मेरे लिए ये दूसरा मौका था जब नामवर सिंह ने कहा कि मैं रचना तो पढ़कर नहीं आया सो मैं इस पर बात नहीं कर सकूंगा। हो सकता है नामवरजी ने इधर नई विधा विकसित कर ली हो कि जिस रचना पर बोलने जाना है उसे पढ़कर ही मत जाओ और पहले ही ये बात श्रोताओं के सामने साफ कर दो। हिन्दी के कार्यक्रमों में कम ही जाना होता है इसलिए इस बारे में ज्यादा अनुभव नहीं है। रचना पढ़कर नहीं आते और ये मंच से कहते भी हैं तो एक घड़ी को लगता है कि आदमी में इतनी ईमानदारी तो है कि सीधे-सीधे एक्सेप्ट कर रहा है, मन में आदर का भाव पैदा होता है लेकिन आगे जो कुछ भी कहते हैं उससे लगता है कि ये आदमी साफ-साफ एक स्ट्रैटजी के तहत ऐसा करता या कहता है। क्योंकि हर बार आगे कह जाते हैं कि कुछ आलोचकों में ये प्रतिभा होती है कि वे बिना रचना पढ़े घंटे-आध घंटे तक बोल जाते हैं, मुझमें ये प्रतिभा नहीं है। माफ कीजिएगा नामवरजी मैंने अपने जानते डीयू के हिन्दी विभाग या फिर सराय में ऐसे लोगों को व्याख्यान देते हुए नहीं सुना है जो कि बिना पढ़े-लिखे चले आते हैं। ये अलग बात है कि वे आपके जैसे विद्वान नहीं होते। इसलिए बार-बार आप जो ये बात कह जाते हैं उसका कोई कॉन्टेक्सट ही नहीं बैठता। आप भी पढ़कर नहीं आते और बोलते तो हैं ही. लेकिन उन लोगों पर पहले ही कोड़े बरसाकर आप उनसे अपने को अलग कर लेते हैं। ये अपने ढ़ंग की हेजेमनी है, अपने को बेहतर समझने का बोध। आप हमेशा ये मान कर चलते हैं कि मैं रचना न पढ़कर भी जो कुछ बोलूंगा वो रचना पढ़कर बोलने वालों से भारी पड़ जाएगा।
दूसरी बात जो मुझे लगती है कि आप इसलिए भी रचना पढ़कर नहीं आने की बात करते हैं क्योंकि आपकी ये स्ट्रैटजी होती है कि ऐसा करने से आपको जो मन आए बोलने की छूट मिल जाएगी और हिन्दी समाज तो मान ही रहा है आपको हिन्दी की दुनिया का अमिताभ बच्चन। लेकिन आप उसी गंदी हरकत के शिकार हैं जिसका कि अक्सर हिन्दी के स्टूडेंट होते हैं। पूछा कुछ भी जाए वो वही लिखेगा जो वो लिखना चाहता है। उसके दिमाग में होता है कि मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा।
ये सही बात है कि आपका कद इतना तो है कि आप कुछ भी बोलेंगे सुर्खियों में आ जाएगा या कुछ नहीं भी बोलेंगे सिर्फ आ ही जाएंगे तो आपकी तस्वीर लगेगी और बाकी बातें रिपोर्टर्स अपने हिसाब से कर लेगा। चैनल वाले विजुअल्स आपके दिखाएंगे और वक्तव्य आपसे छोटे( मेरे हिसाब से कोई छोटा नहीं) लोगों के या फिर वीओ चला देगा। हिन्दी मीडिया तो आपके लिए इतना तो कर ही सकता है।
नामवरजी आपको नहीं लगता कि अपने पहले ही लाइन में आप रचना पर बातचीत करने से निकल जाते हैं। कल ही आपने क्या किया- नाम पर अड़ गए कि बहरुपिया शहर नाम ही भ्रामक है, गुमराह करने वाला है। उसके बाद आप सराय और अंकुर के नाम की समीक्षा करने लग गए। पता नहीं आपको ये सब अटपटा क्यों नहीं लगा। आप जब बोल रहे थे तो कहीं से नहीं लग रहा था कि आप रचना पर बात करने आए हैं. ये मैं सिर्फ हिन्दी में