देहरादून में ‘दून रीडिंग्स’ के नाम से होनेवाले तीन दिवसीय (अप्रैल 2-4) साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता जब हमें पेंगुइन इंडिया की तरफ से मिला तो हम काफी एक्साइटेड हुए। एक तो दिल्ली की किचिर-पिचिर जिंदगी से छिटककर तीन-चार दिन तक देहरादून में पड़े रहने के सुख का ध्यान आया, ये अपने को रिचार्ज करने जैसा है और दूसरी बात कि प्रोग्राम शिड्यूल में प्रसून जोशी का नाम देखकर मेरी एक्साइटमेंट थोड़ी और बढ़ी कि टीवी देखते हुए, रियलिटी शो में कमेंट करते हुए और इनके लिखे गानों और विज्ञापनों को सुनते हुए अब तक जो छवि बनी है, जब वो साहित्य और संस्कृति के मसले पर बात करेंगे तो देखते हैं कि उनकी छवि पहले से और मजबूत होती है, ध्वस्त होती है या फिर कोई अलग किस्म की छवि बनती है। लेकिन हमें कार्यक्रम के शुरुआती दौर में ही उदासी झेलनी पड़ी। आयोजक की तरफ से घोषणा हुई कि वो नहीं आ सकेंगे। एसएमएस के जरिए जो उन्होंने खेद भरा संदेश भेजा, उसे ही सुना दिया गया।
देहरादून आने का बहुत मन था। कुछ नयी कविताएं भी सुनाने वाला था। पर कुछ चीजें शायद हमारे हाथ में नहीं होतीं। अपनी नयी कविता ख्वाब खर्च करके भी सुनाता। मैं ख्वाब खर्च करके खाली हो गया हूं। पतझड़ के बाद गुमसुम डाली सा हो गया हूं। पर पूरी कविता वहीं आकर जल्द ही पढूंगा। आप सबसे रूबरू होकर। वैसे भी चाहे शरीर से मैं कहीं भी रहूं, मन हमेशा उत्तराखंड के पहाड़ों में ही रहता है। मेरे उत्तराखंड के सभी साथियों को बहुत बहुत स्नेह।
आपका,
प्रसून जोशी
दिल्ली से मीडिया की जो पूरी टीम, इस इवेंट को कवर करने आयी, उनके हिसाब से कार्यक्रम का एक बड़ा आकर्षण खत्म हो गया। प्रसून जोशी जो भी बोलते, वो मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए खुराक होता।
बहरहाल, दिल्ली और देहरादून के भारी ट्रैफिक जाम को झेलते हुए जब हम निर्धारित समय से करीब १५ मिनट लेट पहुंचे तब तक कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी। उत्तराखंड के प्रमुख सचिव एनएस नपालचायल के हाथों कैंडल लाइटनिंग और दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर के निदेशक डॉ बीएन जोशी के शुभकामना संदेश के साथ अकेता होटल के लॉन में छह सौ के करीब बैठी देहरादून की एलीट ऑडिएंस कार्यक्रम से जुड़ चुकी थी। मेरे पहुंचने तक कार्यक्रम का मिजाज पूरी तरह बदल चुका था। ये औपचारिकताओं से हट कर सीधे-सीधे मुद्दे पर जाकर फोकस हो गया था। लॉन में घुसते ही मंच पर हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, बॉलीवुड के मशहूर एक्टर और जादुई आवाज के मालिक टॉम आल्टर को देखकर अच्छा लगा। गढ़वाल के मशहूर लोक गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी को देखकर कतार में बैठी ऑडिएंस के बीच फुसफुसाहट शुरू हो गयी कि देखना, ये माहौल जमा देगें। मंच संचालक के तौर पर मौजूद डॉ शेखर पाठक को देखकर हमें क्भी जेएनयू में देखी ‘पहाड़ पत्रिका का ध्यान आया जो पर्वतों और उसकी संस्कृति से जुड़े सवालों पर काम करनेवाले लोगों के लिए एक जरूरी मटीरियल है। शेखर पाठक