सोचता हूं तो हैरानी होती है कि मैं कैसे कुछ महीने पहले तक रोज पोस्टें लिखा करता था. कई ब्लॉग्स भी पढ़ लेता,अलबत्ता कमेंट्स न के बराबर करता। मेरे दिमाग में रोज इतने सारे मुद्दे होते,इतना कुछ लिखने का मन करता कि लगता कि सबों पर अलग से ब्लॉग बना लूं। इसी क्रम में टेलीविजन पर लिखने के लिए टीवी प्लस बनाया। जिस दिन अपने ब्लॉग पर नहीं लिखा उस दिन मोहल्लालाइव या फिर मीडिया खबर के लिए लिखा। लेकिन अब रेगुलर बेसिस पर पोस्टें लिखना पहाड़ सा लगता है।...
मुझसे कई बार वर्चुअल स्पेस के जरिए जुड़े लोगों ने पूछा भी कि आप रोज-रोज कैसे लिख लेते हो,कैसे आपके दिमाग में रोज कुछ न कुछ लिखने को होता है। इसका जबाब मैंने या तो चैट बॉक्स पर दिया या फिर एक-दो बार सीधे-सीधे पोस्ट लिखकर ही साफ किया कि- ब्लॉगिंग की पैदाइश हूं,लिखूंगा नहीं तो मर जाउंगा। उस समय सचमुच रोज लिखना रोजमर्रा के काम में शामिल हो गया था।..और फिर समय भी कितना लगता,मुश्किल से बीस से पच्चीस मिनट। लाइनों की सतह तो पहले से तह लगकर दिमाग में पड़ी होती,लिखने बैठता तो लगता जैसे पापा साड़ी की गांठ खोलते हुए गिनती मिलाया करते हैं,मैं भी बस यही कर रहा हूं। लिखना मेरे लिए कोई अलग से विशेष एफर्ट कभी नहीं रहा। अगर मैं रिसर्च आर्टिकल को छोड़ दूं जिसमें कि कई स्तर पर संदर्भ देने होते हैं तो लिखने में और किसी के घर का खाना खाने के बीच कभी ज्यादा फर्क नहीं रहा। ये दोनों काम मैं चौबीस घंटे में कभी भी कर सकता हूं। उन दिनों ऐसा मेरे भरोसा जम गया था।
अकादमिक तौर पर जो लोग मुझसे जुड़ें हैं औऱ मैं जिनसे जुड़ा हूं उन्हें मेरी रोज की लिखने की आदत से ये ...फहमी पैदा हो गयी कि मैं बस दिनभर ब्लॉगिंग करता रहता हूं और कुछ भी पढ़ाई-लिखाई नहीं करता। एक मास्टर साहब ने तो इस काम को चैटिंग से भी बदतर लत करार दिया। मैंने कभी किसी को इस मामले में सफाई देने की जरुरत नहीं समझी। उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है क्योंकि हिन्दी समाज "कब्जीयत शैली" का शिकार समाज रहा है।
यहां लोग सीधे-सीधे जो जैसा सोचते हैं,वैसा बहुत ही कम लिखा करते है। पहले तो सोचते हैं,फिर विचारों और विमर्शों का तीर-तुक्का भिड़ाते हैं,फिर इस बात पर गुणा-गणित करते हैं कि अगर ऐसा लिखा तो किस-किस महंतों से खेल बिगड़ जाएगा। कुछ आलस्य का भी सम्मान करना होता है। कुछ लोगों के साथ ये भी दिक्कत है कि खुद हाथ से लिखा और चेले-चपाटियों से टाइपिंग करा ली।..तो ये सब में ले-देकर समय लग जाता है। यहां तो अपना मामला सीधा-सीधा था। जो करना था सो खुद ही।..और हम जैसे वेवकूफ को इस बात की चिंता क्यों सताने लगी कि मेरे लिखने से किस महंत की अनवरत साधना भंग होगी। अब महीनों तक तो यही भरोसा नहीं रहा कि मेरे लिखे को लोग पढ़ेगे और वो भी पढ़ेंगे जिनके पास किताबों की समीक्षा करने तक के लिए किताबें पढ़ने का समय नहीं। ये तो थोड़ी बहुत समझ तब पैदा हुई जब देखा कि कुछ लोग पटेल चेस्ट से मास्टरजी के लिए पोस्टों की प्रिंटआउट निकालकर सेवा में प्रेषित कर रहे हैं।..