ही देखता हूं कि यहां डिस्कशन या वक्तव्य के नाम पर भाषणबाजी होती है और बाहर लोग वाह नामवर वाह नामवर करके निकलते हैं गोया आपने अंदर आलोचना नहीं कविता पाठ किया हो। ये पहली दफा मेरे साथ हुआ कि मैं आपकी अधूरी बात के बीच ही निकल गया। क्योंकि मुझे लगने लगा कि आपने ये ट्रैंड बना लिया है कि पाठ पर बात करने के समय ऐसा ही करना है। अच्छा अगर आप विजी रहा करते हैं तो फिर इस बडप्पन से कैसे घोषणा कर दी कि अब तक तो इस किताब को देखा नहीं था लेकिन आज पूरी किताब पढ़कर ही सोउंगा। ताली पिटवाने की कला के तो हम पहले से ही कायल हैं। लेकिन जमाना बदला है गुरुदेव अब लोग कंटेंट भी खोजने लगे हैं और उसके नाम पर आपने सिर्फ इतना ही कहा लेखकों से कि राजभाषा या फिर शुद्ध हिन्दी में मत लिखने लग जाना। आज कौन नहीं जानता कि रॉ में लिखना ज्यादा सही होता है। अस्मिता विमर्श पूरी तरह इसी राइटिंग पर टिका है। आपने नया क्या कह दिया।
हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि हिन्दी में सबसे श्रेष्ठ हैं और रहेंगे भी क्योंकि उमर भी कोई चीज होती है। लेकिन आप इस बात को मानिए कि अब बोलने की शैली पर मंत्रमुग्ध होनेवाली ऑडिएंस की संख्या घटी है वो कंटेंट भी चाहती है, जिसके लिए आप जब तब लोगों को निराश कर देते हैं।
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कल के कार्यक्रमों की रुपरेखा इस प्रकार थी-
'बहुरूपिया शहर'के 20 लेखकों को पुरस्कार महोदय,आपको यह जानकर हर्ष होगा कि राजकमल प्रकाशन द्वारा (अंकुर ःसोसायटी फॉर आल्टर्नेटिव्ज़ इन एजुकेशन तथा सराय, सीएसडीएस की साझीदारी में) प्रकाशित पुस्तक 'बहुरूपिया शहर' के सभी 20 लेखक को कृष्णा सोबती ने अपनी पहलक़दमी पर पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है।'बहुरूपिया शहर' के लेखक वे 'युवा लेखक' नहीं हैं जिन्हें आप आम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं, ज़िन्दगी की पाठशाला में सीधे ज़िन्दगी से सीखने-पढ़ने वाले ये वे लोग हैं जिन्होंने क़लम को शौक़ नहीं, ज़रूरत के तौर पर पकड़ा है। इसलिए हमारी विशिष्टतम कलमकार कृष्णा सोबती ने इस पर एकदम नए ढंग से प्रतिक्रिया की और यह निर्णय लिया। कार्यक्रम 21 जनवरी, 2008 को शाम 4:30 बजे, सराय, सीएसडीएस29 राजपुर रोड, दिल्ली-54 में आयोजितकिया जाएगा।अध्यक्षता : डॉ. नामवर सिंहवक्ता : श्री अपूर्वानन्द( नोट : कार्यक्रम स्थान सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन के समीप हैं।)आप सादर आमन्त्रित हैं।भवदीयअशोक महेश्वरी(प्रबन्धक निदेशक) दिनांक : 16 जनवरी, 2008 --
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1200976980000#c1318830725632319544'> 22 जनवरी 2008 को 10:13 am बजे
सही है.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1200981780000#c1921065395676285709'> 22 जनवरी 2008 को 11:33 am बजे
नामवर सिंह के बारे में आपकी एक ही लाइन पर्याप्त है कि.....
