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वो कैंची गिरीन्द्र की नहीं थी

Posted On 9:27 am by विनीत कुमार |


मीडिया स्‍कैन के ताज़ा पीडीएफ़ फ़ाइल में राकेश सिंह का लेख 'सामाजिक संघर्षों को सबलता'

यह मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्लॉग की ने तमाम किस्मों की अभिव्यलक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्लॉगिंग हिट है.
सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असहमति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्य क्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है.
उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्लॉगगिरी अभिव्यक्ति के माध्य म से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्थाहओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्कृगति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्टारचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग.
मिसाल के तौर पर सफ़र की स्वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता सूचना का अधिकार संबंधित क़ानून, इसके इस्तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्मारण, रपट, इत्यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्पसलाइन नंबर 09718100180 दर्ज है. जमघट सड़कों पर भटकते बच्चों के एक अनूठे समूह के रचनात्मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है.
वक़्त हो तो एक मर्तबा यमुना जीए अभियान पर हो आइए. यहां आपको दिल्ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्या़दि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन दिल्ली ग्रीन पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्दीं में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्पी साध रखी हैं.
समता इंडिया दलित प्रश्नों व ख़बरों से जुड़े ब्लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. स्वरच्छकार डिग्निटी पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा सं‍कलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्मरपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ... उडने लगे ... आँधी बन जाए ... तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्यल्प समय में चोखेर बाली स्त्री-साहित्य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्थापित हो चुकी है.
छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के
साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़. इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्त जानकारी संग्रहित है. आनि सिक्किम रंचा उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्यादा दिनों से स्थानीय लोग तीस्ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्तावेज़ है.



मीडिया स्कैन ने मेरे लेख की एडिटिंग नहीं की है, एडीटिंग करता तो भी बात समझ में आ जाती, चोपिंग की है। एक बार तो देखकर यही लगता है कि बिना लेख के महत्वपूर्ण अंश को जाने-समझे स्पेस मैनेज करने के चक्कर में उसे कतर कर रख दिया। नतीजा ये हुआ है कि जो बात मैं कहना चाह रहा था वो बात इसमें आयी ही नहीं। मीडिया स्कैन की पीडीए देखकर राकेश सिंह बहुत ही विचलित हुए। एक नए लेखक को रचना नहीं छपने और वापस लौट आने की जो पीड़ा होती है, लगातार छपने या फिर पहले छप चुके लेखक की पीड़ा इस बात से रत्तीभर भी कम नहीं होती कि कोई उसके लेख के मर्म को समझे बिना काट-छांटकर छाप जाता हो। उन्होंने तत्काल इसका तोड़ निकाला और कैंची से कटे की मरम्मती कीबोर्ड के थ्रू करने लगे। हफ़्ताwar ने ब्लॉग पर एक छोटी-सी टिप्पणी के साथ जैसे ही उन्होंने लेख का मूल पाठ डाला, गिरीन्द्र ने माफी मांग ली। चूंकि इस अंक के संपादन का दायित्व गिरीन्द्र पर रही इसलिए नैतिकता के आधार पर उसने इसके लिए अपने को दोषी मानकर ऐसा किया।
इस बात से पहले तो गिरीन्द्र पर मुझे गर्व महसूस हुआ कि चलो, अपने बीच अभी भी ऐसे लोग हैं जो संपादक की कुर्सी पर बैठकर भी माफी शब्द को तबज्जो देते हैं लेकिन घंटे भर बाद जब पूरी बात समझ में आयी तो गिरीन्द्र की नैतिकता पर गुस्सा आया।

