,रामविलास शर्मा और इन जैसे आलोचकों की किताबें ही गिफ्ट में दी। पब्लिक स्कूल में और फिर बाद में संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ने की वजह से आर्चिज गैलरी,हालमार्क,म्यूजिक प्लैनेट के रास्ते मेरे लिए अंजान नहीं थे। कुछ नहीं तो दर्जनों बार हमने इन जगहों से कार्ड खरीदे और उन लड़कियों को भी बर्थडे विश के तौर पर कार्ड पर डीयर लिखकर दिया जिसका व्ऑयफ्रैंड अपने नसीब और हालात के बीच फिफ्टी-फिफ्टी के बीच झूलता रहता। मेरे उस डीयर शब्द पर कुछ लड़कियां जोर से ठहाके लगाती और कहती-बस सिर्फ डीयर ही लिखोगे या फिर कुछ और..। आज मैं सोचता हूं वो तमाम लड़कियां मुझसे कितनी-कितनी मैच्योर रही होगी,मां के शब्दों में गुंडी या बेलज्जी।
आलोचना की उन किताबों को जब उसके पापा देखते तो बहुत खुश होते,कहते-बहुत समझदार लड़का है। हम बाप के रास्ते से जाना चाहते थे जिसमें कहीं न कहीं अच्छा बच्चा की मुहर लगवाकर ही अपने पसंद की जिंदगी जी सकें। खैर,घर आकर जब मैंने उस किताब में क्या लिखा है,उसे तो बाद में पढ़ा लेकिन सबसे पहले ये देखना चाहा कि उसने किताब के भीतर मेरे लिए क्या लिखा है। मैं उम्मीद कर रहा था कि लिखा को- टू डीयर विनीत,विद बेस्ट विशेज और नीचे शर्माने के अंदाज में सिकुड़े हुए शब्दों में उसकी साइन या फिर हिन्दी में ही- विनीत की प्रति,विनीत के प्रति। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं। बिल्कुल सादा। ठीक उसके चेहरे की तरह जब आप पूछो कि इतनी जल्दी कर लोगी शादी,और ये यूजीसी लेक्चरशिप. इसका क्या करोगे? मेरे इन सवालों से उसके चेहरे के सारे भाव एक जगह जमा होकर जाने कहां कैद हो जाते?
बीमार होने के पहले मैंने कासी का अस्सी की चर्चा उससे की थी। वैसे भी हिन्दू कॉलेज में मेरे हिन्दी साहित्य के जितने भी क्लासमेट थे,उनके बीच इन किताबों के नाम फैशन के तौर पर लिए जाते। किसने कितना पढ़ा,इससे मतलब नहीं लेकिन अगर आपने किताबों के नाम नहीं सुने तो आपको फट से नक्कारा करार दिया जाता। पढ़ने-लिखने के स्तर पर मुझे शुरु से ही थोड़ी सो कॉल्ड बदतमीज किस्म की चीजें पसंद आती जिसमें एक ये भी किताब थी। आज जब चालीस दिनों बाद वापस कैंपस आया तो मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये किताब मुझे इस तरह से मिलेगी। जाहिर है उसने ये बात सोचने में कुछ तो समय लगाया होगा कि मैं वापस आउंगा तो वो मुझे क्या गिफ्ट करेगी कि मैं अचानक से खुश हो जाउंगा। किताब खरीदने की तो उसने बहुत हिम्मत जुटायी लेकिन वही विनीत की प्रति,विनीत के प्रति लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। यकीन मानिए दिल्ली आकर लोग और खुले माहौल में जीना शुरु करते,और बिंदास हो जाते हैं,मेरे साथ उल्टा हुआ। जेवियर्स रांची के जिस खुले माहौल में मैंने पढ़ाई की,यहां आकर सब बंद-बंद सा लगा। हम बड़े आराम से अपनी क्लासमेट के कंधे पर हाथ रख देते या फिर वो हमें खींचती हुई कैंटीन की तरफ ले जाती लेकिन मैंने तो जो महसूस किया वो ये कि एक बार गलती से लड़की के हाथ छू जाएं तो शायद वो घर जाकर मेडीमिक्स से हाथ धोती होगी। इसे मैं जेनरलाइज नहीं कर रहा। लोग बताते कि ऐसा सिर्फ हिन्दी विभाग में है,चले जाओ बाकी जगहों पर तो लगेगा कि डिपार्टमेंट के आगे वॉलीवुड तैर रहा है। आज जब मैं उसी हिन्दी विभाग के सामने से गुजरता हूं तो अक्सर लड़कियां अपने दोस्त को कोहनी मारते हुए या फिर एक ही मंच को आधा-आधा शेयर करते हुए दिख जाती है। देखकर अच्छा लगता है।