तो भी लिखता रहा,इस मिजाज से कि लिख ही तो रहा हूं किसी की जमीन थोड़े ही कब्जा ले रहा हूं और होए दिक्कत तो होए महंतों को। बाबूजी के साथ ब्रा,पैंटी और साड़ी-बिलाउज का धंधा जिंदाबाद। वैसे भी लंबे समय तक मुझे नक्कारा समझनेवाले पापा का मन अब बदल गया,मुझमें अब वो भविष्य देखते हैं। मैं उस सुख की कल्पना से रोमांचित हो जाता हूं जब किसी संतुष्ट ग्राहक के हाथ से पैसे लेकर पापा मुझे गल्ले में पैसे रखने कहते हैं और रात में बाइक पर उनके साथ लौटता हूं,वो भइया से भी ज्यादा स्पीड में स्पेल्डर चलाते हैं और मैं पीछे से लगातार कुछ न कुछ बोलता जाता हूं।
मैंने तब सबसे ज्यादा पोस्टें लिखी जब मैं सबसे ज्यादा व्यस्त रहा। जब पीएचडी की रिपोर्ट बना रहा होता,थीसिस के चैप्टर लिख रहा होता,पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहा होता,टीवी देख रहा होता। मैंने एक बार कहा भी कि जब मैं रोज पोस्टें लिख रहा हूं तो समझिए कि मेरी लाइफ में सबकुछ अच्छा-अच्छा और व्यस्त चल रहा है। व्यस्त होने पर हमारी सक्रियता बढ़ा जाती है औऱ हम एक ही साथ कई काम करने लग जाते हैं।..इसलिए जब जब भी किसी ने कहा कि अरे अभी बंडे हो,लिख ले रहे हो,देखना जब विजी हो जाओगे तो ब्लॉगिंग छूट जाएगी,मैं मन ही मन मुस्कराता और कहता देखना नहीं छूटेगी। लिखने के लिए समय से कहीं ज्यादा इच्छाशक्ति जरुरी है और हम कोशिश करेंगे कि वो कभी मरने न पाए।
लेकिन अबकी बार न जाने ऐसा क्या हुआ,दिन पर दिन बितते गए और देखते-देखते करीब १५ दिन हो गए और मैं कुछ भी लिख नहीं पाया। अगर मैं आपको वजह गिनाने लगूं तो बेमानी होगी। कायदे से मुझे जिन कारणों से रोज लिखना चाहिए था,मैं उसे ही वजह बताकर नहीं लिखा,ऐसा नहीं करना चाहता। कितने मुद्दे थे मेरे पास। तुरंत मिर्चपुर से खाप पंचायत और दलितों की जली बस्तियां देखकर लौटा था। उसके दो दिन बाद से ही दिल्ली में भरी दुपहरी में कमरा खोजने निकलना शुरु कर दिया था। चार दिनों तक प्रोपर्टी डीलर के पीछे चकरघिन्नी की तरह कैंस के इलाके मथ डाले थे। फिर हॉस्टल छोड़ दिया,नई जगह पर आ गया। तीन साल पहले चैनल की नौकरी के वक्त जो जिंदगी थी,खुद से खाना बनाना और टिफिन का इस्तेमाल करना,सब शुरु हो गया। १८ तारीख को मैंने एक जबरदस्त कार्यक्रम का संचालन किया। कितना कुछ था मेरे पास लिखने को। मैं एक-एक सामान जुटा रहा था। लेकिन नहीं,कुछ भी नहीं लिख पाया। पिछले तीन-चार दिनों से तो कीबोर्ड पर हाथ ही रुक से गए। मैं भीतर से हिल गया।..भीतर का अपाहिजपना तो नहीं,कोई दिमागी अटैक तो नहीं। मैं कोई कारणों की खोजबीन में उलझना नहीं चाहता। मैं बस रोज लिखना चाहता हूं,ये जानते हुए कि हिन्दी समाज में रोज औऱ बहुत पढ़ना तो अच्छी बात है लेकिन रोज लिखना अच्छा नहीं माना जाता।..