ने मंच पर बैठे कवियों को ऑडिएंस के मिजाज को देखते हुए कविता पाठ करने के लिए बुलाने से पहले हिंदी कविता की उस लंबी परंपरा का विस्तार से जिक्र किया जिससे कि देहरादून और उत्तराखंड में पले-बढ़े कवि जुड़ते हैं। तारसप्तक से लेकर अब तक कविता की चर्चा करते हुए शेखर पाठक ने समकालीन कविता की मौखिक किंतु गंभीर बारीक चर्चा की। ये अलग बात है कि हिंदी साहित्य से इतर लोगों के लिए ये सिर्फ परिचय जैसा ही था और देहरादून की ऑडिएंस के लिए बार-बार गर्व करने का विषय कि वो एक बहुत ही प्रसिद्ध और हैसियत रखनेवाले शहर से आते हैं। इस परिचय के दौरान ही उन्होंने कविता में हिंदी और अंग्रेजी का वर्चस्व होने की स्थिति में अभिव्यक्ति के स्तर पर विविधता के खत्म होने की बात की। एक भाषा के वर्चस्वकारी प्रभाव में आकर उसके साथ चलनेवाली बोलियां और भाषिक प्रयोग कैसे खत्म होते हैं, शेखर पाठक की टिप्पणियों से हमें बेहतर तरीके से समझ आया। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि प्रसून जोशी के न आने का मलाल जाता रहा और हम जैसा हिंदीवाला जो कि कभी मंच पर बैठे कवियों के एक-एक संकलन को खोजने के लिए दिल्ली के दरियागंज में पागल हुआ फिरता था, उसका चित्त स्थिर हो आया कि चलो कुछ बेहतर ही सुनने को मिलेगा।
शेखर पाठक की तरफ से कविता को लेकर दिये गंभीर परिचय से मामला कुछ इस तरह से बन गया कि सामने बैठी ऑडिएंस ने मानसिक स्तर पर अपने को तैयार कर लिया कि ये आम तौर पर लाफ्टर चैलेंज से होड़ लेनेवाली कविता नहीं है। ये सरोकारों और साहित्यिक गंभीरता की कद्र करनेवाली कविता है। इसलिए ऑडिएंस के बीच थोड़ी सी आवाजाही का माहौल बनता लेकिन फिर लंबे समय तक ठहरनेवाली शांति छा जाती है। कविता पाठ के लिए सबसे पहले लीलाधर जगूड़ी को आमंत्रित किया जाता है।
लीलाधर जगूड़ी अपनी दो कविता (एक तो बहुत लंबी और दूसरी उससे थोड़ी कम लंबी) पढ़ने के पहले साथ में एक जानकारी भरी टिप्पणी जड़ते हैं। जानकारी अपने रचना संसार को लेकर है कि उनके अब तक 12 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उनमें कुल सात सौ के करीब कविताएं संकलित हैं और टिप्पणी इस बात को लेकर कि अब सारी की सारी कविताएं तो याद नहीं रहती और न ही वो उन मंचीय कवियों की तरह हैं कि अपनी लिखी कुल कविताओं में से दस-बारह को याद कर लेते हैं और फिर उन्हीं को सब जगह बार-बार सुनाते रहते हैं। कंटेंट से इतर जगूड़ी ने आदत के स्तर पर भी मंचीय कवि से अपने को अलग किया। जगूड़ी ने इस बात पर जोर दिया कि कविता में इस बात को हर हाल में शामिल किया जाना चाहिए कि आज की दुनिया कैसी है, जीवन में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं। यानी सामयिक स्तर पर कविता को सचेत होना चाहिए और इसी क्रम में उन्होंने पुरुषोत्तम की जनानी नाम से अपनी लंबी किंतु प्रसिद्ध कविता का पाठ किया – एक पेड़ को छोड़कर फिलहाल मुझे कोई जिंदगी याद नहीं आ रही, जो जिस समय डरी हो, उसी समय मरी न हो। और दूसरी कविता नये जूते जो कि इस ग्लोबल होते बाजार के होने और न होने के बीच के सन्नाटे का बयान करती है।
