आज की हिन्दी कई रुपों में,कई खेमों में,कई धंधों और तिकड़मों में बंटी हुई हिन्दी है। इसलिए आज प्रायोजित तरीके से हिन्दी का रोना रोने के पहले ये समझ लेना जरुरी है हम किस हिन्दी के नाम पर विलाप कर रहे हैं। एफ.एम.चैनलों की हिन्दी पर शोध करने के दौरान मैंने इसे समझने की कोशिश भर की और बाद में अलग-अलग संदर्भों में इसके विस्तार में गया। इस बंटी हुई,बिखरी हुई,अपने-अपने मतलब के लिए मशगूल हिन्दी को बिना-जाने समझे अगर आप हिन्दी की दुर्दशा पर सरेआम कलेजा पीटना शुरु कर दें तो जो लोग बाजार के बीच रहकर हिन्दी के बूते फल-फूल रहे हैं, सिनेमा,मीडिया,इंटरनेट और दूसरे माध्यमों के बीच हिन्दी का इस्तेमाल करते हुए कमा-खा रहे हैं,वो आपको पागल करार देने में जरा भी वक्त नहीं लगाएंगे। दूसरी तरफ अगर कोई मनोरंजन और महज मसखरई की दुनिया में तेजी से पैर पसारती हिन्दी को ही हिन्दी का विस्तार मान रहा है तो उन्हें सोचालय की हिन्दी(साहित्य और अकादमिक संस्थानों से जुड़े लोग)के लोगों से आज क्या सनातनी तौर पर हमेशा ही लताड़ खाने के लिए तैयार रहना होगा। उनके लिहाज से ये लोग हिन्दी के विस्तार के नाम पर टेंटें कर रहे हैं और ज्यादा कुछ नहीं। जबकि आज मोहल्लाlive पर विभा रानी ने हिन्दी को लेकर जो कुछ लिखा है उसके हिसाब से सोचालय के लोग हिन्दी के नाम पर जबरदस्ती टेंटे कर रहे हैं। हिन्दी की पूरी बहस इसकी ऑथिरिटी को लेकर है। सब अपने-अपने तरीके से इसकी हालत और शर्तों को तय करना चाहते हैं यही कारण है कि कभी हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़ना जरुरी लगता है तो कभी हिन्दी को लेकर आंकडें देखते ही,हिन्दी चैनलों से दस हजार करोड़ सलाना कमाई की बात सुनकर हिडिप्पा और हिप्प हिप्प हुर्रे करने का मन करने लग जाता है। किसी के लिए हिन्दी में होना ईंद है तो किसी के लिए मुहर्रम। साल 2007 में मुझे सीएसडीएस-सराय के खर्चे पर निजी समाचार चैनलों की भाषा पर रिसर्च करने का मौका मिला। शोध के लिए मैंने जो रुप-रेखा(synopsis) तैयार की वो विस्तृत और बहुत ज्यादा समय लेनेवाला साबित हुआ इसलिए अपने शोध-निर्देशक रवि सुंदरम की सलाह पर मैंने इसे सिर्फ एक चैनल आजतक तक केंद्रित रखा। उस समय मैं आजतक से सीधे तौर पर जुड़ा था इसलिए मुझे रिसर्च करने में सहूलियत हुई और कई ऐसी चीजों को आब्जर्व किया जिसे लेकर मीडिया लेखन की दुनिया में आमतौर पर सिर्फ अटकलों से ही काम चलाया जाता रहा है। इस महीने सितंबर 23 से 29 तक इंडियन इन्सटीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज,शिमला हिन्दी की आधुनिकता पर सेमिनार का आयोजन करने जा रहा है। अभय कुमार दुबे के शब्दों में सात दिनों तक हिन्दी की आधुनिकता के उपर सात दिनों तक जमकर बहस-बुहस होगी,अब तक सिर्फ हिन्दी में आधुनिकता पर बात हुई है। वक्ता के तौर पर मुझे टेलीविजन की हिन्दी पर बात करने के लिए बुलाया गया है। अपनी उस प्रस्तुति में मैं सराय के काम को ही आगे बढ़ाते हुए अपनी बात रखने जा रहा हूं। लेकिन यह किसी एक चैनल पर केंद्रित होने के बजाय टेलीविजन के अलग-अलग चैनलों औऱ कार्यक्रमों पर आधारित होगा। कार्यक्रम खत्म होते ही कही गयी बातों की लिखित प्रति लगाउंगा। फिलहाल समाचार चैनल की भाषा पर सराय के लिए किए गए काम का एक टुकड़ा बतौर हिन्दी दिवस के नाम पर पेश है-
