अशोक चक्रधर ने पीएच.डी सहित उसके पहले और बाद जो भी डिग्रियां और सम्मान हासिल किये है,वो सब फर्जी है। अशोक चक्रधर को हिन्दी भाषा तकनीक के विकास के लिए'माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वेल्युएबल प्रोफेशनल'का जो अवार्ड मिला है उसकी कोई मुराद नहीं है,वो बाजार और कार्पोरेट प्रभावित अवार्ड है,उसका हिन्दी समाज के बीच कोई मोल नहीं है। हजारों की भीड़ जो उन्हें सुनती है वो औसत से भी कम दिमागवाले उनलोगों की जमात हैं जिन्हें साहित्य और सरोकार की एबीसी भी नहीं मालूम। टेलीविजन और जनमाध्यमों के जरिए हिन्दी के विकास के नाम पर जो कुछ भी किया वो सब बकवास है। ये सारे सम्मान और प्रोत्साहन पानेवाले अशोक चक्रधर को ये भले ही लग रहा होगा कि उन्होंने हिन्दी के जरिए नए और अलग किस्म की उंचाईयों को छुआ है,हिन्दी को एक नयी इमेज देने की कोशिश की है,खुद सम्मान देनेवाली संस्था को ऐसा लग रहा होगा कि उन्होंने एक जेनुइन 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'को सम्मान दिया है। लेकिन सच बात तो ये है कि हिन्दी समाज के लिए ये सब कुछ कूड़ा है। शुद्ध कचरा है। वैसे भी "साहित्य से चक्रधर का कोई लेना-देना नहीं है। मुक्तिबोध पर कभी पीएचडी जरूर की थी। जामिया में पढ़ाने भी लगे। लेकिन मशहूर हुए हास्यकवि के नाते। तुकों में उन्हें महारत हासिल है।" अशोक चक्रधर को हिन्दी साहित्य और समाज के लिए गैरजरुरी करार देने के लिए मुझे नहीं लगता कि इससे और अधिक शब्दों और अभिव्यक्ति की जरुरत होगी।..और जो थोड़ी बहुत कसर रह जाती है तो उनके काम को सत्ता के गलियारों के लिए चहलकदमी करार देकर मामले को नक्की किया जा सकता है।
पूरे हिन्दी समाज के बीच एक दिलचस्प पहलू है कि यहां सक्रिय( ये सक्रियता लिखने-पढ़ने के अलावे बाकी कई स्तरों पर संभव है) वो तमाम लोग पुरस्कार,डिग्रियां और सर्टिफिकेट पाने के लिए जितने बेचैन रहते हैं,उससे रत्तीभर भी कम दूसरों के लिए सर्टिफिकेट जारी करने के लिए नहीं रहते। हर बड़ा से छोटा हिन्दी समाजी दूसरे 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'( पहले रचनाकार, अब इसी शब्द से काम चलाइए)के नाम सर्टिफिकेट जारी करने के लिए बेचैन है। ये हिन्दी के संस्कार में है और इसकी ट्रेनिंग हिन्दी समाज में आते ही मिलनी शुरु हो जाती है। इसलिए अब इसे कोई प्रवृत्ति न मानकर नस्ल पैदा करने की पुरजोर कोशिश कहें तो बात ज्यादा आसानी से समझ आएगी। ऐसे में बीए फर्स्ट इयर का बंदा भी आधा-गांव नाम शामिल करते हुए रज़ा साहब को पोंडी लिखनेवाला करार दे दे तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 'रंगभूमि'को जलाने पर आमादा हो जाए तो हमें अफसोस नहीं होना चाहिए। बल्कि साहित्य की इस नस्ल को बढ़ानेवालों के लिए सिलेब्रेट करने का दौर है कि उनकी मेहनत सही दिशा में काम कर रही है। हिन्दी समाज में लिखाई-पढ़ाई और विश्लेषण का एक बड़ा हिस्सा यही सर्टिफिकेट जारी करने और हर लिटरेचर प्रैक्टिसनर की पीठ पर लेबल चस्पाने के काम से जुड़ा है।.. लेबल चस्पाने की व्यक्तिगत स्तर पर ली गयी सबों की अपनी-अपनी ये ट्रेनिंग जब सामूहिक स्तर पर एकरुप होती है तो सर्टिफिकेट जारी करने की स्थिति तक पहुंचती है। हिन्दी अकादमी की बेशर्म लीला के बहाने अशोक चक्रधर को जो सर्टिफिकेट जारी करने की बात आज हम कर रहे हैं,जिसे कि हिन्दी समाज के नामी-गिरामी लोग सामूहिक प्रतिरोध का स्वर कह रहे हैं वो दरअसल लेबल चस्पाने के काम के पूरा कर लेने के बाद सर्टिफिकेट जारी करने की तैयारी है। यानी किसी लिटरेटर प्रैक्टिसनर पर लेबल चस्पाना वो शुरुआती प्रक्रिया है जहां से सर्टिफिकेट जारी करने की भूमिका शुरु होती है।
