सबलोग पत्रिका ने अगस्त-सितंबर के अंक का बड़ा हिस्सा मीडिया को दिया है जिसमें दर्जन भर से ज्यादा लेख मीडिया के अलग-अलग संदर्भों को लेकर है। आज मीडिया पर लिखने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है लेकिन जो सबसे जरुरी मुद्दा मुझे समझ आता है वो ये कि वर्चुअल स्पेस पर मीडिया को जिस तरीके से देखा-समझा जा रहा है,उस पर बात शुरु की जाए। लिहाजा इसी नीयत से मैंने ये लेख पत्रिका के लिए भेजी। प्रकाशित होने के बाद अब आपके सामने-
न्यूज चैनलों पर हमला होते ही टेलीविजन पर बात करने का हमारा नजरिया एकदम से बदल जाता है। हम सालभर तक जिन चैनलों की आलोचना सरोकारों से कटकर भूत-प्रेत, पाखंड, सांप-सपेरे और मनोरंजन चैनलों की फुटेज काटकर घंटों चलाते रहने के कारण करते हैं, उन्हीं चैनलों पर जब कभी भी हमले होते हैं, हम एकदम से उनके साथ खड़े हो लेते हैं। चैनलों की ओर से अपने उपर हुए हमले को लेकर जो भी खबरें और पैकेज दिखाये-बताये जाते हैं, उसे लेकर हमारे बीच कई स्तरों पर असहमति होती हैं। वे जो इसे सीधे तौर पर लोकतंत्र पर हमला,कुचलने की कोशिश बताते हैं, हम इसे जनमाध्यमों के बीच पनप रहा पाखंड मानते हैं। लेकिन यहां हम माध्यमों के चारित्रिक विश्लेषण में फंसने के बजाय सीधे तौर पर चैनल का समर्थन करते हैं। इससे अलग प्रिंट माध्यमों में मीडिया पर हमले को लेकर बहुत ही कम देखने-पढ़ने को मिल पाता है।
मेनस्ट्रीम मीडिया से अलग वर्चुअल स्पेस पर मीडिया और टेलीविजन को लेकर अपनी बात रखनेवाले हम जैसे लोगों की कोशिश होती है कि हमले की बात जल्द से जल्द और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। हम इस बात पर यकीन रखते हैं कि हमारा काम गहरे विश्लेषण से पहले वर्चुअल स्पेस पर हिन्दी और मीडिया के ज्यादा से ज्यादा पन्नों और लिंक पैदा करना है जिससे कि तमाम दूसरे माध्यमों से जुड़े लोग सर्च इंजन में चैनल के नाम के साथ अटैक या हमला लिखें तो उन्हें कई लिंक मिलने लग जाएं।
16 जुलाई शाम के करीब पांच बजे आरएसएस के हजारों कार्यकर्ताओं ने आजतक न्यूज चैनल के दिल्ली ऑफिस करोलबाग पर हमला कर दिया,वहां जमकर तोड़-फोड़ मचायी और कॉफी हाउस को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया। तब इंटरनेट पर हमले को लेकर कोई खबर नहीं थी। चैनल की ऑफिशियल साइट पर चार-पांच लाइनों से ज्यादा कुछ नहीं। हम बज्ज, फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर लगातार सक्रिय हो जाते हैं। इस खबर को लेकर कई लिंक पैदा करना चाहते हैं। ऐसा करते हुए हमें सबसे ज्यादा जरुरी लगता है कि हमले की वीडियो फुटेज दुनियाभर के लोगों के बीच जानी चाहिए और तब टेलीविजन से रिकार्ड करके एक-एक फुटेज यूट्यूब पर अपलोड करते चले जाते हैं। दो घंटे के भीतर यूट्यूब की इस लिंक पर साठ से ज्यादा विजिट होते हैं। उस समय से लेकर सुबह तक ब्लॉग पर दर्जनों कमेंट आ जाते हैं और ब्लॉग पर लिखी पोस्ट दूसरी साइटों पर साभार के साथ लग जाती है। बाकी जगहों पर भी रिस्पांस मिलने शुरु हो जाते हैं और इस तरह “तात्कालिक पक्षधरता” का यह काम,चैनल की संस्कृति और उसके भीतर लोकतंत्र के चरित्र के विश्लेषण से बहुत पहले हो चुका होता है।
