.

सरकार इस बात को समझ ही नहीं पा रही या फिर समझना ही नहीं चाहती कि जिसे वो नागरिक कह रही है वो अब सिर्फ नागरिक न होकर ऑडिेएंस भी है। दूरदर्शन के जमाने से नागरिक और ऑडिएंस का जो घालमेल हुआ है उसे अभी तक बरकरार रखना चाहती है। इसलिए जब भी मीडिया के मामले में बात करना शुरु करती है तो तुरंत कूदकर जनहित, पब्लिक इन्टरेस्ट, सोशल वेलफेयर जैसे वैल्यू लोडेड, संवैधानिक शब्दों को भिड़ा देती है। जबकि देश में सैंकड़ों निजी चैनलों को लाइसेंस देते समय उसे समझ लेना चाहिए कि ये चैनल देश के नागरिकों को ऑडिएंस बनाने का काम करेंगे और उन्हीं के हिसाब से अपने कार्यक्रमों का प्रसारण करेंगे।
आज न्यूज चैनलों के लिए कंटेट कोड और दुनियाभर के कानूनी प्रावधान लाए जा रहे हैं, उसकी बड़ी वजह यही है कि सरकार अभी भी देश के तमाम लोगों को नागरिक मानकर चलती है या फिर दूरदर्शन के दर्शक जिसके हित की चिंता सिर्फ उन्हें ही करनी चाहिए। सरकार के लिए ये बात समझ के बाहर की है कि करीब पन्द्रह साल से निजी चैनल अपने तरीके से कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं, ये कहते हुए कि देश के लोग यही चाहते हैं तो चैनल और ऑडिएंस के बीच कुछ संबंध बने होंगे। अब देश की जो ऑडिएंस दूरदर्शन की तरफ कभी ताकने नहीं जाती, वो हाइपरबॉलिक खबरें दिखाए जाने के वाबजूद भी निजी चैनलों को देखना पसंद करती है, मुझे समझ में नहीं आता कि सरकार उनके लिए किस तरह के हित की बात करना चाहती है।
बाकी सेक्टर की बात न करते हुए फिलहाल की स्थिति को देखते हुए मीडिया के मामले में सरकार के लिए ये समझना जरुरी है कि नागरीक और ऑडिएंस दो अलग-अलग चीज है। जो देश का नागरिक है और उसके लिए जनहित का जो भी फार्मूला या प्रवधान है, वो ऑडिएंस के रुप में भी इसी तरह से होगा, जरुरी नहीं।

सरकार को ऐसा कोई भी प्रावधान लाने के पहले जिसे कि मेनस्ट्रीम मीडिया आज लोकतंत्र का गला घोटना कह रही है, निजी चैनलों औऱ ऑडिएंस के बीच के संबंधों को समझना चाहिए। उसे इन दोनों के बीच सिर्फ इसलिए नहीं आना चाहिए कि वो सरकार है औऱ चाहे तो कुछ भी कर सकती है। उसे उन बारिकियों में जाना चाहिए कि तमाम आलोचना के वाबजूद भी निजी चैनल क्यों वूम पर हैं। ऑडिएंस जिसे कि वो नागरिक कह रहे हैं, क्यों तीन-साढ़े तीन सौ रुपये लगाकर निजी चैनलों की तरफ भाग रही है। निजी चैनलों के आने के पहले की बात छोड़ दे तो क्या सरकार के पास ऐसा कोई सर्वे है जिससे ये साफ होता हो उससे जिम्मे जो भी माध्यम रहे हों, उसने व्यापक स्तर पर जनहित के काम किए हो। अगर है तो उसे आधार बनाए और सार्वजनिक करे। ऑडिएंस की बात छोड़ भी दें तो भी नागरिक की जरुरतों को बेहतर तरीके से समझ पाए हों, इसे सबूत के तौर पर पेश करे।
नब्बे-इक्यानवे के बाद ऐसे बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जिसमें सरकारी मीडिया या फिर सरकार के सहयोग से चलनेवाली मीडिया ने नागरिकों के बीच एक समानांतर समझ पैदा करने की कोशिश की हो। जिसकी सरकार आयी, मीडिया पर उसके रंग चढ़ने लग गए। कुछ लोगों को अब भी कहते सुनता हूं कि निजी समाचार चैनलों के बाढ़ के बीच दूरदर्शन अभी भी तटस्थ रुप से खबरों का प्रसारण करता है। लेकिन हम जिसे तटस्थता कह रहे हैं, संभव है उसमें काफी हद तक आलोचनात्मक समझ की कमी हो। निजी चैनलों की जरुरत यहीं सबसे ज्यादा है।
इसलिए जनहित के नाम पर सरकार निजी चैनलों को कसने की कवायद शुरु करने जा रही है इसके पहले दो-तीन सवालों औऱ अपनी समझ को साफ कर ले तो इससे बेहतर जनहित और कुछ नहीं हो सकता-
१ सरकार के पास को ठोस आधार नहीं है जिससे साबित हो जाए कि निजी समाचार चैनलों की खबरों से जनहित को खतरा है। अगर ताजा उदाहरण मुंबई बम विस्फोट के लाइव कवरेज हैं तो सरकार को ऑपरेशन के तुरंत बाद एक-दो को छोड़कर सारे निजी न्यूज चैनलों का शुक्रिया अदा करने में जल्दीबाजी नहीं मचानी चाहिए थी। उस समय उन्होंने साफ कहा कि- इस ऑपरेशन ने मीडिया ने उनका भरपूर साथ दिया।

