अभी जबकि देश के अधिकांश न्यूज चैनल भ्रष्ट नेताओं के बहाने संसद और सरकार की अनिवार्यता के मसले पर नए सिरे से विचार कर रहे हैं, उनके होने की ठोस वजह को रिवाइव करने में लगे हैं,ये सवाल उठाना कि हमें निजी न्यूज चैनलों की किस हद तक जरुरत है, अपपटा सवाल हो सकता है। मीडिया ने मुंबई आतंकवादी हमले के बाद इनफ इज इनफ के जरिए जिस तरह से सिटिजन कन्शसनेस बनाने में जुटे हैं,फिलहाल उन्ही के होने पर सवाल खड़े करना संभव है, बेहूदा हरकत हो। लेकिन जो मीडिया आतंकवाद के खिलाफ लोगों के एकजुट होने की बात को जेपी आंदोलन के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन करार दे रही है।ये अलग बात है कि चैनल इसे कुछ ज्यादा ही हाइपरबॉल की तरफ ले जा रही है। हो सकता है एसएमएस और टीआरपी बटोरने के बाद वो अपने को समेट ले। लेकिन फिलहाल के लिए जरुरी कदम है. एक तरह से कहें तो यही आंदोलन को लीड कर रही है। हर चैनलों पर अलग-अलग नाम से, अलग-अलग एंगिल से, अलग-अलग ढंग से पैकेज बनाकर। आप चाहें तो इसे चैनलों द्वारा पैदा की गयी पहली क्रांति या आंदोलन कह सकते हैं। चैनल भी चाहे तो इस बात की क्रेडिट ले सकते हैं कि उनमें इतनी ताकत है कि वो लोगों के बीच आंदोलन पैदा कर सकती है। इन सभी चैनलों में कॉमन बात है कि सबने नेताओं और सरकार की नाकामी को सामने रखने का काम किया। सबों ने सवाल खड़े किए कि हमें ऐसी सरकार औऱ नेताओं की कितनी जरुरत है जो सुरक्षा मुहैया कराने में नाकाम रही है। सभी चैनलों ने आतंकवाद के बहाने सरकार के लिजलिजेपन को सामने लाकर रख दिया, देश की सुरक्षा कितनी लचर है, इसे एकदम से साफ कर दिया, बूलेट प्रूफ जैकेट को महज शोभा और फैशन के लिए इस्तेमाल भर होने का बताया, अब उसी चैनल को लेकर ये सवाल खड़े किए जाएं कि इन निजी चैनलों की हमें कितनी अधिक जरुरत है, ऐसे में सवाल खड़े करने के बजाय मसखरी करने का मामला समझा जाएगा।
कुछ महीनों पहले जब केन्द्र की सरकार संकट में थी और विश्वासमत हासिल करने के दौरान संसद के भीतर नोटों की गड्डियां दिखायी गयी और वो भी किसी निजी चैनल द्वारा नहीं, लोकसभा चैनल द्वारा तो एक घड़ी को भरोसा बन गया कि अगर देश में कोई निजी समाचार चैनल नहीं भी हों तो अपना काम चल जाएगा। तीन दिनों तक देश की ऑडिएंस नें सिर्फ और सिर्फ लोकसभा चैनल को देखा। औऱ किस दूसरे निजी चैनलों को देखा भी हो तो उस पर भी लोकसबा से फुटेज काटकर चलाए गए। लोगों की राय थी कि- देखिए, लोकसभा ने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया लेकिन लोग इससे चिपके हुए हैं। हम एकबार फिर से दूरदर्शन और लोकसभा चैनल की तरफ लौट गए और निजी चैनलों के प्रति हमारी दूरी बन गयी। हम इसे गैरजरुरी नहीं भी तो एकदम से अनिवार्य भी मानने की स्थिति में नहीं रह गए।
लेकिन मुंबई आतंकवादी हमले के दौरान दूरदर्शन और लोकसभा चैनल का कोई नाम लेनेवाला मुझे नहीं मिला। स्क्रीन पर या फिर किसी भी प्रिंट मीडिया के जरिए लोगों ने नहीं कहा कि इसकी सबसे पहले जानकारी मुझे लोकसभा या फिर दूरदर्शन के जरिए मिली। इससे ये कहीं साबित नहीं होता कि इन दोनों चैनलों की कोई प्रासंगिकता नहीं है। संभव है कि इस हादसे से मोटे तौर पर जिन लोगों का सरोकार रहा है उसकी ऑडिएंस टाइम्स नाउ, सीएनएन, एनडीटीवी जैसे अंग्रेजी चैनलों की