रस्किन बांड की बातों में हम इतनी बुरी तरह खो गये थे कि हमें पता ही नहीं चला कि आसपास बाकी क्या हरकतें हो रही हैं। ये तो जब उन्होंने रवि सिंह (पेंगुइन-इंडिया के प्रकाशक एवं मुख्य संपादक) से बातचीत पूरी की तो देखा कि हॉल पूरी तरह भरा हुआ है। एक भी कुर्सी खाली नहीं थी बल्कि कुछ लोग दीवार से सटकर खड़े थे। ऐसा लग रहा था कि रस्किन बांड के नाम पर रातोंरात देहरादून में कुछ अतिरिक्त बुद्धिजीवी पैदा हो गये हों या फिर उन्हें सुनने के लिए शहर के बाहर से आये हों। तीन दिन की इस पेंगुइन रीडिंग्स में रस्किन बांड के सत्र को मैं जादू की तरह याद करता हूं और बिरदा के गीत को नशा के तौर पर। रस्किन बांड को सुनने के बाद हर सत्र और घटनाओं के बारे में सोचता तो आप ही कल्पना करता कि रस्किन इस बात को किस तरह से बोलते और बिरदा ऐसे मौके पर कौन सा गीत गाते?
रस्किन बांड जितना बड़ा नाम है, वो मुझे खुद उतने ही सहज इंसान लगे। चेहरे पर एक खास किस्म की चाइल्डिस इग्नोरेंस है। वो बच्चों के बीच इसी रूप में पॉपुलर हैं। शायद इसलिए उन्हें देखकर ऐसा लगा कि बच्चों के चेहरे का भोलापन रुई के फाहों की तरह उड़-उड़कर उनके चेहरे पर चिपककर एक स्थायी हिस्सा हो गया हो। ये अलग बात है कि मेरे साथ बैठी साना (दि पायनियर) ने चीट पर लिखकर बताया कि रस्किन यहां सीरियस हैं लेकिन अगर अकेले बात करो तो बहुत फनी हैं, एक समय था जब उन्हें गुस्सा बहुत आता था। रवि सिंह ने परिचय के दौरान हमें बताया कि जब वो उन्हें मसूरी लाने गये तो देखा कि बच्चे उन्हें घेरे हुए थे और सब उन्हें अंकल-अंकल पुकार रहे थे। रस्किन जब किताबों की दुकानों पर होते हैं तो ऑटोग्राफ देते नजर आते हैं। ये नजारा तो मैंने खुद सत्र खत्म होने के बाद देखा। स्टेज के चारों ओर से छिटक कर ऑडिएंस उस कोने से चिपक गयी थी जिधर रस्किन खुद बैठे थे। ऑटोग्राफ लेने वालों का तांता लगा था। कुछ लोगों ने तो किताब इसलिए खरीदी कि उन्हें फिर पता नहीं उनका ऑटोग्राफ कब मिले? कई बच्चों की मांओ ने रस्किन की स्टोरी की किताबें खरीदीं और मौका मिलते ही फोन करके बताया – बेटू, तुम्हारे लिए खुद रस्किन ने ऑटोग्राफ वाली किताब दी है।
बहरहाल, कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी गयी थी – उसके अनुसार रस्किन अपनी रचनाओं के चुनिंदा अंशों का पाठ करते और फिर उनसे रवि सिंह की बातचीत होती। इस क्रम में उन्होंने रस्टी का पाठ किया और फिर रवि सिंह से बातचीत शुरू हुई। पूरी बताचीत में हमने जो महसूस किया कि रस्किन की दुनिया में फिक्शन और नेचर कायदे से तो मौजूद है ही, राइटिंग फॉर चाइल्ड के लिए भी वो मशहूर हैं। लेकिन शहर को समझने और उस पर बात करने की जो कला रस्किन के पास है, उसे सहेजने और विस्तार देने की जरूरत है। मौजूदा दौर में अकादमी की दुनिया में सिटी स्पेस एक नये विषय के तौर पर पॉपुलर हो रहा है। ऐसे में रस्किन की राइटिंग से शहर को समझने और व्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब वो देहरादून और मसूरी की प्रकृति पर बात करते हैं, उसके बदल जाने की