लेकिन लेबल चस्पाने की इस बेशर्म आदत के बीच किसी शख्स को सर्टिफिकेट जारी करना,क्या मामला यही तक का है। हिन्दी समाज व्यवहार के स्तर पर जादुई यथार्थवाद का विरोध करते हुए भी उसका शिकार रहा है। उसने मोर्चे की लड़ाई को अक्सर सब्जेक्टिविटी में बदलने का काम किया है। बहस का दायरा यो तो इतना बड़ा किया है कि मुनिरका की स्थानीय समस्या में पूरी अमेरिका की समस्या समा जाए या फिर संसद के सवाल महज भटिंडा तक के सवाल बनकर रह जाएं। इन दोनों ही स्थितियों में अकाउंटबिलिटी के सवाल से वो मुक्त हो जाते हैं। किसी को कहीं कोई जबाव नहीं देना होता,न किसी से रार होती है क्योंकि सब तो सब्जेक्टिव है।..या फिर रार लेनी ही है तो उसे पर्सनल तक ले जाओ। अशोक चक्रधर के मामले में यही हुआ है। ये उदाहरण देते हुए थोड़ी असहजता भी होती है लेकिन अगर हिन्दी समाज के महारथियों को सचमुच में अगर साहित्य को लेकर चिंता होती तो फिर लोलियाकर बोलनेवाले मुकुंद द्विवेदी के उपाध्यक्ष बनने पर क्यों चुप मार गए? उससे पहले भी कई ऐसे लोग आए-गए,उन्हें क्यों पचा गए? अकादमियों में कितने और कैसे-कैसे गुणी लोग विराजमान है,यहां कोई लिस्ट जारी करने की जरुरत नहीं है। मुझे तो लगता है कि ऐसी संस्थाओं का एक आम फार्मूला है कि अध्यक्ष,उपाध्यक्ष,सचिव ऐसे लोगों को बनाओ जिसे कि सरकार के अलावे कोई नहीं जानता हो। जिनकी रचनाएं या तो सरकारी अलमारियों में सजी हो या फिर जिन्हें दोस्ती-यारी में बंटवाने के लिए छपवायी गयी है। जिसे कोई हिन्दी पाठक नहीं जानता हो। अशोक चक्रधर के मामले में अबकी बार सरकार से जरुर चूक हुई है।
अशोक चक्रधर की जिस तुकनवाजी पर ओम थानवी ने व्यंग्य किया है वो दरअसल उनकी प्रतिभा और उनके आचरण को एक-दूसरे से गड्डमड्ड करके लाने की जुगत है। ओम थानवी जैसे भाषाई स्तर पर सचेत पत्रकार के लिए ये एक चूक है। अगर किसी इंसान में तुकबंदी करने का कौशल है और किसी पार्टी की सुविधा के लिए जय हो की पैरॉडी तैयार करता है तो आप उसका विरोध कीजिए,उनके खिलाफ अभियान चलाइए। लेकिन उसकी आड़ में आप तुक मिलाने की प्रतिभा को खारिज नहीं कर सकते। अशोक चक्रधर की कविताई,तुकबंदी और एक्सटेम्पोरे को लेकर जो गंभीर साहित्य को पूजनेवाले लोग विरोध कर रहे हैं वो ऐसा करते हुए भूल जाते हैं कि वो साहित्य और अभिव्यक्ति की एक मजबूत विधा को हतोत्साहित करने में लगे हैं। आप हिन्दी समाज की बिडम्बना देखिए कि उसने कभी दो सौ साल से भी ज्यादा इस समस्यापूर्ति,तुकबंदी,हाजिस जबाबी और छंदों का सेवन किया,एक-एक मिसरे पर तालियों की थाक लगा दी,इसके समर्थन में भी लिखनेवाले लोग हिन्दी के बाबा हुए और इसके विरोध में लिखनेवाले भी बाबा हुए। आज उस विधा को लेकर कैसी हिकारत है। ये पॉपुलर होते साहित्य का खास किस्म का एलीटिस्ट विरोध है।