किताब को लेकर जो उत्साह था वो सिर्फ एक लाइन या कुछ शब्द नहीं लिखे जाने की वजह से ठंडा पड़ चुका था। ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ कि जिस वक्त नहई किताब हाथ लगी तो उसी वक्त उसके दो-चार पन्ने न पढ़ लिए हों। मैंने किताब को साइड रख दिया। फिर उस लड़की से सोचना शुरु करते हुए हिन्दी समाज,लिटरेचर,हिन्दी विभाग पता नहीं क्या-क्या सोचने लग गया। मैं फिर उस एक शब्द या लाइन के न होने के दर्द से दूर चला गया और सिर्फ टिककर ये सोचने लगा कि ऐसा उसने किताब की वजह से तो नहीं किया। ये किताब तो लोग बता रहे थे कि थोड़ी हटकर है और कुछ गालीगलौच भी। कहीं इस वजह से तो नहीं।.अच्छा हो उसके शर्माने की वजह सिर्फ और सिर्फ वही हो। हिन्दी साहित्य की जिन किताबों की लेन-देन करके हम अपने को बाकियों से अलग,बेहतर और खुद की आख्यान में डूबते-उतरते रहे,ये किताब हमारी इस आत्ममुग्धता को इस तरह से ध्वस्त करेगी,अंदाजा नहीं था। मैंने किताब देखनी शुरु कर दी।
पहले ही पन्ने पर- मित्रों,यह संस्मरण वयस्कों के लिए है,बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं;और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा में गंदगी,गाली,अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें मोहल्ले के भाषाविद् "परम"(चूतिया का पर्याय) कहते हैं,वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं-
आगे काशी और यहां के लोगों के परिचय में लिखा है- जमाने को लौड़े पर रखकर मस्ती में घूमने की मुद्रा 'आइडेंटिटी कार्ड'है इसका। फिर इसी शैली में पूरी किताब जिसके कि मैंने आधे से ज्यादा पन्ने पूरन की टिफिन मिस करके पढ़ गया। तब मुझे उस लड़की का शर्माना बाजिब लगा था,आज भले ही उसे भी किसी विमर्श के आगे झोंककर उसे गलत करार दे दूं। मन में ये बेचैनी तो थी ही कि उसके शर्माने की सौ फीसदी वजह सिर्फ और सिर्फ किताब की लिखी वो शैली थी या फिर कुछ और भी? किताब पढ़ते हुए मुझे काशीनाथ सिंह पर भारी गुस्सा आया था क्या समझते हैं,अपने आप को? शुरु में ही देसी अंदाज में निर्देश लिखकर ये साबित करना चाहते हैं कि हमने ये सारे शब्द पहले कभी सुने नहीं? लेकिन फिर प्यार उमड़ आया कि बेटा कॉन्वेंट में,पब्लिक स्कूल में और मेट्रो सिटी में जाकर भले ही यू नो आइ मीन करती रहो,तुमरे बाबूजी अभी भी वहां राशनकार्ड नहीं मिलने पर पीठ पीछे गरिआ रहे होगें कि- कहते हैं कि ताखा पर रखा करो इसे तो नहीं गांड में घुसा लेगा चीनी करासन लाकर।
अगले दिन मैंने कहा- यार,तुमझे कुछ बात करनी है। आज तो आधी दर्जन लड़कियां है जिसे यार कह दो तो नोटिस तक नहीं लेती,पलटकर लिखती है- यार,आगे पोस्ट लिखना- खबरों का बलात्कार। मैं कहता हूं शर्म नहीं आती मुझसे इस तरह अश्लील बातें करती हो। उसका जबाब होता है- इस असभ्य माहौल में जो थोड़े सभ्य बचे हैं,उनमें से एक मैं भी हूं। ही ही ही ही ही..। यार बोलने से वो घबरा जाती और वैसे भी कुछ नमकहराम दोस्तों ने उसके कान भर दिए थे कि बड़े बाप का बेटा है,बिगड़ा हुआ है.