बात करते हैं। बताते हैं कि तब पूरे शहर में दो ही मोटरकार हुआ करती थी। गिनती के लोगों के पास कलाई घड़ी थी। आप बॉटनी टीचर की बात करें तो लोग आपको उनके घर तक पहुंचा आते थे। शहर बनने की प्रक्रिया के साथ प्रकृति (रस्किन के लिए प्रकृति एक व्यापक शब्द है) किस तरह बदलती है, वो इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस तरह वो आपको प्रकृति के नाम पर सिर्फ पहाड़ों और पेड़ों के बीच खो जाने या फिर उसके नाम पर नास्टॉल्जिक हो जाने की राह नहीं थमाते बल्कि एक शहर के बनने की पूरी प्रक्रिया बारीकी तौर पर समझाते चले जाते हैं।
पूरी बातचीत में हमने पाया कि रस्किन के पास सिर्फ वर्णन करने की बेहतरीन शैली ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा ऑब्जर्वेशन की असाधारण प्रतिभा भी है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा नहीं है लेकिन पूरी बातचीत की बदौलत कह सकता हूं कि उनकी ये जो ऑब्जर्वेशन है वो भी इन रचनाओं में क्रिएटिविटी का हिस्सा बनकर आती है। इससे आप आर्किटेक्ट लिटरेचर की समझ हासिल कर सकते हैं जो कि लंदन शहर पर जोन्थन रेबन (1974) के लिखे उपन्यास ‘सॉफ्ट सिटी’ में दिखाई देता है। शहर को इस बारीक समझ के साथ महसूस करने और फिर उस पर उतनी ही बारीकी से लिखने के सवाल पर रस्किन का जबाव जितना सहज था, अमल करने के स्तर पर उतना ही बड़ा चैलेंज।
किसी भी शहर को समझने का सबसे बेहतर तरीका है कि आप उस शहर में पैदल चल कर चीजों को देखें। जब आप टहल रहे होते हैं, तो एक ही साथ कई चीजें आपके साथ जुड़ती चली जाती हैं। आपकी समझ का दायरा बढ़ता है जो कि बिना पैदल चले संभव नहीं है। लेकिन अब लोगों ने यही करना बंद कर दिया है। बच्चे लैपटॉप की स्क्रीनों में घुस गये हैं। उसी दुनिया में खो गये हैं। यही कारण है कि वो एक ही साथ शहर से एहसास के स्तर पर कटते चले जाते हैं और प्रकृति से भी दूर होते चले जाते। ये दोनों चीजें उनके कन्सर्न में नहीं है। रस्किन के लिए प्रकृति बाकी के लेखकों से कहीं ज्यादा बड़ा शब्द है बल्कि इसे आप शब्द न कहकर एनलिटिकल टूल कहें तो ज्यादा बेहतर होगा।
रवि सिंह ने जब सवाल किया कि क्या ऐसा है कि प्रकृति से जुड़ाव ने आपको ज्यादा संवेदनशील बनाया? इस सवाल के जबाव में उन्होंने कहा कि सिर्फ इस बात से चीजें तय नहीं होती है कि आप प्रकृति से जुड़े हैं, उस पर लिख रहे हैं, देख रहे और बात कर रहे हैं, बल्कि काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपकी प्रकृति (nature and the nature of the people) पर भी निर्भर करता है। इसलिए एक तरफ वो देहरादून की नेचर के स्तर पर के बदलावों की चर्चा करते हैं, तो दूसरी तरफ लोगों की उस प्रकृति की भी विस्तार से चर्चा करते हैं, जिन्होंने कि जेनुइन और इन पहाड़ों और प्रकृति के बीच रहनेवाले लोगों को बेदखल कर दिया है। विकास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है, उसमें वो कहीं भी शामिल नहीं हैं। रस्किन के हिसाब से शहर या प्रकृति को समझने का मतलब सिर्फ चीजों की मौजूदगी को महसूस करना भर नहीं है बल्कि उनके साथ हो रहे बदलावों की पूरी प्रक्रिया को समझना है। आसपास की दुनिया को इस रूप में पहचानना ज्यादा जरूरी है।