अतिथि संपादक होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप से काम करनेवालों को सौंप दिया। चूंकि ये अंक ब्लॉक पर था, लोगों के अपने विचार थे इसलिए इसमें संपादन के नाम पर कतर-ब्योत का काम ही ज्यादा था। पत्रिका के संपादन से ये अलग काम था। गिरीन्द्र ने छपने के लिए उन सारी सामग्री को उसी रुप में( मामूली हेर-फेर के साथ)दे दिया जिस रुप में रचनाकारों ने उसके पास भेजी थी।
लेकिन छपकर आने के बाद उसे भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा कि आज राकेश सिंह लेख के जिस रुप पर आपत्ति दर्ज कर रहे है ये उसके संपादन का हिस्सा है. उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं रही कि लेख का संपादन करने के बाद उसे काट-पीटकर पब्लिश किया गया है। इसलिए शुरुआत में माफी मांग लेने की बात जितनी अपीलिंग लगी, अब उस पर उतना ही गुस्सा भी आ रहा है।

पत्रिका चाहे जो भी हो और चाहे जिस किसी को भी उसका अतिथि संपादक बनाया जाए, लेकिन किसी को भी इसका दायित्व देकर पत्रिका के पब्लिश होने के बीच में ही कोई अपनी तरफ से खेल करता है तो इससे शर्मनाक बात कुछ और नहीं हो सकती। संभव हो इस पूरे मामले में हुआ सिर्फ इतना होगा कि कम्पोजिंग करते समय स्पेस का चक्कर पड़ गया हो और लेख छोटी करनी पड़ गयी हो लेकिन इतनी समझदारी तो बरती ही जानी चाहिए थी कि उसके महत्वपूर्ण हिस्सों को शामिल किया जाता। दूसरा कि अतिथि संपादक होने की हैसियत से इस बात की जानकारी गिरीन्द्र को दी जाती।
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5 Response to 'वो कैंची गिरीन्द्र की नहीं थी'
  1. Vinay
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html?showComment=1231823040000#c2698502995332378252'> 13 जनवरी 2009 को 10:34 am बजे

    आपका सहयोग चाहूँगा कि मेरे नये ब्लाग के बारे में आपके मित्र भी जाने,

    ब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है अवश्य अवगत करायें
    तकनीक दृष्टा/Tech Prevue

     

  2. Unknown
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html?showComment=1231825740000#c8776447027728799772'> 13 जनवरी 2009 को 11:19 am बजे

    vineet jee accha laga padh kar...likhte rahiye..

     

  3. PD
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html?showComment=1231855500000#c8860116164677145139'> 13 जनवरी 2009 को 7:35 pm बजे

    आइला.. ई का हुआ विनीत भाई?? अपना फोटुवा बदल दिये.. वैसे ये भी बढ़िया है..
    शुभकामनायें.. :)

     

  4. जितेन्द़ भगत
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html?showComment=1231861200000#c6019069156542979255'> 13 जनवरी 2009 को 9:10 pm बजे

    राकेश जी का लेख पढ़वाने के लि‍ए आभार।

     

  5. आशीष कुमार 'अंशु'
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_13.html?showComment=1232695140000#c6346174916145535185'> 23 जनवरी 2009 को 12:49 pm बजे

    विनीत भाई, आप उन सब लोगों से परिचित हैं जो मीडिया स्कैन टीम के साथ जुड़े हुए उसके बाद भी आप इस तरह का कोई लेख कैसे लिख सकते हैं? लिखने से पहले कम से कम एक बार बात तो करते. संपादन के मामले में उलट हुआ. यहाँ जो संपादन है वह पूरी तरह से गिरीन्द्र की देखरेख में हुआ है. वह क़यामत की रात (जिस रात को मीडिया स्कैन पूरा हुआ) , अंक के साथ थे. लेख जुटाने में उनके कहने पर जो मदद बन पाई हमने की. लेकिन वह लेख भी लाकर गिरीन्द्र के झोले में ही डाला गया. ( आपने लिखा है - अतिथि संपादक होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप से काम करनेवालों को सौंप दिया।) अपने मन की लिखने से पहले विनीत भाई आप एक बार बतिया लेते - मुझसे बतियाने में हर्ज था तो तनिक गिरिन्द्र (09868086126) का नंबर ही मिला लेते तो अच्छा होता.

     

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