आम तौर पर समाचार चैनलों की भाषा पर जो भी बहसें हुई हैं,उनमें दो तरह के लोग शमिल हैं। एक वे जो अकादमिक संस्थानों से जुड़े हैं,जिनके हिसाब से चैनलों ने भाषा को भर्ष्ट किया है,अपने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा है,व्याकरणिक शर्तों की परवाह नहीं की है। दूसरे वे लोग हैं जो सीधे-सीधे सहै कि चैनल की भामाचार चैनलों से जुड़े हैं जिनके मुताबिक चैनलों के लिए भाषा की शुद्धता और नियमों की अनिवार्यता से ज्यादा महत्वपूर्ण है सहज संप्रेषण यानी(आम आदमी/दर्शकों) के हिसाब से भाषा प्रयोग। इन दोनों स्थितियों पर गौर किए जाएं तो चैनलों की भाषा को लेकर कोई विश्लेषण पद्धति या प्रक्रिया का विकास नहीं हुआ है बल्कि अपने-अपने पक्ष में तर्क खड़े करने की कोशिश भर है।
ऐसा इसलिए हुआ है कि अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोग भाषा की शुद्धता,नियम एवं उसकी शर्तों को पकड़कर चलना चाहते हैं और जब समाचार चैनलों की भाषा पर बात करते हैं तो उन जोर होता है कि चैनल भी भाषा प्रयोग इसी के हिसाब से करे। एक तरह से चैनल की कौन-सी भाषा,किस रुप में प्रयोग करे,अकादमिक क्षेत्र के लोग तय करना चाहते हैं।
यह संभव है कि भाषा के प्रति समझदारी पैदा करने में अकादमिक संस्थानों का बड़ा योगदान रहा हो,इन संस्थानों ने लोगों को भाषा-प्रयोग से लेकर इसके महत्व के बारे में जानकारी दी हो और आज अगर ये संस्थान टेलीविजन औऱ समाचार चैनलों का भाषा-प्रयोग अपने हिसाब से करना चाहते हैं तो इसकी वजह भी यही है कि जब समाज को भाषा पढ़ाने-समझाने का जिम्मा है तो टेलीविजन अपने मुताबिक उनसे अलग भाषा-प्रयोग क्यों करे या उनकी शर्तों के हिसाब से क्यों न करे।
लेकिन अकादमिक स्तर का यह तर्क समाचार चैनलों के व्यावहारिक तर्क से बहुत पीछे छूट जाता है क्योंकि समाचार चैनल जब भी भाषा प्रयोग करते हैं तो उसके पीछे सिर्फ सहज संप्रेषण का मसला नहीं होता बल्कि उसके पीछे एक दबाब की रणनीति काम कर रही होती है। दबाब की यह रणनीति समय,बाजार एवं व्यावसायिक शर्तों को लेकर अपने को हमेशा बनाए एवं बचाए रखने की होती है। यानी टेलीविजन में भाषा-प्रयोग का एक बड़ा आधार है है खुद को बचाए रखने एवं सबसे आगे ले जाने की कोशिश। इसलिए समाचार चैनल भाषा प्रयोग करते समय अपने को ऑथिरिटी मानकर नहीं चलते,ये अलग बात है कि आम जनता आज टेलीविजन की प्रस्तुति एवं भाषा को ऑथिरिटी मानती है और उस हिसाब से उनका भाषा-व्यवहार भी एक हद तक बदलता है जबकि एकादमिक संस्थान शुरु से ही भाषा के मामले में अपने को ऑथिरिटी मानती आयी है। यहां दिलचस्प नजारा है कि आज समाचार चैनलों ने लगातार अपने ढंग से जो भाषा-प्रयोग शुरु किया है,ऐसे में अकादमिक संस्थानों की ऑथिरिटी ध्वस्त हुई है। इस लिहाज से हम बात करें तो समाचार चैनलों को लेकर जो भी बहसें होती रही हैं उनमें अपने-अपने पक्ष में बात करने का सीधा मतलब है कि भाषा को आखिर कौन तय करेगा? इस पर बहस हो और दूसरा कि समाचार चैनल अपनी भाषा-स्ट्रैटजी तय करते