हिंदी पर सोचने के लिए हिंदी के बरक्स से शुरुआत नहीं होनी चाहिए। हिंदी पर जितनी बहसें हैं उसमें किससे आक्रांत है, शुरू वहां से होनी चाहिए। माने एक भाषा को खतरा है – इस मनोवृत्ति से सोचना शुरू करते हैं तो एक किस्म का पेरोनोइ, पेरोनोइड किस्म का अनुभव रहता है और हम सहज मनोवृत्ति से, सहज मन से समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं? हिंदी भाषा और हिंदी जनक्षेत्र – इन दोनों को मैं साथ-साथ लेकर चलता हूं, ऑब्लिक करके चलता हूं। मेरे लिए ये दोनों अलग-अलग नहीं है। मैंने पहले ही ये कहने की कोशिश की है कि हिंदी का कोई बरक्स नहीं है, किसी भी भाषा का कोई बरक्स नहीं है। अगर है भी तो पड़ोस। भाषा का पड़ोस होता है, बरक्स नहीं। बरक्स एक कल्चरल डिस्कोर्स है जो आ जाती है। यानी मैं इक्सक्लूसिविटी चाहता हूं, अतिविशिष्टता चाहता हूं, ऐसी भाषा चाहता हूं, उसे रक्त से ऐसी शुद्ध, रक्त से ऐसी शुद्ध कर देना चाहता हूं, उसमें कोई और रक्त न मिले तो निश्चित रूप से ये अलग ही ढंग का डिस्कोर्स है जो भाषा का तो नहीं है। कबीर का जो कथन है, उस हिसाब से भाषा बहता नीर है। नीर बहेगा तो उसमें पता नहीं क्या-क्या मिलेगा। हाल ही में प्रसून जोशी के वक्तव्य को शामिल किया – जो भाषा अड़ गयी, वो सड़ गयी। इसलिए न तो अंग्रेजी हिंदी के बरक्स है और न ही उर्दू हिंदी के बरक्स है। ये हिंदी के विलोम नहीं हैं। पॉपुलर लेक्चर सीरीज, डीयू के तहत वर्तमान हिंदी की समस्याएं (संदर्भ : मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर) पर अपने विचार जाहिर करते हुए मीडिया विशेषज्ञ और हिंदी विभाग (डीयू) के अध्यक्ष प्रोफेसर सुधीश पचौरी ने बातचीत की शुरुआत इसी बिंदु से की।
प्रोफेसर पचौरी भाषा के नाम पर शुद्धतावादी आग्रह और भाषा को महज संस्कृति के दायरे में रख कर देखने के पक्ष में नज़र नहीं आये। यही वजह है कि उन्होंने हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग को चिंता के बजाय सुविधा और विस्तार का मामला बताया। भारतीय जनगणना सर्वे की ओर से भाषा सर्वेक्षण की रिपोर्ट को शामिल करते हुए उन्होंने साफ किया कि हिंदी का विस्तार पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा है इसलिए हिंदी को लेकर चिंतित होने की कहीं कोई जरूरत नहीं है।
हिंदी समाज में हिंदी की दशा पर जब भी चर्चा होती है, तो उसे साहित्य की सीखचों के बीच रख कर विश्लेषित करने का काम किया जाता है। प्रोफेसर पचौरी ने इसे कन्ज्यूमरिज्म और कारपोरेट जगत के बीच के भाषाई प्रयोग की नीतियों पर बात करते हुए बताया कि अब हिंदी का मसला सिर्फ इस बात से जुड़ा नहीं है कि उसमें कितनी साहित्यिक रचनाएं हो रही हैं बल्कि इससे भी है कि हिंदी के ऊपर कारपोरेट मोटी रकम लगाकर विज्ञापन कर रहा है। आज से करीब 15 साल पहले आये गंगा साबुन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि गोदरेज की ओर से लांच किया गया ये साबुन सप्ताह भर के भीतर बाजार में बुरी तरह पिट गया। ये गोदरेज कंपनी की रिपोर्ट है। गंगा का मतलब शुद्धता से है। गंगा साबुन मैल धोने का काम करती है लेकिन अगर गंगा साबुन मैल धोएगा तो फिर गंगा क्या करेगी। एक नाम, एक शब्द को लेकर साबुन बुरी तरह पिट गया। दूसरी तरफ आप देखिए कि लाइफबॉय के विज्ञापन पर अगर करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं तो उसके साथ रोज दस लाख साबुन की बट्टियां बेचने का टार्गेट होता है। अगर हिंदी की ये दो लाइन के विज्ञापन को देखकर कन्ज्यूमर उससे जुड़ नहीं पाता तो करोड़ों का नुकसान होगा। इसलिए हिंदी भाषा के जरिये सिर्फ संप्रेषण का काम नहीं हो रहा है बल्कि इसके पीछे एक भारी इन्वेस्टमेंट और बिजनेस का रिस्क जुड़ा हुआ है। हिंदी को लेकर जिस भाषा विस्तार और भौगोलिक क्षेत्र की बात करते हैं प्रोफेसर पचौरी ने उसे कन्ज्यूमर रिच(consumer reach) यानी उपभोक्ता की पहुंच के तौर पर विश्लेषित किया। उदाहरण देते हुए बताया कि अगर कोई विज्ञापन हिंदी में बनते हैं, तो उसकी पहुंच करीब पैंतालीस करोड़ की जनता तक है जबकि दूसरी भाषाओं में पांच से दस करोड़ तक। इसलिए कारपोरेट और बाजार के लिए इस भाषा का प्रयोग लागत से जुड़ा है। इसे आप एसएमएस और बाकी तमाम तरह के शार्ट होती जा रही भाषा के तौर पर भी देख सकते हैं।