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274938345999#c1166682725495973712'> 27 मई 2010 को 11:02 am बजे
Bahut badhiya-
"पहले तो सोचते हैं,फिर विचारों और विमर्शों का तीर-तुक्का भिड़ाते हैं,फिर इस बात पर गुणा-गणित करते हैं कि अगर ऐसा लिखा तो किस-किस महंतों से खेल बिगड़ जाएगा।"
मुझे ऐसा लगता है कि एक समय के बाद सारा गुड़ा-भाग दिमाग में चलने लगता है, और फिर हम अपने में ही व्यस्त हो जाते हैं, लिखना तभी छूटता है..वैसे अच्छा लगा काफी टाइम बाद यह पोस्ट पढ़के..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274938434450#c5084870490437868267'> 27 मई 2010 को 11:03 am बजे
विनीत भाई ,
ऐसा होता ही है अक्सर । खासकर जो रोज लिखने वाला हो , और ये बात भी बिल्कुल सच है कि आप जब फ़्लो में होते हैं ज्यादा व्यस्त होते हैं तब ही सक्रिय भी रह पाते हैं । आप दोबारा से फ़ार्म में लौटिये यही कामना है ।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274939110410#c6097347837616895887'> 27 मई 2010 को 11:15 am बजे
mujhe bhi yahi lagta hai..ajay ji ki baat par gaur kariyega
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274939737594#c2507088583453136074'> 27 मई 2010 को 11:25 am बजे
इस बात से बिलकुल सहमत हूँ, 'व्यस्त होने पर हमारी सक्रियता बढ़ जाती है' ...मेरे भी कुछ ऐसे ही अनुभव हैं...सर पे सौ काम रहते हैं तो..जल्दी से समय निकाल १० मिनट में पोस्ट लिख जाती है..और कभी सारा दिन समय हो..बस इधर उधर में ही सारा वक़्त गुजर जाता है..
जो लोग ब्लॉग्गिंग से नहीं जुड़े हैं,उन्हें ऐसा ही लगता है कि ब्लॉग लिखने वाले सारा दिन नेट से चिपके होते हैं...
ये writer's block भी एक फेज़ है निकला जाएगा...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274941019460#c5414245652388142753'> 27 मई 2010 को 11:46 am बजे
अरे भई,
मुझे देखो...जब तक श्रीमती अपने गाँव नहीं गई थीं तो महीने पांच छह पोस्ट लिखता था, अब जब वह अपने गाँव में हैं, फुरसत में हूँ तो अब तक करीबन पन्नरह पहुंचा दिया हूँ :)
अब पता चल रहा है कि मेरी ब्लॉगिंग का पहिया किसने रोके रखा था....आने दो चिंटू की मम्मी को अबकी पूछूँगा।
इस हिसाब से लगता है आप का कहीं टांका वांका तो नहीं भिड गया किसी से.....भई ये भी असर डालता है ब्लॉगिंग पर :)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274941329113#c7431523920669748879'> 27 मई 2010 को 11:52 am बजे
हम यही चाहेंगे की आप किसी की भी तकलीफ को नज़र अंदाज़ करके लिखिए.....आपकी पोस्ट का मुझ जैसे को बहुत इन्तेजार रहता है.........
