गंभीर लेखन और साहत्य के बूते क्रांति की उम्मीद करनेवालों के लिए ब्लॉगिंग में कुछ नया नहीं है। बल्कि इसे तो वो क्रिएटिव एक्टिविटी मानने से भी इन्कार करते हैं। ऐसे लोगों में आपको नामवर सिंह से लेकर दर्जनों नामचीन साहित्यकार मिल जाएंगे। पढ़े-लिखे लोगों के बीच अब भी एक बड़ा समाज बचा हुआ है जो कि प्रिंट माध्यम को अभी भी सबसे ज्यादा प्रभावी और बेहतर मानता है। बाकी सबकुछ तकनीक के दम पर कूदनेवाली हरकत भर है। इसलिए कुछ लोगों के लिए, मुझे पता नहीं कि उन्होंने कभी ब्लॉगिंग और चैटिंग की है भी या नहीं लेकिन दोनों को एक ही तरह की चीज मान बैठते हैं। इनके हिसाब से जैसे चैटिंग एक लत है कुछ इसी तरह से ब्लॉगिंग भी। इसलिए किसी के ब्लॉग में सक्रिय होने को वो ब्लॉगिया जाना कहते हैं। अगर उन्हें बताया जाए कि फलां बुद्धिजीवी आदमी है, सामयिक चीजों पर उनकी अच्छी पकड़ है तो उनके नकार का एक ही आधार बनता है- अरे, वो तो ब्लॉगर है, इस तरह से लिखने का कोई अर्थ नहीं है। न कोई एवीडेंस, न अकाउन्टविलिटी और न ही किसी तरह का गंभीर अध्ययन है। लिखने दो, जिसको जो जी में आए, इससे कुछ नहीं होनवाला, कुछ भी नहीं बदलने वाला।
लेकिन कंटेट के स्तर पर ब्लॉगिंग ने तेजी से अपने हाथ-पैर पसारने शुरु कर दिए हैं और मीडिया, साहित्य, देश और दुनिया की तमाम हलचलों से अपने को जोड़ा है, गाहे-बगाहे गंभीर औऱ प्रिंट लेखन के मोहताज रहनेवाले लोग भी उपरी तौर पर ब्लॉगिंग को नकारनेवाले लोग गुपचुप तरीके से इसके भीतर की चल रही हलचलों को जानने के लिए बेचैन जान पड़ते हैं। आए दिन फोन पर लोग मोहल्ला, चोखेरबाली,भड़ास, गॉशिप अड्डा सहित सैकड़ों ब्लॉगों की पोस्टिंग के बारे में चर्चा करते नजर आते हैं। मैंने यूनिवर्सिटी कैंपस में दर्जनों रिसर्चर को अपने गाइड और करियर गुरु के लिए इन ब्लॉगों की पोस्टिंग के प्रिंटआउट लेते देखे हैं। अपने बारे में कुछ भी पोस्ट होने पर उसकी प्रिंट प्रति के लिए छटपटाते हुए देखा है। आपलोग दिल्ली में बैठकर हम छोटे साहित्यकारों के बारे में क्या सब लिखते-रहते हैं, फोन पर अधीर होते हुए देखा है। इसलिए अब जब कोई ब्लॉगिंग की ताकत, उसके असर और उसके हस्तक्षेप के सवाल पर बात करता है तो मुस्कराना अच्छा लगता है.
मेरे सहित देशभर में हजारों ऐसे हिन्दी ब्लॉगर हैं और आनेवाले समय में होंगे जो इस मुगालते से मुक्त हैं कि वो ब्लॉगिंग करके कोई क्रांति मचा देंगे। एस मामले में हम ब्लॉग विरोधियों के सुर के साथ हैं। हम रातोंरात सूरत बदल देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। देश की करोड़ों अधमरे, आधे पेट खाकर जीनेवालें लोगों के बीच कीबोर्ड के दम पर उनके बीच हौसला भर देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। ब्लॉग पर निजीपन और संवेदना की दुहाई देते हम एक संवेदनशील और मानवीय समाज बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं, इस बात पर भी शक है। तो फिर क्यों कर रहे हैं ये सब।
ब्लॉगिंग के विरोधियों की छटपटाहट को देखते हुए, इससे चोट खाकर तिलमिलाए हुए लोगों को देखकर कहूं तो हंगामा खड़ा करने के लिए। सही कह रहा हूं, हंगामा खड़ा करने के लिए, क्योंकि उत्तर-आधुनिक परिवेश में कुछ भी बदलने के पहले विमर्श और क्रांति का आधार तय करने के पहले हंगामा खड़ा करना जरुरी है। अभी तक का अनुभव यही है कि ब्लॉगिंग ने अपने भीतर ये ताकत पैदा कर ली है कि वो मुद्दों को लेकर हंगामा खड़ी कर दे...आगे देखा जाएगा।
दोस्ती यारी में ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया मीडिया स्कैन,जनवरी के अतिथि संपादक गिरीन्द्र ने छापी है
साभारः मीडिया स्कैन
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_09.html?showComment=1231486260000#c8215717085461980273'> 9 जनवरी 2009 को 1:01 pm बजे
हमेशा की तरह आप ने बढ़िया मुद्दे को छेड़ा है। पढ़ कर अच्छा लगा। ऐसे ही हम लोगों का हौंसला बढ़ाते रहिये --- आप की पोस्टें सुस्ती से लेटे हुये लोगों को उठाने का काम करती हैं....बिल्कुल बेबाक, बिल्कुल ईमानदारी से लिखा हुआ लेखन और दिल से लिखा हुआ लेखन।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_09.html?showComment=1231502160000#c6921900035416484023'> 9 जनवरी 2009 को 5:26 pm बजे
सार्थक आलेख हेतु साधुवाद !
स्तरीय लेखन अपना स्थान बना ही लेगा,चाहे कोई कितना भी विरोध करे.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_09.html?showComment=1231512600000#c4924656009379740168'> 9 जनवरी 2009 को 8:20 pm बजे
प्रिण्ट और ब्लाग सर्वथा भिन्न-भिन्न विधाएं हैं जिनकी तुलना करना समझदारी नहीं है। मैं भी प्रिण्ट का मुरीद हूं किन्तु साफ लग रहा है कि आने वाला समय 'नेट' का है जिसका वाहक ब्लाग ही होगा।
प्रिण्ट के पक्षधरों को शायद इस बात का कष्ट है कि वे ब्लागरों पर सम्पादन की कैंची नहीं चला पा रहे हैं। ब्लागरों का कष्ट यह है कि उनकी दुनिया बहुत ही छोटी है।
सब अपना-अपना काम करें। इसी में बेहतरी है।