देखो गदहा की औलाद पेशाब कर रहा है – गदहे के पूत यहां मत मूत – जो भी यहां पेशाब करते पाये गये, सौ रुपये जुर्माना जैसे निर्देश एक जमाने में यहां पेशाब करना सख्त मना है का ही विस्तार है। जैसे-जैसे कहीं भी कभी भी की तर्ज पर पेशाब करनेवालों की जमात ढीठ होती चली गयी वैसे-वैसे इन निर्देशों में सख्ती आती चली गयी। शुरुआती दौर में जो निर्देश अपील का असर पैदा करती थी, एक किस्म का अनुरोध किया जाता था, धीरे-धीरे उसमें आदेश, हिदायत, जुर्माना और अपमानित करने के भाव समाते चले गये। लेकिन इन सबसे भी पेशाब करने का सिलसिला नहीं थमा और इन निर्देशों के आगे बर्बर तरीके के पेशाब अड्डे बनते चले गये। एक बार जिस बाउंडरी वॉल, खाली जगहों, गलियों के आगे कुछ लोगों ने धार बहायी कि समझदार हिंदुस्तानी समाज जो कि महाजनो येन गतः सः पंथः की धारणा पर भरोसा करता है, उसे ताल का रूप देने में लग गये। फिर लाख निर्देश लिखे जाएं, जुर्माने की बात की जाए, कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।
दिल्ली में इसी तरह निर्देशों के बेअसर हो जाने की वजह है कि हमें देखो मादरचोद पेशाब कर रहा है – देखो बहन का लंड पेशाब कर रहा है जैसे अश्लीलता की हद तक जानेवाले वाक्य दिखाई देते हैं। ऐसे वाक्य पेशाब करने और न करनेवाले को सामान्य रूप से अपमानित करते हैं। देशभर की वो तमाम स्त्रियां जो अपने घर में भी निपटान के लिए जाती हैं तो आगे-पीछे देख लेती हैं कि घर का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग ट्वायलेट के आसपास मंडरा तो नहीं रहा। लेकिन दिल्ली तो आखिर दिल्ली है। यहां ये दोनों संबोधन बहुत खास मायने नहीं रखते। यहां ये कोई गाली नहीं बल्कि झल्लाहट में निकले शब्द भर हैं। ऐसे में सीमापार जाकर अपमानित करनेवाले इन शब्दों की चिंता किये बगैर लोगों का पेशाब करना जारी रहता है। इन दोनों वाक्यों की लिखी तस्वीर रवीश कुमार ने अपने मोबाइल से खींची थी, जिसे कभी अविनाश ने मॉडरेटर कमेंट के साथ मोहल्ला लाइव पर लगाया। मैं दिल्ली के जिस ढीठपने और इन शब्दों को महज झल्लाहट में निकला शब्द कह रहा हूं, उसे रंगनाथ सिंह ने खांटी दिल्ली का उत्पाद बताया और साथ में ये भी जोड़ा कि बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों में मैंने देखा है कि कई लोग ऐसी जगहों पर देवी-देवतओं की तस्वीर लगा देते हैं।
तस्वीर लगाने का ये काम दिल्ली में भी खूब होता है। मैंने देखा है कि जहां सारे निर्देश बेअसर हो जाते हैं, वहां गणेश मार्का, हनुमान या शिव छाप कोई फोटो या टूटी हुई तस्वीर लगा दो तो फिर लोग वहां अपने आप पेशाब करना बंद कर देते हैं। ये देवी-देवता एक अदनी सी मूर्ति में अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए भी असर पैदा करते हैं। घरों, दुकानों के लिए बेकार हो गयी ये मूर्तियां और तस्वीरें हजारों रुपये की लागत से बनी एमसीडी के साईनबोर्डों की ड्यूटी बजाते हैं। पेशाब करने और लोगों को थूकने से मना करने के लिए तस्वीर वाला ये काम रामबाण जैसा असर करता है। इसी क्रम में कई जगहों पर लोगों का पेशाब करना बंद भी हुआ है। इसलिए अब तक जिन लोगों को इस बात की दुविधा रही है कि देवी-देवताओं ने इस देश को क्या दिया है, उन्हें यहां पेशाब न करो अभियान के असर को समझना चाहिए। सफाई अभियान में इन देवी-देवताओं के आगे सारे प्रयास बेकार हैं।
लेकिन पेशाब अड्डों की शर्तों पर लगी इन मूर्तियों और तस्वीरों के आगे की कार्यवाही को समझना कम दिलचस्प नहीं है। जहां-तहां धार बहाते हुए, रेड एफएम के लोगों को लाइन पर लाइन लाने और कन्टोल कल लोगे जैसे फीलर जनहित में जारी विज्ञापनों से बेपरवाह हम भूल जाते हैं कि हम पेशाब करते हुए इस शहर में, इस देश में मंदिर बनने की भूमिका तय कर रहे हैं। इस देश में पेशाब करने का मतलब है कि आप मंदिर बनाने की नींव तैयार कर रहे हैं। यहां ऐसे शुभचिंतकों, सफाई के महत्व को समझनेवाले और अव्वल दर्जे के धार्मिक लोगों की कमी नहीं है। दर्जन भर लोगों ने भी जहां कहीं लगातार धार बहानी शुरू की और उन्हें वहां स्थायी तौर पर पेशाब किये जाने के चिन्ह मिल गये कि समझिए वहां मंदिर बनाने और शिलान्यास का काम जरूरी हो गया।