२ देश के नागरिक औऱ देश की ऑडिएंस दो अलग-अलग चीजें हैं औऱ अब सरकार को इसमें घालमेल नहीं करना चाहिए। निजी चैनल और सरकार के बीच ऑडिएंस भी है जो कि इ दोनों से किसी भी मामले में कम महत्वपूर्ण नहीं है। संभव हो सरकार को इस बात की अच्छी समझ है कि किस लाइन में सड़क, बिजली औऱ पानी पहुंचाने से जनहित का काम होगा, कितने स्कूल औऱ कॉलेज खोले जाने से साक्षरता दर में इजाफा होगा लेकिन मीडिया के मामले में उसका दावा इतना ही पुख्ता नहीं है। ऑडिएंस को क्या चाहिए ये तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार के हाथ में नहीं जाने चाहिए।
३ राजदीप सरदेसाई की बात पर एक बार फिर विचार करे कि- सरकार को लगता है कि उनके कुछ मीडिया से भी ज्यादा काबिल लोग हैं। बिना रिसर्च के, बिना कोई सर्वे के जिसमें ऑडिएंस शामिल ही नहीं है, इस तरह के प्रावधान को लागू करने की कोशिश करना, मौजूदा हालात में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति ही समझी जाएगी। ये चैनल तब तक बहुत अच्छे रहे, जब तक इन्होंने ऑपरेशन खत्म होने तक सरकार का भरपूर साथ दिया, नेशनलिज्म को एक जज्बाती रंग देने का काम किया, लेकिन जैसे ही इसके लिए सरकार की नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था में कोताही आदि मसलों पर बात करने लगे तो इन चैनलों से जनहित को खतरा होने लगा।
इस तरह के फैसले से न तो मीडिया को दुरुस्त किया जा सकेगा, न ही जनहित के एजेंडे पर बात हो सकेगी, उल्टे एक फ्रैक्चर्ड यूनिटी को बढ़ावा मिलेगा- जब सरकार के विरोध में होंगे तो सारी मीडिया एकजुट हो जाएगी औऱ जब मीडिया के विरोध में होगे तो देश के सारे नेता, चाहे वो किसी भी विचारधारा के क्यों न हों, एक हो जाएंगे। जबकि सच्चाई ये है कि देश इस तरह के सी-शॉ खेल की तरह नहीं चलता।
इसलिए समझदारी की दुहाई देनेवाली सरकार को निजी चैनलों पर नकेल कसने के लिए स्वयं के भीतर समझदारी की जरुरत है। चैनल को अगर खबरों को प्रसारित करने औऱ नहीं करने के प्रति समझ बनाने की जरुरत है तो सरकार को इन चैनलों के काम करने के तौर-तरीके , इसकी अनिवार्यता , गैरजरुरीपन और ऑडिएंस के बदलते मिजाज को समझना जरुरी होगा।
| edit post
2 Response to 'मन-मोहन ख़बर बनाने से पहले, ज़रा सोचिए'
  1. Rakesh Kumar Singh
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_14.html?showComment=1231916220000#c497500884025657687'> 14 जनवरी 2009 को 12:27 pm बजे

    विनीत बाबू

    बिल्‍कुल सही. सरकार हर उस पर लगाम लगा देना चाहती है जिससे उसे असहजता महसूस होती है. और ये होता रहा है. मैं नहीं मानता कि हिन्‍दुस्‍तानी मीडिया एकदम पाकसाफ़ है और इसकी हर गतिविधि जनहित में होती है. अव्‍वल तो इसका ज्‍़यादातर समय ख़बर पैदा करने और एक-दुसरे को पछाड़ने में जाता है. जनहित वाला काम बीच-बीच में कभी-कभार करना पड़ता है या यों कहें कि ऐसा न करने पर बिल्‍कुल ही बेपर्द हो जाने का ख़तरा बनता है.
    पर मेरा पक्ष यही है कि मीडिया को नियंत्रित करने के लिए कोई भी संहिता या क़ानून थोपने से पहले उस पर जमकर बहस होनी चाहिए. आनन-फ़ानन में लादा जाने वाला कोई भी क़ानून न केवल सरकार की हताशा का परिचायक है बल्कि भविष्‍य में राज्‍य के और अधिक निरंकुश तथा और ज्‍़यादा तानाशाह होने के अंदेशे की ओर इशारा करती है. ख़बरिया चैनलों को क़ाबू में करने की मौज़ूदा कोशिशों का न केवल विरोध होना चाहिए बल्कि देश और समाज के हित में मीडिया के रचनात्‍मक योगदान के तौर-‍तरिकों पर भी व्‍यापक विचार-विमर्श की दरकार है.

     

  2. जितेन्द़ भगत
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_14.html?showComment=1231946220000#c212669015525662556'> 14 जनवरी 2009 को 8:47 pm बजे

    सही बात कही आपने।

     

एक टिप्पणी भेजें