हम हमले का विरोध करते हुए किसी न किसी रुप में न केवल चैनल के पक्ष में माहौल बनाने का काम करने लग जाते हैं, बल्कि जो काम चैनल के लोग मोटी तनख्वाह लेकर करते हैं,उसे हम अपने-अपने घुप्प अंधेरे कमरों में बैठकर करते हैं। यह बिल्कुल ही नए किस्म का टेलीविजन विमर्श है जिसकी आलोचना करते हुए भी उसका विस्तार देने का काम हजारों वेब लेखक लगातार कर रहे हैं। दूसरी तरफ प्रिंट माध्यमों में टेलीविजन पर जो कुछ भी लिखा जाता है उनमें से अधिकांश को पढ़ते हुए साफ तौर पर लगता है कि यह गैरजरुरी माध्यम है, भ्रष्ट है और इस पर लिखा ही इसलिए जा रहा है कि लिख-लिखकर इसे नेस्तनाबूद् कर देना है। इस नजरिए के साथ टेलीविजन और मीडिया पर लिखने का ही नतीजा है कि कार्यक्रमों की प्रकृति,दिखाए जाने के तरीके और तेजी से बदलती तकनीक और विस्तार के वाबजूद विश्लेषण के तरीके में बहुत फर्क नहीं आया है। पूरे टेलीविजन विश्लेषण में दो तरह की ही सैद्धांतिकी या अवधारणा काम करती है। एक जो कि बिल्बर श्रैम ने विकासशील देशों के लिए माध्यम का काम अनिवार्य रुप से सामाजिक विकास की गति में सहयोग करना है और दूसरा मार्क्सवादी समीक्षा जिसके अनुसार टेलीविजन एक पूंजीवादी माध्यम है इसलिए ये सरोकार और जनपक्षधरता की बात नहीं कर सकता। टेलीविजन को लेकर यह समझ पैदा करने में शुरुआती दौर में अडोर्नों, अल्थूसर,रेमंड विलियम्स,मार्शल मैक्लूहान और जॉन फिस्के जैसे मीडिया और संस्कृति आलोचकों से मदद मिली तो बाद में इलिहू कर्ट्ज,मैनचेस्नी और संस्कृति के मामले में एक हद तक फीदेल कास्त्रों के लेखन के आधार पर सैद्धांतिकियां विकसित की गयी। खासकर हिन्दी में टेलीविजन और मीडिया विश्लेषण की बात करें तो यही आधार के तौर पर स्थापित हैं। यह अलग बात है कि इनमें से कई सिद्धांत सीधे-सीधे मीडिया से नहीं जुड़ते हैं जबकि मीडिया समीक्षा के दौरान मीडिया,संस्कृति और समाज सबों को एक ही मान लिया जाता है। इन सैद्धांतिकियों का प्रयोग खासतौर पर निजी चैनलों की आलोचना के लिए की जाती है। इसके साथ ही बिल्बर श्रैम ने जो सिद्धांत बताए,जिसका बड़ा हिस्सा यूनेस्को और बाद में प्रसार भारती ने अपनाया,उसके तहत पूरी मीडिया संस्कृति को देखने-समझने का काम किया जाता रहा है। सच्चाई है कि इन सारे सिद्धांतों में पहले के मुकाबले बहुत अधिक विकास हुआ है,इसकी बुनियादी मान्यताओं के नए संस्करण बने हैं। पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग के मामले में तो फिर भी ये विकासवादी सिद्धांत एक हद तक काम में आ सकते हैं लेकिन कॉर्पोरेट मीडिया को इन सिद्धांतों के जरिए विश्लेषित कर पाना असंभव है। हिन्दी में मीडिया विश्लेषण सिद्धांतों के इन पुराने संस्करण से बाहर नहीं निकल पाया है।
वर्चुअल स्पेस में खासकर हिन्दी में मीडिया और टेलीविजन को लेकर विमर्श अपने शुरुआती दौर में है। अभी तक जो भी और जितना भी लिखा गया है उस आधार पर किसी भी तरह के बड़े दावे करना बेमानी होगी। हम अभी यह कहने की स्थिति में नहीं है कि इसने किसी तरह की नई मीडिया सैद्धांतिकियों को गढ़ लिया है और यह भी नई कह सकते है कि यह अब तक की विश्लेषण पद्धतियों को शिकस्त देने की रणनीति बना चुके हैं। लेकिन इतना जरुर है कि वर्चुअल स्पेस पर मीडिया लेखन का जो दौर शुरु हुआ है उसमें विश्लेषण की बारीकियों के चिन्ह साफ तौर पर दिखाई देते हैं।