इस देश में जितने भी मंदिर हैं, उनके पीछे कोई न कोई मिथ, पौराणिक कथा या फिर दावे के साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। कहीं बैठकर राम सुस्ताने लगे थे, तो कहीं रावण लगातार शू शू करता जा रहा था सो देवघर बन गया। कहीं पार्वती जली थी… वगैरह, वगैरह। वो तमाम कहानियां मंदिरों के बनने के तर्क को मजबूत करते हैं जो उल्टे आप ही से सवाल करे कि अब वहां मंदिर नहीं बनाते तो क्या करते? मैंने तो यहां तक देखा है कि मेनरोड पर कोई बंदर करंट लगकर मर गया तो लोगों ने उसे साक्षात हनुमान का अवतार मानकर आनन-फानन में मंदिर बना दिया। नतीजा अब वो रोड दिनभर जाम रहता है।
बहरहाल आप देशभर के मंदिरों के केयरटेकर पंडों से उसके बनने का इतिहास पूछें तो हरेक के पास कोई न कोई अलग किस्म की कथा होगी। लेकिन अपनी आंखों के सामने जो दर्जनों मंदिर मैंने बनते देखे हैं, अगर उन मंदिरों के पंडों ने ईमानदारी से जबाव देने शुरू किये तो सबों का जवाब लगभग एक होगा कि यहां पर आज से चार / पांच / छह / सात / आठ साल पहले लोग बहुत पेशाब करते थे। रास्ते से गुजरती हुई माताओं-बहनों को बहुत परेशानी होती थी। दिनभर भभका उठता था इसलिए स्थानीय भक्तजनों ने तय किया कि यहां मंदिर बना दिया जाए। देशभर में क्या, अकेले दिल्ली में ऐसे दर्जनों मंदिर हैं जहां कभी किसी देवी-देवता ने अवतार नहीं लिया (वैसे अवतार लेते कब हैं) और सिर्फ पेशाब करने से रोकने के लिए उन जगहों पर मंदिर बने हैं।
अब असल सवाल है कि ये मंदिर किस हद तक जनहित का काम करते हैं। इंदिरा विहार, विजयनगर, आर्ट फैकल्टी, पटेल चेस्ट से लेकर दिल्ली के उन तमाम इलाकों में इस अभियान के तहत जितने भी मंदिर बने हैं, वो पहले के बर्बर पेशाब अड्डों से कहीं ज्यादा गंदगी फैला रहे हैं। पेशाबघर तो छोड़िए, दड़बेनुमा इन मंदिरों में पंडों के लिए पखाने से लेकर किचन तक की जो स्थायी/अस्थायी सुविधा जुटायी गयी है, उससे किस हद तक की गंदगी निकलती है – उसे आप खुद मेन रोड पर बहती गंदगियों को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं। अवैध पेशाब के अड्डे सिर्फ बदबू पैदा करते हैं लेकिन ये मंदिर कभी माता जागरण तो कभी रामलला के नाम पर नियमित शोर। पेशाब अड्डों की बदबू फिर भी बर्दाश्त कर लें लेकिन जीना हराम कर देनेवाले हो-हल्लों का क्या किया जाए। ये पूरे महौल का सत्यानाश कर रहे हैं, उसे कैसे रोका जाए? लोगों के आने-जाने और इस्तेमाल की जानेवाली चीजों से जो गंदगी बढ़ती है वो तो अलग है।
पॉश इलाके के लोगों ने तो अपनी हैसियत से, स्पॉन्सर कराकर फाइव स्टार टाइप के मंदिर जरूर बना लिये, ये मंदिर भी टनों में कचरा पैदा करने के अड्डे बने लेकिन ये खोमचेनुमा सैकड़ों मंदिर जिस गंदगी को बढ़ा रहे हैं, उस पर कहीं कोई बात नहीं होती। ऐसे में आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अवैध तरीके से बनाये गये मंदिरों के मुकाबले इस देश को कहीं ज्यादा मूत्राशय और पखाने की जरूरत है। मनीषा पांडे के शब्दों में कहूं, तो वैसे तो ये पूरा देश ही ट्वायलेट है लेकिन अफसोस कि यहां ट्वायलेट नहीं है, इसे लेकर बहुत दिक्कत है। मन का मैल तो इन खोंमचेनुमा मंदिरों में पाखंड के रास्ते निकलकर डंप हो जाता है – लेकिन शरीर से जो मल निकल रहा है, उसका क्या? अगर इस देश में मूत्राशय से होड़ करके ही मंदिर बनना है तो सुलभ इंटरनेशनलवालो – प्लीज आप ही कुछ पहल कीजिए।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271229821313#c8972963120940576344'> 14 अप्रैल 2010 को 12:53 pm बजे
कुछ चीजों को रखे बिना भी अपनी बात कही जा सकती है . शायद इसीलिये कहा जाता है दिल्ली में कल्चर नहीं वल्चर है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271230028036#c1719806687572437840'> 14 अप्रैल 2010 को 12:57 pm बजे
मन का मैल तो इन खोंमचेनुमा मंदिरों में पाखंड के रास्ते निकलकर डंप हो जाता है – लेकिन शरीर से जो मल निकल रहा है, उसका क्या?