तीसरे दिन के इस सत्र में केकी दारुवाला और आज की कहानी को यहां स्कीप करते हुए पहले हम शेखर पाठक की उत्तराखंड गाथा वाले सत्र की चर्चा करें तो बाद के कई तरह की रिपिटेशन्स से बच जाएंगे। शेखर पाठक ने उत्तराखंड के अलग-अलग पहलुओं पर प्रोजेक्टर, गिरदा और नरेंद्र नेगी के गीतों के सहारे जो बात कही, उसकी खास तौर से चर्चा की जानी चाहिए। शेखर पाठक जब उत्तराखंड पर अपनी बात रखने के लिए हमारे सामने मौजूद हुए तो इस सत्र का संचालन कर रहे पुष्पेश पंत ने हमें पूरी तरह डरा दिया। वो गाथा शब्द को पकड़कर कुछ इस तरह बैठ गये, वीरगाथाकाल से लेकर अब तक गाथा की जो भी शक्ल बनी है उसे परिभाषित करने लगे कि हमें लगा शेखर पाठक इसमें अपनी बातें ज्यादा और जमाने की बात कम करेंगे। हमारी इस दुविधा में रहा-सहा जो भी कसर था, उसे उन्होंने यह कहकर पूरा कर दिया कि शेखर पाठक सालभर पहाड़ों में घूमते हैं तो कम से कम चार घंटे तो आपके सामने बोलेंगे ही। इस शख्स से उनकी लड़ाई हो सकती है, बहस हो सकती है लेकिन मेरी बातचीत तो कभी नहीं हो सकती। हम शेखर पाठक से कुछ सुनते – इसके पहले ही नर्वस हो गये। पुष्पेश पंत की कही सिर्फ एक बात थी जो हमें हिम्मत बंधा रही थी कि ये एक ऐसा स्कॉलर है जो दिनभर स्टडी रूम में नहीं बल्कि पहाड़ों में घूमकर अनुभव बटोरता है। यहीं पर आकर हम बेफिक्र हो गये है कि चलो, जो भी बोलेगें, किताबी नहीं बोलेंगे।
शेखर पाठक हमें उत्तराखंड की उस दुनिया में ले गये, जिसे सिर्फ उसकी पहाड़ियों, खूबसूरत वादियों और पानी की बहती धारा पर रोमैंटिक तरीके से मोहित होकर नहीं समझा जा सकता है। पुष्पेश पंत ने परिचय में ही जो सवाल खड़े कर दिये थे कि अगर शेखर पाठक गाथा शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो समझ में आता है कि वो प्रकृति को लेकर एक मिथ की बात कर रहे हैं, वो यहां पूरी तरह टूटता है। शेखर पाठक इन वादियों की, ऐतिहासिक स्थलों की, हिमालय की विराटता की, नदियों के संगम की जब बात करते हैं, तो साथ ही इन वादियों में तस्करों के घुसपैठ की, पौराणिक कथाओं के बनने और उसे सहेजने की, क्षेत्रों को लेकर राजनीति और सरकारी विफलता की, विस्थापन की, बेबसी की, राजनीतिक तिकड़मों की, ठेकेदारों और कॉन्ट्रैक्टर के रौंदे जाने की घटना की विस्तार से चर्चा करते हैं। दस साल पुराने इस नये राज्य उत्तराखंड के विकास से ज्यादा अवसरवाद के जंजाल पैदा होने की कहानी को तल्खी से पेश करते हैं। प्रोजेक्टर पर एक-एक तस्वीरें आती है, शेखर पाठक उसकी चर्चा करते हैं। वो चर्चा प्रकृति या भौगोलिक वर्णन से कब राजनीतिक कट्टरता का बयान करने लग जाती है, इसके लिए आपको थोड़ा ध्यान देकर सुनने की जरूरत पड़ती है – लेकिन इसके साथ ही एहसास होता है कि आप इस राज्य को सिर्फ उत्तराखंड टूरिज्म के चश्मे से नहीं देख रहे हैं। ऊपर रस्किन बांड ने जिस तरह से शहर को देखने की बात कही, वो हमें तीन दिन में सुजीत