जगूड़ी के बाद हिंदी के मशहूर कवि मंगलेश डबराल जो कि कविता में अनरिटेन हिस्ट्री को सहेजने और संजोनेवाले कवि के रूप में जाने जाते हैं। जिनकी कविता पाठ रहित इतिहास के बीच लाइव हिस्ट्री समेटने की ताकत रखती है, उन्होंने कविता पाठ शुरू किया। मंगलेश डबराल ने लीलाधर जगूड़ी की कविता की साइज से अपनी कविता की साइज की तुलना करते हुए कहा कि मेरी कविता उतनी बड़ी नहीं है, उससे छोटी है और बाकी हर मामलों में छोटी है क्योंकि मैंने उनके बाद लिखना शुरू किया। मंगलेश डबराल ने सबसे पहले दरवाजे और खिड़कियां नाम की अपनी प्रसिद्ध कविता सुनायी और उसके बाद पत्थर। ये दोनों कविताएं अभी दो दिन पहले ही दिल्ली के इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में THE WORLD, THE POET, THE IMAGE कार्यक्रम में सुनकर आया था। इससे पहले भी ये दोनों कविताएं मैंने डी स्कूल में सुनी है। इसलिए मेरी तरह अगर किसी और ऑडिएंस ने इन कविताओं को एक से ज्यादा या फिर बार-बार सुनी हो तो वो लीलाधर जगूड़ी की इस बात से शायद असहमत हो जाएं कि रिपीटेशन का काम सिर्फ और सिर्फ मंचीय कवि करते हैं। सरोकार और गंभीरता के स्तर पर लिखनेवाले कवि भी अपनी कुछ कविताओं को लेकर बहुत ही पजेसिव होते हैं और इसे कई जगहों पर रिपीट करते हैं। इसके पीछे संभव है कि कई जेनुइन कारण हों। बहरहाल इन दोनों कविताओं के अलावा मां की तस्वीर से ऑडिएंस भावानात्मक स्तर पर जुड़ती है और तालियों की खनक भी यहां तक आते-आते बढ़ जाती है।
उत्तराखंड के लोगों के बीच नरेंद्र सिंह नेगी बहुत ही लोकप्रिय और सराहा जानेवाला नाम है। नेगी साहब के लोकगीतों की खास बात है कि वो उत्तराखंड की पौराणिकता जो कि यहां की पहचान है, उससे अलग रचना के स्तर पर सामयिक मसलों को लेकर लगातार सक्रिय हैं। इसलिए भला-भला गीत लग्यौ ल में किसानी संस्कृति का जो खुशनुमा अंदाज बयान करते हैं, वहीं दूसरी रचना में सीधे-सीधे मौजूदा महंगाई की विस्तार से चर्चा करते हैं। ये आदमी की समस्याओं की रचनात्मक कराह है। कन क्वै खेलडणा, अब भारी गरीबी ह्वैगे – जिंदगी में ये कराह अपने चरम पर है।
तीन दिनों तक चलनेवाले इस दून रीडिंग्स में आकर टॉम आल्टर को सुनना, मैं इस पूरे कार्यक्रम के बीच अपने लिए एक बड़ी उपलब्धि मानता हूं। उन्हें सुनना कुछ उसी तरह से है, जैसे हममें से कई लोग नसीरुद्दीन शाह के न होने पर भी सिर्फ उनकी आवाज को सुनने के लिए जा सकते हैं। टॉम साहब की जो आवाज है, हिंदी-उर्दू के शब्दों का जो चयन है, उसे सुन कर हम जैसे हिंदी प्रैक्टिसनर को अपनी भाषा और समझ से कोफ्त होने लगती है और जुबान से सिर्फ एक ही शब्द निकलता है – काश, हम भी… टॉम आल्टर नज्म पेश करने के पहले हिंदुस्तानी दिलों में तैरनेवाली फिल्म राम तेरी गंगा मैली के उस प्रसंग की चर्चा करते हैं, जहां वो स्क्रिप्ट में रामपुर की जगह मसूरी लिख कर फेरबदल करते हैं। आल्टर साहब को लगता है कि सिनेमा में उनके शहर का भी नाम आ जाए, जिसे राजकपूर पकड़ लेते हैं और कहते हैं – अब बताओ, मंगलू जैसा चोर-बदमाश क्या मसूरी से आएगा, क्या ऐसा लिखना ठीक रहेगा?