और फिर किसी स्थान पर मल-मूत्र न करें इसके लिये जिस तरह की उक्तियाँ लिखी जाती हैं वे उस मल-मूत्र से भी ज्यादा गन्दगी पैदा करती हैं.
सुविधा होने पर कौन खुले में मूत्र त्याग करना चाहेगा?
सुन्दर आलेख. मन्दिरों से कचरा ही उत्पन्न होता है. मूत्रालय की जरूरत ज्यादा है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271245512080#c8220894090356329388'> 14 अप्रैल 2010 को 5:15 pm बजे
nice
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271381016991#c4740856559133338210'> 16 अप्रैल 2010 को 6:53 am बजे
यही दुनिया है तो ऐसी ये दुनिया क्यू है..
यही होता है तो आखिर यही होता क्यू है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271697883552#c4731285919014288533'> 19 अप्रैल 2010 को 10:54 pm बजे
pahal jaruri hai!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271702596316#c3150143797445816388'> 20 अप्रैल 2010 को 12:13 am बजे
हम भी कहते हैं फिर से एक बार
इस देश को मंदिर नहीं मूत्रालय की जरुरत है
लेकिन गंदगी वैसे ही हो जाती है कि मूत्रालय में जाना काफी साहस का काम बन जाता है इसीलिए मैंने देखा है कि कई जगह मूत्रालय के बावजूद लोग उसके बाहर हल्के होते हैं ।
यह समस्या मूत्रालय न होने से भी बडी है । रखरखाव की
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1271832151090#c8404086529000005706'> 21 अप्रैल 2010 को 12:12 pm बजे
समझ नहीं आ रहा है कि किन शब्दों में आपके इस लेख की तारीफ करूँ. बहुत अच्छे चित्र, बहुत अच्छे शब्द इस्तेमाल किये आपने शायद ये सोचकर कि क्या जरुरत है बनावटी होने की. जो सच है वो सबको देखने की जरुरत है. यहाँ मैं महेश सिन्हा जी की पहली पंक्ति से पूरी तरह सहमत हूँ.
दूसरी बात, मनीषा पाण्डेय क्यूँ रहती हैं इस मूत्रालय में अगर उन्हें पूरा देश ही मूत्रालय लगता है. उन्होंने या आपने क्या किया इन रोडसाइड मूत्रालयों को बंद करने के लिए. ब्लॉग पर खरी खरी लिखने से कुछ नहीं होता भाईसाहब.
तीसरी बात, मैं लखनऊ में रहता हूँ और मतलब भर का दिल्ली भी टहला हूँ. मुझे मंदिर या मस्जिद से कोई लगाव नहीं पर ऐसा कम ही देखा है जैसा वर्णन आपने किया है. तर्क ही गलत लगता है. अक्सर लोग रोड के किनारे किसी दीवाल को गिराने की भरसक कोशिश करते हैं. वहां मंदिर कैसे बन सकता है ये बताइए. हो भी सकता है पर आप कम से कम इसे युनिवर्सल सच का जामा मत पहनाइए. सच कहूँ, तो ,मैंने जो लेख आपके अब तक पढ़े हैं, उनमें सबसे निचले दर्जे का ये है.
डोंट माइंड प्लीज.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html?showComment=1272439861863#c8612894692846029054'> 28 अप्रैल 2010 को 1:01 pm बजे
is blog ka title agar parhej na ho to yeh kar dijiye " is desh ko mandir, maszid, mazar, girjagharon ki nahi mutralay ki jaroorat hai"