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274942148271#c3187431450907636999'> 27 मई 2010 को 12:05 pm बजे
bhaiya satish pancham ji ki bat ka javab diya jaye ;)
vaise ye haalat aate hai har blogger ke liye, kam se kam mujhe aisa lagta hai.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274949217992#c2855628472044393608'> 27 मई 2010 को 2:03 pm बजे
सही है। विनीत इधर भी यही हाल है। प्रोफेशनल लाइफ में बिज़ी होना ना होना चलता रहता है। पर कुछ है भीतर से जो अटक गया। थम गया। हमने तो नौ अप्रैल से नहीं लिखा। कई बार कोशिश की। पर अधूरी पोस्टें लाइव राइटर पर सेव पड़ी हैं। पहले भयानक व्यस्तताओं में भी लिखते थे। पर शायद ये दौर है जो बीत जायेगा और जल्दी ही फिर लिखेंगे। नियमित। हम और आप।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274949576098#c2513649785922071661'> 27 मई 2010 को 2:09 pm बजे
अस्थायी स्थिति है ..कुछ समय बाद सब पूर्ववत हो जायेगा ..[ 'ब्लॉग्गिंग' भी एक रोग है,इसे छोडना आसान नहीं]
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274951574835#c572860206587914054'> 27 मई 2010 को 2:42 pm बजे
bahut badhiya ekdam dil se nikle shabd.. aur sach hai aapke liye likhna bahut mushkil nahi..
is baat se ekdam sehmat hoon ki jab hum jyada busy hote hain, hum multitasker ho jate hain.. waise sirf aalsi.. aur complaint par complaint karne wale..
aapki phase ko main mahsoos kar sakta hoon.. aisi phases simple harmonic motion karti rahti hain.. aayengi chali jayengi.. fir aayengi..
aur jaise aapne ye likh daala.. likh daaliya sab kuch..
ummed hai aap is mood se jald uberein.. ya ho sakta hai aise mood mein aap kuch kaljayi khoj kar dalein kuch likh dalen..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274953348455#c9173712881201677299'> 27 मई 2010 को 3:12 pm बजे
nai jagah mein mansik vyavastha abhi bani nahin hai shayad! likhne ka parivesh se bhi ek tarah ka sambandh ban jata hai, jo ekagrata ke liye ya vicharon ki dhara ke phootne ke liye anivarya sa ban jata hai bahut logon ke liye...
khair, jo bhi ho tum likhna shuru karo, yahi duaa hai apni... sambhav hai, aaj ka post tumhare likhne mein aai rukavat ko raste se hata dega!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274955935293#c6272156312674451073'> 27 मई 2010 को 3:55 pm बजे
दिमाग का लिखने वाला हिस्सा भी कभी-कभी कुछ आराम चाहता है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274956714754#c2027660625211960785'> 27 मई 2010 को 4:08 pm बजे
ऐसे फेज आना तो स्वभाविक हैं. वैसे यह भी सही है कि व्यस्तता से समय निकाल ज्यादा नियमित लिखना होता है.