रही हो. ऑडिएंस ने देश के भीतर हुए हादसे में सबसे ज्यादा अंग्रेजी में बाइट इसी समय दिए। लेकिन ये जरुर साबित हो जाता है कि दूरदर्शन,लोकसभा या फिर सरकारी सहयोग से चलनेवालीम मीडिया को पर्याप्त नहीं माना जा सकता है. जो मीडिया बिल्बर श्रैम के विकासवादी ढ़ांचे पर काम करती रही है, वो यहां पर आकर शिथिल दिखायी देने लग जाती है. खबरों के प्रति तटस्थता या विश्वसनीयता का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है उसकी गति बिल्कुल मंद पड़ जाए. ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि अगर कोई चैनल पुखता खबर देने की बात करता है तो वो हर हाल में देर से ही खबर दे। निजी समाचार चैनलों ने जितनी तेजी से सरकार की नाकामी और शहीदों के प्रति सम्मान का महौल बना लिया, दूरदर्शन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया. न तो लोगों की भावनाओं को संतुलित करने में कुछ नया कर पाया और न ही विकासवादी ढ़ांचे के अनुरुप लोकहित में कोई पैकेज ही बना पाया।
लेकिन इन सबके बीच लगातार सत्तर घंटे तक सत्तर से भी ज्यादा निजी चैनलों के दिन-रात लगकर खबर देने पर भी सरकार कभी देश की सुरक्षा के नाम पर, कभी लोगों की भावना के नाम पर, कभी विश्वसनीयता के नाम पर आडे़-तिरछे ढंग से नकेल कसने में लगी है। इसे सरकार का किसी भी स्तर से विवेकपूर्ण रवैया नहीं कहा जा सकता है। ये देश का दुर्भाग्य है कि हम सरकार के किसी भी फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं, चाहे वो फैसले गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद लिए गए हों या फिर फ्रशट्रेशन औऱ असुरक्षा में आकर। बार-बार निजी चैनलों को लताड़ने के बजाय अगर सरकार दूरदर्शन, लोकसभा और जितने भी सरकारी सहयोग से जनहित में काम करनेवाली मीडिया है, उसे दुरुस्त कर दे तो ज्यादा बेहतर होगा। कानून के डंडे दिखाने स बेहतर है कि वो निजी चैनलों को लोकप्रियता, और ऑडिएंस के बीच अपनी पकड़ के स्तर पर पटकनी देने का काम करे. चैनलों में इतनी समझदारी अभी भी है कि वो मौके के हिसाब से खबरों को प्रसारित करती है। दो-तीन चैनल इसके भले ही अपवाद हो सकते हैं, इसे भी सरकार के डंडे नहीं बल्कि देर-सबेर ऑडिएंस ही निकाल-बाहर कर देगी।
कुछ महीनों पहले जब केन्द्र की सरकार संकट में थी और विश्वासमत हासिल करने के दौरान संसद के भीतर नोटों की गड्डियां दिखायी गयी और वो भी किसी निजी चैनल द्वारा नहीं, लोकसभा चैनल द्वारा तो एक घड़ी को भरोसा बन गया कि अगर देश में कोई निजी समाचार चैनल नहीं भी हों तो अपना काम चल जाएगा। तीन दिनों तक देश की ऑडिएंस नें सिर्फ और सिर्फ लोकसभा चैनल को देखा। औऱ किस दूसरे निजी चैनलों को देखा भी हो तो उस पर भी लोकसबा से फुटेज काटकर चलाए गए। लोगों की राय थी कि- देखिए, लोकसभा ने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया लेकिन लोग इससे चिपके हुए हैं। हम एकबार फिर से दूरदर्शन और लोकसभा चैनल की तरफ लौट गए और निजी चैनलों के प्रति हमारी दूरी बन गयी। हम इसे गैरजरुरी नहीं भी तो एकदम से अनिवार्य भी मानने की स्थिति में नहीं रह गए।
