एनडीटीवी इंडिया पर पंकज पचौरी ने भावुक अंदाज में बताया कि कभी अमर चरित्र गढ़ने वाले तीसरी कसम के लेखक रेणुजी की पत्नी आज खुद एक चरित्र बनकर रह गयी हैं। रेणु की पत्नी लतिकाजी की स्थिति नाजुक है औऱ वो इन दिनों पटना के एक अस्पताल में पड़ी हैं।
चैनल ने जो विजुअल्स दिखाए उससे लगा कि झरझरा चुके शरीर के भीतर भी व्यवस्था को लेकर कितना रोष है, वो बार-बार नहीं-नहीं कह रही थी। किस बात पर ऐसा कह रही थी, स्पष्ट नहीं हो पा रहा था लेकिन चेहरे पर बजबजायी हुई नाली और उसमें जमे कादो को देख लेने का जो भाव होता है, कुछ-कुछ वैसे ही भाव आ-जा रहे थे। संभव है ये भाव उन आलोचकों के लिए हों जो रेणु की रचनाओं पर आलोचना की किताबें लिखने के बाद बिसर गए, कहां से और कितनी रॉयल्टी मिल जाए, इस गणित में लग गए, अपने आलोचकीय कर्म की डंका पीटने में लग गए कि मैला आंचल, परती-परिकथा, पल्टू बाबू रोड, ठुमरी औऱ ऐसी दर्जनों रचनाएं इसलिए पॉपुलर हुई क्योंकि हमने पाठकों के बीच इसकी समझदारी पैदा की। नहीं तो यूनिवर्सिटी औऱ कॉलेजों में पढ़नेवाले लोगों को कहां मेरीगंज और पूर्णिया की भदेस बोली समझ आती।
संभव है लतिकाजी को उन प्रकाशकों को याद करके उबकाई आ रही हो जो रेणु की रचनाओं की रॉयल्टी की रकम को वृद्धा पेंशन में कन्वर्ट करते रहे हैं जबकि पीछे से उनकी रचनाओं को सहेजने और कालजयी कृतियां घोषित करने में व्यस्त हैं। पाठक उनकी किसी भी रचना से महरुम न हो जाए, उनके जीवन के किसी भी प्रसंग को जानने से जुदा न रह जाए इसके लिए रचनावली तैयार करने में लगे हैं। उनकी कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों को ही नहीं, घरेलू चिठ्ठियों को भी प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं ताकि पाठक रेणु के रेणु बनने के पीछे लगी खाद-मिट्टी की तासीर को समझ सके। प्रकाशक रेणु की एक-एक चीज को सहेजना चाहते हैं, संभव है लतिकाजी को उनके इसी रवैये पर घिना जा रही हों।
एक वजह ये भी हो सकती है कि लतिकाजी का मन हम जैसे पाठकों के होने के आभास की वजह से मिचला जाता हो औऱ उल्टियों का चक्र शुरु हो जाता हो जो हाफिज मास्टर, लक्ष्मी दासिन, वामनदास जैसे चरित्रों से गुजरते हुए आंखों के कोर पोछने लग जाते हैं। हम एक स्वर में कहने लग जाते हैं....सचमुच इस तरह के चरित्रों को गढ़कर रेणु ने अपना करेजा निकालकर बाहर रख दिया है, रेणु ने इन चरित्रों को जिया है। रचना के स्तर पर इन चरित्रों में लतिकाजी भी शामिल होतीं। रेणु ने अपनी रचनाओं में जहां-तहां अपनी पत्नी को एक चरित्र के रुप में देखा है। हम इन पर भी आंखों के कोर पोछते रहे हैं।
बल्कि पाठकों के होने के आभास की वजह से तो लतिकाजी ज्यादा उबकाई महसूस करती होंगी क्योंकि आलोचक और प्रकाशकों की संख्या तो सीमित है और फिर उनकी पहचान भी निर्धारित है लेकिन पाठकों की तो कोई निश्चित पहचान तक नहीं। कौन-सा पाठक किस चरित्र को लेकर जार-जार हुआ है, इसका भला क्या हिसाब हो सकता है। औऱ कोई व्यक्ति रेणु को पढ़ा भी है या नहीं, लतिकाजी को भला इसकी जानकारी कैसे होगी। उन्हें तो बस इतना पता है कि उनके रेणुजी देश के महान साहित्यकार रहे हैं, दुनियाभर के लोग उन्हें जाननेवाले हैं। इसलिए किसी के भी आने पर पाठक समझकर लतिकाजी घृणा से मुंह फेर लेती है तो इसमें गलत क्या है।
एम ए के दौरान रेणु को दो लोगों से पढ़ा। एक तो हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय से जिनकी एक लाइन अभी तक याद है कि- रेणु ने जिस गांव को अपने उपन्यासों में देखा है वो ट्रेन की सीट पर बाहर की ओर टकटकी लगाकर देखा गया गांव नहीं है और न ही हवाई दौरे हैं। रेणु गांव की पगडंडियों से होकर गुजरते हैं, कीचड़-कादो में धंसकर आगे बढ़ते हैं.....स्वयं रेणु के शब्दों में कहें तो जिसमें धूल भी है और शूल भी।
दूसरी किरोड़ीमल कॉलेज की विद्या सिन्हा मैम से। उऩका रेणु के उपन्यासों पर पीएचडी थी। वो भदेस जीवन औऱ धूल-धूसर जमीन के बीच से विदूषक औऱ जीवट चरित्रों की खोज की वजह से रेणु की कायल थीं। हम उनके सुंदर और सचेत मुखड़े पर मेरीगंज के अंगूठा छाप लोगों के लिए दर्द औऱ अफसोस की रेखाएं देखते तो एक अलग ढंग का सुकून मिलता।एक भरोसा जमता कि रेणु ने अपनी रचनाओं के जरिए संभ्रांत लोगों के दिल में भी वंचित औऱ दाने-दाने को कलटने वाले लोगों के प्रति संवेदना पैदा करने का काम किया है। लतिकाजी आज मेरी इस समझ पर भी थूक रही होंगी और क्या पता पैंतालिस से पचास मिनट तक संवेदना की मूर्ति बने देश के हजारों टीचरों पर भी जो हर साल लाखों लोगों को ये पाठ पढ़ाने का काम करते हैं- डॉक्टर प्रशांत ने बीमारी की वजह ढूंढ ली है, इसकी एक ही वजह है गरीबी औऱ जहालत।( मैला आंचल की लाइन जिसके आगे टीचर अपनी तरफ से जोड़ देते हैं....और इसे दूर किए बिना देश का कुछ नहीं हो सकता।
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_04.html?showComment=1231147200000#c1176218869806553660'> 5 जनवरी 2009 को 2:50 pm बजे
लतिका जी जल्द स्वस्थ हों , यह कामना है.