शाक्या और शेखर पाठक के सत्र में गंभीरता के साथ देखने को मिला। शेखर पाठक हर बड़ी-छोटी घटना को एक बड़े पर्सपेक्टिव से जोड़कर देखते हैं। इसलिए जब वो कहते हैं कि इन पहाड़ों पर बसंत अब भी उतरता है, नरेंद्र नेगी उल्लास में बसंत के गीत भी गाते हैं लेकिन गिरदा की आवाज में जैसे ही बसंत का गीत शुरू होता है, ऐसा लगता है कि किसी के पेट में बीचोंबीच तीर लगा हो और वो दूर पहाड़ पर खून को रोकने और तीर को निकालने के क्रम में कुछ गा रहा हो। शेखर पाठक इस बसंत के साथ ग्लोबल वार्मिंग, इकोलॉजिकल इम्बैलेंस की बात करते हैं। टिहरी की चर्चा करते हैं जो कि प्रकृति से कहीं ज्यादा राजनीतिक बेहयापन का शिकार हुआ। जहां जिंदगी हुआ करती थी, वहां अब सिर्फ एक जगह है। शेखर पाठक की इस पूरी चर्चा की ऑडियो रिकार्डिंग मेरे पास है। अभी सबको सहेज रहा हूं। तस्वीरों के न रहने पर भी इसे सुनकर बहुत कुछ समझा जा सकता है।
शेखर पाठक ने उत्तराखंड गाथा में जिस तरह से अपनी बात कही, वो हिंदी सेमिनारों के संस्कार में नहीं है। यहां विचार इतना हावी है कि फील्ड वर्क जीरो है। शेखर पाठक ने इस काम में हाथों को कलम से ज्यादा पैरों को चल कर थकाया है। इस पैटर्न पर अगर साहित्यिक चर्चाएं शुरू हो जाती हैं, जिसमें कि एक ही साथ कई विधाएं और प्रोसेस शामिल करके बात की जाने लगे तो यकीन मानिए सेमिनार में डॉक्यूमेंटरी फिल्म का असर पैदा होगा। बहरहाल शेखर पाठक की बातों में एक से एक जानकारी और रोचकता थी लेकिन हम पहले से बहुत लेट हो रहे थे। हम सबों को दिल्ली या फिर बाकी अपनी-अपनी जगहों पर जाना था इसलिए पीछे से लोगों ने ऊबना शुरू कर दिया। सवा दो बजे आते-आते लोग भूख के मारे परेशान होने लगे थे। अंत में पुष्पेश पंत को इंट्रप्ट करना पड़ा। उनका ये अंदाज बहुत सही तो नहीं था लेकिन रोकना भी जरूरी था। शेखर पाठक ने फिर दो-तीन मिनट के भीतर अपनी बात खत्म कर दी।
तीसरे दिन के सत्र में आज की हिंदी कहानी पर जो चर्चा हुई, वो अपने ढंग की अलग चर्चा रही। हम जैसे लोगों के लिए ममता कालिया को छोड़कर बाकी लोगों को सुनना पहली बार सुनने का सुख और अनुभव था। दूसरी खास बात कि जो भी जिसने और जैसा कहा, कइयों की बातों को लेकर व्यक्तिगत तौर पर मेरी असहमति है – लेकिन सबों ने बहुत ही साफगोई के साथ अपनी बात रखी। सबों का स्टैंड मेरी पकड़ में आ सका। मो हम्माद फारुकी जो कि इस सत्र का संचालन कर रहे थे, हिंदी कहानी को लेकर उनका अध्ययन बहुत ही गहरा और समझ बहुत साफ है। मैंने हिंदी के तमाम सेमिनारों में इतनी स्पष्टता के साथ बहुत ही कम लोगों को बोलते सुना है। रिसर्च में भले ही हिंदी समाज में रेफरेंस का रिवाज रहा हो लेकिन व्याख्यान में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय जैसे कुछ गिने-चुने ही आलोचक हैं, जो इस तरीके से रेफरेंस के जरिये अपनी बात रखते हैं। फारुकी साहब को सुनना मुझे कुछ ऐसा ही लगा। आज की कहानी को लेकर पूरी बहस दो मुद्दे या खेमे में जाकर फंसी। एक तो ये कि आज की कहानी किसे कहेंगे और दूसरा कि युवा कहानीकार क्या लिख रहे हैं?