आल्टर एक पहाड़ी की उस आलोचना को भी याद करते हैं जिसे कि देश का बड़ा से बड़ा पत्रकार और फिल्म रिव्यूअर भी नहीं पकड़ पाया। उस औसत पहाड़ी ने टॉम आल्टर से सवाल किया कि आप और राजकपूर हम पहाड़ियों को क्या समझते हैं, क्या हमारे दिल नहीं है, क्या हम जज्बाती नहीं हैं – राम तेरी गंगा मैली क्या वाहियात फिल्म बनायी है। उस फिल्म में आप भाई बनते हैं, जान की कुर्बानी देकर उसकी रक्षा करते हैं लेकिन उस बहन की जुबान पर एक बार भी भाई का नाम नहीं? टॉम आल्टर इस प्रसंग को अभिभूत होकर सुनाते हैं और बताते हैं कि राजकपूर ने कहा कि सचमुच हमसे बड़ी चूक हुई है। इन प्रसंगों को सुनाने के बाद टॉम आल्टर ने दो नज्में हमें सुनायी। एक तो डॉ इदरार हट्टी साहब की और दूसरी कॉम वॉन की। उर्दू में होने की वजह से ये दोनों नज्म पूरी तरह तो समझ में नहीं आयी लेकिन जो भी और जितना भी समझ पाया ये सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि आल्टर की आवाज और उच्चारण की वजह से।
इस कार्यक्रम में हमें बसंती विष्ट और उनकी टोली का जागर जीत सुनने को मिला। जागर एक तरह से पौराणिक कथाओं को गाकर सुनने की विधा है। लेकिन इसे सामान्य तौर पर गद्य की गायन शैली में शामिल नहीं कर सकते। कथा की पूरी तस्वीर आपके सामने उभरती है लेकिन आपके भीतर जो अंतिम प्रभाव स्थायी तौर पर रह जाता है, वो है इनके गाने का अंदाज। इस जागर में पौराणिक कथाओं के अलावा भी कई लोक-कथाएं शामिल हैं। इस जागर में जो चीजों को बयान करने की जो शैली है, उसी शैली में अगर सामयिक मसलों और समस्याओं को, सरकारी अभियानों और प्रचारों को शामिल कर लिया जाए तो एक असरदार अभिव्यक्ति लोगों के सामने उभरकर आएगी। ये कुछ-कुछ दास्तानगोई सा होगा जिसके कहने की शैली तो बहुत पुरानी है लेकिन उसके भीतर मेटाफर के जरिये सामयिक मसलों को शामिल किया जा सकता है। मैंने तो इसे पहली बार सुना लेकिन जो लोग इसे बार-बार सुनते हैं और कथा रिपीट होती है तो ऐसे में इसे सिर्फ पौराणिक प्रसंगों तक सीमित रखने के बजाय सामाजिक मुद्दों से जोड़ना बेहतर होगा।
देहरादून आकर मैंने महसूस किया कि यहां अभिव्यक्ति और कलाओं में प्रकृति के साथ की साझेदारी के साथ इसे बचाने की पुरजोर कोशिशें बनी हुई हैं। ऐसा सिर्फ लगाव के कारण से नहीं है और न सिर्फ इसलिए कि यहां के लोगों में प्रकृति अबाध रूप से शामिल है बल्कि ऐसा इसलिए भी है कि शायद वो मानते है कि बिना प्रकृति को शामिल किये न तो अभिव्यक्ति संभव है और न ही कला रूप। रचना और कला के स्तर पर उनके इस प्रयास की नोटिस ली जाए तो बेहतर होगा। शर्मिला भर्तृहरि ने गंगा को लेकर जो अपनी प्रस्तुति दी और वीणा जोशी ने जो क्लासिकल प्रस्तुति दी, उससे तो मैं यही समझ पाया। हां ये बात जरूर है कि इस पूरे कार्यक्रम में मैंने एक बात शिद्दत से महसूस की कि इन सब चीजों को बचाने और व्यक्त करने को लेकर सिर्फ और सिर्फ धार्मिक और पौराणिक आग्रह न होकर एक प्रोग्रेसिव और साइंटिफिक एप्रोच भी हो तो असर का विस्तार ज्यादा होगा।