लेकिन मुंबई आतंकवादी हमले के दौरान दूरदर्शन और लोकसभा चैनल का कोई नाम लेनेवाला मुझे नहीं मिला। स्क्रीन पर या फिर किसी भी प्रिंट मीडिया के जरिए लोगों ने नहीं कहा कि इसकी सबसे पहले जानकारी मुझे लोकसभा या फिर दूरदर्शन के जरिए मिली। इससे ये कहीं साबित नहीं होता कि इन दोनों चैनलों की कोई प्रासंगिकता नहीं है। संभव है कि इस हादसे से मोटे तौर पर जिन लोगों का सरोकार रहा है उसकी ऑडिएंस टाइम्स नाउ, सीएनएन, एनडीटीवी जैसे अंग्रेजी चैनलों की रही हो. ऑडिएंस ने देश के भीतर हुए हादसे में सबसे ज्यादा अंग्रेजी में बाइट इसी समय दिए। लेकिन ये जरुर साबित हो जाता है कि दूरदर्शन,लोकसभा या फिर सरकारी सहयोग से चलनेवालीम मीडिया को पर्याप्त नहीं माना जा सकता है. जो मीडिया बिल्बर श्रैम के विकासवादी ढ़ांचे पर काम करती रही है, वो यहां पर आकर शिथिल दिखायी देने लग जाती है. खबरों के प्रति तटस्थता या विश्वसनीयता का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है उसकी गति बिल्कुल मंद पड़ जाए. ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि अगर कोई चैनल पुखता खबर देने की बात करता है तो वो हर हाल में देर से ही खबर दे। निजी समाचार चैनलों ने जितनी तेजी से सरकार की नाकामी और शहीदों के प्रति सम्मान का महौल बना लिया, दूरदर्शन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया. न तो लोगों की भावनाओं को संतुलित करने में कुछ नया कर पाया और न ही विकासवादी ढ़ांचे के अनुरुप लोकहित में कोई पैकेज ही बना पाया।
लेकिन इन सबके बीच लगातार सत्तर घंटे तक सत्तर से भी ज्यादा निजी चैनलों के दिन-रात लगकर खबर देने पर भी सरकार कभी देश की सुरक्षा के नाम पर, कभी लोगों की भावना के नाम पर, कभी विश्वसनीयता के नाम पर आडे़-तिरछे ढंग से नकेल कसने में लगी है। इसे सरकार का किसी भी स्तर से विवेकपूर्ण रवैया नहीं कहा जा सकता है। ये देश का दुर्भाग्य है कि हम सरकार के किसी भी फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं, चाहे वो फैसले गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद लिए गए हों या फिर फ्रशट्रेशन औऱ असुरक्षा में आकर। बार-बार निजी चैनलों को लताड़ने के बजाय अगर सरकार दूरदर्शन, लोकसभा और जितने भी सरकारी सहयोग से जनहित में काम करनेवाली मीडिया है, उसे दुरुस्त कर दे तो ज्यादा बेहतर होगा। कानून के डंडे दिखाने स बेहतर है कि वो निजी चैनलों को लोकप्रियता, और ऑडिएंस के बीच अपनी पकड़ के स्तर पर पटकनी देने का काम करे. चैनलों में इतनी समझदारी अभी भी है कि वो मौके के हिसाब से खबरों को प्रसारित करती है। दो-तीन चैनल इसके भले ही अपवाद हो सकते हैं, इसे भी सरकार के डंडे नहीं बल्कि देर-सबेर ऑडिएंस ही निकाल-बाहर कर देगी।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/12/blog-post_07.html?showComment=1228663020000#c5863608735092918911'> 7 दिसंबर 2008 को 8:47 pm बजे
मीडिया की आजादी के लिए आवाज बुलंद करते रहें। हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/12/blog-post_07.html?showComment=1228718580000#c6911529281066241984'> 8 दिसंबर 2008 को 12:13 pm बजे
गाहे-बगाहे को एक वर्ष पूर्ण करने पर बधाई। यह सही है कि चैनल के कारण लोगों में जागृति आई और आम लोगों तक बात पहुंची। परंतु इसकी अति भी नहीं होनी चाहिए। इतना ओवेर-एक्स्पोजर हो गया कि सरकार की निकृष्टता के बावजूद आज ४ राज्यों में वह अपना वर्चस्व बना गई!