सत्र की शुरुआत करते हुए फारुकी साहब ने कहा कि आज के युवा कहानीकार बहुत लिख रहे हैं, अलग-अलग मुद्दों पर लिख रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि उनकी भाषा तो चमकदार है लेकिन विषय को लेकर एक्सपर्टीज नहीं है। कई बार तो वो कहानी नहीं वैचारिकी होती है। ऐसे में कहानी खत्म हो जाती है। चंदन पांडे की कहानी पब्लिक स्कूल को याद करते हुए कहा कि इस कहानी को भी पढ़कर ऐसा ही लगता है और आपको कहानी पढ़ते हुए समझ आ जाएगा कि कहानीकार को पब्लिक स्कूल के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। फारुकी साहब की बात को समझें तो ऐसे में अक्सर कहानीकार अपने को थीअरिस्ट जैसी धाक पैदा करने से अपने को रोक नहीं पाते। वो जिस चमकदार भाषा की बात कर रहे हैं उसका तो मैं यही अर्थ समझ पाया कि ऐसी कहानियां तुरंत असर तो करती है लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती है।
इस मामले में ममता कालिया युवा कहानीकारों का पक्ष लेती है और मानती हैं कि वो भी बेहतर लिख रहे हैं। लेकिन संपादक के हाथों पड़ कर कहानी बर्बाद हो रही है। आज अगर कोई कहानी को खत्म कर रहा है, तो वो है संपादक। उसने कहानी को फार्मूला बनाकर रख दिया है। वो कहानी का एजेंडा पहले से ही फिक्स कर देता है कि बेवफाई विशेषांक के लिए रचना आमंत्रित है। इस अंक में प्रेम पर कहानी भेजनी है। पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए चालू फार्मूला बन गया है कि स्त्री विशेषांक निकालो। उन्हें पता है कि स्त्रियों के पास कहने के लिए बहुत कुछ है और बेहतर तरीके से अपनी बात रख सकती हैं। लेकिन इस तरह से विशेषांक निकालकर कहानियां लिखना या छापना स्त्री को कोष्ठक में डाल देती है। इस फार्मूले में पढ़कर कहानी का कहानी होना खत्म हो जाता है जबकि सच बात तो ये है कि सैद्धांतकी बघारने से कहीं ज्यादा मुश्किल है कहानी लिखना। जैनेंद्र ने भी प्लेटॉनिक प्रेम पर कहानियां लिखीं, लेकिन इस तरह फार्मूलाबद्ध तो नहीं किया।
मशहूर कहानीकार हिमांशु जोशी को इन दिनों लोग अगला यथार्थ की वजह से जान रहे हैं। उनका मानना है कि कहानी का सच, सच से बड़ा होता है। कहानी को सच जैसा लगना चाहिए लेकिन इतना भी सच नहीं कि वो कहानी ही न रह जाए। आज की कहानियों में, साहित्य में सिर्फ विमर्श रह गया है, साहित्य तो है ही नहीं। लोगों की छोटी-छोटी आकांक्षाएं हैं और वो उन्हीं से पारिभाषित हैं। आज निन्यानवे प्रतिशत कूड़ा लिखा जा रहा है और एक प्रतिशत सही। लोगों के छोटे-छोटे गुट बन गये हैं, लेखकों का छोटापन खुलकर सामने आता है। दो ध्रुवांत में साहित्य बंट गया है। सच के नाम पर दुनिया भर की चीजें कही जा रही हैं जबकि सच उतना ही होना चाहिए जो कि इंसान को कुछ दे सके। अगला यथार्थ के सवाल पर हिमांशु जोशी ने कहा कि ये कुछ इसी तरह का है, जैसे नेपाल से आकर हमारे यहां बहुत से लोग नौकरी करते हैं लेकिन वो खुद भी नौकर रखते हैं। नौकर भी नौकर रखने लगा है, ये नये किस्म का यथार्थ है। इसे हमें समझने की जरूरत है।