प्रिंट माध्यम का लेखन जहां टेलीविजन के सारे कार्यक्रमों को मिलाकर जहां एक गोल-मोल समझ पैदा करने की प्रक्रिया में होता है वहीं वर्चुअल स्पेस पर एक-एक कार्यक्रम को लेकर विश्लेषण पद्धति खोजने और गढ़ने की प्रक्रिया जारी है। दिलचस्प है कि साहित्य,सिनेमा,कला आदि की दुनिया में किसी एक शख्सियत और उनके काम को लेकर लिखने की लंबी परंपरा रही है लेकिन टेलीविजन विमर्श में यह नदारद है। किसी एक प्रोड्यूसर, कैमरामैन,रिपोर्टर का व्यक्तिगत स्तर पर कोई जिक्र नहीं। रियलिटी शो पर बात करते हुए वही फार्मूले चिपकाए जाते हैं जिसके तहत हम टीवी सीरियलों की बात करते हैं,न्यूज चैनल की प्रकृति मनोरंजन चैनलों की प्रकृति से बिल्कुल अलग होनी चाहिए लेकिन सबकुछ कुछ जार्गन और शब्दों के बीच फंसा हुआ है। इसके साथ ही एक-एक खबर को लेकर चैनलों का क्या रवैया रहा,उसके लिए किस तरह के मोंटाज,सुपर,हेडर लगाए गए,इन सबकी चर्चा बारीकी से होनी चाहिए। वर्चुअल स्पेस में प्रोडक्शन की पूरी प्रक्रिया के बीच में रखकर टेलीविजन और उसके कार्यक्रमों को देखने की कोशिश विश्लेषण की एक नयी समझ पैदा करती है।
ऐसा होने से टेलीविजन और मीडिया को लेकर विमर्श का जो दायरा कंटेंट से शुरु होकर कंटेंट पर जाकर ही खत्म हो जाया करते, आलोचना का अर्थ पूरी तरह प्रभावों की चर्चा तक जाकर सिमट जाती है,यहां तकनीक और रिवन्यू के बीच फंसी मीडिया को देखने-समझने की कोशिशें तेजी हुई है। यहां चुनौती इस बात को लेकर नहीं है कि मीडिया की जो सैद्धांतिकियां पहले से स्थापित है,उसके खांचे में रखकर विश्लेषण का काम कैसे किया जाए बल्कि चुनौती इस बात को लेकर है कि मीडिया की कार्य-संस्कृति और उसकी शर्तों को समझते हुए( जिसमें की तकनीक से लेकर अर्थशास्त्र के मसले शामिल हैं) उसके भीतर की संभावनाओं को कैसे बचाया जा सके,विस्तार दिया जा सके। ऐसे में आज यदि हम वर्चुअल स्पेस पर विमर्श के इन तरीकों को मजबूती दे रहे हैं तो यह बहुत हद तक संभव है कि एक बड़ा सवाल पैदा हो कि ऐसा करते हुए भी हम चैनल की जड़ों को मजबूत कर रहे हैं,उनके पक्ष को ही मजबूती दे रहे हैं और इस तरह किसी न किसी तरह से बाजार,पूंजीवाद औऱ कार्पोरेट ताकतों से लैस मीडिया के साथ खड़े हैं। लेकिन इसके साथ ही एक सवाल यह भी है कि प्रिंट माध्यमों की टेलीविजन समीक्षा कितनी व्यावहारिक और विश्वसनीय है? यह सवाल इसलिए भी जरुरी है कि आलोचना का अर्थ किसी विधा को विकसित करते रहना भर नहीं है बल्कि जिस विधा या क्षेत्र को लेकर आलोचना की जा रही है उस पर असर भी पैदा करना है। ऐसे में वर्चुअल स्पेस पर हो रहे टेलीविजन और मीडिया विमर्श के बीच से व्यावहारिक समीक्षा के सूत्र खोजे जा सकते हैं,इस पर भी बात होनी चाहिए।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_07.html?showComment=1283836766999#c7997446313378795808'> 7 सितंबर 2010 को 10:49 am बजे
आपने सही लिखा है. मुझे लगता है वर्चुअल स्पेस में मीडिया विमर्श अधिक खुला होता है इसलिए अधिक विश्वसनीय होता है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/09/blog-post_07.html?showComment=1283910870891#c2753658590307133104'> 8 सितंबर 2010 को 7:24 am बजे
ये भी बांच लिये। टेलीविजन का लगता है समुचित उपयोग अपने यहां अभी होना बाकी है।