समय आम आदमी की भाषा की जो बात करते हैं,वह आम आदमी की भाषा कौन सी है या फिर टेलीविजन में सचमुच आम आदमी की कोई भाषा होती है। इसके साथ ही एक बड़ा सवाल और कि समाचार चैनल आज मीडिया कर्म से अधिक प्रबंधन का काम हो गया है जिसमें समाचार निर्माण की पूरी प्रक्रिया, वस्तु निर्माण की प्रक्रिया की तरह,उनकी शब्दावलियों के बीच रहकर होने लगे हैं,वस्तु के लिए जो पैकेजिंग और वितरण है वह समाचार के लिए भी है,ऐसे में भाषा किस रुप में काम करती है,इस पर बात हो।
मूलतः मीडियानगर 03 नेटवर्क संस्कृति 2007 में प्रकाशित
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252911152172#c9123594246458588484'> 14 सितंबर 2009 को 12:22 pm बजे
दरअसल, हमें वो भारी-भरकम और ठस्स साहित्यिक या अकादमिक हिंदी नहीं सहज और सरल हिंदी चाहिए। एक ऐसी हिंदी जो आम आदमी के लिए बिल्कुल सरल हो। आम बोलचाल की हिंदी।
हां, हिंदी के भविष्य या स्तर पर रोने वालों से मेरा बस इतना ही कहना है कि वे जितना वक्त इसके रोने में तबाह करते हैं अगर इतना ही इसके विकास में लगाएं नेट या ब्लॉग के माध्यम से तो शायद ज्यादा ठीक रहेगा।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252912303689#c6571401901338271359'> 14 सितंबर 2009 को 12:41 pm बजे
लोकप्रियता हमेशा सरल चीजों को ही मिलती है .. पर इसका अर्थ यह नहीं कि जटिल चीजों को समाप्त ही कर दिया जाए .. भाषा का गंभीर अध्ययन कर रहे लोगों को भाषा के जटिल पक्षों को भी जानना चाहिए .. पर जहां आमजनों तक अपनी बात पहुंचाना हो सरलीकृत हिन्दी ही होनी चाहिए .. यह बात अलग है कि अंग्रेजी के जटिल शब्दों को उच्चारित करने में या अर्थ समझने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती .. पर जैसे ही हिन्दी का कोई कठिन शब्द सामने आता है .. हम हल्ला करने लगते हैं .. जबकि वास्तविकता यह है कि अभ्यास से कठिन शब्द भी हमें सरल लगते हैं .. ब्लाग जगत में आज हिन्दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्छा लग रहा है .. हिन्दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252913305230#c129939179663144119'> 14 सितंबर 2009 को 12:58 pm बजे
हिन्दी हमे बचाना है, हम सबको बढते जाना है। हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई।
http://hindisahityamanch.blogspot.com
http://mithileshdubey.blogspot.com
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252914518015#c2771523243434272011'> 14 सितंबर 2009 को 1:18 pm बजे
bhai mai to itna janta hu ki buri se buri hindi bhi hindi hi hoti hai....agar aaj kisi TV wale ki bhasa kharab hai to kal achhi bhi ho jayegi....isme hay tauba machane jaisa kuchh nhi hota. aur vaise bhi popular medium ki bhasa literature ki bhasa me ek antar humesa raha hai...mujhe lagta hindi sahitya kuchh jyada hi chhuyimuyi sa banaa rahaa hai...
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252914644612#c7149136032532564810'> 14 सितंबर 2009 को 1:20 pm बजे
Namaskar hae aapke blog ko kafi pasand kiya.