प्रिंट की भाषा एक तरह से नेशनलिज्म की बाउंड्री तय करती है। उसका एक खास तरह का रूप होता है जबकि टेलीविजन भाषा के इस रूप को ध्वस्त करता है। टेलीविजन एक हद तक भाषाई कॉम्प्लेक्स को भी तोड़ने का काम करता है। लेकिन अब दिक्कत कहां है? दिक्कत इस बात से है कि सिनेमा, मनोरंजन और नाच-गानों के बीच तो हिंदी का खूब विस्तार हो रहा है। इसमें हमें लगातार एक संभावना दिख रही है लेकिन ये नॉलेज की भाषा नहीं बन पा रही है, इसके भीतर डिस्कोर्स नहीं हो रहे हैं। हिंदी को लेकर हमें यहां से सोचने की जरूरत है। इसलिए यहां आकर हमें सोचना होगा कि हम हिंदी के जरिये नॉलेज प्रोड्यूस करें और इस मामले में अनुवाद के जरिये भी ज्ञान के विकास को कोई हीन चीज नहीं मानता। हमें चाहे जैसे भी हो हिंदी को भावना और रस पैदा करने वाली भाषा से थोड़ा आगे जाकर ज्ञान पैदा करनेवाली भाषा के तौर पर बरतने का काम करना चाहिए। रस पैदा करने का काम हमने बहुत कर लिया। इस संदर्भ में उन्होंने टेलीविजन और मास मीडिया से कई उदाहरण दिये।
लैक्चर के अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी को लेकर किसी भी तरह से, किसी भी रूप में हीन मानने और समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमारे भीतर हीनता आती है, तो ये हिंदी की वजह से नहीं बल्कि इसकी कोई और ही वजह है, जिसकी हमें तलाश की जानी चाहिए।
बातचीत के बाद ऑडिएंस की ओर से कई सवाल पूछे गये, जिसका विस्तार से उन्होंने जवाब दिया। पूरी बातचीत और सवाल-जवाब सुनने के लिए आप नीचे मौजूद लिंक को चटकाएं-
वर्तमान हिन्दी की समस्याएं(संदर्भःमास मीडिया और पॉपुलर कल्चर)
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253260083763#c2315483116616254288'> 18 सितंबर 2009 को 1:18 pm बजे
मास्साहब के बात से एकदम सहमति. यही तो हम भी कह रहे हैं कि काहे भैया जकड़े हो हिंदी को. आज़ाद करो, पर खिलवाड़ न करो. जय हो.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253263146836#c7003366804792642454'> 18 सितंबर 2009 को 2:09 pm बजे
abhi prenchand ka sahitya alochna par ek article padh raha tha... usmein unhone likha hai ki dr., pro., aadi ki upadhiya paane ke baad aadmi khud ko jis bhasha ka hai usse uper ka samajhane lagta hai. jabki mere nazar mein ye sari upadhiyan farzi hai. mujhe pata hai ye kaise hasil hoti hai. hazaron mein koi ek hoga jo deserving hota hai. lekin ye upadhiyaan lene ke baad aadmi apni bhasha ke sahitya se le kar kuch bhi par tippani karne mein apni hthi samajhane lagta hai. use lagta hai ki yah uske layak kaam nahin hai.. use to shally aur kits par bolna chahiye. are bhai agar wo tariph nahin kar sakte to kam se kam kamiyan hi gina dete. isse itna to hota ki ham apni kamiyon ko door kar lete.. lekin wah bhi nahin hota...
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253265924006#c6626068200254118589'> 18 सितंबर 2009 को 2:55 pm बजे
हिंदी की चिंता पर हम नाहक ही चिंतित हो रहे हैं। हिंदी पर कहीं से कोई खतरा नहीं है। हिंदी समृद्ध भाषा है। जन की भाषा है। आज इसी हिंदी की सहायता से बाजार अपना विस्तार कर रहा है। धीरे-धीरे हिंदी बाजार की भाषा यानी युवा की भाषा बनती जा रही है। यह सुखद है। दरअसल सुधीश पचौरी का इशारा भी इसी ओर है।
हां, आज जो लोग हिंदी पर खतरा बता रहे हैं मेरे ख्याल से हिंदी के लिए वे ही सबसे बड़ा खतरा हैं। ये भाषा-पीड़ित हिंदी को ठस्स और प्राध्यापकीय दायरों से बाहर आने देना नहीं चाहते। हिंदी अब पुराने और बंददिमाग शुद्ध साहित्यिक बूढ़ों की भाषा नहीं रही। वो बाजार और युवाओं के व्यवहार के हिसाब से निरंतर विस्तार पा रही है, बदल रही है। अब जो लोग इस बदलाव पर एतराज जताते हैं उनका कहीं कोई इलाज नहीं।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253267967515#c2183825841647270548'> 18 सितंबर 2009 को 3:29 pm बजे
sudhis ji khud hi hindi ko gyan ki bhsa bnane ke rah mr khade hai....unke lekh padhkar to yhi ray banti hai ki hindi ke sirssth buddhijivi bhi niymit rup se ek column dhangse se nhi likh sakte...... is lecture me sudhis apne purane tewr e bole ye dekhkar achha laga....
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253276031901#c3701116456859866965'> 18 सितंबर 2009 को 5:43 pm बजे
हिंदी को नदी की तरह बहने दो, बिना सीमा के। वो अपनी राह अपनी गति स्वंय पकड लेगी।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html?showComment=1253278215164#c3306764666779312690'> 18 सितंबर 2009 को 6:20 pm बजे
आपको अपनी टैग लाइन बदल देनी चाहिए -"जब हाँ जी हाँ जी कल्चर मे मन रमने लगे....."