हिन्दी में सबसे श्रेष्ठ हैं और रहेंगे भी क्योंकि उमर भी कोई चीज होती है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1200987300000#c7989251087127465077'> 22 जनवरी 2008 को 1:05 pm बजे
सुबो सुबो दिल खुश कर दिया भाया खरी खरी कहके!!
वैसे एक बहस को जन्म दिया है आपने इसलिए साधुवाद स्वीकार करें
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1200992340000#c6592653332771587813'> 22 जनवरी 2008 को 2:29 pm बजे
भैया यह तो सभी जगह (ब्लॉगजगत) चलता है बिना पढे ही कोई सामग्री उत्कृष्ट होजाती है और कोई व्यर्थ!
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1201000680000#c5861964431835437148'> 22 जनवरी 2008 को 4:48 pm बजे
बढ़िया। खरी-खरी कही।
नामवरजी अपने आलोचकों की इस तरह की बातें सुनकर नजरंदाज ही करते रहे हैं। अब इस उम्र में वह क्या बदलेंगे! जब तक लोग उन्हें मंचों पर बुला रहे हैं, सुन रहे हैं और तालियाँ बजा रहे हैं तब तक वे भला अपना यह अंदाज क्यों बदलने लगे !
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1201009560000#c306489820164364888'> 22 जनवरी 2008 को 7:16 pm बजे
आप को बुरा लगा,आप उठ कर चले गये.
किंतु कितनों ने ही हिन्दी के इन नामवर जी को फिर भी सुना. कान लगा कर सुना ,ध्यान लगाकर सुना.
मुझे तो हिन्दी के अधिकांश समकालीन आलोचक नितांत खोखले ( थोथा चना ,बाजे घना),अधकचरे ज्ञानी ,शोशेबाज़ ही ज्यादा नज़र आते हैं. और यदि उन पर 'प्रगतिशील' का तमगा लगा हो तो समझो बस अति हो गयी,
(हे प्रभु!!!, बचा लो)
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1201011600000#c2860303915894958784'> 22 जनवरी 2008 को 7:50 pm बजे
Namwar ji aalochna ke test player na rehkar twenty twenty ke khiladi ban ne ki oor chal diye hai.namwar ji ka manch lutne ki hasya kaviyo ki aadat ish umar mein lagna mere jaise logo ko sahi mein dukhi karta hai.jaane dijiye no doubt woh sahitya ke amitabh hain par aap bhul rahe hai amitabh ji bhi "BOOM"or "SHABD" jaisi filmein ishi umar mein kiye hain.....so saathe ke kaafi samay beetne ke baad bhi paathe hain namwar......bas dekhiye aur batti lagate(mera matlab jalate)rahiye
keep it up...
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1201261440000#c8445367804452939047'> 25 जनवरी 2008 को 5:14 pm बजे
solah aane sach kha jnab, pta nahi vahi gisa pita rag alapne me konse gurave ki baat hai , mera manna hai ki yadi aap kisi bhi badi hasti ke roop me koi pehchan banate hai to aapka pehla ferz us image ko bnay rakhne ka hai. ye baat un mhashey per to lago hoti hi hai jo alochak ke roopme boolne aye the ,aur un logoon per bhi lagoo hoti hai jo unke tatkaleen swabhav se wkif hote huy bhi unhe amantarit karty hai. bachoon per jati band karo ,unhe kuchh sikhana chahte ho to kuchh karne, bolne, sochne ki aazadi do.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_22.html?showComment=1202981880000#c977929784729218829'> 14 फ़रवरी 2008 को 3:08 pm बजे
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