Aap ki blog se ek article www.moorkhistan.com par prakashit ki gai hai.
Hamara aap se anurodh hai ki aap moorkhistan par apni sahbhagita de.
Lekh likhne ke liye aapko khata banana hoga . www.moorkhistan.com
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252915800761#c7011737269031846092'> 14 सितंबर 2009 को 1:40 pm बजे
Bhai aap bahut achchi baat kahate ho isame koi saq nahi bas hindi ke vikas ke sath ek baat main bhi rakhana chahiunga ki hindi bas aisi ho jo jyada se jyada logo tak pahunch paye aur hamare desh ki adhiktar log samjh paye..
hindi divas ki badhayi..sundar vichar..
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252932299919#c2020789054332142972'> 14 सितंबर 2009 को 6:14 pm बजे
विनीत भाई..आपकी संजीदगी और सादगी के पहले ही कायल हो चुके हैं...ये जज़्बा बरकरार रहे..यही दुआ है..अगली रिपोर्ट..और लेख का इंतज़ार रहेगा..
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252942876717#c6894273667535734816'> 14 सितंबर 2009 को 9:11 pm बजे
शायद आप उस रुदाली हिंदी की पैरवी कर रहे है
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252951643409#c5348140979230953775'> 14 सितंबर 2009 को 11:37 pm बजे
टीवी का समाज पर व्यापक प्रभाव है और इसलिये कम से कम टीवी पर भाषा के साथ प्रयोग और खिलवाड़ नही होने चाहिये।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252956997835#c1444895483931186741'> 15 सितंबर 2009 को 1:06 am बजे
ऐसा खिलवाड़ न हो जाए कि तय करना मुश्किल हो जाए कि भाषा कौन सी है। 'मंदी' नहीं समझते और बोलते 'रिसेशन' फट से बोल देते हैं। वैसे भी 'चलती-बहती' हिन्दी पर पहले जोर था फिर 'हिंग्लिश'अब आधुनिक दिखने के लिए और अन्य सामाजिक तथा आर्थिक कारणों से 'पह्निंग्लिश' का प्रचलन है। पंजाबी टोन में अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी। चूंकि मीडिया यहीं दिल्ली से चलती है और यहां के जन्मे बच्चे भी अब मीडिया मे आ रहे हैं इसलिए 'मैंने ये करी, तूने वो करी' 'यू नो आज हिन्दी डे है' आदि का चलन बढ़ रहा है लेकिन कोई तो मानक होना ही चाहिए मेरे ख्याल से सरस, सरल हिन्दी ही ठीक है। पहले की तरह हिन्दी और थोड़ी नफासत और नजाकत के लिए उर्दू, ग्लोबल टाइम को देखते हुए न्यूनतम इंग्लिश। लेकिन समान मात्रा में चावल-दाल-आटा और लौकी-नेनुआ एक साथ उबाल देने पर पका हुआ भोजन क्या कहलायेगा?
http://taanabaana.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html?showComment=1252988316593#c2007967161271329827'> 15 सितंबर 2009 को 9:48 am बजे
भाषा पहले है या व्याकरण ? वेद पहले गाये गये थे,उसके बाद व्याकरण बना। हिन्दी में चहुंओर काम हो रहा है, इसलिये अभी इसे मानक पर कसने की बात ठीक नहीं है, बस इसमें काम करते जाना है। साहित्यकार लोग नहीं थे तो क्या हिंदी नहीं थी? अखबार के लोगों ने इसे अपनी सहूलियत के मुताबिक हांका, टीवी और रेडियो वाले इसे अपने तरीके से दौड़ा रहे हैं,और नेट पर इसका स्वरूप कुछ और नजर आ रहा है। हिन्दी अपना रास्ता खुद तय करेगी, इस तरह के सवाल मायने नहीं रखते कि इसका प्रयोग कैसे किया जाना चाहिये....हिन्दी सहज है....और यह सहजता से पल्लवित हो रही है...विभिन्न संचार माध्यमों में विभिन्न रंगों के साथ खुश्बू बिखेर रही है।