आज की कहानी के सवाल पर शेखर जोशी (कोसी का घटवार और डूब जैसी कहानियों के लेखक) ने साफ तौर पर कहा कि अगर कल की कहानी आज के संदर्भ में प्रासंगिक है तो वो आज की कहानी कही जाएगी। शेखर जोशी की मानें तो कहानी में कालक्रम से कहीं ज्यादा उसके संदर्भ महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने इसे ऐतिहासिक प्रमाण के तौर पर साबित करते हुए कहा कि पचास के दशक के बाद कहानियां इतनी केंद्र में क्यों रहीं? ऐसा इसलिए कि वो आज की कहानी है। आज इस कहानी लिखने के लिए समाज के बीच लूम्पेन ज्यादा पैदा हो रहे हैं। ऐसे में मुझे अमरकांत की कहानी हत्यारे याद आ रहे हैं।
लेकिन शेखर जोशी इन सबके बावजूद युवा कहानीकारों के सवाल पर निराश नहीं होते। उनका मानना है कि आज के युवा कहानीकार बहुत बेहतर लिख रहे हैं। बहुत प्रतिभाशाली लोग कहानी लिखने में लगे हुए हैं। महिलाएं कुंठाओं से मुक्त होकर लिख रही हैं। युवाओं की कहानियों को देखकर तो कई बार दहशत होती है। इसलिए मैं मानता हूं कि कहानी में सब कूड़ा ही नहीं बल्कि बेहतर भी लिखा जा रहा है।
सुभाष पंत की पहचान समांतर धारा के कहानीकारों के रूप में हैं और वो पहाड़ चोर के नाम से भी जाने जाते हैं। सुभाष पंत मौजूदा दौर में विकास और नॉलेज शेयरिंग के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसे लेकर बहुत हतोत्साहित हैं। उनका मानना है कि इंटरनेट जो कि सूचना प्रसार के दावों से लैस है, वहां सब कुछ सिर्फ सूचना और सूचना ही रह गया है, संवेदना का हिस्सा सिरे से गायब होता चला जा रहा है। सुभाष पंत जब ये बात कर रहे थे तो मेरे सहित मौजूद कई लोगों को इससे असहमति हुई। वैसे भी एक माध्यम के स्तर का नकार हम सह नहीं पाते। सुभाष पंत ने कहानी के भीतर की संवेदना के मर जाने या फिर प्रिंट की प्राथमिकता के छीजने का जो आसान फार्मूला हमलोगों को सुझाया, उससे हम कन्विंस नहीं हो पाये। लेकिन उनकी ये बात काफी हद तक सही लगी कि नॉलेज की दुनिया की एक खिड़की इंटरनेट के बाहर भी है और उसे रहना चाहिए। फारुकी साहब ने इस पूरी बातचीत को समेटते हुए नामवर सिंह के उस कथन को शामिल किया कि आज जिस तरह की कहानियां लिखी जा रही है, वो नामवर सिंह को झुठला सकेंगे कि कहानियां सिर्फ सुलाती ही नहीं जगाती भी है।
तीसरे दिन के सत्र का एक जरूरी हिस्सा केकी दारुवाला और स्टीफन ऑल्टर की रचनाओं के चुनिंदा अंशों का पाठ भी रहा। दारुवाला अंग्रेजी कविता में जाना-माना नाम हैं। उनको सुनते हुए मैंने जो महसूस किया, वो ये कि उनकी कविताओं का इंप्रेशन देशी मिजाज की अंग्रेजी भाषा के रूप में है। कविता के बीच में पूरे-पूरे वाक्य हिंदी में आते हैं और असर के तौर पर जेहन में ऐसा काम कर जाते हैं कि आप हिंदी की उस एक लाइन से ऊपर और बाद की कई अंग्रेजी लाइनों के मतलब समझ जाएं। दूसरी बात कि कविता-पाठ की शैली में भाषिक स्तर का अभिनय शामिल है।
स्टीफन ऑल्टर ने केकी के कविता पाठ के बाद चुटकी लेने के अंदाज में कहा कि वो जिस तरह नॉनवेज पसंद करते हैं, उसी तरह नॉनफिक्शन। इसलिए वो नॉनफिक्शन ही लिखते हैं और उसका पाठ करेंगे। ऑल्टर ने अपने उपन्यास का अंश पाठ किया, जिसे कि हमने असर के लिहाज से नॉवेल डिस्क्रिप्शन से ज्यादा डेमोग्रेफिक स्टेटमेंट के तौर पर महसूस किया।