इस्तेमाल करके छोड़ देगा। सीधे कहा-यार,वार मत बोला करो प्लीज। तुम पढ़ने में इतने अच्छे हो फिर ऐसी भाषा क्यों बोलते हो? मैंने सॉरी के बाद अपना जबाब दाग दिया- तुम किताब देते हुए क्यों शर्मा रही थी कल? उसने कहा- नहीं,पता है क्या हुआ? मैं किताब लेने मम्मी के साथ गयी थी नई सड़क। जब मैंने दूकानदार से किताब मांगी तो वो थोड़ा मुस्कराया और मां से पूछा- आपकी बच्चिया क्या करती है? मां ने बताया कि हिन्दी साहित्य से एमए कर रही है। फिर उसने मुझसे पूछा- इसे तुम पढ़ोगी,कोर्स में तो नहीं है। मैंने धीरे से कहा कि नहीं मेरा एक दोस्त है,उसे पढ़नी है। दूकानदार ने कहा कि जरुर वो बहुत अलग किस्म का बंदा होगा। काशीनाथ सिंह ने हमें एक किताब की पसंद की बदौलत जमाने से असाधारण बना दिया था। मैंने आगे कहा- तो तुम इसलिए शर्मा रही थी। उसने कहा- हां। फिर सवाल किया-सिर्फ और सिर्फ इस बात के लिए। उसने कहा-हां। तुम सच तो बोल रही हो न। उसने कहा-और क्या? और कोई बात नहीं। तब उसने कहा- सच कहूं,मुझे ये सब करने की आदत नहीं है,पता नहीं कैसा फील करती हूं?..ये तो तुम बीमार होने के लंबे समय बाद आए थे तो सोची कि...
(इस संस्मरण को याद करवाने के लिए सिर्फ और सिर्फ मिहिर और पल्लव जिम्मेवार हैं जिन्होंने बनास-2 काशीनाथ सिंह और काशी का अस्सी पर निकाली है। अब इसमें चंद्रप्रकाश द्विवेदी भी जुड़ गए हैं जो इस किताब पर फिल्म बना रहे हैं और पिछले दिनों इस मसले पर थोड़ी-बहुत चर्चा हुई।. आज मैंने उस किताब को फिर से निकाला जिस पर आज से चार साल पहले मैंने ही पेंसिल से उसका फ्रॉम के बाद उसका नाम लिखकर एक लाइन दाग दी थी- WITHOUT SAYING ANYTHING ELSE.)
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285846309056#c814982190873685494'> 30 सितंबर 2010 को 5:01 pm बजे
बडा कन्फ़्युज मामला है,बिमार कौन था? वैसे इस संस्मरण में वहीं मजा है जो मुझे अक्सर दूसरों की कहानियां खोद खोद कर पूछने में आया है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285855778105#c1609495576206927202'> 30 सितंबर 2010 को 7:39 pm बजे
लगे रहो...अच्छा है....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285867109871#c1500058125293025824'> 30 सितंबर 2010 को 10:48 pm बजे
बढ़िया है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285874150926#c3125199322821165685'> 1 अक्तूबर 2010 को 12:45 am बजे
मुझे जहाँ तक याद आ रहा है, कुछ ऐसा ही जिक्र पहले भी कभी आ चुका है गाहे-ब-गाहे(हुंकार) में..
मैं सही हूँ ना विनीत, अगर नहीं तो बता देना.. नहीं तो आत्ममुग्ध होता रहूँगा अपनी यादाश्त पर.. :)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285900152655#c6441380828691241309'> 1 अक्तूबर 2010 को 7:59 am बजे
यह क्या है -हाऊ इज दैट?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285939249596#c2400494110160132718'> 1 अक्तूबर 2010 को 6:50 pm बजे
PD ने यह बज्ज़ किया है... और मैंने उस पर यह लिखा था...
इस किताब को पढो छुटने ना पाए, मैं अपूर्व का शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मुझे यह पढने को दिया... इस किताब को मैं साहित्य में एक जरुरी दखल मानता हूँ.
कभी इस पर मैं भी लिखूंगा सर जी
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1285940159538#c5817129898776775174'> 1 अक्तूबर 2010 को 7:05 pm बजे
मैने काशी का अस्सी पढ़ा नहीं है.पता नहीं कब पढूंगा मगर संस्मरण शानदार है....कुछ देर के लिए स्कूली लाइफ की याद दिला जाता है..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1286045085778#c3928591714785720869'> 3 अक्तूबर 2010 को 12:14 am बजे
shandar hai bhai
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_30.html?showComment=1286737394266#c8332176291596453967'> 11 अक्तूबर 2010 को 12:33 am बजे
यह संस्मरण पढ़ते हुए लगा जैसे कोई कहानी पढ़ रहे है ।