हिन्दी में क्या साहित्य है,क्या साहित्य नहीं है इस पर दर्जनों किताबें और लेख छप चुके हैं। इस पर बहस करनेवाले इससे भी ज्यादा दर्जन में डिफाइन करनेवाले लोग हैं। फिर भी है कि साहित्य की सुरक्षा घेरे में सेंध लग जाता है।..और अशोक चक्रधर जैसे तुक मिलानेवाले लोगों के आने पर फिर से डिफाईन करने की जरुरत पड़ जाती है। जब तक कोई और मानक तय न हो,सुविधा के लिए आप ये मान लीजिए कि गुपचुप तरीके से हिन्दी महारथियों का बनाया गया फार्मूला है कि जो ज्यादा पढ़ा जाए,ज्यादा पॉपुलर हो या सुना जाए वो कभी भी साहित्य नहीं हो सकता,वो कभी भी साहित्य की कोटि में नहीं आ सकते। जिस किताब को खोजने के लिए दरियागंज में तीन-चार चक्कर लगाने न पड़ जाएं वो फिर साहित्य कैसा? हिन्दी में कई ऐसी रचनाएं और रचनाकार इसी फार्मूले के तहत खारिज किए गए हैं। जिनकी कविताएं आपको जुबान पर याद है,वो कवि हो ही नहीं सकता। इस अर्थ में हिन्दी के हरेक लिटरेचर प्रैक्टिसर औऱ उसकी रचना को अनिवार्य रुप से दुर्लभ,खास मौके पर ही उपलब्ध,कम लोगों द्वारा पढ़ा जाना,पांच सौ प्रति के फार्मूले के तहत छापा जाना अनिवार्य है। इससे ज्यादा जहां वो पढ़ा गया,सुना या छापा गया तो समझ लीजिए कि वो बाजार का आदमी है,वो पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक है,वो सत्ता के लिए बोतल की तरह इस्तेमाल में आनेवाला शख्स है, वो संस्कृति विरोधी है।..और हिन्दी समाज ऐसे लोगों और रचनाओं को कैसे बर्दाश्त कर लेगी। इनके हिसाब से हिन्दी का विकास हर हाल में रहमो-करम पर ही संभव है। दया,सहानुभूति,अनुकंपा से इतर जहां इसके विकास और प्रसार के रास्तों की खोज की गयी तो समझिए कि हिन्दी का नाश हो रहा है।
लेकिन अशोक चक्रधर और पॉपुलर माध्यमों के जरिए हिन्दी का विरोध करनेवाले लोग जिनकी कोशिश हिन्दी को हमेशा वर्जिनिटी के चश्मे से देखने की रही है,ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन सिर्फ और सिर्फ गंभीर और गरीष्ठ साहित्य के विकास के लिए नहीं किया गया है। उसमें हिन्दी भाषा और सांस्कृतिक कार्यक्रम से लेकर उन तमाम तरह की गतिविधियों की हिस्सेदारी उतनी ही शामिल है जितनी कि अकेले साहित्य की दावेदारी की की जाती है।..और अगर इतनी सी मोटी समझ भी वापस आ जाए कि हिन्दी का मतलब सिर्फ साहित्य ही नहीं है,उसमें भाषा का विकास भी शामिल है तो अशोक चक्रधर के जय हो,विजय हो लिखे जाने का पूरजोर विरोध किए जाने के बाद भी भाषाई स्तर की लोकप्रियता के लिए कुछ और चक्रधर की दरकरार महसूस होगी। इस काम के लिए हमें चक्रधर या किसी शख्स के विरोध और समर्थन में आने की जरुरत नहीं है बल्कि हमारी लड़ाई इस बात को लेकर होनी चाहिए कि हिन्दी भाषा के नाम पर साहित्यकारों और आलोचकों की जो किलाबंदी होती है,उसे ध्वस्त किए जाएं।