दो तारीख का डिनर गेल इंडिया लिमिटेड की तरफ से स्पॉन्सर्ड था। खाना हमें दिल्ली के बाकी कार्यक्रमों की तरह ही लगा। मेनू भी दिल्ली ही तरह तय था। हां लोग मटन रोगन जोश की बहुत तारीफ कर रहे थे और एसएस निरूपम चावल के स्वाद पर फिदा होते नजर आये। मुझे शिमला एडवांस स्टडीज में बिताये गये उन आठ दिनों की याद ताजा होने लगी जब हमने काफी कुछ इसी स्वाद में खाया। ओमप्रकाश वाल्मीकि से मिलकर ये यादें और जीवंत हो उठीं। रात के डिनर में पुष्पेश पंत, यतींद्र मिश्र, इरा पांडे जैसे नामचीन लोग नजर आये जो कि आज अपनी बात रखेंगे। उम्मीद करते हैं कि आज का कार्यक्रम हिंदी समाज की तमाम बहसों के बीच एक बेहतर दखल होगा। हम यहां की एक-एक घटनाओं की खबर आप तक पहुंचाएंगे, फिलहाल दिल्ली से आये अपने तमाम पत्रकारों जिनमे से कि अब कई दोस्त होने-होने के करीब हैं, पूरे सेशन को एनजॉय कर रहे हैं।
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270300361286#c162070087082272392'> 3 अप्रैल 2010 को 6:42 pm बजे
Vineet Basanti Visht ji ko mera Namashkar kahen !
report dete rahiye, nyota mujhe bhi mila tha lekin nahi ja saki, waise abhi abhi to inhi sab logon se milkar aai hun.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270300880528#c5232554799185182234'> 3 अप्रैल 2010 को 6:51 pm बजे
आज सुबह ही यह रपट बांची थी मोबाइल पर।
कवियों और माहौल के बारे में बताते और मौजियाते हुये चकाचक रिपोर्ट पेश की है।
लीलाधर जगूड़ी का अपने बारे में बताना। कवियों का अन्य मंचीय कवियों की तरह सुनी-सुनाई सुनाना। एक पहाड़ी का ’राम तेरी गंगा मैली’ बनाने वालों से हुई चूक पर उनको उलाहना देना।
आगे की रपट का भी इंतजार है। जिन कवियों और वक्ताओं का जिक्र किया उनके आडियो वर्जन पेश किये जा सकें तो क्या कहने!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270305445665#c7938998133026467503'> 3 अप्रैल 2010 को 8:07 pm बजे
विनीत ,क्या देहरादून में पहाड़ और ठण्डक हैं ?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270305872788#c5596225153042885949'> 3 अप्रैल 2010 को 8:14 pm बजे
देहरादून की बात निराली है। देहरादून में इस तरह के आयोजन निश्चित रूप से सराहनीय है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270311900444#c8144431940803817188'> 3 अप्रैल 2010 को 9:55 pm बजे
पूरा मंच साकार हो गया। बढिया प्रस्तुति।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html?showComment=1270325387696#c5237690875070271921'> 4 अप्रैल 2010 को 1:39 am बजे
bahut badhiya rapat,
tom alter saheb ko kabhi live suna to nahi lekin han pahle bhi unki bhaasha aur uccharan ki tareef padhi hai maine...
dekhiye kab ham aise bade logo se rubaru sun ne ka lutf le sakte hain...