हिन्द युग्म के कथा पाठ और विमर्श कार्यक्रम में जब अभिषेक कश्यप और अजय नावरिया ने अपनी बात रखी तो मुझे लघु मानव को कविता में शामिल करने औऱ उसके पक्ष में खड़े होनेवाले आलोचक याद आ गए। विजयदेवनारायण सहित सहित कई दूसरे आलोचकों ने मिलकर नयी कविता में पूरी एक बहस ही शुरु ही दी औऱ देखते ही देखते हिन्दी कविता औऱ आलोचना में एक ऐसी बिरादरी पैदा हो गयी जो लघु मानव को लेकर पूरा का पूरा समाजशास्त्र गढ़ने में लग गए। अकादमिक स्तर पर इस बहस को कितनी जगह मिली, लोगों ने इसे कितना समझा इसमें न जाते हुए भी मैं रथ का टूटा पहिया, मुझे फेंको मत, न जाने इतिहास की गति कब अवरुद्ध हो जाए और इन टूटे पहिए का साथ हो जैसी कविता की पंक्तियां प्रस्तावना के तौर पर दोहरायी जाने लगी। इस संबंध में आज भी अगर आप हिन्दी के विद्यार्थियों से बात करें तो वो धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों को जरुर दोहराते मिल जाएंगे।
लेकिन लघु मानव की पक्षधरता की बात करते हुए, इसके शुरुआती दौर के आलोचकों का कुर्ता थामे कुछ आलोचक कब महामानव बन गए और लघु मानव के लिए कविता औऱ रचना लिखनेवालों को ही लघु मानव साबित करने में जुट गए, इसका कोई भी इतिहास आपको हिंदी साहित्य में नहीं मिलेगा। वैसे भी हिन्दी साहित्य में योगदानों की ही चर्चा ज्यादा हुई है, लघु मानव की खोज एक योगदान है जबकि उस पर बात करनेवालों को लघुमानव घोषित कर देना योगदान नहीं, स्ट्रैटजी है। हिन्दी साहित्य स्ट्रैटजी की चर्चा से बचता रहा है इसलिए मार्केटिंग औऱ मैनेजमेंट से कभी इसकी पटती नहीं।
आज जब अजय नावरिया ने एक बात कही कि अब की आलोचना महत्तम की आलोचना नहीं, लघुतम की आलोचना है औऱ होनी चाहिए। है इस दावे पर असहमति न भी बने तो भी होनी चाहिए पर समर्थन तो किया ही जा सकता है। महत्तम का आशय आलोचना की उस पद्धति से है जिसमें बड़े-बड़े आलोचक रचना पर बड़ी-बड़ी बातें कर जाते हैं और इस क्रम में रचना को बड़ी बनाकर ही दम लेते हैं। जबकि इसके बरक्श कई ऐसी रचनाएं ऐसी होती हैं जो आलोचकों के हाथ में पड़कर बड़ी होने से रह जाती है या फिर उनके हाथ में न पड़ने से ज्यादा बड़ी होती है। अजय नावरिया अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही लेकिन आलोचना, स्ट्रैटजी और इसके भीतर के खेल की तरफ इशारा करते नजर आए।
जबकि अभिषेक कश्यप गौरव सोलंकी जैसे नए कथाकार पर टिप्पणी करने के बहाने नावरिया की बात को और भी साफ कर गए। उन्होंने गौरव सोलंकी सहित आधे दर्जन रचनाकारों का नाम लेते हुए कहा कि ये रचनाकार तथाकथित किसी बड़ी पत्रिका में, हालांकि इनकी संख्या आठ-दस से ज्यादा नहीं है, नहीं छपे। अगर बड़ी पत्रिकाओं में, बड़े संपादकों की छत्रछाया में छपने से ही कोई रचना बड़ी होती है तब आप ऐसे लोगों का कभी नाम भी नहीं सुन पाते। ये छोटी-मोटी पत्रिकाओं में छपते रहे हैं, इनकी रचनाओं को आप ब्लॉग या बेबसाइट के जरिए पढ़ सकते हैं। लेकिन ये दमदार रचनाकार तो हैं। क्योंकि ये ऐसे समय में लिख रहे हैं जबकि पत्रिकाओं ऱ महान आलोचना के अलावे भी दूसरे माध्यमों से पढ़े जा रहे हैं। पाठक और रचनाकार के बीच फिर से एक व्यक्तिगत, एक निजी संबंध पनप रहे हैं। इसलिए रचनाकार को भी चाहिए कि वो महान आलोचना की परवाह किए बिना अपनी रचनाशीलता पर ध्यान दे।
एक स्तर पर देखें तो लघु मानव को रचना में शामिल करने से ज्यादा मुश्किल काम है मठाधीशी के माहौल में किसी रचनाकार को लघु साबित करने के खिलाफ आवाज उठाना। लेकिन सुखद है कि न तो अजय नावरिया ने और न ही अभिषेक कश्यप ने इस मामले में मर्सिया पढ़ने का काम किया है। बल्कि रचना की उपस्थिति के नए माध्यमों को लेकर उत्साहित हैं कि इस महान कही जानेवाली आलोचना की अट्टालिका के उस पार छोटे-छोटे द्वीपों के समूह बन रहे हैं औऱ उसमें दिनोंदिन रौनक बढ़ रही है, पाठकों के जुटने से चहल-पहल बरकरार है औऱ रचना संसार एक बार फिर से गुलजार होता जा रहा है।
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_15.html?showComment=1232104020000#c1333744780128097494'> 16 जनवरी 2009 को 4:37 pm बजे
सटीक बात,
हिन्दी साहित्य में मठाधीशिय परम्परा जैसे जड़ों में पैठ चुकी है। नये-पुराने लेखकों को एक जगह जमा करके विचार तो यही था कि पुराने नये के रचनाकर्म भी सृजन मानें। लेकिन पीढ़ी का अंतर तो हर जगह दृष्टिगोचर होता है ना, फिर उससे साहित्य की दुनिया क्यों अछूती रहेगी।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_15.html?showComment=1232112840000#c3136108949175046485'> 16 जनवरी 2009 को 7:04 pm बजे
इतनी पैनी नज़र रखने के लिए शुक्रिया....अभिषेक ने एक और अच्छी बात कही जो लंबे समय तक याद रहेगी-"पॉलिटिकली करेक्ट होनो या लिखना अच्छी बात है,मगर हर लाइन लिखकर उसके पॉलिटिकली करेक्ट होने के बारे में सोचते रहे तो फिर बेहतर है कि मैनिफेस्टो लिखें, कहानी नहीं..."