शुभकामनाएँ. जल्दी फार्म में लौटिये. कमेंट न भी करें तो पढ़ने की उत्सुक्ता तो हमेशा ही रहती है आपके आलेखों को.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274960121784#c5285383284524159150'> 27 मई 2010 को 5:05 pm बजे
बहुत कुछ हमारे मन का हाल लिख डाला.. 2007-8 में जितना व्यस्त थे उतना ही सक्रिय ब्लॉगिंग हुई.. फिर तो ऐसे रुके कि रुके कदम चाह कर भी बढा न पाए..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274968428274#c1431373677624902634'> 27 मई 2010 को 7:23 pm बजे
अच्छा लगा आपका कन्फेशन ...सच सा है ....पर ये भी है एक तय समय के बाद आप सलेक्टिव हो जाते है ....ओर मन मर्जी से ब्लोगिंग करने लगते है .मै तो इसे ऐसा टूल मानता हूँ .जो भागती दौड़ती दुनिया में कई लोगो के बीच संवाद का काम करता है ....विरोध का एक वाजिब तरीका भी........ओर अपनी बात कहने का भी....बस इसका अच्छी तरह से इस्तेमाल हो.जैसे एल्कोहल एब्यूज ....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274971033067#c3895660377439655381'> 27 मई 2010 को 8:07 pm बजे
मेरे साथ भी होता है ऐसा कभी-कभी, लेकिन तब एकाध माइक्रो पोस्ट ठेलकर काम चला लेता हूं… :) :)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274980060445#c2402367349590116874'> 27 मई 2010 को 10:37 pm बजे
ऐसे ईमानदार लेखन पर प्रतिक्रिया करने का मज़ा आता है -
विनीत, अब ये सही वक्त है कि ऐसे विषयों पर लिखें जो आपके करीब हों लेकिन आप उन पर लिखने से इसलिये कतराए थे कि -
शायद विषय क्लिष्ट होगा
शायद पाठकों को विषय में दिलचस्पी नही होगी
शायद पाठक आपको अलग तरीके से तौलने लगेंगे
शायद जो लिखेंगे वो आपकी छवि को तोड सकता होगा
बहुत से चिट्ठाकार ये नही समझ पाते कि जिसे वे अपनी स्टाईल समझ रहे हैं वो दर-असल दोहराव मात्र है - वो उनकी उन्नति को संकुचित कर रहा है.
ऐसे में प्रयोग करने से डरियेगा मत क्योंकि उस दौर में जो आपसे जुडे रहें, आपको समझने का प्रयास करते रहें वे ही आपके असली पाठक हैं बाकि सब टिप्पणी-विनिमय प्रबंधक हैं.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1274981605095#c160950895444570330'> 27 मई 2010 को 11:03 pm बजे
"हिन्दी समाज में रोज औऱ बहुत पढ़ना तो अच्छी बात है लेकिन रोज लिखना अच्छा नहीं माना जाता"
ये कौन सा समाज है और कहां पाया जाता है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता.. आप रोज लिखें हम रोज पढ़ेंगे..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1275020743447#c60756260274523318'> 28 मई 2010 को 9:55 am बजे
एक मनोवैज्ञानिक से शब्द सुना था फ़टिग शायद वो हो,और फ़िर वैसे भी कुछ प्रोफ़ेशन लाईफ़ को इतना मोनोटोनस कर देते हैं कि बोरियत हावी हो जाती है,इस दौर से कई बार गुज़रा हूं और वापसी भी अपने-आप हुई है,आशा है आप भी ज़ल्द वापस आ जायेंगे।हां एक बात और आप रोज़ लिखिये जिन्हे पढना है वो रोज़ पढेगे।वैसे मैं भी करीब-करीब इसी स्थिति से फ़िर से पहुंच गया हूं।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1275293875099#c4573888105057410302'> 31 मई 2010 को 1:47 pm बजे
consult a psychiatrist
http://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_27.html?showComment=1275827651807#c6487960068337108176'> 6 जून 2010 को 6:04 pm बजे
ise budhijiviyon ke jeevan me aani wali cyclic recession ke taur par le sakte hain... Bade bade vaigyanik aur sahityakaar iski chapet se nahi bache.. Hota yoon hai ki hamara right wala mann kahta hai chalo likhte hain accha topic aaya hai.. Left wala dimaag theek usi waqt kahta hai are bhai thoda to damm le lo likhenge naa kaun saa blog bhaga ja raha hai.. Lekin ek baat achhi hai aapke vishay me ki aapne apne left waale mann ko theek tarike se handle kiya.. Right wale mann ka upyog karke.. Waah mamashree aapne to isspar bhi likh dala ki nahi likh paa raha... mast hai..