तीसरे दिन के कुल पांच घंटों में हमने दर्जनभर बुद्धिजीवियों और रचनाकारों के विचार सुने। लेकिन इन सारे लोगों की बातों से सहमति और असहमति के बीच गड्डमड्ड होनेवाली स्थिति कभी नहीं बनने पायी। इसकी शायद सबसे बड़ी वजह यही रही कि विश्लेषण के स्तर के फर्क और विविधता के बावजूद जो सबमें कॉमन बात थी वो ये कि विकास के घोषित पैमाने और उपलब्धियों के नाम पर ताल ठोंकने के पहले इन सबको लेकर हमें सेल्फ एसेस्मेंट और रीडिफाइन की प्रक्रिया से फिर से, बार-बार गुजरने की जरूरत है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270715597537#c2016115330000474891'> 8 अप्रैल 2010 को 2:03 pm बजे
बहुत विस्तार से रपट लिखी। सब कुछ समेटते हुये लिखना अचरज का विषय है। विवरण इत्ते-इत्ते बारीक कि तुमको हिन्दी ब्लॉगिंग का रस्किन बांड कहा जाये क्या!
अभी इसके पहले वाला लेख बांचना है। इत्ते लम्बे-लम्बे लिखने के बावजूद उनको पढ़ने का मन बना रहता है लेखन में प्रवाह है तुम्हारे। लगता तो यह भी है कि यह साहस का काम कर रहे हो तुम कि पढ़ना है तो ठहरकर पढ़ना होगा।यह नहीं कि आओ ,देखो और टिपिया के निकल लो- बहुत अच्छे।
वैसे कह के जा रहे हैं- बहुत खूब!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270715774454#c393671175478241934'> 8 अप्रैल 2010 को 2:06 pm बजे
Kabhi to dis-balance ho jaya kijiye.... itni vividhta ek saath suni-buni-guni aur reporting ka santulan wahin ka wahin.... Admi ho ya Insaan ?
Hadd hi hogayi !!!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270720693093#c6637084171888847697'> 8 अप्रैल 2010 को 3:28 pm बजे
achi reporting..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270735087634#c6084303593896850744'> 8 अप्रैल 2010 को 7:28 pm बजे
दिलचस्प है ...अमूमन मै अपने पसंदीदा लेखको से मिलने से कतराता हूँ ...क्यूंकि कई बार इमेज किसी दूसरी दुनिया के आदमी सी दिमाग में होती है ....असल में आदमी देख असहजता होती है ..अच्छी रिपोर्टिंग
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270735309277#c6538982287853924034'> 8 अप्रैल 2010 को 7:31 pm बजे
बहुत खूब!:-)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270740772272#c8964711791162935230'> 8 अप्रैल 2010 को 9:02 pm बजे
काफी विस्तार पूर्वक लिखी आपकी ये रपट पसंद आई।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1270960397259#c4340583784931586532'> 11 अप्रैल 2010 को 10:03 am बजे
लेखकों और चिन्तकों के बारे में पढ़ना अच्छा लगता है ।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/04/blog-post_08.html?showComment=1271332003801#c6845209220257611242'> 15 अप्रैल 2010 को 5:16 pm बजे
miyan, tumhari reportings padh kar to lag raha hai ki training leni padegi tumse......