अगर इन साहित्य के महारथियों को( कृष्ण वलदेव वैद के अपमान का प्रतिरोध करनेवाले लोगों का सम्मान करते हुए)हिन्दी को लेकर सचमुच कोई चिंता होती तो सबसे पहले हिन्दी अकादमी के नाम आरटीआई करते। उनसे ये जरुर सवाल करते कि करीब 90 लोगों का वेतन यहां से जाता है और मात्र 22 से 25 लोग हिन्दी अकादमी का काम करते हैं। बाकी के लोग सरकार के दूसरे विभागों में हैं,वो यहां अपनी शक्ल तक नहीं दिखाते,इस बारे में आपके पास क्या रिकार्ड है? हिन्दी पर एहसान करने का जो आंकड़ा आपके पास है उसके भीतर की सच्चाई क्या है? इन महारथियों को अगर भाषा को लेकर सचमुच सीरियसनेस होती तो हिन्दी भाषा के वर्चुअल स्पेस में आने के बाद 2.0 की पूरी कहानी बताते,समझाते। हिन्दी फॉन्ट को लेकर दुनियाभर में हुई मारामारी,परेशानियों और लगाए गए एफर्ट की चर्चा करते लेकिन इस मुकाम पर मुंह पर ताला जड़कर बैठे हैं। न्यू मीडिया के बीच की हिन्दी पर विस्तार से चर्चा करते। लेकिन नहीं,
हिन्दी के ये महारथी,हिन्दी की पूरी पताका विचारों और भगवा और गाढ़ा भगवा के बीच ले जाकर ही फहराना चाहते हैं। लेकिन वो इस बात को इस स्तर पर विमर्श करने की जरुरत महसूस नहीं करते भाषा का विस्तार सिर्फ विचारधारा के बीच होकर संभव नहीं है और न ही हिन्दी प्रैक्टिसनर की पीठ को एमसीडी की दीवार में तब्दील करने से कुछ होनेवाला है। ये काम बहुत पहले हो चुका,अब कुछ तो चेंज कीजिए।
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270105716044#c4483334501630841729'> 1 अप्रैल 2010 को 12:38 pm बजे
सुंदर टिप्पणी है साहित्य में हिन्दीभक्षी गिरोहबंदी और कूमंडूकता पर।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270107363281#c6054820276582713810'> 1 अप्रैल 2010 को 1:06 pm बजे
सुन्दर विश्लेषण.....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270108510784#c2539523825230483513'> 1 अप्रैल 2010 को 1:25 pm बजे
अप्रैल में फूल खिला।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270110841606#c6653877260640346189'> 1 अप्रैल 2010 को 2:04 pm बजे
प्रिय विनित ऐसे बहुत मौके तुम्हारे जीवन में अवश्य आएगें जब तुम अपने ध्येय से डगमगाते नजर आओगें। इस तरह के विषय को हाथ में लेने में इस प्रकार के खतरे सामने जरूर आएगें।
मेरी कभी समझ नही आया कि अशोक जी का साहित्य से कोई सरोकार हो सकता है या नहीं। मंच पर जिस भांडगिरी का प्रर्दशन कविता के माध्यम से होना चाहिये अशोक जी उसमें माहिर है।
वह पाश कल्चर और सोशल रिलेशनशिप को अच्छे से समझते है जिसका वह भरपूर लाभ भी उठाते है।
हैरान मत होना अगर कल राजू श्रीवास्तव को हिन्दी अकादमी का अध्यक्ष बना दिया जाए। उस बन्दें ने भी हिन्दी प्रचार प्रसार के लिये जीत-तोड़ मेहनत की है, हिन्दी में फुहड़ जोक सुनाने से भी हिन्दी का प्रचार होना ही है। तो वह भी अकादमी पद का पात्र हो सकता है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270134066336#c760324993728780983'> 1 अप्रैल 2010 को 8:31 pm बजे
अशोक चक्रधर जी को सर्टिफिकेट की भी जरूरत है आज पहली अप्रैल को ही पता चला। हा हा हा.....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270184021709#c7607565308304673518'> 2 अप्रैल 2010 को 10:23 am बजे
kunal bhaai....mast prayaas hai ... !
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270190565709#c4515112113522927294'> 2 अप्रैल 2010 को 12:12 pm बजे
"मंच पर जिस भांडगिरी का प्रर्दशन कविता के माध्यम से होना चाहिये अशोक जी उसमें माहिर है।"
@ इरशाद अली
सिरिमानजी ने ऊंची बात कह दी.
सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं. करें. क्या फर्क पड़ता है भाई? अगर आपको ओम थानवी बुरा बता दें तो आप बुरे हो जाते हैं. इस तरह का आत्मविश्वास कैसे घर कर गया है थानवी जी जैसे लोगों के अन्दर? चे की लुंगी कमर में लपेटने की वजह से? जो ज्यादा पढ़ा जाय, उसे साहित्य मत मानिए. किसके बाप का क्या जाता है? जिसकी कवितायें याद रह जाएँ उसे कवि मत मानिए. वाह! तमाम आलोचक तो दिनकर तक को कवि मानने के लिए तैयार नहीं हैं. मत मानिए. क्या फरक पड़ता है दिनकर को इनसे?
जारी रहिये. सर्टिफिकेट देते रहिये. कौन सर्वाइव करता है यह समय बताएगा.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270230351052#c1141624536174315435'> 2 अप्रैल 2010 को 11:15 pm बजे
अब जो मंचीय कवि हुआ वो खारिज़ कर दिया जायेगा, यही रीत चली है! मैं कोई साहित्यालोचक तो नहीं, मामूली पाठक हूं, पर अक्सर यही सोचता रहता कि बहुत से कवि, लेखक जो मंच पर कवितापाठ करते हैं, उन्हें ’तुक्कड़’ कह कर क्यों ख़ारिज़ कर दिआ जाता है? फिर लगा कि शायद मेरी ही समझ छोटी है वरना सर्टिफ़िकेट ज़ारी करने वाले विद्वत्जन ग़लत थोड़े ही होंगे. अब हिन्दी कोई अंग्रेज़ी जैसी तुच्छ भाषा तो नहीं है कि अगाथा क्रिस्टी जैसों को कोर्स मे रख दिया जाय, सलमान रश्दी जैसे लेखक जेम्स क्लेवेल जैसे पापी बेस्ट सेलर के घटिया थ्रिलर की समीक्षा लिखें, बाब डिलन और जिम मारिसन के घटिया गीतों को विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी साहित्य के विभागों में डिस्कस किया जाय. अब क्या ज़रूर थी टाइम्स को चेतन भगत पर लेख छापने की? बुरा हो तहलका जैसी पत्रिका का जिसमें सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे सड़क छाप लेखक पर पूरा एक पेज बर्बाद किया. आप भी विनीत जी हिन्दी की दो सौ साल की परंपरा का रोना ले के बैठे हैं, कहीं आप संघी-बजरंगी तो नहीं हो गये जो परंपरा-परंपरा टेर रहे हैं. सीधी बात है. जो आसानी से पल्ले पड़ जाय वो भला कोई साहित्य हुआ?
अन्त में बहुत साल पहले पढ़ी दो पंक्तियां याद आ रही हैं - दुल्हन वही जो पिया मन भाए और साहित्य वही जो समझ मे न आए!!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270293206926#c6334413840668487566'> 3 अप्रैल 2010 को 4:43 pm बजे
लोग तो भड़वों को भी कोसते रहते .जिन भड़वों को साहित्य के दिग्गज बेवकूफ कहते नहीं थकते हकीकत यही है कि इन्ही भड़वों कि वजह से थोड़ी बहुत साहित्य आम लोगों के बीच पंहुचा है. अब तो लगता है इनकी नज़र में भिखारी ठाकुर ने भी कुछ नहीं किया है..जो कुछ भी हिंदी या साहित्य कि सेवा कि है वों इन महारथियों ने ही कि है..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270370256366#c7828848268683767222'> 4 अप्रैल 2010 को 2:07 pm बजे
राजू श्रीवास्तव के लिए हिन्दी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष का पद बहुत छोटा है। उन्हें राष्ट्रीय साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बनाने का अभियान चलाना चाहिए।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post.html?showComment=1270487317139#c5341599695507886956'> 5 अप्रैल 2010 को 10:38 pm बजे
ye bate hajam karnur tark karne layak nahi....
ye bate koun uthata hain samjh se pare hain....
sahitya ki thekedari kisi ke pass nahi jise chahe kisi certificate dete rahe.
ashok chakradhar ji wo nam hain jinhone hindi bhasha kya hain use kaise prastut kiya jata hain ye logo ko bataya hain
unhone hindi un logo tak pahuchayi hain jaha tak mahasahitya bhi nahi pahucha paya
krodo prashanshak pagal nahi hain
sahitya samaj ke liye aur samaj usse prabhvit ho raha hain to hi uske asal mayne nikalte hain
chakradhar ji ne wo kam sarahana ke star se bhi aage tak kiya hain
unke yogdan ke najarandaz karte hue ek tarfa bate meri samjh se pare hain.....